29th dec, 2009.. pondicherry,
अलस्य सुबह...
वह- आओ चलो खेलते है?
मैं- क्या खेलेगें?
वह- अरे! तुम्हें तो खेलना अच्छा लगता है।
मैं- हाँ पर यहाँ, क्या खेलेगें?
वह- जो तुम कहो?
मैं- मैं बहुत खेल लिया, अब मैं खेल देखना चाहता हूँ।
वह- देखना? देखने में वह मज़ा नहीं है जो खेलने में है।
मैं- हाँ मैं जानता हूँ, पर आखिर के निर्णायक क्षणों को अब मैं सहन नहीं कर सकता।
वह- वह ही तो मज़ेदार होते हैं। उन्हीं क्षणों के लिए तो लोग पूरी ज़िदग़ी खेलते रहते हैं।
मैं- मुझे लगता है कि मैं अब एक और निर्णायक क्षण बर्दाश्त नहीं कर पाऊगाँ।
वह- तुम कर लोगे, शुरु तो करो।
मैं- तुम क्यों मुझे उस स्थिति में देखना चाहती हो जिससे मैं घबराता हूँ?
वह- मुझे तुम उस वक़्त बहुत अच्छे लगते हो... परेशान से.. किसी की ज़रुरत तलाशते।
मैं- मतलब तुम्हारा यह अलग खेल है... जिसमें मुझे खेलता देखने में तुम्हारी जीत है?
वह- तुम्हीं कहते हो जीत हार अंत में मायने खो देती है।
मैं- अंत में... पर उस अंत के पहले जो मश्क्कत करनी पड़ती है उसका क्या?
वह- तुम कैसे बिना बात के जीना चहते हो? मुझे हमेशा आश्चर्य होता है।
मैं- बिना बात के जीना साधना है। वह ऎसे ही नहीं कोई जी सकता है। और मैं तो कतई नहीं...।
वह- तो अभी तुम खेल से इतना डर क्यों रहे हो?
मैं- ठीक है शुरु करते हैं...
वह- चलो मैं तैयार हूँ...
मैं- तो एक घर था जिसमें सभी बहुत खुश रहते थे... मध्यमवर्गीय घर... एक दिन सुबह नौ बजे उस घर की घंटी बजती है और एक आदमी प्रवेश करता है.............................................खेल शुरु होता है।
very crisp... abstract yet hardhitting...
ReplyDeleteloved it.