Tuesday, June 9, 2009

बेंग्लौर....


 

देर तक रुम में रहा... दिन में लंच करने चला गया। वँहा menu में rabbit लिखा हुआ था... मैंने खरगोश कभी भी किसी menu में नहीं देखा था मैं चौंक गया। मैंने पूछा तो पता लगा कि खरगोश नहीं है...। खाना ठीक था... तभी एक सज्जन मेरे सामने आकर बैठ गए। कन्नड़ थे... मैं मुस्कुरा दिया.. यूं इस तरह किसी अजनबी के साथ खाना खाने की आदत नहीं रही, पर उन्होने मेरी मुस्कुराहट को नज़रअंदाज़ कर दिया। खाना खाते हुए थोड़ी ही देर में, उन सज्जन की उपस्थिति के बावजूद मैं अकेला हो गया, अपने लिखने की प्रक्रिया के बारे में सोचने लगा। मैं कहीं किसी एक जगह पर जाकर क्यों बार बार रुक जाता हूँ। सोचता हूँ orhan pamuk की तरह कहानी को पहले हिस्सों में बांटू, फिर उसे सिलसिलेबार लिखना चालू करुँ। जिससे शायद यह पता हो कि कहाँ शुरुआत है और कहाँ जाना है। इसी तरीक़े की लेखनी मुझे पसंद नहीं आई है कभी... मैं शायद यह कभी भी नहीं कर सकता हूँ। मुझॆ लेखन इसलिए अच्छा लगता है कि वह जीवन के बहुत करीब है, आगे क्या होगा कुछ भी पता नहीं है, नाटक भी इसीलिए अच्छे लगते है, वह भी बिल्कुल जीवन के क़रीब हैं, उन्हें रोज़ जीना पड़ता है... जैसे जीवन चाहे जैसा भी हो आपको रोज़ जीना पड़ता है, ठीक वैसे ही नाटक चाहे आपने कितना भी अच्छा क्यों ना कर लिया हो... आपको उसे हर नए दिन में फिर से करना पड़ता है।

खाना खने के बाद मैं अपने कमरे में आया... कुछ देर llosa पढ़ता रहा... फिर लगा कि नाटक पर थोड़ा काम कर लेना चाहिए...। तेंदुलकर की स्क्रिप्ट (पंछी ऎसे आते हैं...) उठाकर रंग शंकरा थियेटर चल दिया। मेरे होटल के बाहर ही पार्क़ है, दोपहर में जवान जोड़े अलग-अलग बिख़रे हुए... अपने कोनों में दुबके नज़र आते है...। लगभग हर जोड़े में लड़की लड़के की तरफ देख रही होती है और लड़का उसकी आँखों को बचाते हुए... उसके जवाब ढूढ़ रहा होता है। मैं अपनी ग़ली के बाहर निकला... पैदल करीब बीस मिनिट का रास्ता है रंग-शंकरा तक। रास्ते में कुछ कन्नड़ फिल्म के पोस्टर्स दीवारों पर देखने की मेरी आदत पड़ी हुई है... आज एक नई फिल्म का पोस्टर था... पर कह वही बात रहा था... नायक खून में लथपथ.... नाईका चुलबुली सी, जीवन की सारी सुख-सुविधाओं से खुश...। मैं हर बार इन पोस्टर्स को देखकर हँसने लगता हूँ... कि फिर एक अजीब सी पीड़ा भी महसूस करता हूँ... कितना खूबसूरत आर्ट है फिल्म बनाने का... और हम कैसे बच्चों जैसी फिल्में बनाते हैं। आगे कुछ झुग्गीं पड़ती हैं मैंने हमेशा इसमें लोगों को या तो खाना बनाते हुए देखा है या पानी की एक लंबी लाईन में खड़े होते। आगे ही एक मंदिर आता है जो काफी बड़ा है... चौड़ाई में...। उसमें लगातार कुछ ना कुछ काम चलता रहता है...उसे और बड़ा और विशाल बनाने का। मैं हमेशा आश्चर्य करता हूँ... हमारे unknown की तलाश हमें कभी-कभी कितना अंधा बना देती है कि ... हम जीवित लोगों के बारे में कभी कुछ सोचते ही नहीं है... हम निर्जीव में अपना पूरा ध्यान लगाए रहते है... यह स्वर्ग के लिए प्वाईंट्स बटोने की कला मुझे बहुत ही हास्यास्पद लगती है... फिल्मों के पोस्टर सी।

रंग शंकरा पहुँचा... कन्नड़ में तेंदुलकर कर रहा हूँ... लगभग 70% प्ले काट चुका हूँ... कुछ दस-बारह सीन नए लिखे हैं... जय थियेटर का अच्छा लड़का है वह मेरे हिन्दी में लिखे दृश्यों को कन्नड़ में ट्रांस लेट कर रहा है।

      बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं का दुख मेरे पूरे शरीर से छलक रहा है। मैं खुद भी इंतज़ार कर रहा हूँ... किसी का... किसका? यह मेरी समझ के बाहर है। कुछ ही देर में रुम अभिनेताओं से भर गया... सभी लगभग कन्नड़ में बात कर रहे थे। मैं इन कबूतरों में कौवे सा अपनी जगह ढूढं रहा हूँ।

5 comments:

ravindra vyas said...

good one!
रघुवीर सहाय की तर्ज पर कहना चाहता हूं- लिखो, लिखो, जल्दी लिखो।

Bhawna Kukreti said...

आज आपके ब्लॉग पर पहली बार आई। आप कलाकार हैं और आपके लेखन का तरीका मुझे बहुत पसंद आया जैसे किसी के साथ चलते चलते बातें करना ....बहुत अच्छा लगा , अब आपकी अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा ।
भावना

उपाध्यायजी(Upadhyayjee) said...

Indiranagar 100Ft road par Chettinad (Anna Chi) sach much me rabit meat serve karta hai :).

P.N. Subramanian said...

कबूतर बन जाईये और सुखी रहिये.

ghughutibasuti said...

मानव आज बहुत समय बाद आपका लिखा देखा, अच्छा लगा। खूब लिखते हो। आज का लिखा मुझे कर्नाटक में बिताए समय की याद दिला गया। यह रेबिट था क्या?
घुघूती बासूती

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल