Sunday, April 18, 2010

दूसरा आदमी....


दूसरा आदमी...

मैं खाना बनाने की तैयारी करने लगा। पीछे से माँ ज़िद्द करने लगी ‘नहीं खाना मैं बनाऊंगी’। इस युद्ध में जीत माँ की ही होनी थी... पर मैं ज़िद्द करके टमाटर, प्याज़, हरि मिर्च काटने लगा।
’आप इतनी दूर से सफर करके आई हो। खान आप ही बनाना, मैं बस तैयारी कर देता हूँ।’
माँ चुपचाप बालकनी पर जाकर खड़ी हो गई। उन्हें मुझे इस तरह देखने की आदत नहीं है। कई साल पहले जब वह मुझसे मिलने आती थीं तो अनु साथ होती थी... तब मैं शादी-शुदा था। माँ, अनु को बहुत पसंद करती थीं....। शायद इतने साल माँ इसलिए मुझसे मिलने नहीं आई...
’घर बहुत छोटा है... पर सुंदर है।’
माँ ने कहाँ...मैं चुप रहा। सब काट लेने के बाद मैं भी बालकनी में जाकर खड़ा हो गया। पीछे जंगल था.. हरियाली दिखती थी। माँ कुछ और तलाश रही थी... उनकी निग़ाहें कहीं दूर किसी हरे कोने से जिरह कर रही थी। मैं बगल में आकर खड़ा हो गया, इसकी उन्हें सुध भी नहीं लगी। माँ बहुत छोटी थी... मेरे कंधे के भी नीचे कहीं उनका सिर आता था। मेरा भाई और मैं मज़ाक में कहाँ करते थे कि ’अच्छा हुआ हमारी हाईट माँ पर नहीं गई, नहीं तो हम बोनज़ाई humans लगते।’ माँ की आँखों के नीचे कालापन बहुत बढ़ गया था... वह बहुत बूढ़ी लग रही थी। क्या मैं रोक सकता हूँ कुछ..? उनका बूढ़ा होना ना सही पर उनके आँखों के नीचे का कालापन वह?... पता नहीं कितनी सारी चीज़े है जिनका हम कुछ भी नहीं कर सकते है.. बस मूक दर्शक बन देख सकते हैं.. सब होता हुआ... सब घटता हुआ, धीरे-धीरे। मेरी इच्छा हो रही थी माँ के गालों पर हाथ फेर दूं... उनकी झूल चुकी त्वचा को सहला दूं... कह दूं कि ’मुझसे नहीं हो सका माँ... कुछ भी नहीं’। पर इस पूरी प्रक्रिया में वह रो देती.. और मैं यह कतई नहीं चाहता था। पिछले कुछ सालों में मैंने माँ के साथ अपने सारे संवादों में ’मैं खुश हूँ..’ की चाशनी घोली है...। उन्हें मेरे अकेलेपन, खालीपन की भनक भी नहीं लगने दी.. जिसकी अब मुझे आदत हो गई है... अब लगता है कि इस खालीपन, अकेलेपन के बिना मैं जी ही नहीं सकता हूँ...
’इस बालकनी में तुम कुछ गमले क्यों नहीं लगा लेते?’
इस बीच माँ की आवाज़ कहाँ से आई मुझे पता ही नहीं चला...उनके बूढ़े झुर्रियों वाले गाल बस हलके से हिले थे। वह अभी भी मुझे नहीं देख रही थी।
’इच्छा तो मेरी भी है.. पर यह किराय का घर है, पता नहीं कब बदलना पड़े... और यूं भी मेरा भरोसा कहाँ है.. कभी ज़्यादा दिन के लिए कहीं चला गया तो....।’
माँ मेरे आधे वाक्य में भीतर चली गई....। मेरे शब्द टूटे... झड़ने लगे.. गिर पड़े और मैं चुप हो गया। माँ ने खुद को खाना बनाने में व्यस्त कर लिया।
मेरे और माँ के बीच संवाद बहुत कम होते गए थे। पहले ऎसा नहीं था, पहले हम दोनों के बीच ठीक-ठीक बात चीत हो जाती थी... और विषय भी एक ही था हमारे पास-अनु। पर अब उन्हें लगता है कि मैं अनु की बात करके इसे दुखी कर दूगीं... अगर गलती से मैं अनु की बात निकाल लेता तो वह कुछ ही देर में विषय बदल देती। इन बीते सालों में.... माँ खूब सारी बातों का रटा-रटाया सा पुलिंदा लिए मुझसे फोन पर बात करती थी... फिर बीच में बातों के तार टूट जाते या पुलिंदा खाली हो जाता तो हम दोनों चुप हो जाते.... बात खत्म नहीं हुई है मैं जानता था, वह कुछ ओर पूछना चाहती हैं.. कहना चाहती हैं... कुछ देर मैं उनकी सांसे सुनता.. और वह धीरे से बिना कुछ कहे फोन काट देती। धीरे-धीरे हमारा फोन पर बात करना बंद हो गया। मैं कभी फोन करता तो वह जल्दी-जल्दी बात करती मानों बहुत व्यस्त हो। इस बीच वह मुझे ख़त लिखने लगी थी। शुरु में जब ख़त मिलते तो मैं डर जाता... पता नहीं क्या लिखा होगा इनमें? पर अजीब बात थी कि वह सारे ख़त मेरे बचपन के किस्सों से भरे हुए थे... कुछ किस्से इतने छोटे कि उनके कुछ मानी ही ना हो। उन ख़तों के जवाब मैंने कभी भी नहीं दिए। मैंने बहुत कोशिश की पर जब भी पेन उठाता तो मुझे सब कुछ इतना बनावटी लगने लगता कि मैं पेन वापिस रख देता। मैं अधिक्तर खतों में भटक जाता था.. या कभी-कभी कुछ इतनी गंभीर बात लिख देता था कि उसे संभालने में ही पूरा का पूरा ख़त भर जाता। वह ख़तों में मेरे बचपन के आगे नहीं बढ़ती थी...। बचपन के बाद जवानी थी जिसमें मैं अकेला नहीं था, वहाँ अनु मेरे साथ थी... इसलिए वह ख़त कभी लिखे नहीं गए।
खाना खाते वक्त हम दोनों चुप थे। माँ ने टमाटर की चटनी बनाई थी जो मुझे बहुत पसंद थी। जब भी माँ खाना खाती है तो उनके मुँह से खाना चबाने की आवाज़ आती है.. करच-करच। मुझे शरु से यह आवाज़ बहुत पसंद थी... मैंने कई बार माँ की तरह खाने की कोशिश की पर वह आवाज़ मेरे पास से कभी नहीं आई।
’क्या हुआ? मुस्कुरा क्यों रहे हो?’
वह मुझे देख रही थीं मुझे पता ही नहीं चला...मैं उस आवाज़ के बारे में उनसे कहना चाहता था पर यह मैं पहले भी उनसे कह चुका हूँ सो चुप रहा।
खाना खाने के बाद मेरे दोस्त रिषभ का फोन आया...मैं उसके साथ कॉफी पीने चला गया। रिषभ जानता था माँ आ रही है। हमारे दोस्तों के बीच यह बहुत प्रचलित था... जब रिषभ के माँ-बाप शहर आए हुए थे तो हमारी ज़िम्मेदारी होती थी उसे घर से बाहर निकालने की । वह बाहर आते ही लंबी गहरी सांस लेता और कहता ’ओह.. मैं तो मर ही जाता अगर तुम्हारा फोन नहीं आता तो।’
coffee shop में जैसे ही रिषभ ने मुझे देखा वह हंसने लगा...
’बचा लिया.. बच्चू...।’
मैं खिसिया दिया। उसने कॉफी आर्डर की और मेरे सामने आकर बैठ गया।
’क्या? बचा लिया... तुझे?’
इस बार उसने प्रश्न पूछा। क्या जवाब हो सकता है इसका। मैं फिर मुस्कुरा दिया और सोचने लगा किससे बचा लिया... माँ से? उनके मौन से? उन बातों से जो माँ से आँखे मिलते ही हम दोनों के भीतर रिसने लगती थी? या फिर खुद से....?
’मैंने मेघा को भी बुला लिया.. वह भी आती होगी।’
’क्यों? मेघा को क्यों बुला लिया?’
’अरे यूं ही... उसका फोन आया था वह तेरे बारे में पूछ रही थी।’
’मैं ज़्यादा देर रुक नहीं पाऊंगा... माँ अकेली है।’
माँ अकेली है कहने के बाद ही मुझे लगा... हाँ माँ बहुत अकेली है। इच्छा हुई कि अभी इसी वक़्त वापिस चला जाऊं... पर मैं बैठा रहा।
’उसने कहाँ... उसने तुझे फोन किया था पर तूने उठाया नहीं...?’
’हाँ मैं व्यस्त था।’
’कैसी है माँ?’
’अच्छी हैं...।’
’यार सुन.. चली जाएगीं माँ कुछ दिनों में इतना परेशान होने की ज़रुरत नहीं है।’
’नहीं, मैं परेशान नहीं हूँ... सब ठीक है... थेंक गॉड तूने फोन कर दिया...अभी अच्छा लग रहा है।’
यह सुनते ही रिषभ खुश हो गया। जो वह सुनना चाहता था मैंने कह दिया था। तभी किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा.. मैं उसकी तरफ मुड़ा ही था कि वह मेरे गले लग गई... कुछ इस तरह कि ’मैं तुम्हारा दुख समझती हूँ।’ मैं समझ गया यह मेघा ही है। वह कुछ देर तक मेरे गले लगी रही, मैं थोड़ा असहज होने लगा था। तभी वह मेरी पीठ पर हाथ फेरने लगी... मुझे ऎसी सांत्वनाओं से हमेशा घृणा रही है। मैंने तुरंत मेघा को अलग कर दिया। वह मेरे बगल में बैठ गई और बैठते ही उसने भरे-गले से पूछा...
’कैसे हो....?’
मेरी इच्छा हुई कि अभी इसी वक्त यहाँ से भाग जाऊं...।
’कॉफी पियोगी...?’
यह कहते ही मैं उठने लगा। तभी रिषभ The Matchmaker बोला...
’तुम लोग बैठों... मैं लेकर आता हूँ कॉफी...।’
रिषभ के जाते ही मेघा ने अपना हाथ मेरे हाथ पर रख दिया।
’मैंने तुम्हें फोन किया था।’
’हाँ.. sorry मैं बिज़ी था।’
’yaa.. I understand..’
‘मैं यहाँ ज़्यादा रुक नहीं पाऊंगा.. माँ घर में अकेली होगी...।’
’तुम चाहो तो मैं तुम्हारे साथ आ सकती हूँ।’
’no thank you…’
मुझे पता है रिषभ कॉफी लेकर जल्दी नहीं आएगा। वह हम दोनों को “अकेले” समय देना चाहता है। मेघा बहुत अच्छी लड़की है पर उसमें मातृत्व इतना भरा हुआ है कि वह मुझे असहज कर देती है। रिषभ के हिसाब से वह मेरा ख्याल रखती है, जबकि मेरे हिसाब से वह उन महिलाओं में से है जो दूसरों के दुख की साथी होती हैं... उन्हें इस काम में बड़ा मज़ा आता है... दूसरों के दुखों में एक सच्चे दोस्त की हैसियत से भागिदारी निभाना। मेघा जब भी मुझे देखती है मुझे लगता है कि वह मेरे चहरे में दुख की लक़ीरे तलाश कर रही है। उसके साथ थोड़ी देर रहने के बाद मैं सच में दुखी हो जाता हूँ। रिषभ के कॉफी लाते ही मैं उठ गया। रिषभ मना करता रहा पर मैं नहीं माना... जाते-जाते मेघा ने बहुत गंभीर आवाज़ में मुझसे कहाँ कि ‘you know i am just a phone call away... ‘ मैंने हाँ में सिर हिलाया और लगभग भागता हुआ अपने घर चला गया।
मेरी कभी-कभी इच्छा होती थी कि मैं झंझोड़ दूं या पुरानी घड़ी की तरह, माँ और मेरे बीच के संबंध को नीचे ज़मीन पर दे मारु और यह संबंध फिर से पहले जैसा काम करना शुरु कर दे। बीच में बीते हुए सालों को रबर लेकर मिटा दूं.. घिस दूं.. कोई भी निशान ना रहे। मैं सब भूलना चाहता हूँ पर माँ भूलने नहीं देती, शायद माँ भी सब भूलना चाहती हैं पर मेरे अगल-बगल के रिक्त स्थान में उसे बार-बार अनु का ना होना दिख जाता होगा।
अनु यहीं है इसी शहर में..., अगर वह किसी दूसरे शहर में होती.. या दिल्ली में, अपनी माँ के पास चली जाती तो शायद सबकुछ थोड़ा सरल होता। माँ अभी-भी आशा रखती हैं कि सबकुछ पहले जैसा हो सकता है। जीवन कितने तेज़ी से आगे बढ़ जाता है... पता ही नहीं चलत। माँ बहुत पुराना जी रही हैं... नया उन्हें कुछ भी नहीं पता। उन्हें नहीं पता कि अनु अब किसी ओर के साथ रहने लगी है। वह उससे जल्द शादी करने वाली है। हमारा लिखित, कानूनन तलाक़ हो चुका है। जिसके पेपर मैंने ना जाने क्यों अपने ज़रुरी काग़ज़ातों के बीच संभालकर रखे हैं। मैं कभी-कभी उसे अकेले में खोलकर पढ़ लिया करता था.. पूरा, शुरु के आखीर तक... हमेशा मुझे आश्चर्य होता था कि एक निजी संबंध को अलग करने में कितने सरकारी मरे हुए शब्दों का प्रयोग किया जाता है। मुझे हमेशा वह petition एक कहानी की तरह लगता था।
मैंने दरवाज़ा खोला तो माँ सतर्क हो गई। मैंने देखा उनके हाथ में मेरी डायरी है। कुछ सालों से मेरी डायरी लिखने की आदत सी लग गई थी। उसमें मैं दुख, पीड़ा, दिन-भर की गतिविधी नहीं लिखता था.. उसमें मैं आश्चर्यों को लिखता था। छोटे आश्चर्य.. जैसे आज एक लाल गर्दन वाली चिड़ियाँ बालकनी में आई... मैंने उसके ठीक पास जाकर खड़ा हो गया पर वह उड़ी नहीं वह मुझे बहुत देर तक देखती रही... या आज चाय में मैंने शक्कर की जगह नमक डाल दिया। माँ ने मुझे देखते ही वह डायरी फ्रिज के ऊपर ऎसे रख दी मानों सफाई करते हुए उन्हें वह नीचे पड़ी मिली हो।
’रात को क्या खाओगे?’
माँ ने तुरंत बात बदल दी। मैंने डायरी को अलमिरा के भीतर, अपने कपड़ों के नीचे दबा दिया।
’आज कहीं बाहर चलकर डिनर करें?’
’कहाँ जाएगें?’
’बहुत सी जगह हैं। चलिए ना... मैंने भी बहुत दिनों से बाहर खाना नहीं खाया है।’
’ठीक है।’
माँ को बाहर होटल में खाने में बहुत मज़ा आता था। जब भी वह बहुत खुश होती थी तो कहती थी ’चलो आज बाहर खाना खाते हैं।’ एक बार अनु और मैं उन्हें सिज़लर खिलाने ले गए थे.. उन्हें सिज़लर खाते हुए देखना... हम दोनों की हंसी रुक ही नहीं रही थी।
हम दोनों एक साऊथ इंडियन रेस्टोरेंट में जाकर बैठ गए। मैंने स्पेशल थाली आर्डर की और माँ ने रेग्युलर। मुझे बहुत भूख लग रही थी सो मैं थाली आते ही खाने पर टूट पड़ा। माँ बहुत धीरे-धीरे खा रहीं थी। कुछ देर में उन्हेंने खान बंद कर दिया।
’खाना ठीक नहीं लगा क्या?’
मैंने खाते हुए पूछा।
’मन खट्टा है... स्वाद कहाँ से आएगा।’
मेरा भी खाना बंद हो गया। जिन बातो के ज़ख़्म हमने घर में दबा के रखे थे... मुझे लगा वह यहाँ फूट पडेगें। ’क्या हुआ?’ मैं पूछना चाहता था पर मैं चुप रहा। माँ पानी पीने लगी। मेरी भूख अभी खत्म नहीं हुई थी... पर एक भी निवाला और खाना मेरे बस में नहीं था।
’भाई कैसा है?’
माँ ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। मेरे भाई और मेरी बातचीत बहुत पहले बंद हो चुकी है। मेरे अकेले रह जाने का ज़िम्मेदार वह मुझे ही मानता है। माँ उसी के साथ रहती हैं। उसने माँ को भी मना कर रखा था मुझसे मिलने के लिए। अब शायद उसका गुस्सा भी शांत हो गया होगा और उसने माँ से कहाँ होगा कि ’जाओ देख आओ आपने लाड़ले को..’ और माँ भागती हुई सब ठीक करने चली आई।
’अजीब सा बनाया है आपने यह... कोई स्वाद ही नहीं है।’
मैंने वेटर को बुलाके फटकारा... वह दोनों थाली उठाकर ले गया।
’माँ चलो आस्क्रीम खाते है...।’
’मुझे कुछ भी नहीं खाना है... कुछ भी नहीं... चल घर चलते हैं।’
मैंने बिल चुकाया और हम दोनों घर वापिस आ गए।
माँ ने मेरा हाथ पकड़ा और वह मुझे लेकर बालकनी में चली आई...। वह हमेशा ऎसा ही करती थी... जब भी कोई ज़रुरी बात हो वह हाथ पकड़कर, अलग लेजाकर बात कहती थी। पर यहाँ तो कोई भी नहीं था... शायद बात ज़ाया ज़रुरी होगी।
’अब तू क्या करेगा?’
’कुछ भी नहीं माँ... मैं क्या कर सकता हूँ।’
’तू एक बार उसे फोन तो कर लेता...?’
’नहीं... उसने मना किया है।’
’क्या? क्यों? तू उसका पति है... तू फोन भी नहीं कर सकता है क्या?’
माँ की आवाज़ थोड़ी ऊंची हो गई... मैं चुप ही रहा।
’तू बहुत ज़िद्दी है। यह ठीक नहीं है... कभी-कभी तुझे जो अच्छा ना लगे वह भी तुझे करना चाहिए.. कभी तो अपने अलावा किसी ओर के बारे में सोच... तू हमेशा, हर जगह महत्वपूर्ण नहीं है।’
’माँ इस संबंध को अब नहीं बचाया जा सकता है।’
’अगर तू चाहे तो सब हो सकता है।’
’अब वह समय निकल चुका है... यूं मेरे हाथ में कुछ था भी नहीं...।’
’क्या मतलब समय निकल चुका है?’
’जैसे आप यह सब होता हुआ देख रही है वैसे ही मैं भी यह सब होता हुआ देख ही रहा हूँ।’
’तू सीधे-सीधे क्यों नहीं बात करता है?’
क्या सीधे-सीधे बात की जा सकती थी? शायद मैं सीधे-सीधे बात कर सकता, पर उन सीधी बातों के शब्द इतने नुकीले थे कि वह मेरे कंठ में कहीं अटक जाते, चुभने लगते..| मैं सब कुछ सीधा ही कहना चाहता पर उस चुभन के कारण बाहर अर्थ बदल जाते... मैं अब सीधी बात नहीं कह सकता हूँ। मैं बालकनी से निकलकर भीतर चला आया...। माँ वहीं खड़ी रही... मैं जानता हूँ इस वक्त माँ मेरी बातों के ताने-बाने से अर्थ निकालने में जुटी होगीं.. फिर उन अर्थ के बहुत से सवाल होगें... और उन सवालों के जवाब फिर मेरे कंठ में चुभेगें और इस बार मैं चुप रहूंगा।
क्या हुआ था मेरे और अनु के बीच..?
अब मैं उसके बारे में सोचता हूँ तो मुझे हंसी आ जाती है।
हम दोनों एक लंबी सैर के लिए निकले थे... मैं अपना वालेट घर पर भूल गया। उसने कहाँ ’क्यों चाहिए तुम्हें वालेट? तुम्हारे पास कभी पैसे तो होते नहीं है।’ पर मैं वापिस घर चला गया अपना वालेट लेने..। जब मैं वापिस आया तो वह वहाँ पर नहीं थी... वह चली गई थी। मैंने उसे फोन किया ’कहाँ चली गई?’ उसने कहाँ ’आती हूँ।’ वह बस आने ही वाली थी और मैं इंतज़ार नहीं कर रहा था। जब मैंने इंतज़ार करना शुरु किया, वह वापिस नहीं आई।
माँ बहुत देर बाद वापिस कमरे में आई। मैं दोनों के बिस्तर लगा चुका था। माँ ने हाथ मुँह धोए, अपने बेग से सुंदरकांड की छोटी सी किताब निकाली और उसका पाठ करने लगी। मैं अपने बिस्तर पर लेट गया। बचपन से ही मुझे माँ के मुँह से सुंदरकांड़ सुनने की आदत है। कुछ देर में मुझे झपकी आने लगी... कब नींद लग गई पता ही नहीं चला। अचानक मुझे आवाज़ आई...
’बेटा...बेटा...।’
मैं थोड़ा हड़बड़ाकर उठा...। माँ मेरे बगल में बैठी थी...।
’क्या हुआ माँ..?’
’तेरी कमर में दर्द रहता है ना... तेरी गरम तेल से मालिश कर देती हूँ।’
मैंने देखा माँ के हाथ में एक कटोरी है..।
’कितना बज रहा है?’
’तू सो जा ना... मैं मालिश करती रहूगीं।’
’माँ मेरी कमर ठीक है बिलकुल... कुछ नहीं हुआ है।’
’मुझे सब पता है तू पलट जा... चल।’
मैं पलट गया और माँ मेरी कमर की मालिश करने लगी। पूरी मालिश के दौरांन मै माँ को कहता रहा ’बस..बस.. हो गया...’ पर माँ नहीं मानी।
मैं उठकर बैठ गया।
’क्या हो गया बेटा...?’
’बाथरुम से आता हूँ...।’
मैं बाथरुम में जाकर थोड़ी देर बैठ गया। माँ मेरी मालिश नहीं कर रही थी वह अपने उस बेटे की छू रही थी जिसे उन्होंने बचपन में अपना दूध पिलाया है, नहलाया-धुलाया है... जिसे उन्होने अपने सामने बड़ा होते देखा था। मैं वह नहीं हूँ। मैं बड़ा होते ही दूसरा आदमी हो चुका हूँ। बचपन मेरे सामने एक खिलोने की तरह आता है... जिससे मैं खेल चुका हूँ। मेरे घर में वह खिलोना अब सजावट की चीज़ भी नहीं बन सकता है।
मैंने मुँह पर कुछ पानी मारा। बाहर आया तो देखा माँ अपने बिस्तर पर लेट चुकी है।
’लाईट बंद कर दूं।’
’हुं...।’
मैंने लाईट बंद कर दी। धीरे से अपने बिस्तर में मैं घुस गया। कुछ करवटों के बाद अचानक माँ की आवाज़ आई।
’बेटा कल मेरा रिज़र्वेशन करा देना।’
’कुछ दिन रुक जाओ।’
’नहीं तेरे भाई ने जल्दी आने को कहाँ था।’
’ठीक है।’
मौन.... सन्नाटा... कुछ करवटों की खरखराहट... फिर मौन... और अंत में नींद।

12 comments:

  1. सुंदर पोस्ट

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  2. bahut khub


    shekhar kumawat

    http://kavyawani.blogspot.com/

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  3. क्‍या है भाई ये? कथा है कि आत्‍मकथा? जो भी हो, आपके नाटकों की तुलना में ज्‍यादा प्रैक्टिकल और सहज है, बिलकुल दिल तक उतरने वाला।

    - आनंद

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आप के विचारों का स्वागत है!