Friday, August 12, 2011
घोंसला...
जब भी कभी तेज़ हवा चलती है या तेज़ बारिश होने लगती है तो मैं चिंता करने लगता हूँ। मुझे आजकल तीन घोंसलों की बड़ी चिंता होती है। मेरी बाल्कनी से एक पेड़ दिखता है जिसपर एक छोटी चिड़िया (क्योंकि मैं हमेशा एक बार में एक ही चिड़िया देख पाता हूँ।) ने तीन घोंसले बनाए हैं। यह मेरे सामने ही बनना शुरु हुए... और अब एक सुंदर स्वरुप इख़्तियार कर चुके हैं। गर्मियों के दिनों में मेरी चिंता किंग्फिशर को लेकर थी.. वह रोज़ दोपहर के वक़्त मेरी तरफ मुँह करके बैठ जाती और देर तक अपना सिर हिलाती रहती। कभी-कभी लगता वह मुझसे कुछ पूछ रही है... धीर-धीरे मैं उससे बातें करने लगा.. यह बात मैंने कभी किसी को नहीं बताई। जब वह कुछ दिन नहीं आई तो मेरी चिंता बढ़ जाती... फिर दिखती तो मेरे सवाल और उसके सिर हिला-हिला के जवाब शुरु हो जाते। अभी बरसात में वह नहीं आती है.. उसके बदले यह छोटी चिड़िया आती है जिसने सुंदर तीन घोंसले बनाए हैं...।
कल रात बहुत बारिश हुई.. बुख़ार के पसीने में लथपथ मैं बार-बार अपनी बाल्कनी पर चला जाता। अंधेरा इतना ज़्यादा था कि कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने टार्च से भी देखने की कोशिश की पर कुछ नज़र नहीं आया। कुछ देर में मैं वापिस अपने बिसतरे पर था... इतनी बारिश में बेचारी क्या कर रही होगी? मैं बार बार उस चिड़िया के बारे में सोचने लगता। फिर लगने लगा कि शायद वह भी मेरे बारे में सोच रही होगी कि इतनी रात गए इसके घर की लाईट क्यों जल रहे है? शायद वह मेरी चिंता में सो ना पा रही हो? सो मैंने झट से उठक लाईट बंद कर दी। पर नींद से संबंध बहुत समय से ख़राब चल रहा है सो करवटों ने मुझे भीतर से छील सा दिया... उस छिलने की जलन से बार-बार मैं उठ बैठता..। खिड़की से निग़ाह बाहर जाती.. तो अंधेरे में लटके तीन घोंसले बहुत अकेले से दिखते..। फिर ख़्याल आया कि चिड़िया इंसान तो होती नहीं कि रात में उन्हें लाईट की ज़रुरत पड़े.. वह तो मेरी करवटों और हरकतों से ही जान गई होगी कि मैं सो नहीं पा रहा हूँ। मैंने वापिस जाकर लाईट जलाई और बाल्कनी में आकर खड़ा हो गया। कुछ देर अंधेरे में ताकते रहने से कुछ चीज़े साफ दिखाई देने लग गई... जैसे बहुत देर तक चुप शांत पड़े रहने से अपना ही जीवन साफ सुनाई देने लगता है... पर अपना जीवन सहन नहीं होता इसलिए हम तुरंत बोलना शुरु कर देते हैं... जबकि अंधेरा मुझे अपनी तरफ हमेशा से आकर्षित करता रहा है। अंधेरे में लटके हुए तीन घोंसले मुझे साफ दिखाई देने लगे। भीगे हुए... कुछ झूल से गए थे.. कल शाम को वह तीनों कितने सुंदर लग रहे थे... अभी रात के भीगेपन में वह खंडहर जैसे दिख रहे थे। मैं समझ गया कि चिड़िया वहा नहीं हो सकती.... उसकी इतने दिनों की पूरी महनत बेक़ार गई। अगर मैं चिड़िया की जगह होता तो अभी तक झल्ला गया होता.. चीख़ने चिल्लाने लगता.. गालिया दे देता पेड़ को, बारिश को.. सब को.. पर मुझे पता है कि सुबह होते ही चिड़िया आएगी और रात को खंड़हर हो चुके अपने घोंसलों पर काम करना शुरु कर देगी।
कुछ देर में मैं चाय बना रहा था...। देर रात को चाय पीने की मेरी पुरानी आदत है। चाय बनते ही मैं एक ऎसी क्रिया में व्यस्त हो जाता हूँ जो संगीत के जैसी है। चाय बनाना (ख़ास कर देर रात का चाय बनाना...) एक तरह का नृत्य है मेरे लिए जो मुझे हर झुंझलाहट से क्षणिक शांति प्रदान करता है। मैं चाय बहुत धीरे और एक लय में पीता हूँ..। मेरी मन: स्थिति चाय पीने की लय तय करती है। इस वक्त मैं झल्ला रहा था सो चाय पीने की लय कुछ तेज़ थी। मैं सोचने लगा काश यह चिड़िया चाय पीती.. इस बारिश में भीगने के बाद मैं उसे चाय बनाकर देता.. तो.. इस बात पर मुझे हंसी आने लगी... मेरी झल्लाहट थोड़ी कम हुई.. और मैं वापिस कुछ कोरे पन्नों को गूदने में व्यस्त हो गया।
समय बहुत तेज़ी से निकल गया.. मुझे चिड़ियों की आवज़े आने लगी...। पौ फट चुकी थी। मैं घबरा गया..। पौ फटते ही वह चिड़िया... अपने घर को खंडहर की शकल में देखेगी और कितना दुख होगा उसे.... मुझे पता है उसे कोई दुख नहीं होगा.. पर मेरी पीड़ा थी कि वापिस उसे उन घोंसलों पर काम करते देखना... । उसने तिनका-तिनका इक्कट्ठा करके यह घोंसले बनाए थे.. अब वापिस पूरा काम फिर से....। मैं यह सब नहीं देख सकता था....। मैंने चादर तानी और अपनी आँखें बंद कर दी........ चिड़ियों की आवाज़े बढ़ती गईं.. और उस सुंदर संगीत में मुझे कब नींद आ गई पता ही नहीं चला..........।
Monday, August 8, 2011
आस-पास कहीं...।
कल रात एक सपना देखा... मैं अपने शरीर के भीतर कैद हो गया हूँ.. मेरा शरीर सो रहा है। मैं उसे भीतर से ठोकरे मार-मारकर जगाने की कोशिश कर रहा हूँ। शरीर सोया पड़ा है और मैं अपने ही शरीर के भीतर तड़प रहा हूँ.. सांस की नली के आस-पास कहीं...।
पिताजी ने कहा था कि ’जब बड़ा होगा तो मैं तुझसे कुछ भी नहीं कहूंगा... तब जो मर्ज़ी आए वह करना।’ मैंने सोचा था बस एक बार बड़ा हो जाऊं फिर देखना दिन भर खेलता रहूंगा, पतंग उड़ाता रहूँगा... कोई पढ़ाई की बात भी करेगा तो उसे एक लात मारुंगा... कूल्हे के आस-पास कहीं।
माँ बहुत देर तक नीलकंठ को खोजती रहती थी। सुबह उठते ही पेड़-पेड़ खोजती रहती... नीलकंठ दिखते ही उस पेड़ के चक्कर काटती... और बुदबुदाती जाती-’नीलकंठ तुम नीले रहियो, मेरी बात राम से कहियो, राम सोए हो तो जगाकर कहियो...।’ कभी नीलकंठ बीच बात में उड़ जाता तो कभी वह देर तक माँ को ताकता रहता...। कुछ दिन पेड़-पेड़ नीलकंठ खोजने मैं भी माँ के साथ गया हूँ...। मैंने माँ से एक बार कहाँ कि ’आपकी कौन सी बात है जो आप राम से कहना चाहती हो...।’ माँ ने एक ज़ोर का चपत लगाया मुझे.... कान और गाल के आस-पास कहीं।
मैं अगर नीलकंठ होता तो क्या करता...? माँ की बात सुनकर मैं राम के पास जाता और कहता कि ’एक बूढ़ी औरत जो लगातार बूढ़ी होती जा रही है... वह एक बात मुझसे कहती है कि मैं आपको आकर कह दूं... पर हर बार वह बात मुझे नहीं बताती कि मैं उसकी क्या बात आपसे आकर कह दूं...।’ मैं नीलकंठ होता तो पेड़ पर नहीं बैठता.. पेड़ पर बैठने से बार-बार राम के पास जाने की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती। मैं मकानों पर बैठता... काया के मकान के आस-पास कहीं।
काया के मकान की छत से बाज़ार दिखता होगा... क्योंकि मैं जब बाज़ार में घूमता हूँ तो मुझे बाज़ार से काया के मकान की छत दिखती है। काया का मकान बहुत सारे मकानों से घिरा है.. जैसे काया बहुत सारे लोगों से घिरी रहती है। काया के मकान तक पहुंचने में बहुत से बाज़ारों-घरों से होकर गुज़रना पड़ता है... तब भी वह मकान कभी अकेला नहीं मिलता है.. वह बहुत मकानों से घिरा मकान है.. जैसे काया...। काया बहुत से लोगों के किले में बंद है... उस तक पहुंचना असंभव है...। मुझे पीपल का पेड़ बहुत अच्छा लगता है जो नदी के किनारे किले के ऊपर उगा हुआ है। मैंने कई बार सपना देखा है कि मैं पीपल का पेड़ हूँ और काया मेरी छाया के भीतर कहीं बैठी हुई है...। और जब वह मेरे पेड़ की छाया तले सो जाएगी तब मैं उसके घर में घुसूगां और हमेशा हमेशा के लिए छुप जाऊंगा... उसके बिस्तर के आस-पास कहीं।
दिन में बाज़ार घूमते हुए अचानक जीवन दिखा। जीवन यायावर है। जीवन अपना घर बहुत पहले छोड़ चुका है, उसकी कमीज़ से पसीने की बदबू आती है। वह जब भी दिखता है मुझपर थोड़ा हस लेता है। मैं कई बार बीच सड़क को छोड़कर गलियों में छिप जाता हूँ... जीवन का सामना करने से मैं घबराता हूँ। जीवन की उम्र मेरी उम्र के आस-पास ही कहीं है। वह हमेशा अचानक मुझसे टकरा जाता है, कहता है कि ’चलो बैठकर बात करते हैं...’ मैं उसके साथ कभी नहीं बैठता हूँ। मैं उससे खड़े-खड़े बात करता हूँ... खड़े-खड़े बात करने में एक चलतापन होता है जिसपर मैं हमेशा सहज बना रहता हूँ... बैठकर बात करने में ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। बैठकर बात लंबी चलती है... फिर खड़े होने की गलियाँ खोजनी पड़ती हैं। बैठकर बात करने में बहुत देर खड़े होकर भी बात होती रहती है...। बैठे-बैठे आप सीधे जा नहीं सकते.. जबकि खड़े-खड़े बात करने में आप सीधे कहीं जा सकते हैं। जीवन बिठाकर बात करना चाहता है और मैं खड़े-खड़े चल देना। जीवन ने मिलते ही सीधे संवाद शुरु किये...
’चलो बैठकर बात करते हैं।’
मैं खड़ा रहा। कुछ देर में, नहीं बैठूंगा की ज़िद्द समझकर जीवन खड़े-खड़े बात करने की कोशिश करने लगा। खड़े-खड़े बात करने में वह हकलाने लगता था।
’तो जीवन कैसा चल रहा है?’ उसने पूछा
’कट रहा है।’ मैंने कहा
’तुम कहीं जाने वाले थे?’
’हाँ, मन बदल गया।’
’शरीर में मन ठीक-ठीक कहाँ होता है जानते हो?’
’दिल के आस-पास कहीं...!!!’
’ना...’
’फिर कहाँ होता है मन?’
’जिस जगह से रोंगटे खड़े होना शुरु होते हैं उसके आस-पास कहीं।’
मैं चकित उसे देखता रहा। किसी काम से कहीं जल्दी पहुंचना है- के बहाने मैं खोजने लगा। फिर अचानक एक सवाल याद हो आया।
’और रोंगटे खड़े होने की जगह कहाँ है शरीर में?’ मैंने पूछा
’जिस जगह से शरीर में सिहरन शुरु होती है उसके आस-पास कहीं।’
मैं चुप हो गया। मैं जानता था कि इस तरह की बातों का कोई अंत नहीं होता है। जीवन मेरे हाथों को देख रहा था। मैंने अपने हाथों को जेब में डाल दिया। मैं सच में सिहरन महसूस कर रहा था अपनी पीठ के आस-पास कहीं...। फिर मैं सोचने लगा कि सच में यह शरीर के ठीक-ठीक किस भाग से उठ रही है?
’तुमने मुझसे झूठ क्यों कहा?’ जीवन बोला
’किस बारे में? मैंने पूछा
’कि तुम कहीं जाने वाले हो?’
’मैं हमेशा से कहीं चला जाना चाहता हूँ।’ इस बार मैं सच बोलने पर आमादा था।
’तो?’
’तो क्या?’
’तो गए क्यों नहीं?’
’शरीर ने साथ नहीं दिया।’
’तुम तो कह रहे थे कि मन बदल गया?’
’मन शरीर है।’
’अभी भी कहीं जाना चाहते हो?’
’हाँ, अभी ठीक इसी वक़्त मैं कहीं चले जाना चाहता हूँ।’
’कहाँ?’
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था। इस बार मुझे कोई बहाना नहीं बनाना पड़ा, जीवन मेरे सामने से मुस्कुराकर चल दिया। मैं बाज़ार में अकेला खड़ा रहा.. जीवन जा चुका था। कहाँ जाऊंगा का जवाब मैं नहीं दे पाया। मैं आगे, बिना किसी दिशा के चलने लगा। कहाँ जाना चाहता हूँ मैं... मैं इस वक़्त कहाँ जा रहा हूँ मुझे यह भी नहीं पता। बाज़ार पीछे छूट चुका था। मैंने अपने आपको किले के पास, पीपल के पेड़ के नीचे पाया। नीचे नदी बह रही थी। तभी मुझे उत्तर मिल गया, मैं जाना चाहता हूँ... नदी के उदगम के आस-पास कहीं।
माँ सुबह-सुबह नीलकंठ की खोज में चली जाती। पिताजी घर की दीवार के पीछे मूतने...। मुझे उनको सहारा देना होता था... सो मैं नीलकंठ की सालों की खोज में कभी-कभी माँ का साथ नहीं दे पाता था। पिताजी मूतते हुए जर्जर और देयनीय लगते थे सो मैं उनकी तरफ कम ही देखता था। मैं उस वक़्त आसाम ताकता था जहाँ सुबह होने का उत्सव होता था। पिताजी कहते ’ऊपर क्या देखता रहता है... ज़मीन पर से निग़ाह कभी नहीं हटाना वर्ना कब ठोकर खाकर गिरोगे पता भी नहीं चलेगा।’ पिताजी के सारे उपदेश ऎसे होते जैसे हम जी नहीं रहे हैं कोई जंग लड़ रहे हैं। हारे तो मौत...। पिताजी बहुत डरे हुए रहते थे। वह घर में आए हर आदमी को दुश्मन का आदमी मानते थे। कुछ लोग जब घर के सामने से तेज़-तेज़ बाते करते हुए जाते तो पिताजी सतर्क हो जाते.. उन्हें लगता कि उन लोगों की बातों में कोई कोड छिपा है, वह घर में दीवार पर कान लगाकर सुनते। दूर से देखते हुए लगता कि पिताजी दीवार से कान खुजला रहे हैं। वह बहुत चालाक है- यह वह किसी भी नए आगंतुक को, अपने दूसरे या तीसरे वाक़्य में ही बता देते थे। नया आगंतुक अधिक्तर मेरा कोई दोस्त होता जो मुझे ताकता रहता। इकलौता होना कई बार बहुत भारी पड़ जाता था... पिताजी मुझे चालाक बनाना चाहते थे और माँ नीलकंठ... माँ-बाप दोनों की अपेक्षाओं का बोझ उठाने के लिए हमेशा कंधे कमज़ोर पड़ जाते। जब भी कंधों को सीधा करने की इच्छा होती मैं चल देता काया के घर के आस-पास कहीं।
एक दिन काया अकेली बाज़ार में दिखी। मैं बहुत देर उसके अगल बगल खोजता रहा कि वह किसी के साथ तो होगी। अकेली काया... मैंने इसकी हमेशा कल्पना की थी। मुझे पीपल का पेड़ याद हो आया और याद आया काया का उसके नीचे सो जाना। मैं उसके पीछे हो लिया। वह सलवार सूट की दुकान में घुस गई। मैं बाहर उसका इंतज़ार करने लगा। तभी पीछे से मुझे जीवन की आवाज़ आई।
’अरे! तुम यहाँ.... चलो बैठकर बातें करते हैं।’
मैंने जीवन को गुस्से से देखा। जीवन कुछ देर मेरा गुस्सा मेरी आँखों में पढ़ता रहा। अंत में मैंने ही आँखें हटा ली। काया को देखा वह अभी भी बहुत से सलवार सूट में अपनी पसंद खोज रही थी। तभी मुझे मेरे कान के पास किसी के सांस लेने की आवाज़ आई। मैंने कनखियों से देखा जीवन मेरे बगल में खड़ा है और खुसर-पुसर करके मुझसे कुछ कह रहा है...
’तुम एक पत्थर छोड़ते हो तो दूसरा पत्थर उठा लेते हो। भारी पत्थरों को ढ़ोते रहना तुम्हारी आदत है जिससे तुम बाज़ नहीं आते हो। हल्के रहो... छोड़ो पत्थर।’
जीवन कहता जा रहा था....
’तुम वह बच्चे हो जो अंत में अपनी माँ को बचा लेना चाहते हो। अपनी कब्र में लेटे रहने के स्वप्न देखते हो पर इधर-उधर के गढ़्ढों से बचते फिरते हो।’
तभी काया उस दुकान से बाहर निकली। मैं जीवन को छोड़कर अलग खड़ा हो गया मानों मैं उसे जानता ही ना हूँ। काया दो कदम दुकान से नीचे उतरी थी कि उसकी निग़ाह मुझपर पड़ी। वह थम गई। वह एकटक मुझे देखे जा रही थी जैसे मुझे बहुत पहले से जानती हो... तभी मुझे उसके पीछे अभी-अभी उगा पीपल का पेड़ दिखा। वह अचानक झेंप गई और निग़ाहें नीची किये बाज़ार की गलियों में घुस गई। मैंने पीछे पलटकर देखा तो जीवन गायब था। मैं बिना वक़्त गवाएं काया के पीछे हो लिया। काया कुछ देर में बाज़ार से अलग हो गई और एक सुनसान गली में प्रवेश कर गई। मैं अभी तक काया के बहुत पीछे था। मैंने अपनी गति बढ़ाई। उस सुनसान गली के मोड़ पर काया रुक गई। मैं रुकते-रुकते उसके करीब कहीं रुक गया। काया पलटी..
’क्या है?’ काया ने पूछा।
’तुम्हारा नाम काया है ना?’ मैंने पूछा
’नहीं...।’ और वह हसने लगी। फिल्मों में जैसे नायिका की सहेलियाँ हसती हैं ठीक वैसे।
’मुझसे दोस्ती करोगी?’
’नहीं मेरे पास वक़्त नहीं है... परिक्षा सिर पर है.. बहुत पढ़ना पड़ता है।’
’ठीक है।’ मैं तुरंत मान गया।
’तुम्हारा नाम क्या है?’ उसने पूछा।
’जीवन...।’ मैंने जीवन क्यों कहा... मेरा नाम जीवन नहीं है.. ओह! ओह! ओह!
’जीवन.. अच्छा नाम है।’
यह कहकर वह चल दी...। मैंने सोचा बस यही है अपने प्यार से पहली मुलाकात..? बस इतनी ही...? नहीं.. कुछ ओर भी है इसमें..। मैं काया के पीछे भाग लिया।
कुछ गलियों तक काया मुझे पीछे पलटकर देखती रही। फिर वह एक बाज़ार में निकल आई। मैं बाज़ार में काया के बहुत करीब आ गया... और भीड़ की आड़ में मैं उसका हाथ छूने की कोशिश करने लगा। काया मेरे हर स्पर्ष पर फिल्म में नायिकाओं की सहेलियों की तरह हंसने लगती। इस छूअन-छिलाई में मैं बहुत देर तक उस भाव को खोजता रहा जिसे प्रेम कहते हैं.. पर उसे प्रेम नामक भाव का शरीर में कहीं भी संचार नहीं हो रहा था। इतने में पता नहीं कब काया अपने घर के करीब पहुंच गई। तभी उसने अपनी चाल की गति बढ़ाई और दो हट्टे कट्टे नौजवानों को ’भाई.. भाई’ कहकर संबोधित किया। मैं अपनी डरपोक सतर्कता पर स्तब्ध बना रहा। काया की पीठ मेरी तरफ याने बाज़ार की तरफ थी... पर उसके दोनों भाईयों की आँखें भीड़ में किसी को टटोल रही थीं। मैं शुरु से ही भय सूंघ लेता था। काया पलटी और उसने सीधे मुझे देखा... और एक क्रूर मुस्कुराहट उसके होठों पर आ गई। काया ने हाथ के इशारे से अपने भाईयों को बाज़ार की भीड़ की तरफ धकेल दिया...। काया ने ठीक मेरी तरफ इशारा नहीं किया था... उसके भाई भीड़ को चीरते हुए घुसे और जो भी जवान सा लड़का दिखा उसे चपतियाने लगे। दो-तीन चपत मुझमें भी पड़े। दोनों भाई ’जीवन कौन है?’ नाम की रट लगा रहे थे..। मेरे कान और गाल सुन्न थे। दिमाग़ के भीतर कोई ’सुन्न..सुन्न’ शब्द का जाप कर रहा था। कुछ समय बाद मैंने खुद को अपने बिस्तर में पस्त पाया। काया, काया नहीं माया निकली। इन सबमें प्रेम कहाँ था। आकर्षण था.. हाँ आकर्षण.. जब काया बहुत क्रूरता मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा रही थी तब मैं सबसे ज़्यादा उसके प्रति आकर्षण अनुभव कर रहा था। तभी... ठीक उसी वक़्त मैंने पहली बार हलचल महसूस की अपने दोनों झांघों के बीच में कहीं....।
मेरे पिताजी ने कई बार पिशाब जाने के लिए घंटी बजाई और हर बार मैं ही उन्हें पिशाब कराने पीछे ले गया। बाथरुम में वह एक बार गिर चुके थे जिसकी वजह से उनके कूल्हे की हड़्ड़ी चटक गई थी। इस वजह से वह बाथरुम में पिशाब करन से घबराते थे..। हर घंटी पर मेरे दर्शन उनकी आदत में शुमार नहीं थे। चौथी बार जब वह पिशाब कर रहे थे और मैं बिना बादल के आसमान में काया को तलाश रहा था तो उन्होंने पूछ लिया..
’जवानी में बाप की इतनी सेवा खतरनाक है।’ उन्होने कहा
’किसके लिए?’ मैंने पूछा
’किसके लिए मतलब?’
’किसके लिए मतलब... मेरे लिए या आपके लिए?’
पिताजी गुर्राए... उनके मुंह से झाग निकलने लगा। वह जब भी गुस्से में होते थे तो उनके मुंह से झाग निकलने लगता था। मैंने उनके जेब से रुमाल निकाला और झाग साफ किया। उनका गुस्सा उनसे बहुत कुछ बुलवाना चाहता था पर उम्र के कई मौड़ मुड़ने के बाद वह अब एक सीध में चलना भूल चुके थे, एक बात पर बहुत देर बने रहना भी। वह कभी-कभी मुझसे कहते थे.. ’बेटा बहुत कठिन जीवन था.. आज सोचता हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं.....’ फिर मेरे चहरे पर कोई भी भाव ना पाकर मुझपर बरस पड़़ते। आज मैं सोचता हूँ तो मेरे पास कितने हज़ारों किस्से हैं जो लोग बहुत गरीबी और बेकारी का जीवन जी रहे थे। नंदू का बाप पहले ठेला लगाता था आज उसकी दुकान है... चीरु का बाप मिल मज़दूर था आज वह थोक का बड़ा व्यापारी है... रामू का बाप रामू काका हमारे घर में नौकर था आज रामू हमारे घर में नौकर है। यह संधर्ष थोड़ा अलग है... और इस संधर्ष का चश्मदीद गवाह मैं खुद हूँ....। रामू (याने रामू काका का बेटा) दोनों आवाज़ो पर प्रगट होता है.. अगर आप रामू चिल्लाओ तब भी और अगर... रामू काका चिल्लाओं तब भी। घर वालों को रामू काका बुलाने की आदत है... रामू उस आदत को समझता है.. अपने को खुद के नाम से पुकारे जाने की ज़िद्द नहीं करता है। असल में रामू काका का नाम बलविंदर सिंह था पर नौकरों के उस समय के पाप्युलर नाम में रामू सबसे ऊंचे पायदान पर था सो बलविंदर रामू हो गया..। रामू काका को शायद आजकल के नौकरों के नाम पसंद नहीं आते थे.. सो उन्होंने अपने बेटे के पैदा होते ही उसका नाम रामू रख दिया। रामू की उम्र मेरी उम्र लगभग बराबर है... पिताजी को मुझसे ज़्यादा रामू की शादी की चिंता खाए जाती है... वह चाहते है कि वह गाव की एक ऎसी औरत ढूढ़कर लाए जो रामू का दिमाग़ ना ख़राब कर दे... और रामू अपना बच्चा होने पर उसका नाम रामू ही रखे...। बचपन में रामू घर का सारा काम निपटाकर शाम को मेरे साथ खेलने के लिए थोड़ा सा समय निकाल लेता था। वह मेरे साथ खेलता भी किसी काम की तरह था। अगर थक जाता तो रुकता नहीं था... खेलता रहता.. गलती से अगर जीत जाता तो माफी मांग लेता। एक बार रामू और मैं ’बड़े होकर क्या बनेगें का सपना’ का सपना वाला खेल खेल रहे थे... मैंने उस वक़्त के सारे पाप्युलर सपने रामू को गिना दिए... और रामू ने कहा कि वह ट्रेन चलाना चाहता है...। मैं चुप बना रहा.. बस उसका यही सपना था...। वह सपना सुनाते वक़्त उसकी आँखों में एक गहरी चमक थी जिससे मुझे आज तक जलन महसूस होती है....। मैंने उसके बाद उसके साथ खेलना बंद कर दिया...। मैं आज तक अपने सपने जैसा कुछ भी नहीं बन पाया... फिर भी मैंने रामू को हरा दिया। पर आज भी जब कभी मैं ट्रेन देखता हूँ तो भीतर कहीं कोई चीख़ता है... और मैं सोचता हूँ कि यहाँ से कहीं चला जाऊं दूर... जहाँ ट्रन ना चलती हो... और जहाँ रामू कभी ना दिखे। गहरे अपने आपसे यह मैं कहता भी इसलिए हूँ कि रामू से बड़ा महसूस कर सकूं...। रामू चुप रहता है.. उसका मौन चुभता है... आँखों और कानों के बीच में कहीं।
मैं जीवन से भाग रहा था क्योंकि जीवन को काया के दोनों भाईयों ने मिलकर बहुत मारा था। जीवन ने मुझे काया को ताकते देखा था। जीवन गुणा भाग के बाद, पिटने की वजह में मेरे हाथ होने के निर्णय तक पहुंच चुका था। बाहर जीवन था.. और मैं घर में क़ैद था। जीवन की एक आँख काली हो चुकी थी। एक गहरी चोट लगी थी... कोहनी और कंधे के बीच में कहीं।
मैं दोनों ही जीवन से भाग रहा था... एक जो यायावर फटेहाल मेरा दोस्त था और दूसरा मेरा जीवन जो यायावर फटेहाल मेरा जीवन था। मेरे खुद के डरों ने मेरा मेरे ही जीवन से संबंध कुछ इस तरह का बना दिया है कि मैं अपने होने में क़ैद हूँ और मेरा जीवन बाहर मेरी प्रतीक्षा में है। भीतर मैं भी एक प्रतिक्षा में हूँ... किसी अनहोनी की... कुछ ऎसा हो जाए, चाहे दुखद ही सही.. जो जीवन की इस गति को बदल दे..। मैं अपने जीवन की इस गति का आदी हो चुका हूँ। इतनी सहजता से यह जीवन अपनी ज़िम्मेदारीयाँ मुझ पर लादता गया कि मैं हर दिन एक व्यस्त दिन की तरह जीता गया। फिर एक दिन पिताजी ने पूछा ’क्या करना चाहते हो जीवन में.. कुछ सोचा है?’ मैं प्रश्न के मानी नहीं समझ पाया.. क्या किया जा सकता है जीवन में? मैंने कहा ’मेरे पास समय ही कहाँ है?’ समय मेरे पास उस वक़्त नहीं था पर अब मैं जीवन के डर की वजह से घर में क़ैद हूँ सो समय है... बहुत समय..। घर के बाहर वाले सारे काम रामू काका का बेटा रामू करने लगा था। सो अब जीवन में क्या करना है सोचा जा सकता था। मैंने हर बार कहीं चले जाने के बारे में सोचा था। कहीं चला जाना या तो किसी चमत्कार के कारण हो सकता है.. या किसी अनहोनी के कारण... मैं दोनों के इंतज़ार में बरसों से था। चमत्कार होता हुआ कहीं नज़र नहीं आता था और अनहोनी होने को है जैसा एक कुत्ता घर के बग़ल की गली में चक्कर लगाता रहता.. कभी देर रात रोने लगता तो कभी भौंक-भौंक कर दिन खा जाता। मैं महसूस कर सकता था कि मेरा जीवन अनहोनी और चमत्कार के आस पास ही कहीं था।
एक दिन माँ नीलकंठ की खोज से वापिस आई तो सीधे किचिन में घुस गई। उनके दैनिक जीवन में नीलकंठ के बाद पिताजी थे फिर रामू काका.. फिर रामू और बाद में मैं था। वह नीलकंठ की खोज के बाद इसी गति से सभी से पूरे-पूरे संवाद निपटालेने के बाद घर के कभी ना खत्म होने वाले कामों में खुद को खपा देती थी। लेकिन आज वह नीलकंठ की खोज के बाद वह सीधा किचिन में घुस गई। मैं बहुत देर तक उनके बाहर आने का इंतज़ार करता रहा। पर वह बाहर नहीं आई। मैं किचिन के दरवाज़े के पास तक पहुंचा तो माँ के सुबकने की आवाज़ आने लगी। मैं भीतर किचिन में गया तो देखा वह गेस की टंकी के पास बैठी रो रही थी। मैं चुपचाप उनके बगल में बैठ गया बिना उनको छुए हुए। मैंने पानी का गिलास उन्हें पकड़ा दिया था जिसे वह एक सांस में पूरा का पूरा गटक गई थी। पर उनका रोना फिर भी जारी था। आँसू नहीं टपक रहे थी पर उनका सुबकना जारी था। मैं समझ गया अगर मैं किचिन में नहीं आता तो अब तक माँ अपना रोना बंद करके घर के कामों में मसरुफ हो चुकी होती... पर चूंकि अब उन्हें एक दर्शक मिल गया है.. सो वह अब अपने रोने को ज़ाया नहीं होने देंगी। अंत में मुझे सारी मनऊवल करनी पड़ी.. काफी देर के बाद उन्होंने कहा कि... नीलकंठ ने उन्हें सालों धोखा दिया है...। मुझे धोखे जैसी बातें सुनना हमेशा से अच्छा लगता रहा है.. चाहे वह धोखा खुद मैं ही क्यों ना खा रहा हूँ।
’उसने कभी भी मेरी बातें प्रभु राम से नहीं कहीं...’ माँ ने कहा..
’आपको कैसे पता..’ मैंने पूछा...
’पिछले कुछ दिनों से मुजे रोज़ नील कंठ दिख जाया करता... मैं उस पेड़ के नीचे जाती, जिस पेड़ पर वह बैठा होता, जैसा कि तुझे पता ही है ऎसा ही तो करना होता है....’
मैं हाँ में हाँ मिलाई... माँ ने आगे कहा...
’मैं रोज़ उससे अपनी बात कहती.. और इंतज़ार करती कि वह उड़ जाए.. पर वह मुआ टस-से-मस होने का नाम ही नहीं लेता... मुझे लगा नाराज़ है.. कुछ देर में उड़ जाएगा.. पर कहाँ.. थक्कर मुझे ही घर वापिस आना पड़ता..। आज फिर वह मुझे वहीं दिख गया.. मैं समझ गई इसने मेरी कोई भी बात प्रभु राम तक नहीं पहुँचाई... मैंने फिर अपनी बात कही.. पेड़ के तीन चक्कर लगाते हुए। पर वह वहीं बैठा रहा.. मैंने पत्थर उठाए और लगी मारने नीलकंठ को... वह उड़कर बगल वाले पेड़ पर बैठ गया.. मैंने फिर पत्थर मारा.. वह उड़ा और कुछ दूर जाकर फिर एक पेड़ पर बैठ गया..। मैं समझ गई यह ना जाने वाला प्रभु राम के पास.. मै उसके करीब गई... उससे हाथ जोड़कर विनती की.. कि हे नीलकंठ उड़ कर चले जाओ प्रभु राम के पास.. तब उसने.. उस मुए नीलकंठ ने मेरे ऊपर टट्टी कर दी...।’
यह सुनते ही मेरे भीतर एक हंसी का गुबार फूटा.. पर अगर इस वक्त हंसना ठीक नहीं था सो मैं हंसी दबा गया।
’इतना बड़ा अपश्गुन... अब मैं कभी उस नीलकंठ की ओर नहीं जा सकती.. अब कभी प्रभु राम तक मेरी बात नहीं पहुंचेगी।’
इस बात पर मेरे बहुत सवाल थे मेरी माँ से... पर मुझे पता है कि मेरे सारे सवालों के जवाब एक झिड़क ’तुझे क्या पता?’ पर खत्म कर दिये जाएगें... सो मैं किचिन से उठा और बाहर चला आया। माँ शाम तक अपने राम को भूल चुकी थी.. वह दैनिक दिनचर्या के खेल में पूरी तरह व्यस्त थी। उनकी व्यस्तता को देखकर मैं खुद की व्यस्तता के बारे में सोचने लगा..। मैं व्यस्त हूँ... पर अपनी पिछली व्यस्तताओं के बारे में यदि कोई मुझसे सवाल करे कि ’तुम ठीक-ठीक किस काम में व्यस्त हो?’ तो मैं उसका जवाब नहीं दे सकता हूँ। मैं अपने सब्ज़ी लाने को अपने जीवन में व्यस्त हूँ के कारण में नहीं रख सकता हूँ...। तो मैं कहा हूँ क्या कर रहा हूँ.... अचानक मैंने अपने जीवन को अपने घर की चाहरदीवारी के आस पास कहीं रेंगता हुआ पाया।
काया के घर के बगल से गुज़रते ही हृदय गति तेज़ हो जाती। बहुत दिनों से वह दिखी नहीं थी... पर फिर दिखेगी की कार्यवाही में मैं व्यस्त था। तभी मुझे मेरी छिछली व्यस्तताओं से घृणा होने लगी। मुझे लगा कि मैं रेंगता हुआ एक घिनौना जीव हूँ जिसके होने पर उस जीव को खुद ऊबकाई आती है। मैं तेज़ी से चलता हुआ चौक़ की तरफ पहुंचा.. मुझे वहाँ काया के दोनों जवान भाई दिखे.. मैं उनके सामने गया.. और उनसे कहा कि...
”मैंने उस दिन तुम्हारी बहन को छेड़ा था जीवन के नाम से.. बोलो क्या कर लोगे मेरा।“
वह दोनों पान की दुकान पर मुँह बाए मुझे देखते रहे। फिर एक भाई ने मेरे कंधे पर धक्का दिया.. और कहा..
’चल जा निकल ले वरना बहुत पिटेगा... चल निकल..।’
मैं वही खड़ा रहा..। दोनों भाई वापिस पान खाने में व्यस्त हो गए। मैं पिटना चाहता था बुरी तरह.. एक अनहोनी.. एक आश्चर्य की तलाश में..। मैंने दूसरे भाई को कंधे से पलटाया और एक तमाचा उसके गाल पर दे मारा....।
उसके बाद सब कुछ संगीत में बदल गया..। बहुत से धूंसे... बहुत सी लातें... चांटे... मैं पिटता हुआ सड़के एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुंचा जा रहा था.. एक तरह का नृत्य था.. जिसे मैं लोट-पोट होकर किये जा रहा था। अचानक सब कुछ बहुत धीमी गति से चलने लगा। मैं दोनों भाईयों के सारे वार बहुत ही सहजता से देखे जा रहा था.. वह मुझपर वार नहीं कर रहे थे, यह तो मैं था शायद जो जैसा चाह रहा था वैसा वार खा रहा था। मुझे धीमी गति से अपनी तरफ आते हुए मुक्के दिखे.. लात धूल उड़ाती हुई मेरे कूल्हे के आस-पास कहीं चिपक गई। उन दोनों भईयों के चहरे राम और लक्ष्मण की तरह चमक रहे थे। उनके मुँह से फुफ्कारे निकल रही थी। यह सुख था.. नहीं सुख नहीं आनंद.. आनंद की चरम अनुभूति। फिर एक करारी लात जो मेरे सीने पर चिपकी मैं घिसटता हुआ सड़क के किनारे तक पहुंच गया...। वह दोनों सड़क के बीचों-बीच रुक गए, दोनों थकान चुके थे.. संगीत बीच में ही बंद हो गया। मैं लड़खड़ाता हुआ उठा. रेंगता हुआ उनके पास गया और एक भाई को फिर ज़ोर का चपत जड़ दिया.. फिर संगीत शुरु हो गया। मैं इतना प्रसन्न बहुत कम हुआ हूँ ज़िन्दगी में.. मैं चाह रहा था यह संगीत कभी बंद ना हो.. मैं पिटता जाऊं.. पिटता जाऊ...।
पिताजी के लाख पूछने पर भी मैंने किसी को नहीं बताया कि किसने मुझे मारा। माँ चुप थी। मुझे स्वस्थ होने में बहुत समय लगा। मैं बहुत ही हल्का महसूस कर रहा था। चीज़े मुझे साफ दिख रही थी। जब मैं स्वस्थ महसूस करने लगा तो एक दिन मैं पिताजी के कमरे में गया.. उनके पैर छुए... वह घबरा गए।
’क्या हुआ?’ उन्होंने पूछा
’मैं जा रहा हूँ।’ मैंने कहा...
’ठीक है...’
वह मुझे आश्चर्य से देख रहे थे...। उन्हें लगा कि शायद मैं बाज़ार कुछ खरीदने जा रहा हूँ पर उसके लिए पैर पड़ने की क्या ज़रुरत थी? जब तक मैं उन्हें दिखता रहा वह मुझे देखते रहे। फिर मैं माँ से मिला... रामू से और अपने घर से...। कुछ छूट रहा था... एक ऎसा संसार जो मेरे होने के कारण मुझमें व्यस्त था। कुछ दिनों से मैं अपनी इस संसार में नहीं होने के बारे में सोच रहा था तो लगा कि इस संसार में मैं नहीं हूँ की तरह यह संसार नहीं चलेगा... यह संसार चलेगा कि मैं हुआ करता था। ’था’ में मुझे मेरे घर वाले याद करेगें.. और मैं कहीं ओर होऊंगा। मैं कहा होऊंगा में आश्चर्य और चमत्कार था.. सो वह मुझे बहुत आकर्षित कर रहा था। मै इस बार उस आकर्षण का सपना नहीं देख रहा था.. मैं उस ओर बढ़ चला था।
जीवन मुझे स्टेशन तक छोड़ने आया था। मेरे पिटने पर वह चुप था जैसे उसके पिटने पर मैं। स्टेशन छोड़ते वक़्त उसने कहा...
’कहा जाओगे?’
’शहर...।’ मैंने कहा
जीवन के लिए इतना जानना काफ़ी था। फिर उसने कहा..
’मुझे खुशी है।’
’मैं जानता हूँ।’ मैंने कहा
’एक वक़्त होता है जब तुम जा सकते हो.... मैं जिस दिन जा सकता था उस दिन मैं व्यस्त था।’
’मैं भी अभी तक व्यस्त था।’
’जब तुम वहाँ पहुच जाओगे तो वहाँ भी व्यस्तता होगी.. पर बहुत व्यस्त मत हो जाना।’
’क्यों?’
’छोटी-छोटी व्यस्तताएं आदमी को काकरोच बना देती है.. फिर उसे लगता है कि वह कभी भी नहीं मरेगा।’
जीवन थोड़ा उग्र हो गया था। ट्रेन आने में अभी वक्त था..। मैं स्टेशन के बाहर जीवन के साथ खड़ा था। वह स्टेशन के भीतर नहीं जाएगा मुझे मालूम था। मैं भीतर जाने को हुआ...
’कुछ देर रुक जाओ... अभी तुम्हारी ट्रेन आने में समय है।’
मैंने अपना सूटकेस वापिस रख दिया...।
’चाय पियोगे?’
’ना...’
’कुछ खाओगे?’
’भूख नहीं है।’
जीवन के भीतर पता नहीं क्या चल रहा था। मेरी इच्छा हुई कि उससे सीधा पूछ लू कि क्या बात है? पर मैं उसके सामने शांत खड़ा रहा। मैं सच में शांत था। जीवन अशांत था जो छूटने वाला था।
मैंने सूटकेस उठाया और स्टेशन की ओर चलने लगा। जीवन मुझे देख रहा था। वह कुछ देर के लिए ही सही मुझे रोक लेना चाहता था पर मैं रुका नहीं.... मैंने उसे आखरी बार पलटकर देखा.. वह वहीं खड़ा था.. मुझे देखता हुआ...। मुझे उसकी काकरोच वाली बात याद आई और मैं पलट गया।
मैं स्टेशन पर अपना छोटा सा सूटकेस लिए बैठ था। ट्रेन दाहिनी तरफ से आएगी.. और बाए तरफ को मुझे ले जाएगी। ट्रेन देर से नहीं चल रही थी... और इस बार मैं सही समय के आस पास कहीं था।
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मानव
परिचय
- मानव
- मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल