Thursday, October 19, 2017

happy diwali.. 19-10-17


आज दिवाली है। मैंने लगभग हर दिवाली पर अपने लिखने का सिलसिला बनाए रखा है। पहले दिवाली पर अकेले रहना अपनी इच्छा से नहीं था... मैं चाहता था कि कोई आए। पर हर बार दीवाली लगभग अकेले ही मनानी पड़ी। अब कुछ दोस्त आ सकते हैं... मैं कहीं जा सकता हूँ... पर मैंने तय किया है कि नहीं अकेले ही रहता हूँ। यह चुनना सब बदल देता है... चुनने से उदासी ख़त्म हो जाती है... चुनने में संगीत प्रवेश करता है और सारा कुछ बहुत सादग़ी लिए हुए होता है। शायद यह उम्र का भी तकाज़ा है... पर आज का दिन मैं बड़े आनंद में हूँ।

दीवाली पहले कितनी महत्वपूर्ण होती थी... स्कूल की लगभग दो महीने की छुट्टी होती थी, कश्मीर में पिताजी बहुत सारे पटाख़े लाते थे.. पड़े पटाखों की आवाज़ से मैं रो रहा होता था। मुझे फुलझड़ी, अनार और साँप बड़े सही लगते थे। बहुत दिनों तक अपने पटाख़े बचाए रखना मुझे बहुत अच्छा लगता था। फिर होशंगाबाद की राम लीला... हम खुद अपनी राम लीला खेलते थे मोहल्ले में.. दोपहर में.... कोई देखने वाला नहीं होता था। बस हम कुछ चार पांच दोस्त.. राजू और छोटू हमारे पड़ोसी थे.. पंडित.. उन्हें पूरी रामलीला ज़बानी रटी थी तो ज़ाहिर है राम और लक्षमण वही दोनों बनते थे.. मेरा बड़ा भाई भरत और मुझे हमेशा शत्रुघन बना देते थे...। शत्रुघन की कोई भूमिका नहीं होती थी...  मैं बस धनुष बांड लिए... कभी राम के तो कभी भारत के आगे पीछे घूम रहा होता था। फिर हम ग्राऊंड पर कुभकरण वध, रावण वध देखने जाते थे। मुझे सबसे मज़ा आता था अपने दोस्तों को राम की सेना या रावण की वानर सेना में पहचाना। सारे काले बच्चे रावण की सेना में और सारे गोरे बच्चे राम की सेना में होते थे....। उस वक़्त यह बात कभी अख़रती नहीं थी... अभी यह लिखते हुए भी अजीब लग रहा है। अजीब है कि राम की सेना बंदरों की होती थी... गोरे बंदर... जबकि बंदर तो काले भी हो सकते थे। और रावण तो प्रगाड़ पंडित था ... उसकी सेना में गोरे बच्चे ज़्यादा सही लगते... पर बुरा आदमी गोरा कैसे हो सकता है। अजीब था यह सब। मैं कुछ दोस्तों को पहचान लेता तो नाम से चिल्लाता और वह सब अपना मुंह छुपाते फिरते....। रावण की सेना के बच्चों को पूरे साल चिढ़ाया जाता... राम के बंदरों को कोई कुछ नहीं कहता था।

आज कभी-कभी सोचता हूँ वह हेमंत, निखिल, हेमराज, पटवा, राजू, मीनेष, बंटी, विक्की कहाँ होगें... जीवन की किस जद्दोजहद में व्यस्त होंगे? आज सभी दीवली पर नए कपड़ों में होंगे... खुश होंगे।

मुझे अब बहुत ही तकलीफ होती है जब लोग पटाख़े छोड़ते हैं... हमारी संवेदनशीलता कितनी ज़्यादा ख़त्म हुई पड़ी है कि जिन प्राणियों के साथ हम यह धरती पर रहना बांट रहे होते हैं हम उनकी कतई फिक्र नहीं करते हैं। कैसे हम ऎसे हैं... मुझे सच में यक़ीन नहीं होता... सारे पक्षी... जानवर.. उस सबके कान कितने सेंसटिव होते हैं हर एक आवाज़ को सुनने के लिए और हम उनके बग़ल में बम फोड़ देते हैं। मैं इन त्यौहारों से भर पाया। बचपन, बचपन था... अब यह सब उबा देता है... उबा नहीं तक़लीफ से भर देता है।

अभी अभी पूरी बनाई थी.... खूब इच्छा हो रही थी पूरी ख़ाने की...। अब गोल पूरिया नहीं बनती है.. और बहुत दिनों बाद बनाई थी सो वो फूली भी नहीं। पर स्वाद ठीक था। चाय और पूरी... आह!!!

दीवाली पर लिखने का सिलसिला कुछ शुरु हुआ लगता है... आशा है यह चलता रहेगा।

Tuesday, February 7, 2017

चलता फिरता प्रेत... (वेताल.. विलाप)


A man will be imprisoned in a room with a door that’s unlocked and opens inwards; as long as it does not occur to him to pull rather than push.

-Ludwig Wittgenstein



कक्षा आठवीं की परिक्षा अभी-अभी ख़त्म हुई थी। करीब रात के दस बज रहे होंगे... उसे नींद नहीं आ रही थी। सुबह पाँच बजे उसके पिताजी आने वाले थे। वह झेलम एक़्सप्रेस के बारे में देर तक सोच रहा था... उसे लगता कि उसके पिताजी असल में वेताल हैं और झेलम उनका सफेद घोड़ा है जिसपर सवार होकर वह सारे जंगल पार करते हुए उस तक पहुँचेंगे। फिर वह अपने पिताजी के चौड़े कंधो के बारे में सोचने लगा... कैसे वह उनके दोनों कंधों पर चढ़ जाएगा.. और फिर गहरी सांसों से उनके पास से आती हुई खुशबू को ख़ीचेगा भीतर... बहुत भीतर, जब तक कि उसका पेट ना भर जाए..... उसके पेट में कीड़े पड़ गए थे.. जिस वजह से वह हमेशा भूख़ा रहता था।  उसे लगता कि वह खुशबू सिर्फ उसे ही आती है और सिर्फ वह ही इसे सूंध सकता था। उसकी निग़ाह घड़ी पर गई... ग्यारह बजने को थे...   उसका बड़ा भाई गहरी नींद में था, माँ भीतर घर ठीक करने में व्यस्त थी।  जब भी उसके पिताजी आते उसे लगता कि थोड़ी ठंड बढ़ गई है... वह शायद हर बार अपने साथ अपना कश्मीर लेके आते थे। कश्मीर... नीला आसमान, सफेद बादल... उसे अचानक लगा कि असल में पिताजी के पास से कश्मीर की खुशबू आती है... हाँ... कश्मीर!!  उसने करवट बदली तो लगा पेशाब आ रही है... वह नहीं चाहता था कि पिताजी आए और वह बाथरुम में हो... सो वह तुरंत उठने को हुआ... पर वह हिल नहीं पाया... उसने फिर कोशिश की कि पेशाब करने चला जाए पर वह महज़ करवट बदल पाया.. उसने पूरा ज़ोर लगाया... एक चीख़ निकली और सब शांत हो गया।

अचानक उसकी नींद खुल गई... दोपहर का वक़्त था.. वह सीधा बाथरुम चला गया। बाथरुम की खिड़की से दोपहर की तपिश महसूस हो रही थी। वह आईने के सामने खड़ा हो गया... उसके सिर पर बाल नहीं थे... छोटी सी चोटी थी.. उसने अपने बाल दिये थे.. मृत्यु पर।  मृत्यु... ?  वह बाहर आया तो देखा वह पहाड़ो पर था... पूरा जंगल सूख़ा पड़ा था। उसने नज़रे घुमाई तो वह कश्मीर था... वीरान उजड़ा हुआ कश्मीर... आसमान नमी में ढूबा हुआ था.. वह जैसे-जैसे आगे बढ़ता उसके पैरों के नीचे सूख़े पत्ते चर्मराने लगते।  उसने अपने दूसरी तरफ देखा... वह डल झील के किनारे-किनारे चल रहा था... डल में पानी बहुत कम था और वह काला पड़ चुका था। चार चिनार में चिनार के पेड़ सूख़े पड़े थे। अचानक उसे आवाज़ आई, यह तो उसके पिताजी की आवाज़ थी... वह उसे बुला रहे हैं...। आवाज़ मुगल गार्डन से आ रही थी... वह भागकर मु्गल गार्डन पहुँचा.... देखा पिताजी गार्डन के पानी में खड़े हैं... और उससे कह रहे हैं कि जल्दी आओ... मेरे कंधे पर चढ़ जाओ तस्वीर ख़िचानी है। वह धीरे-धीरे उनकी तरफ बढ़ रहा था... पिताजी चिल्लाने लगे कहने लगे कि पानी इतना ठंडा है... मेरे पैर सुन्न हो रहे हैं जल्दी आओ। वह भागकर पानी में कूद गया। उसकी चीख़ निकल आई ... पानी सच में बहुत ठंडा था। वह भागकर अपने पिताजी से चिपक गया। चिपकते ही वह उन्हें सूंघने लगा.. वही खुशबू.... बिल्कुल वही कश्मीर की खुशबू... वह कश्मीर में ही था पर कश्मीर की खुशबू उसे अपने पिता से आ रही थी... तो क्या यह कश्मीर की खुशबू है जो पिताजी से आ रही है या यह पिताजी की खुशबू है जो पूरे कश्मीर में फैली हुई है? उन्होने लाल रंग का क्रोकोडायल की कंपनी का स्वेटर पहना था... सफेद पैजामा, पानी में घुटने-घुटने खड़े रहने के कारण, ऊपर चढ़ा हुआ था। ’चलो जल्दी... चढ़ जाओ कंधे पर मैं ज़्यादा देर रुक नहीं पाऊंगा... चलो...’  पिताजी ने उससे कहा...। उसने देखा सामने उसका भाई हाट-शाट का केमरा लिए खड़ा है... और उससे कह रहा है...’जल्दी कर ना.. देख पिताजी कितनी तकलीफ में हैं।’  वह जल्दी से पिताजी  के कंधे पर चढ़ गया...। तभी उसके भाई ने कहा कि ’अपना स्वेटर ठीक कर ले..’ उसने देखा पिताजी नहीं असल में वह लाल रंग का स्वेटर पहने हुए था... उसने अपने पिताजी को देखा वह सफेद बनियान पहने हुए थे.. और उनका चहरा सूजा हुआ था... होठ काले पड रहे थे..। उसकी निग़ाह पिताजी के पेट पर गई वह फूल चुका था... और कड़क हो रहा था... उनकी टांगे मुड़ने लगी थी... तभी पिताजी ने कहा कि ’जल्दी ख़ीच... जल्दी..’  भाई ने पिताजी के गिरने के ठीक पहले तस्वीर ख़ीची... बहुत तेज़ रोशनी उसकी आँखों के सामने चमकी... और सब गहरा काला हो गया।

उसकी आँखे जलने लगी थी... वह बहुत देर आँखें बंद नहीं रख पाया... उसने आँखे खोली तो वह एक छोटे से कमरे में था। उसके आधे बाल पक चुके थे.. दाढ़ी बढ़ी हुई थी...।  माँ बाल्कनी में सफेद साड़ी पहने हुए खड़ी थीं... और फोन की घंटी लगातार बज रही थी। ’माँ फोन उठाओ..’ उसने कहा.. ’तेरे लिए है...’ माँ ने कहा। उसने फोन उठाया दूसरी तरफ से पिताजी की आवाज़ आई....

’हाऊ आर यू माय सन... तूने फोन ही नहीं किया.. आए वाज़ वेटिंग.. कल मेच था.. बधाई हो इंडिया जीत गई.. धोनी ने सब के छक्के छुड़ा दिए।’ उसके पिताजी एक सांस में सब बोल गए। उसने कहा ’अच्छा...’ । पिताजी कुछ देर चुप रहे... उसने भी कुछ नहीं बोला..।

’अख़बार पढ़ रहा था...’ वह बोले.. ’आज कश्मीर में बर्फ पड़ी है... बहुत से जवान फस गए हैं...’

फिर कुछ देर की चुप्पी रही... पिताजी ने कहा.. ’मैं ठीक हो जाऊं फिर चलेंगें कश्मीर... मैं ले चलूंगा तुम्हें...। और कब आ रहे हो तुम....मैंने सोचा है....’ बीच बात चीत में उसने फोन काट दिया। माँ उसके लिए चाय बनाने लगी। चाय देते हुए माँ ने कहा... ’उनसे बात कर ले अच्छा लगेगा उन्हें वह तेरे फोन का इंतज़ार करते रहते हैं..।’ ’ठीक है कर लूंगा...’ उसने माँ को इगनोर करते हुए बोला...

’कब...?’ माँ ने कहा...।
’जब फ्री हो जाऊंगा..’
’अभी क्या कर रहा है?’
’चाय पी रहा हूँ।’

माँ कुछ देर चुप रही...। चाय ख़त्म होने के बाद माँ बोली...

’अब कर ले...।’
’कर लूंगा।’
माँ उसे देखती रहीं... वह उन्हें देखता रहा... फिर उसने कहा...
’बिज़ी हूँ...’

बिज़ी हूँ कहकर वह बाल्कनी में जाकर ख़ड़ा हो गया। बहुत देर तक बाहर देखता रहा। दो काले कव्वे सामने के पेड़ पर आकर बैठ गए... वह कव्वे पूरे काले थे..। उनके पीछे दो और कव्वे आ गए.. वह भी पूरे के पूरे काले... चारों उसकी तरफ देख रहे थे। उसे यह बहुत अजीब लगा।  तभी पीछे से दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आई... उसने कहा.. ’माँ देखो कोई है दरवाज़े पर...’। माँ ने कोई जवाब नहीं दिया... दरवाज़ा ख़टखटाने की आवाज़ फिर आई.... वह मुड़ा तो देखा माँ सो रही है...। वह ख़ुद दरवाज़ा खोलने के लिए चला तो पैरों तले चिनार के सूख़े पत्तों के चर्मराने की आवाज़ आ रही थी। उसने उस आवाज़ को अनसुना किया और चलने लगा..। दरवाज़ा इस बार कुछ ज़ोर से ख़टखटाया जा रहा था.... कमरा बहुत छोटा था पर वह दरवाज़े तक नहीं पहुच पा रहा था...। वह भागने लगा... तेज़.. और तेज़... पर दरवाज़ा फिर भी कुछ कदम दूरी पर ही बना रहा...।

तभी उसकी नींद खुली... उसने देखा भाई और माँ दोनों सो रहे हैं और कोई दरवाज़ा खटखटा रहा है..। उसकी निग़ाह घड़ी पर गई.. सुबह के पाँच बज रहे थे... उसके मुँह से पापा निकला... और वह दरवाज़े की और लपका...। दरवाज़ा खोलते ही उसने देखा कि सामने चलता-फिरता-प्रेत... याने वेताल ख़ड़ा था.. उसके पीछे उसका सफेद घोड़ा झेलम और शेरु कुत्ता बग़ल में थे...। उसने वेताल के पैर पड़े... और झट से गले लग गया। वेताल के पास से कश्मीर की खुशबू आ रही थी... वह उस खुशबू को खाने लगा। वेताल अपने दो बड़े सूटकेस लेकर अंदर आया। वह माँ को उठाने गया पर वेताल ने मना कर दिया।

’दरवाज़ा बंद कर दो.....’ वेताल ने कहा...

वह दरवाज़ा बंद करने गया तो वहाँ झेलम और शेरु कुत्ता नहीं था। पौ फटने को थी। वह उम्र ही कुछ ऎसी थी जिसमें किसी भी चमत्कार पर सवाल नहीं उठाए जाते थे.. सारे चमत्कार उनके होने में हतप्रभ के बुलबुले बनाते.... और वह बुलबुले कुछ ही क्षणों में ख़त्म हो जाते। जब वह मुड़ा तो उसके पिताजी सूटकेस खोले बैठे थे, उनके बगल में माँ बैठी थी.. और भाई उनके कंधो पर झूल रहा था। पिताजी ने उसे एक केटबरी चाकलेट दी, वह उसे लेकर बाहर निकल गया। जैसे ही बाहर निकला एक ठंड़ी हवा का झोंका आया और उसने अपनी आँखें बंद कर दी।

जब उसने आँखे खोली तो वह कश्मीर की एक सरकारी कालोनी में था। चारो तरफ बर्फ थी... पूरी कालोनी खंडहर हो चुकी थी..... वह गली के आख़री मकान की तरफ ख़िचा चला जा रहा था। आख़री मकान के बरामदे में पिताजी बर्फ़ के गोले बना रहे थे... तीन गोले बना चुके थे... चौथे गोले को धकेलते हुए, बाक़ी तीनों के पास रख रहे थे। वह बरामदे की मुडेर पर बैठ गया और अपने पिताजी की थकान देख रहा था। अब चारों गोले एक लाईन में आ चुके थे। उन्होंने जेब से कंचे निकाले सबकी आँखे बनाई।

’कैसा लग रहा है।’ उन्होंने बिना उसकी तरफ देखे उससे पूछा।
’आप मुझसे पूछ रहे है?’ हिचकिचाते हुए उसने कहा।
’और कौन दिख रहा है तुम्हें यहाँ?’
’अच्छा लग रहा है।’

तभी आख़री गोला जो सबसे बड़ा था वह बिख़र गया। उससे यह देखा नहीं गया... वह भाग कर उस गोले की बर्फ़ को वापिस समेटने लगा... वह जितना समेटता उतना ही वह गोला बिख़रता जाता। उसने देखा पिताजी मुड़ेर पर बैठे हैं जहाँ वह बैठा था। उनके बग़ल में चार कव्वे बैठे हैं एकदम काले। अब सिर्फ तीन गोले थे.... जिनमें कंचों से आँखें बनी हुई थी। उस बिख़री हुई बर्फ़ में वह दो कंचे ढ़ूढ़ने लगा...।

’तुमने मुंडन क्यों करा लिया?’

पीछे से पिताजी की आवाज़ आई पर वह बदहवास सा कंचे ढ़ूढ़ रहा था।

’मेरी आँखें खोज रहे हो?’ पिताजी ने पूछा।

और वह रुक गया। उसने पिताजी की तरफ देखा तो वह मुड़ेर पर एक फोन लिये बैठे थे... और नंबर डॉयल कर रहे थे। कुछ देर में घंटी बजी....। जिस फोन की घंटी बज रही थी वह फोन उनके बगल में ही पड़ा था.... वह भागकर मुड़ेर पर अपने पिताजी के बगल में बैठा और उसने फोन उठाया... दूसरी तरफ से उसके पिताजी की आवाज़ आई।

’हेलो....।’
’पापा... गोले तो चार होने चाहिए ना... यह एक गोला बिख़र क्यों गया?... अभी तो नहीं बिख़ना था.. अभी तो बर्फ़ है चारों तरफ... अभी-अभी तो हम सबको तेज़ गर्मी से राहत मिली थी... अभी-अभी तो हम सब एक साथ ख़ुश हुए थे... अभी तो नहीं बिख़रना था।’

वह यह कहकर अपने बग़ल में बैठे पिता को देख रहा था..

’पापा... मैं बीमार हूँ।’

यह सुनते ही पिताजी उसकी तरफ देखने लगे...  दोनों ने फोन कान पर लगाए हुए थे। पिताजी ने फोन काट दिया.. और उससे बोले....

’तुम पीला स्कूटर क्यों चलाते हो?’

उसने देखा कि वह बंबई में पीले स्कूटर पर बहुत तेज़ी से चला जा रहा है। उसके आधे बाल पक़ चुके हैं... दाढ़ी बढ़ी हुई है। वह पिताजी को लेने स्टेशन जा रहा था। सुबह का वक़्त है... उसे एक चाय की दुकान दिखती है... वह अपना स्कूटर रोक लेता है। चायवाला उससे बिना पूछे उसके हाथ में चाय  पकड़ा देता है। वह चाय के साथ सिगरेट सुलगाने ही वाला होता है कि चाय वाला उससे कहता है..

’आपको देर तो नहीं हो रही है?’
’नहीं... क्यों? किस बात की देर?’ वह पूछता है।
’आज इक्कतीस जनवरी है... ।’
’हाँ तो....?’
’तो देख लो... मुझे लगा पूछ लेता हूँ कि कहीं देर तो नहीं हो रही है।’

वह आराम से चाय पीता है... पर देर हो जाने की बात उसके दिमाग़ में रह जाती है। वह घड़ी देखता है पर उसने घड़ी नहीं पहन रखी है। वह अपना मोबाईल जेब में टटोलता है... वह भी उसके पास नहीं है। वह चायवाले से पूछता है..

’कितना वक़्त हुआ है?’
’वक़्त बहुत नहीं बचा है..।’

वह चाय रखता है.. जलती हुई सिगरेट फैंक देता है... और बिना चाय वाले को पैसे दिये स्कूटर में किक मारता है। स्कूटर स्टार्ट नहीं होता... वह चाय वाले की तरफ देखता है, उसे याद आता है कि उसने उसे पैसे नहीं दिये। वह पैसे देता है और पीला स्कूटर स्टार्ट हो जाता है।  वह बहुत तेज़ी से स्टेशन की तरफ चल देता है। उसका स्कूटर बहुत तेज़ चलने लगता है.... सड़क पर सुबह की धुंध बढ़ती जाती है... धीरे-धीरे आस-पास का सब कुछ ग़ायब होने लगता है... उसे घने कोहरे में ठंड़ लगने लगती है। तभी रेल की सीटी सुनाई देती है। वह अपने आस-पास कश्मीर सूंधता है। सामने के धुंधलके में एक स्टेशन उभरता है, उस स्टेशन का नाम कश्मीर है। वह अपना स्कूटर खड़ा करता है और स्टेशन के भीतर भागता है। इक्कत्तेस जनवरी की सुबह स्टेशन पर ट्रेन आ नहीं जा रही थी... जा रही थी। उसने पिताजी को लेने में नहीं छोड़ने में देर कर दी। ट्रेन स्टेशन से जा रही थी... उसे ट्रेन की एक ख़िड़की से पिताजी का हाथ दिख़ा... वह उस हाथ में ओम का निशान देख सकता था... वह उससे आख़री बार हाथ हिलाकर विदा ले रहे थे।

तभी पूरा स्टेशन धुंध में गायब हो गया और उसने देखा कि वह बर्फ़ से ढ़के चिनार के जंगल में खड़ा है। उसके हाथ में सिगरेट है और वह धुंध में कुछ तलाश रहा है। तभी एक चिनार के दरख़त के पीछे उसे पिताजी दिखे।

’आप इस तरफ कैसे?’ उसने पूछा...
’अपनी ज़मीन तलाश रहा था... सब तरफ बर्फ़ है... कुछ समझ नहीं आ रहा है।’ पिताजी बोले
’आपकी ज़मीन तो बहुत पहले चली गई थी। अब अगर आप अपनी ज़मीन पर भी खड़े होंगे तो भी अपको पता नहीं चलेगा कि यह आपकी ज़मीन है।’
’मुझे पता चल जाएगा।’
’यहाँ सब बदल गया है।’
’पर मैं नहीं बदला।’

पिताजी बोले और वह अपनी ज़मीन तलाशने लगे। बात करते हुए दोनों के मुँह से धुंआ निकल रहा था। वह पिताजी के करीब आया।

’पापा, आप बहुत जल्दी चले गए। अभी तो बहुत कुछ बाक़ी था।’
’क्या बाक़ी था?’
’आपके हिस्से की कहानी तो मुझे पता ही नहीं है?’

पिताजी मुस्कुरा दिये।

’तुम मेरे हिस्से की कहानी में ही खड़े हो...।’

तभी उसे घोड़े की टाप सुनाई दी। झेलम किसी धुंध में से आकर पिताजे के पास खड़ा हो गया। पिताजी जैसी ही उछलकर झेलम पर बैठे... वह वेताल हो चुके थे... चलता-फिरता-प्रेत।

झेलम की टाप... ट्रेन की आवाज़ सी कहीं दूर से जा चुकी थी। उसने अपना फोन उठाया और अपने पिताजी को फोन मिलाया। बहुत देर तक घंटी बजती रही.. पर दूसरी तरफ कोई नहीं था।

                                                                                                                                  

Monday, November 23, 2015

वह क्षण....

कल शाम ज़ोरों की भूख लगी। मैंने फ्रिज से अंड़े, कुछ बचा हुआ चावल निकाला, एक प्याज़ हरी मिर्च काटी और egg fried rice सा कुछ बनाने लगा। Thailand से कुछ प्रिमिक्स कॉफी लाया था सो बगल में एक कप पानी भी रख दिया। तभी, इस व्यस्तता के बीच वह हुआ... किचिन की खिड़की से सूरज की रोशनी भीतर आ रही थी... सामने के पेड़ पर गिलहरी टकटकी बांधे इसी तरफ देख रही थी.. ऊपर से एक प्लेन जाने की ज़ोर की आवाज़ हुई और सब कुछ अचानक से आनंदमय हो गया... लगा कि यह सब कितना खूबसूरत है। यह अकेली ख़ाली दौपहरें... पीछे रफ़ी के नग़में... दूर से आती हुई बहुत सारी चिड़ियाओं की आवाज़े। अकेले रहने के बड़े सुख हैं... यह बहुत कुछ वैसा ही है जैसे कोई बच्चा जब अपनी शुरु-शुरु की संगीत की कक्षा में वायलन या सितार पर कोई बहुत कठिन राग़ शुरु करता है... अधिकतर सब कुछ असाघ्य और कठिन लगता है.. सारे सुर भी छितरे-छितरे चीख़ते दिखते हैं... पर उन्हीं दिनों में एक दिन वह क्षण अचानक आता है जब एक सटीक सुर लगता है.. और उस बच्चे को वह सुनाई देता है... पहली बार.. वह धुन.. धुंध से उठती हुई सी। वह उसके शरीर के भीतर से ही कहीं उठ रही थी... उसे आश्चर्य होता है कि वह उसके भीतर ही कहीं छुपी बैठी थी... उंगलियां उसके बस में नहीं होती.. उसकी फटी हुई आँखें, सामने तेज़ी से गुज़रे हुए सुर पकड़ रही होती हैं। इस क्षण की मुस्कुराहट सुबह की चाय तक क़ायम है। मुझे लगा इसे लिख लेना चाहिए.. कभी जब फिर सुर भटक रहे होंगे.. जीवन कठिन लम्हों में दिखेगा.. तब इन दौपहरों को फिर से पढ़ लेंगें। फिर एक गहरी सांस लेंगें... फिर प्रयास करेंगें.. सुर भीतर ही है.. वह सटीक सुर वाला क्षण फिर आएगा.... फिर आंखें फटेगीं.. फिर से मुस्कुराहट कई सुबह की चाय को बना देंगीं।

बहुत दिनों बाद....

कुछ तीन बार यह लाईन लिखकर मिटा दी कि बहुत दिनों बाद लिखने बैठा हूँ। अभी लिखने में लग रहा है कि बस कुछ दिनों पहले की ही बात थी कि मैं लगातार लिख रहा था। फिर उस आदमी से थोड़ा बैर हो गया जो लिखता था। मैंने यूं तो कई बार कोशिश की उसे बुला लूं चाय पर और सुलह कर लूं... पर हम दोनों ही बड़े ज़िद्दी हैं। बहुत कोशिश के बाद कुछ उसके कदम मेरी तरफ बहके...कुछ मैंने उसकी ठाह लेने की कोशिश की कि वह ठीक तो है? और ठीक अभी हम एक दूसरे के सामने खड़े मिले...। ’क्या हाल है?’ मैंने पूछा.. वह गंभीर था, लेखक है इतनी नाराज़गी तो बनती है। मैंने अपने कदम किचिन तक बढ़ाए तो उसने कहा कि ’चाय नहीं, मैंने चाय छोड़ दी है।’ मुझे हंसी आई... पर इस वक़्त माहौल इतना गर्म था कि मेरी हंसी से मेरा लेखन मुझे हमेशा के लिए छोड़कर जा सकता था।’चाय कब छोड़ी’, मैंने उसकी संजदगी के अभिनय में पूछा। ’तुम्हें सच में यह जानना है कि मैंने चाय कब छोडी?’ उसने पूछा और हमारी बात वहीं ख़त्म हो गई। हम दोनों बाहर घूमने आ गए। सोचा बाहर कहीं कॉफी पीएगें, खुले में, चाय पर संवाद ठीक नहीं बैठ रहे थे। चलते हुए एक दो बार गलती से हमारे हाथ एक दूसरे से टकराए... कितना पहचाना हुआ है सब कुछ... मुझे लगा अभी भी वह वही है और मैं भी वह ही हूँ..। मैं उसकी तरफ देखकर मुस्कुरा दिया पर वह खामोश था। कुछ देर में एक कॉफी हाऊस पर हम रुके... मैं आर्डर देने की सोच रहा था पर वह पहले ही कुर्सी पर बैठ गया। मैंने सोचा कुछ देर में वेटर आ ही जाएगा..। अब ख़ामोशी मुमकिन नही थी सो हमने सीधा एक दूसरे का सामना किया... शुरुआत फिर मैंने ही की... ’सच कहना चाहता हूँ, तुम मेरे लिए बहुत प्रिडिक्टेबल हो गए थे, और मुझे लगा कि हमारा संबंध कभी भी ऎसा नहीं था। हमने हमेशा एक दूसरे को चकित किया है... मतलब ख़ासकर तुमने मुझे। पर..... हम अपनी हर बात उन्हीं घिसेपिटे शब्दों से शुरु कर रहे थे... वही सारे वाक़्य हम बार-बार कह रहे थे.. तुम मुझे बार-बार उन जगहों पर घसीटकर ले जा रहे थे जहां मैं रहना नहीं चाहता था।’ वह हंस दिया। मैं बीच में ही कहीं रुक गया। ’क्या हुआ?’ मैंने पूछा। ’तुम झूठ बोल रहे हो... सच कहो।’ वह सीधा मुझे देख रहा था मानों खुद को देख रहा हो। ’मैं सच कह रहा हूँ।’ मेरे वाक़्य टूट गए... हिज्जे में वाक़्य निकला... और मैंने समर्पण कर दिया। ’तुमने खून किया है... तुमने जान बूझकर मुझे ख़त्म करने की कोशिश की है...पर तुम बहुत कायर हो.. तुमसे वह भी नहीं हुआ। तुमने मुझे मारा और फिर ज़ख़्म पर हल्का मलहम लगाते रहे कि मैं ज़िदा रहूं।’ वह सच कह रहा था। मैंने उसे मारने की पूरी कोशिश की थी.... पर क्या हम कभी भी किसी को भी मार सकते हैं। अपना ही चख़ा सारा स्वाद किस तरह अपने शरीर से निकालकर बाहर किया जाए? ’तुम भाग रहे थे... अब भटक गए हो। बहुत दूर भटकने के बाद जब तुम ख़ाली हुए तो लगा - देखे उसे कितना पीछे छोड़ा है... कितना दुख हुआ देखकर कि मैं अभी भी तुम्हारे पास ही था।’ मैं जवाब देने को था कि वेटर आ गया...। मैंने दो कॉफी कहलवा दी.. उसने टेबल साफ किया और दो गिलास पानी रख दिया। हम दोनों एक दूसरे का इंतज़ार कर रहे थे... पहले भी और अब भी... मैं कभी भी अच्छा इंतज़ार करने वाला नहीं रहा हूँ.. मैं असहज हो जाता हूँ... मुझे लगता है कि ख़त्म कर दूं ख़ुद को या इंतज़ार को... सो मैं फिर बोल पड़ा..। ’मैं कुछ कहूँ...?’ मैंने हल्के अपनेपन में कहा। ’तुम्हारे पास कुछ कहने को नहीं है।’ वह उठकर जाने लगा। ’कॉफी???’ मेरे मुँह से निकला और वह रुक गया। कुछ चुभ गया था भीतर... वह वापिस बैठ गया। ’मेरे पास बहुत कुछ है कहने को... इतने समय का नहीं लिखना भी भीतर काफी सारा भरा पड़ा है। मैं भटक गया हूँ क्योंकि मैं भटकना चाहता हूँ। मैं अपने निजी जीवन में खाए धोखों का बदला अपने लिखे से नहीं लेना चाहता था... मैं तुम्हें अपने जीवन की निजी हार-जीत की तुच्छता से दूर रखना चाहता था। पर यह भी पूरा सच नहीं है... इसमें बहुत सारी थकान है, अपने घने अकेलेपन की... इसमें बहुत सारी शामों की हार है... रातों का रोना है... बिना किसी वजह की सुबहें हैं। इसमें हर जगह जाना है और कहीं न पंहुचपाना है... इसमें कड़वाहट है.. और यह भी पूरा सच नहीं है सच और भी चारों तरफ छितरा पड़ा है। फिर यह भी लगता है कि क्यों ना बदल जाऊं... मैं जब भी किसी यात्रा पर होता हूँ तो एक सवाल उन लोगों के लिए उठता है जो आत्महत्या करते हैं। मुझे हमेशा से यह लगता है कि अगर मुझे ख़त्म ही करना है तो मैं जो अभी जी रहा है उसे ख़त्म करुंगा और कहीं भी फिर से, किसी एकदम दूसरे तरीक़े से जीवन शुरु करुंगा। तुमने सच कहा है कि मैंने तुम्हारी हत्या की है... कोशिश नहीं की है... पर किसी के मारने से अगर कोई मर जाता तो बात कितनी सरल होती। मुझमें एक ख़ामी है.. सारा जिया हुआ मेरे पूरे शरीर से चिपक जाता है... फिर धीरे-धीरे पपड़ी दर पपड़ी झड़ता रहता है। मुझॆ लगा था तुम भी झड़ जाओगे एक दिन.. समय रहते... पर...।“ वेटर कॉफी ले आया... वह तुरंत कॉफी पीने में व्यस्त हो गया.. मैं अपने अधूरे वाक़्य पर अभी भी टंगा हुआ था। सारा कुछ बोलकर मुझे लगा मानों मैंने कुछ कहा ही नहीं... मैं उसके सामने सालों से चुप सा बैठा था। उसने कॉफी का आख़री सिप लिया और ख़ाली कप मेरी तरफ बढ़ाया दिखाने के लिए कि मैं कॉफी पी चुका हूँ। वह खड़ा हो गया। ’तुम्हें कुछ नहीं कहना है।’ ’मुझे सिगरेट पीना है... यहां कैफे में नहीं पी सकते हैं..।’ मैं तुरंत खड़ा हुआ भीतर जाकर बिल दिया और उसके साथ हो लिया। हम बहुत से घरों की पिछली गली में निकल आए.. यह पिछवाड़े बड़े अजीब होते हैं.. यहां सारी गैरकानूनी हरकत जायज़ लगती है.. सिगरेट पीना भी...। सिगरेट के पहले गहरे कश के साथ उसने कहा.... ’तुम्हें याद है हमारी पहली कविता... तुमने डरे-डरे अपने दोस्तों को सुनाई थी। अभी उस कविता को पढ़ो तो कितनी ख़राब लगती है वह... कैसे लिखी थी।’ मैं हंस दिया मुझे बिल्कुल याद थी वह कविता। बहुत दिनों के बाद हम दोनों साथ हंस रहे थे। ’पर कितनी महत्वपूर्ण थी वह ख़राब कविता... अगर वह लिखी ना होती और उसे सुनाने की लज्जा ना सही होती तो क्या यहां तक यात्रा कर पाते?’ उसने सवाल जैसा सवाल नहीं किया... यह जवाब वाला सवाल था। मैं चुप रहा। ’यह भटकना भी कुछ वैसा ही है... एक दिन फिर हम किसी पिछवाड़े सिगरेट पीते हुए इस भटकने पर साथ हंसेगें।’ उसके यह कहते ही सब कुछ हल्का हो गया। हम दोनों कितना एक दूसरे को समझते है... कितना संयम है उसमें। मैं कुछ देर में उससे सिगरेट मांगी और दो तीन तेज़ कश ख़ीचे... आह! आनंद। हम फिर साथ थे।

Wednesday, September 24, 2014

’पीले स्कूटर वाला आदमी’

मैंने कहीं पढ़ा था- ’वेस्ट में अकेलापन एक स्थिति है, पर हमारे देश में, हम लोगों को हमारा अकेलापन चुनना पड़ता है, और इस बात के लिए हमें कोई माफ नहीं करता है... ख़ासकर आपके अपने..।’ इस देश में लेखक होने के बहुत कम मुआवज़े मिलते हैं उनमें से एक है कि हम अपने भीतर पड़ी हुई गठानों को अपने हर नए लिखे से खोलते चलते हैं। जैसे बड़े से ब्लैकबोर्ड पर गणित का एक इक्वेशन लिखा हुआ है और हम नीचे उसे चॉक से हल कर रहे होते हैं... डस्टर हमारी बीति हुई ज़िदग़ी को लगातार मिटा रहा होता है.. पर कुछ शब्द, कुछ अधूरे वाक़्य जिसे डस्टर ठीक से मिटा नहीं पाता, हम उन टूटी-फूटी बातों का रिफ्रेंस ले लेकर अपने जीवन की इक्वेशन को हल कर रहे होते हैं लगातार। ’पीले स्कूटर वाला आदमी’ इसी कड़ी का एक प्रयास था। ’शक्कर के पाँच दाने’ के बाद यह मेरा दूसरा नाटक था। उस वक़्त बतौर लेखक कुछ भीतर फूट पड़ा था, इतना सारा कहने को था कि मैं लगातार लिखता ही रहता था... इस बीच मैंने कई कविताएं लिखी... कई कहानियां... और मेरा दूसरा नाटक..। कविताएं मुझे बोर करने लगी थीं... मेरी बात कविता की सघनता में अपने मायने खो देती थी... सो मैंने कविताएं लिखनी बंद कर दी... मुझे नाटकों और कहानियों में अपनी बात कहने में मज़ा आने लगा था। असल में मज़ा सही शब्द नहीं है... सही शब्द है ईमानदारी... मैं कविताओं में खुद को बेईमानी करते पकड़ लेता था... मरी क़लम वहीं रुक जाती थी। ईमानदारी से मेरा कतई मतलब नहीं है कि मैं अपनी निजी बातों को नाटकों में लिखना पसंद करता था... ईमानदारी का यहां अर्थ कुछ भिन्न है.... एक लेखक के सोचने, जीने, महसूस करने और लिखने के बीच कम से कम ख़ाई होनी चाहिए.... हर लेखक (ख़ासकर जिनका लेख़न मुझे बहुत पसंद है) अपने नए लिखे से उस ख़ाई को कुछ ओर कम करने का प्रयास करता है। पीले स्कूटर वाला आदमी एक लेखक की इसी जद्दोजहद की कहानी है... वह कितना ईमानदार है? वह जो लिखना चाहता है और असल में उसे इस वक़्त जो लिखना चाहिए के बीच का तनाव है। मैं उन दिनों काफ़्का और वेनग़ाग के लिखे पत्रों को पढ़ रहा था.. वेनग़ाग की पेंटिग़ Room at Arles ने मुझे बहुत प्रभावित किया था.. पीले स्कूटर वाले आदमी का कमरा भी मैं कुछ इसी तरह देखता था। मेरे लिए वेनग़ाग के स्ट्रोक्स उस कमरे में कहे गए शब्द हैं, पात्र हैं और संगीत है...। अपने लेखन के समय के रतजगों में मैंने हमेशा खुद को संवाद करते हुए सुना है... आप इसे पागलपन भी कह सकते हैं.. पर मेरे लिए यह अकेलेपन के साथी हैं। मेरे अधिक्तर संवाद किसी न किसी लेखक से या किसी कहानी/उपन्यास के पात्रों से होते रहे हैं... मुझे लगता है कि मेरे पढ़े जाने के बाद कुछ लेखक, कुछ पात्र मेरे कमरे में छूट गए हैं। देर रात चाय पीने की आदत में मैं हमेशा दो कप चाय बनाता हूँ.. एक प्याला चाय मुझे जिस तरह का अकेलापन देता है उसे मैं पसंद नहीं करता... दो प्याला चाय का अकेलापन असल में अकेलेपन का महोत्सव मनाने जैसे है...। दूसरे प्याले का पात्र अपनी मौजूदग़ी खुद तय करता है... आप किसी का चयन नहीं करते.. आप बहते है उनके साथ जो आपके साथ हम-प्याला होने आए हैं। यही पीले स्कूटरवाले आदमी का सुर है. और दो चाय के प्यालों के संवाद है।

Monday, January 13, 2014

साथी.....

एक मधुर स्वर वाली चिड़िया बाल्कनी में आई...। वह बहुत शर्मीली है... उसे देखने के लिए सिर घुमाता हूँ तो वह दूसरी बाल्कनी में चली जाती है...। मैं चाय बनाने के बहाने जब दूसरी बाल्कनी के पास गया तो वह दिख गई... गहरी काले रंग की... लाल रंग की नोक अपने माथे पर चढ़ाए हुए...। मेरी सुबह मुस्कुराहट से फैल गई। मैं बहुत हल्के कदमों से बाल्कनी के कोने में खड़ा हो गया... सूरज मेरे चहरे पर सुन्हेरा रंग उड़ेल रहा था। मैं उस चिड़िया को अपना सपना सुनाने लगा... कल रात के कुछ डर मैं उस सपने में छुपाना चाहता था... पर वह सूरज की रोशनी में चीनी में लगी चींटियों की तरह बाहर आने लगे...। आजकल मेरी दोस्ती कूंए में पल रहे कछुए से बहुत बढ़ गई हैं...। उसका नाम मैंने ’साथी’ रखा है... अपने चुप धूमने में मैं जब ’सुपर मिल्क सेंटर’ चाय पीने जाता हूँ तो कुछ आत्मीय संवाद अपने साथी से कर लेता हूँ। मैंने साथी को अपने सपनों के बारे में कभी नहीं बताया... मुझे डर है कि वह एक दिन कुंआ छोड़कर चला जाएगा....। सपनों के सांझी कुछ समय में चले जाते हैं...। मैं उससे दैनिक दिनचर्या कहता हूँ... उसे आश्चर्य होता है कि मैं कितना उसके जैसा जीता हूँ...। मैंने उससे कहा है कि मेरा भी एक कुंआ है... कुछ देर ऊपर रहने पर मैं भी भीतर गोता लगा लेता हूँ और बहुत समय तक किसी को नहीं दिखता...। भीतर हम दोनों क्या करते हैं इस बात की चर्चा हम दोनों एक दूसरे से नहीं करते हैं...। साथी कभी-कभी मेरे कुंए की बात पूछता है... मेरे पास अपने कुंए के बारे में बहुत कुछ कहने को नहीं होता... अकेलपन की बात उससे कहना चाहता हूँ पर उससे अकेलापन कैसे कह सकता हूँ...? सो मैं एक वाचमैन के बारे में बात करता हूँ जो मेरा क्रिकेट दोस्त है... उससे मैं क्रिकेट की बात करता हूँ.... बाहर ’सुपर मिल्क सेंटर’ पर एक लड़का है जो मेरे लिए चाय लाता है... वह अभी-अभी दोस्त हो चला है... पता नहीं क्यों वह मुझसे अंग्रेज़ी में बात करना चाहता है... थेंक्यु और नाट मेनशन वह कहीं भी बीच संवाद में कह देता है...। फिर एक गोलगप्पे वाला भी है जो एक लड़की को पसंद करता है... वह उस लड़की से गोलगप्पे के पैसे नहीं लेता... वह अगर अपनी सहेलियों के साथ आती है तब वह उसकी सहलीयों से भी पैसे नहीं लेता...। जब वह लड़की गोलगप्पे खा रही होती है तो उसकी गोलगप्पे बनाने की सरलता... लड़खड़ा जाती है...। लड़की गोलगप्पे खाते हुए बहुत खिलखिलाकर हंसती है.... जब जाती है तो दूर जाते हुए एक बार पलटकर गोलप्पे वाले लड़के को देख लेती है... वह खुश हो जाता है। साथी बार-बार मुझसे उस गोलगप्पे वाले लड़के के बारे में पूछता है... क्या हुआ उसका उस लड़के के साथ। मैं उससे कहता हूँ कि असल में मैं इसके बाद की कहानी जानना नहीं चाहता हूँ... यह ठीक इस वक़्त तक इतनी खूबसूरत है... कि मैं खुद भीतर गुदगुदी महसूस करता हूँ.. पर ठीक इसके बाद क्या होगा? इसपर मेरे भीतर के डर धूप में चीनी के डब्बे मे पड़ गई चींटियों की तरह बाहर आने लगते हैं...। साथी कहता है कि तुम बहुत डरपोक हो... मैं कहता हूँ... मैं हूँ...। साथी से संवाद ख़त्म करके जब भी मैं सुपर मिल्क सेंटर की तरफ जाता हूँ तो भीतर एक गिजगिचापन महसूस करता हूँ....। मैं अपने इतने सुंदर साथी से भी वही टूटी हुई बिख़री हुई बातें करता हूँ...। फिर तय करता हूँ कि एक किसी नए सुंदर दोस्त से मिलूंगा... उसे उसके बारे में बताऊंगा... ओह! उसे मैंने अपनी बाल्कनी पर आई चिड़िया के बारे में भी नहीं बताया है... अचानक मुझे मेरे अकेलेपन के बहुत सारे छोटे-छोटे दोस्त दिखने लगे... ओह अभी तो ओर भी कितना है... कितना सारा है जिसे मैं कह सकता हूँ...। जैसे बोबो के बारे में...। बोबो की आँखें... उसकी पवित्रता...(पवित्र शब्द कितना दूर लगता है मुझसे.. इस शब्द के लिखने में भी मेरी उंग्लियां लड़खड़ा जाती हैं।) मैं बोबो के बारे में साथी से कहूंगा.... कहूंगा कि वह बोबो है जो मुझे मेरे छुपे में तलाश लेता है...। आज की सुबह बहुत पवित्र लग रही है... आज की सुबह...

Friday, August 30, 2013

नाम “गुड्डू” निकला... (पिछली पोस्ट से जुड़ा हुआ....)

आह!!! उस चाय वाले का
मेरे पूरे शरीर ने उसका नाम सुनते ही ‘नहीं ई ई...’ चीख़ा। इसलिए शायद लेखक जिसके बारे में भी लिखना चाहते हैं... उसका नाम वह खुद ही रखते थे। किसी के होने से ही उसकी कहानी घट रही होती है...। सुबह की लंबी walk समुद्र पर रुकी....। सुबह छ: बजे समुद्र उफान पर था.... पानी की आवाज़ भीतर घट रहे संसार को संगीत दे रही थीं... मैं शांत बैठा रहा। दूर एक अकेली लड़ी बैठी हुई थी..... सिर पर चुनरी ओढ़े.... अपनी गुलाबी चप्पलों को बगल में रखे हुए वह अपना सिर घुटनों में दबाए हुई थी। बीच-बीच में वह समुद्र की तरफ देख लेती.. मैं उसकी चुनरी में से उसका चहरा देखने की कोशिश कर रहा था... चहरे के बिना कैसे कहानी जानी जा सकती है....। सुबह छ: बजे मेरे अलावा वह ही थी उस Beach पर.... सो मेरी जिज्ञासा, हर उसके सिर उठाने पर उसके सामने कूद जाना चाहती थी। मैंने सोचा मैं अपनी उपस्थिति दर्ज कराता हूँ.... कुछ गाकर... ख़ांसकर... अचानक हंसकर... या इन पत्थरों पर गिरने का अभिनय करके...। मैंने कुछ नहीं किया...। असल में इस सुबह में बहुत शांति है... सिर्फ पानी की आवाज़ है.. मैं उस पवित्रता में और कुछ भी नहीं हिंसक नहीं देख सकता था। मैंने उस लड़की की तरह पीठ मोड़ ली..... हम दोनों अपने अपने-अपने एकांत के साथ पूरे संसार के सामने बैठे थे...। एक बारको मुझे लगा कि मैं असल में पृथ्वी के ऊपर बैठा हूँ..... और पूरे ब्रंम्हांड को अपने सामने देख रहा हूँ... और दूसरे तरफ वह गुलाबी चप्पल वाली लड़की है जो मेरी ही तरफ पृथ्वी के ऊपर बैठी है पर वह ब्र्ह्मांड नहीं वह धरती के गर्भ में कहीं झांकने की कोशिश कर रही थी...। अचानक मुझे उसका धरती का मूल टटोलना मेरे ब्रह्मांड बांचने से ज़्यादा सुखद लगने लगा...। मैंने उसकी तरफ पलटा... और चौंक पड़ा वह मुझे देख रही थी.... और सब बिख़र गया... वह भी “गुड्डू...” निकली...। उसके हाथ में मोबाईल था वह गाने और मेसेज़ कर रही थी..... उसके देखने में एक दूसरी कहानी थी... जो इस सुबह की मेरी कहानी में दर्ज नहीं हो पा रही थी। मैं उठा और वहां से तुरंत चल दिया...। हमेशा दिमाग़ में इस तरह एक अजान लड़की को देखकर लगता है कि आज मैं पहली बार जीवन में किसी ऎसी लड़की से मिलूंगा जिसका मैं बरसों से इतंज़ार कर रहा था....। जो घटक की फिल्म से सीधा निकलकर आई हो... जो इतने सालों टेगोर की कहानी कविता में भटकर रही थी ... आज सुबह छ: बजे मैंने Beach पर उसे देख लिया है....। बस ठीक उसे वक़त मुझे वहां से निकल जाना चाहिए था... और अपनी डॆस्क पर बैठकर एक कहानी लिख देनी थी.... ’सुबह के घटने में उसका होना....’। पर मैंने ऎसा नहीं किया.... मुझे उत्सुक्ता थी...कुछ दूसरा देखने की.... कहीं कुछ छिपा बैठा है उसे ढूंढ़ निकालने की... कुछ नया आश्चर्य वगैहरा-वगैहरा। “जो मुझसे नहीं हुआ... वह मेरा संसार नहीं....” (कहीं पढ़ा था... याद आ गया।) वापसी में लगभग अलग-अलग टपरियों पर चाप पी.... गुरुद्वारे भी मथ्था टेक लिया वहां भी चाय मिल गई। वापिस आकर पहली बार मैंने ’सुबह’ Coetzee का लेटर पढ़ा..... मातृभाषा पर... उसमें Derrida की किताब का ज़िक्र है... Monolingualisam of the Other – 1996… यह किताब बहुत इंट्रस्टिंग लग रही है..। एक बार किसी ने शमशेर से मातृभाषा के ऊपर कुछ पूछा था... तो उनका जवाब था कि इस दुनियां में बोली जाने वाली सारी भाषांए हमारी मातृभाषा हैं। मुझे यह जवाब बहुत सुंदर लगा था... और कुछ इसी तरीक़े की पर पेचीदगी के साथ Derrida की किताब होगी जिसे पढ़ने में मज़ा आएगा.. क्यों कि वह बहुत सारी भाषा के जानकार थे। इसके बाद अचानक मेरी निग़ाह एक पुरानी ख़रीदी हुई किताब पर पड़ी जिसे जल्द पढूंगा की अलमीरा में रखा हुआ था... THE MASATER OF GO-YASUNARI KAWABATA… अभी इसे शुरु किया है...। “IT IS EASY TO ENTER THEE WORLD OF THE BUDDHA, IT IS HARD TO ENTEER THEE WORLD OF THE DEVIL.”

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल