Friday, March 14, 2008

अपने से...


बहुत देर तक समुद्र को देखते रहने से भी, समुद्र ने कोई सहायता नहीं की, वो सदियों से चले आ रहे- 'अपनी लहरों के हथीयार से, ज़मीन से चल रहे अपने संधर्ष'- में उलझा हुआ था। उसकी सदियों से चली आ रही नीरसता, उसके ही प्रति मेरी सांत्वना को बढा रही थी। पलके हल्की भारी हो रही थी.. नींद अपनी उम्मीद बढा रही थी.. मैं अपनी जर्जर देह लिए इन भीतर की समस्यांओं से जूझ रहा था। उम्मीद, समुद्र में बहुत दूर दीख रही छोटी छोटी नावों में जल रहे बल्ब की तरह थी... जिनकी काफ़ी समय किनारे आने की कोई आशा नहीं थी। मैं काफ़ी समय तक खड़ा रहा था... फिर बैठ गया। मेरी नीरसता एक तरह बायोस्कोप हो गई थी... जिसमें मूँह फसाए मैं, अपना ही जिया हुआ सबकुछ देख रहा था। अचानक मुझे लगा कि यहां समुद्र तक आने के बाद भी मैं वैसा ही सब कुछ सोच रहा हूँ जैसा मैं शायद अपने घर में सोच रहा होता, तो मैं यहां तक क्यों चला आया। फिर लगा नहीं ये नीरसता नहीं है, जिसके कारण मैं अपना जीया हुआ सबकुछ देख रहा हूँ.मुझे नींद आ रही है... ये अर्धनिद्रा की स्थिती के कारण मुझे ये सब दीख रहा है , ये नींद यहीं इस समुद्र के पास आने पर आई है।मैं बहुत देर से समुद्र को देख रहा था, उसकी आवाज़ सुन रहा था, समुद्र की लगातार, एक निरंन्तरता में उठ रही लहरॊं की आवाज़.. माँ की धड़कनों की निरंन्तरता से मेल खाती है। जिन्हें सुनते ही मैं हमेशा सो जाता था। मुझे ट्रेनों,बसों की लम्बीं यात्रा में भी शायद इसलिए नींद आ जाती है...। माँ की कोख़ में सुनी माँ की धड़कनें, शायद मेरे मरने तक मुझे सुलाती रहेंगी।अभी मैं सोना चाहता हूँ, लम्बी, गहरी, गाढ़ी नींद...मृत्यू जैसी। जब सुबह उठूं तो नया जीवन लगें... पूराने जिये हुए की पुनरावृत्ती नहीं। शुभरात्री।

8 comments:

  1. bhut khoob likha hai..acha laga apko padhna

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  2. बहुत सुन्दर लिखा है...बहुत भावपूर्ण है।

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  3. मानव सोने से पहले ऐसी सोच, इस नींद से उठके जरूर बताईयेगा कि कैसी नींद आयी।

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  4. अनिल जी के ब्लोग से यहाँ आना हुआ. बडी प्रसन्नता हुयी आपका ब्लोग देखकर.

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  5. अच्छा ब्लॉग है। बढ़िया लिख रहे हैं।

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  6. पढ़ के मन प्रसन्न हुआ. मुनस्यारी की फोटो देखकर घर की याद आ गयी. धन्यवाद जनाब.

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  7. आपके नाटकों का प्रशंसक हूँ. अनिल जी के ब्लोग से आपका लिंक मिला. आपको ब्लोग पे पढ़ना मेरे लिये सुखद अनुभूति होगी.

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  8. प्रिय मानव जी,
    गहरी है आपकी सोच और गहराई से उँचाई का
    अनिवार्य संबंध होता है.
    जिए हुए को झटककर
    मौत की कीमत पर भी नये की तलाश का
    ये ज़ज़्बा पैदा करने में तो पूरी जिंदगी भी काफ़ी नहीं है
    और आप उम्र के इस दौर में इतना बेबाक
    बयाँ लेकर आए हैं ! कमाल है भाई !मन से बधाई !

    लो दिनकर जी का यह आव्हान आपकी भाव धारा को सस्नेह-
    जो व्यथाएँ प्रेरणा दें उन व्यथाओं को पुकारो
    मृत्यु से जीवन मिले तो आरती उसकी उतारो

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