Monday, January 31, 2011

मौन...


इन दिनों आनंद की उन सीमाओं को छूने की कोशिश में हूँ जिनकी कभी मैं कल्पना किया करता था। अभी वहाँ था और अभी अकेले..। चंद चिपक के चलने वाले, अब दूर अपनी सड़क पर निकल गए हैं। मैं फिर नए से चहरों के साथ अपने को गवां रहा हूँ। खुद से, सफाई से बिछाई इस चद्दर की सलवटें अभी-अभी ठीक की है कि साफ-सरल सपने देख सकूं। नींद अपनी गति से आती है, उसके-मेरे बीच के संबंध पिछले कुछ समय से सुलझ गए हैं। अच्छी नींद से शब्दों में भी अब भारीपन नहीं रहा है। पीछे बालकनी पर बार-बार जाता हूँ कि सांप दिख जाए। एक गिरगिट ने बालकनी में अपना घर बना लिया है.. उसे मैं “शुभ-चिंतक” कहता हूँ। दरिद्रता अब उतनी दरिद्र नहीं जान पड़ती है। घर के बाहर कुछ इस तरह निकलता हूँ कि खेलने जा रहा हूँ। घर में जब रहता हूँ तो ’आवाज़ें’ गिनता रहता हूँ। पिछले कुछ समय से सामने के पेड़ पर दोपहर में चिड़ियाँओं का आना थोड़ा बढ़ गया है। वह अपनी आवाज़ में मुझे बालकनी तक खींच लेती है। मैं उन्हें देखता हूँ... देर तक... फिर उनकी परछाईं ज़मीन पर तलाशने की कोशिश करता हूँ। कभी-कभी शांम को जब पैदल घूमने निकलता हूँ तो खुद को ढ़ेरों कहानियाँ सुनाता हूँ... राजा-रानी-एक राक्षस था जैसी... पर अंत में राक्षस को कभी मरने नहीं देता... राजा को राजमहल छुड़ाकर बुद्ध बनाने की कोशिश करता हूँ। बहुत समय़ के बाद जब राजा अपने काम में व्यस्त हो जाता है और राक्षस मर चुका होता है.... मैं लोटकर अपने घर चला आता हूँ। बिस्तर पर बिछी साफ चादर को कुछ देर देखता हूँ। इतनी देर के खालीपन की कुछ सिलवटें उभर आई हैं। जिसमें एक चहरा दिखता है। आज की रात आने वाले सपनों को मैं जानता हूँ... उन सिलवटों को बिना मिटाए मैं अपने घर को अंतिम बार देखता हूँ।

6 comments:

  1. छोटे छोटे विवरणों का आनन्द आता है जब बड़ी की राह दूर तक नहीं दिखती है। आनन्द बनाये रखिये।

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  2. नींद ओर तुम्हारा रिश्ता...कुछ खास है....

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  3. बहुत सुंदर सोचा है और उससे भी सुंदर लिखा है

    अच्छा लगा.....धन्यवाद

    रीतेश गुप्ता

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