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अभी तक कोई coffee वाला नहीं दिखा... खार स्टेशन पास ही है.. चाय पी लू जाकर.. नहीं।पीडा को अगर उसकी पूरी सम्पूर्णता से जीना है तो रुकना कायरता होगी।
वैसे मुझे़ इस शहर की ये सड़क काफी़ अच्छी लगती है... कोई ठोस कारण नहीं... बस.. एक बार मैं देर रात, फ़िल्म देखने के बाद, कुछ दूर तक, अपना रिक्शे का किराया बचाने के इरादे से पैदल चल रहा था... ये शायद मेरी बीमारी के शुरुआती दिन थे...थकान काफी हो रही थी, तभी मुझे सामने के बस स्टाप पर एक लड्की खडी दिखी,वो रिक्शे में बैठे आदमी से बहस कर रही थी... रात में, इस शहर में इस तरह की गतिविधी का में आदि हो चुका था। जैसे ही मैं पास पहु़चा उस लड़की की निगाह मुझसे मिल गई, में कुछ झेंप सा गया, और ये मेरी गलती थी। सभ्य समाज का तमगा जो हम सब ऎसे समय अपने मूंह पे चिपका लेते है, मैं भी चिपका चुका था। लड़की ने तुरंत अपनी आँखे नीचे कर ली... शायद वो इस धंधे में अभी नई थी, इसलिये उसने अभी तक लज्जा का रुमाल अपनी उगंलियों दबाए रखा था। ये मेरी ही गलती थी... मैं ही वो तमगा अपने चेहरे से जल्दी हटा न सका...फिर देर हो गई और मैं उसे हटा भी नहीं पाया...। मुझसे निगाह मिलते ही, वो अपने ग्राहक से बहस करते-करते चुप हो गई थी। मैं अब उस बस स्टाप को क्रास कर रहा था...उसे देखते हुए। पर उसकी आँखे नीचे थी, शायद वो अपने लज्जा के रुमाल को ताक रही थी। वो चुप थी, रिक्शे में बैठा आदमी अभी भी ऊचें स्वर में बोले जा रहा था। मैं शायद अभी भी सिर्फ इसीलिये उसे देख रहा था कि माफी मांग सकूं... पता नहीं।
अचानक उसकी आँखे मुझसे मिली, मुझे लगा वो अपनी निगाह तुरंत हटा लेगी पर नहीं... वो मुझे देखती रही, मैं अपनी निगाह हटाना चाहता था, पर लाख कोशिश के बाद भी मैं हटा नहीं पाया। मैं उस बस स्टाप को, उस रिक्शे को, उस लड़की को क्रास कर रहा था... मुझे लगा मैं एक घंटे से उसे क्रास ही कर रहा हूँ, पर क्रास नहीं कर पा रहा हूँ। अंत में मैं वहां से आगे निकल आया। पर उस लड़की की आँखे अभी तक मैं भूला नहीं हूँ, या शायद सभ्य समाज का तमगा दिखाने का गुस्सा है... जो वो निगाह याद रह गई।
इसिलिये जब भी में इस सड़क पे चलता हूँ... मुझे वो लडकी, उसकी आँखे... और अभी तक ज़िदा मेरी माफ मांगने की इच्छा, सब याद आ जाते हैं।और ये सड़क मुझे, इस शहर की बाक़ी सड़को की बजाए, थोड़ी ज्यादा अपनी लगने लगती है।
खैर वो बस स्टाप जिसपे वो लड़की खडी थी, अभी खाली पड़ा है। इच्छा थी यहां थोडी देर बैठ जाऊ... पर अगर मैं बैठ गया तो उठ नहीं पाऊगां, सो मैं उस लडकी की निगाह साथ में लिये आगे चल दिया।...
