Tuesday, December 29, 2009

डायरी सी कुछ....

25th dec,2009.

जल्द ही Pondicherry पहुच गया... दिन इस खूबसूरत जगह को देखने में चला गया... काश यहाँ मैं अकेला होता.. शांत.. बिना हिसाब किताब का कुछ... झड़ता रहता...। आँखें देख चोंक नहीं पड़ता.. आहट सुनकर पलटता नहीं फिरता... चलता नहीं, टहलता फिरता... गुम जाने सा पास आता रहता... गुम जाने सा मिलता रहता... गुम जाता फिर भी टहलता रहता।
निरंतरता की इच्छा ही दुख है। अजीब है यह... सुख की निरंतरता और इस निरंतरता की झूठी तलाश... जबकि किसी भी चीज़ की निरंतरता बोर कर देती है... चाहे वह सुख ही क्यों ना हो।
it’s a paradox…
कल वह काम कर रहा था... मैं चुप चाप बैठा था... आज मैं काम कर रहा हूँ... वह गायब है... मैं उससे बचने के लिए ही शायद काम करता हूँ... काम करते रहना चाहता हूँ कि वह मुझे ना दिखे.. उसका होना काश मेरा ना होना होता.. पर वह जब भी होता है मैं उसका एक मूक दर्शक होता हूँ... मुझे होना पड़ता है..। मैं बचा रहता हूँ.. काम करके.. वह भाग जाता है कहीं.. छुप जाता है शायद...।
ठीक सात बज रहा है... हाथ में
beer है सिगरेट पी रहा हूँ... अचानक उस शाम की याद हो आई जब मैं रंगशंकरा में नाटक शुरु होने के पहले.. उस थियॆटर से इंमानदारी की बात कर रहा था... क्या मैं इंमानदार हूँ ? मैंने पूछा था... कितना इंमानदार होनी की जगह है मेरे पास? यह मैं अब पूछ रहा हूँ red sparrow direct करने के बाद....। जो मैं देख पाता हूँ... क्या उसे ठीक उसी तरह मैं कर पाता हूँ... या देखने और उसे कर लेने के बीच, वह सब आ जाता है जिसे मैं इंमानदारी की परिधी मानता हूँ... और क्या वह परिधी है या मैं वह परिधी लांघ गया हूँ????
अपने में रहने के बाद मैं जब भी बाहर निकलता हूँ तो खुद को असमर्थ सा महसूस करता हूँ... असमर्थ बाहर जी पाने में... मैं उस कछुए सा खुद को महसूस करता हूँ जो गर्दन अपने कवच के भीतर छुपाए रखना चाहता है... वहाँ उसकी एक सुरक्षित दुनियाँ है... अपनी गर्दन बाहर निकालते ही वह हकबका जाता है... यह ठीक नहीं है... दुनियाँ बाहर ही है.. भीतर की कल्पना बाहर जीने में कभी भी सहायक नहीं होती है। बाहर... बातचीत के दौरान मैं घबराकर भीतर की दुनियाँ की बात करके खुद को बचाना चाहता हूँ.. पर सारे शब्द... जो अंत में चित्र बनाते है वह बहुत ही धंधला होता है... फीका सा.. जिसपर मुझे खुद हंसी आती है.. बाद में मैं सोचता हूँ कि चुप रहना ही ठीक है... मैं चुप रहना चाहता हूँ बाहर... पूरी तरह....। फिर क्यों बोल रहा होता हूँ..?? क्या कह देना चाहता हूँ??? मैं चुप ना हो जाऊँ??? क्या यह डर है???

अभी अभी.. सारे लेखको को जो मेरे साथ थे सुनके आ रहा हूँ... डेनमार्क से जो लेखक आया है वह बहुत ठीक है... एक दिल्ली की महिला है जो अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों में लिखती है... अंग्रेज़ी कहानी अच्छी सी थी.. पर उनकी हिन्दी कविता बहुत खराब थी...। उसके ठीक पहले अर्शिया सत्तार (जिसने शक्कर के पाँच दाने का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है।) ने शक्कर का अंग्रज़ी अनुवाद पढ़ा... मैं बहुत देर तक चुप रहा... जब मैं सुन रहा था तब भी और अभी भी... मुझे अजीब सी एक त्रासदी की सी अनुभूति हो रही है...। खैर एक मल्यालम उपन्यासकार है यहाँ उसने अपनी कविता पढ़ी... बहुत सुंदर थी...।

इस तरह दिन इतिसिद्धम हुआ.... अनुमति से नमस्कार।

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