Tuesday, February 26, 2008

अपने से...



कल रात नींद आँखो में आ जा रही थी, बाकी बची देह सो चुकी थी। मैं अपने आज के बीते हुए दिन के बारे में सोच रहा था।थोड़ा कहीं बीच में जी लिया, कहीं बीच में रह गया.. कहीं कुछ छूटते-छूटते पकड़ लिया। इस तरह से दिन तमाम हुआ।
इन बहुत सारे ऎसे बीत दिनों में, मुझे कितने दिन याद हैं ???... अगर इसमें सिर्फ जिए हुए को हिस्साब में रखूं... तो हमारी उम्र कितनी कम हुई !!! बहुत कम..। मैं शायद महीना भर पहले ही पैदा हुआ हूँ... नहीं पर मेरे पैदा होने की ' जी हुई याद' किसी और की है.. उसे मैं अपने दिनों में शामिल नहीं कर सकता।सो हमने कब से,कहां से जीना शुरु किया इसका हिसाब बहुत कठिन है , और उम्र कम होने की खुशी भी नहीं हैं।:-)

नींद का एक झोंका आया.. पता नहीं कितनी देर मैं सोया था... फिर आँखे काफी समय तक खुली ही थी,मैं अचानक उन दिनों के बारे में सोचने लगा जो पकड़ में रहते थे।मिट्टी में, धूल में सने हुए दिन...।पलक झपकती थी और बीत जाते थे...। उन्हीं दिनों के ढे़रों छोटे-छोटे मक़सद हुआ करते थे। वो सारे मक़सद उसी दिन शुरु हो्ते और उसी दिन खत्म भी हो जाते। कल आएगा कि नहीं, ये कभी सोचा नहीं। 'कल' को हमारी जितनी चितां थी, उतनी ही हमें कल की। साफ-साफ सा जीते थे.. और खुद पूरे गंदे रहते थे।
अब हमने खुद को पूरा साफ करके रखा है...एकदम चकाचक। सामने गंद्ले से दिन पड़े दिखते है... जिन्हें हम कल्पना के साफ कल में धकेल देते हैं।
'खुद गंदे हो जाएगें' के डर से हम आज जी नहीं पाते... और कल, कल है कि साला कभी आता ही नहीं।:-).

5 comments:

  1. अच्छा आत्ममंथन किया है।

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  2. भाव अच्छे है।

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  3. ऊपर वाला कमेंट हटा दें, उसमें कोई गड़बड़ी है।

    - आनंद

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  4. Aapko jitna bhi padhlo,kabhi enough nhi lagta..har article mei kuch alag hai aur har article seedhe dil chhu leta hai!I guess I can never put into words what i feel about your writings..expect the fact that it is one of the best that i have ever read!Bas likhte rahe kyunki aapki har post ek treat hai hum sab ke liye!

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