अभी तक कोई coffee वाला नहीं दिखा... खार स्टेशन पास ही है.. चाय पी लू जाकर.. नहीं।पीडा को अगर उसकी पूरी सम्पूर्णता से जीना है तो रुकना कायरता होगी।
वैसे मुझे़ इस शहर की ये सड़क काफी़ अच्छी लगती है... कोई ठोस कारण नहीं... बस.. एक बार मैं देर रात, फ़िल्म देखने के बाद, कुछ दूर तक, अपना रिक्शे का किराया बचाने के इरादे से पैदल चल रहा था... ये शायद मेरी बीमारी के शुरुआती दिन थे...थकान काफी हो रही थी, तभी मुझे सामने के बस स्टाप पर एक लड्की खडी दिखी,वो रिक्शे में बैठे आदमी से बहस कर रही थी... रात में, इस शहर में इस तरह की गतिविधी का में आदि हो चुका था। जैसे ही मैं पास पहु़चा उस लड़की की निगाह मुझसे मिल गई, में कुछ झेंप सा गया, और ये मेरी गलती थी। सभ्य समाज का तमगा जो हम सब ऎसे समय अपने मूंह पे चिपका लेते है, मैं भी चिपका चुका था। लड़की ने तुरंत अपनी आँखे नीचे कर ली... शायद वो इस धंधे में अभी नई थी, इसलिये उसने अभी तक लज्जा का रुमाल अपनी उगंलियों दबाए रखा था। ये मेरी ही गलती थी... मैं ही वो तमगा अपने चेहरे से जल्दी हटा न सका...फिर देर हो गई और मैं उसे हटा भी नहीं पाया...। मुझसे निगाह मिलते ही, वो अपने ग्राहक से बहस करते-करते चुप हो गई थी। मैं अब उस बस स्टाप को क्रास कर रहा था...उसे देखते हुए। पर उसकी आँखे नीचे थी, शायद वो अपने लज्जा के रुमाल को ताक रही थी। वो चुप थी, रिक्शे में बैठा आदमी अभी भी ऊचें स्वर में बोले जा रहा था। मैं शायद अभी भी सिर्फ इसीलिये उसे देख रहा था कि माफी मांग सकूं... पता नहीं।
अचानक उसकी आँखे मुझसे मिली, मुझे लगा वो अपनी निगाह तुरंत हटा लेगी पर नहीं... वो मुझे देखती रही, मैं अपनी निगाह हटाना चाहता था, पर लाख कोशिश के बाद भी मैं हटा नहीं पाया। मैं उस बस स्टाप को, उस रिक्शे को, उस लड़की को क्रास कर रहा था... मुझे लगा मैं एक घंटे से उसे क्रास ही कर रहा हूँ, पर क्रास नहीं कर पा रहा हूँ। अंत में मैं वहां से आगे निकल आया। पर उस लड़की की आँखे अभी तक मैं भूला नहीं हूँ, या शायद सभ्य समाज का तमगा दिखाने का गुस्सा है... जो वो निगाह याद रह गई।
इसिलिये जब भी में इस सड़क पे चलता हूँ... मुझे वो लडकी, उसकी आँखे... और अभी तक ज़िदा मेरी माफ मांगने की इच्छा, सब याद आ जाते हैं।और ये सड़क मुझे, इस शहर की बाक़ी सड़को की बजाए, थोड़ी ज्यादा अपनी लगने लगती है।
खैर वो बस स्टाप जिसपे वो लड़की खडी थी, अभी खाली पड़ा है। इच्छा थी यहां थोडी देर बैठ जाऊ... पर अगर मैं बैठ गया तो उठ नहीं पाऊगां, सो मैं उस लडकी की निगाह साथ में लिये आगे चल दिया।...
9 comments:
Achha likhte ho dost keep it up & up
बढ़िया किस्सागोही...
मानव भाई, आपका लिंक मिल गया था. आज समय मिला तो देखा. अच्छी शुरुआत है. इस तरह एक नियमित संवाद का मंच बना है. उम्मीद है इसी तरह आगे भी आपकी दुनिया से परिचित होने के मौक़े मिलते रहेंगे. आपका ब्लॉग खुलने में सामान्य से अधिक समय लगा रहा है. कुछ कीजियेगा. शुभकामनाएँ.
aapki kavitaayen padhin...achhi lagin....ye SAAYE bhi chitra saa bun rahay hain.....badhiyaa
GOOD START....KEEP IT UP...
Hi manav
Very well written!
Beautiful Boss. Am I getting addicted to your posts ??
Hey Manav,
Am glad you started a blog. I will keep coming back to it. Just came here to mark my presence. Will read it later as right now I am undeer the influence of beer in Istanbul. Will read it when sober. Good wishes. It looks very nice even in my state of inebriation.
:)
Manav... great to see your blog..yay..hurray...yay....
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