Saturday, October 11, 2008

प्रकृति हमें अच्छी लगती है...

'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- का एक पक्षी,
हमने अपने घर के पिंजरें में बंद कर रखा है।
और एक फूल ग़मले में उगा रखा है।

'हमें सुखी रहना चाहिए'- की हँसी,लोगों को बाहर तक सुनाई देती है।
दुख की लड़ाई और रोना भी है,पर वो सिर्फ इसलिए कि खुशी का पैमाना तय हो सके।

'बुज़ुर्गों की इज़्ज़त के माँ-बाप'- घर के कोनों में,ज़िंदा बैठे रहते हैं।

'जानवरों से प्रेम'- की एक बिल्ली,घर में यहाँ-वहाँ डरी हुई घूमती रहती है।
'इंसानों में आपसी प्रेम है'- के त्यौहार,हर कुछ दिनों में चीखते-चिल्लाते नज़र आते हैं।
पर वो सिर्फ इसलिए कि 'इंसान ने ही इंनसान को मारा है'-की आवाज़ें हमें कम सुनाई दें।

'हमको एक दूसरे की ज़रुरत है'- के खैल,हम चोर-पुलिस, भाई-बहन, घर-घर, आफ़िस-आफ़िस के रुप में, लगातार खेलते रहते हैं।

पर इस सारी हमारी खूबसूरत व्यवस्था में,
हमारे 'नाखू़न बढ्ते रहने का जानवर भी है।
जिसे हमने भीतर गुफा में,धर्म और शांति की बोटियाँ खिला-खिलाकर छुपाए रखा है।

और फिर इन्हीं दिनों में से एक दिन....
'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- के पक्षी को,
'जानवरों से प्रेम की बिल्ली'- पंजा मारकर खाँ जाती है।
'हमारे नाखून बढते रहने का जानवर'-गुफा से बाहर निकलकर बिल्ली को मार देता है।
'वहाँ बुज़ुर्गों की इज़्ज़त के माँ-बाप'-चुप-चाप सब देखते रहते है,
और घर में 'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- का पिंजरा,बरसों खाली पड़ा रहता है।

1 comment:

Zorba said...

it was great to be at platform performance yesterday.


kumud ji ne sugandh daali, jo aap ke shabdo ke rang mein thik jaa ke ghulmil gayi thi.



scooterwale aadmi ke sath milte hai.

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मानव

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल