Friday, February 22, 2008

अंतिमा...

मैंने अपने उपन्यास में कहीं लिखा है..

'बचपन के खेल से लेकर बडे़ होने के दुख तक'

...उपन्यास की reading के दौरांन मैंने ये वाक्य पढा और पता नहीं क्या हुआ, मैं आगे बढ ही नहीं पाया ...मैं रुक गया..मैंने इसे फिर पढा़... और मैं चुप हो गया। कुछ साल पहले लिखे इस वाक्य ने जैसे मुझे झंझोड के रख दिया।फिर मुझे अचानक अपनी लिखी कविता का एक वाक्य याद आ गया...


कुछ चेहरे थे, जो इसीलिये धुंध में ख़ो गये थे, कि हम बडे हो सकें,
और हम बडे होते गये।


मैं काफ़ी देर तक चुप रहा, मुझसे आगे उपन्यास नहीं पढा जा रहा था।
पर मैं पढता गया...

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