Friday, August 28, 2009

अलस्य सुबह... (डायरी..)

15th August.09,

अलस्य सुबह, निकल जाने की इच्छा है, कल  Arena - The Orson Welles Story देखी…. बहुत उमदा थी। उसने अंत में कहा था कि “(I have wasted my life in making films) मैने शायद अपना जीवन फिल्में बनाने में बरबाद कर दिया। शायद मैं और कुछ करता तो वह ज़्यादा संतोषजनक होता… पर यह वैसा ही है कि आप एक लड़की से प्रेम करते है और कह रहे हैं कि अगर मैं उसे छोड़ देता तो जीवन में कुछ कर सकता था…. फिल्म बनाने में सिर्फ 2% ही फिल्म बनाना है 92% महज़ जुगाड़ है।“

बस…. बस… बस….।

16thAugust.09,

अलस्य सुबह, देर तक रहने वाली है। बारिश रात से थमी नहीं है, बारह नम्बर कमरे में देर तक करवटे बदलने के बाद अभी चाय सामने है… बारिश हो रही है… धुंध, राख की तरह चारों ओर फिकी पड़ी है। कल burn after reading, film देखी। अच्छी फिल्म है। ’चुप्पी’ के बारे में सोच रहा हूँ, bukowiski खलनायक नज़र आ रहा है। आज आखिरी दिन है… बहुत लिखने की इच्छा थी… पर लिख नहीं पाया… एक कहानी लिख सकता था जो काफी समय से भीतर धूम रही है। कहानी जैसा नाटक लिखने लगा ’चुप्पी’। अगर तो यह नाटक मैंने लिखकर खत्म कर दिया, जो अभी बहुत ही कठिन नज़र आ रहा है, तो एक संतुष्टी होगी। मैं कुछ यहीं शुरु करना चाह रहा था… पुराना लिखा हुआ कहीं ओर जाकर पूरा कर लेने में मुझे बेईमानी सी लगती है… लगता है कि चौरी से पूरा कर लिया। अगर यह नाटक दिमाग़ में बना रहा तो एक लय के साथ पूरा हो जाएगा… रुक गया तो मुश्किल है।

बहुत दिन हो गए है बंबई छोड़े हुए… जब सोचता हूँ कि वहाँ जाकर क्या करुगाँ… तो कोई काम नज़र नहीं आता है, वापिस जाने की इच्छा फिर मर सी जाती है। play direct करने की इच्छा बढ़ी हुई है अपना नहीं किसी दूसरे का…। सोचता हूँ इतने दिन NSD में हूँ तो रोज़ दो प्ले पढ़ूगाँ… और कुछ प्ले चुनुगाँ जिसे मैं direct करुँ भविष्य में…। भविष्य की बात करते ही लगता है कि यह एक तरह की मृगमारीचिका है… जो अभी नहीं किया वह मैं कभी भी नहीं कर सकता हूँ। अब इसमें किया/जिया हुआ सत्य है या मृत… आलम्मा, नित्शे, UG… के हिसाब से मृत है… निर्मल वर्मा, orhan pamuk के हिसाब से सत्य…।

बहुत इच्छा है कि विनोद कुमार शुक्ल से मिलू… एक केमेरा लेजाकर उनका interview shoot करुँ…। हाँ यह करने की इच्छा है…. Interviews mukunda rao, सारा राय, दया बाई… इन लोगों के interview shoot करने निकलूगाँ…. जल्द… जल्द यह करुगाँ।

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मानव

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल