Tuesday, April 13, 2010

बेमतलब के खर्च....


देर रात,
इन दिनों की क्या कहें? यूं पड़े-पड़े गुज़र रहे हैं मानों बेमतलब के खर्चे। शाम के वक़्त कुछ चिल्लर बची रह जाती है जिन्हें घर में चारों तरफ बिखेर देता हूँ। फिर देर रात तक उनसे लुका-छिपी का खेल खेलता हूँ। जब तक अंतिम सिक्के पर पहुंचता हूँ नींद आ जाती है। पर आज रतजगा है... क्योंकि अंतिम सिक्का अभी भी मिला नहीं है। सारे सिक्कों को कई बार गिन लेने के बाद भी कुछ कमी है... एक अंश गायब है... की टीस भीतर है। कैसे इस टीस के साथ सोया जाता है? यह हुनर बहुत समय बाद ही आता है शायद। हर बार घड़ियाल पर निग़ाह जाते ही मैं खुद को कोसने लगता हूँ... क्यों नहीं खर्च कर देता मैं इन सिक्कों को भी? क्यों हर बार बचा लाता हूँ इन्हें? किस तरह का मनोरंजन है यह?
पिताजी की याद हो आई... वह इस वक़्त हस्पताल में हैं...। वह अपनी चोर जेब में सिक्के छुपा के रखा करते थे। जब भी बहुत लाड़ करता, उनके गालों को चूम-चूम कर गीला कर देता तो वह दो रुपये का एक सिक्का मुझे दे देते। मैं भाग खड़ा होता। मैं उन्हें कभी भी स्वार्थी नहीं लगा... पर मैं स्वार्थी हूँ। आज भी मैं आपना दो रुपये का सिक्का मुँह में दबाए यहाँ बैठा हूँ... जबकि वह वहाँ हैं।
’बेमतलब के खर्चे’ अपनी विचित्र दुनियाँ इख़्तियार कर चुके हैं। इसमें किसी के आने के इंतज़ार की गुदगुदी उसके आने को नीरस कर देती है। इसमें कहीं चला जाऊगाँ की उछाल बिस्तर के आस पास ही कहीं होती है। इसमें ’कुछ हो रहा है’ की उम्मीद... बिल्ली है जो ’कुछ नहीं हो रहा है’ के चूहों को मारते चलती है। इसमें रात हमेशा घर को बड़ा कर देती है... जबकि दिन में घर वापिस एक कमरे की गुफा हो जाता है। इसमें शहद का एक छत्ता बुन्ने की त्तृप्ते है पर शहद हमेशा दूसरों ही चखते हैं की हताशा भी है। इसमें नींद पर तब तक बस है जब तक दिन भर के बेमतब के खर्च हो जाने पर रात को अंतिम सिक्का हाथ लग जाता है। इसमें सब कुछ है और इसमें कुछ भी नहीं है।

2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत शान्त हलचल है..

सागर said...

pehli baar apke blog par aaya... bahut sukhad anubhav raha... shukriya...

"LIKHNA WAKAI SAKRIYATA BHARI UMMED HAI"

WAITING FOR YOUR NEXT.

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल