Tuesday, February 7, 2017

चलता फिरता प्रेत... (वेताल.. विलाप)


A man will be imprisoned in a room with a door that’s unlocked and opens inwards; as long as it does not occur to him to pull rather than push.

-Ludwig Wittgenstein



कक्षा आठवीं की परिक्षा अभी-अभी ख़त्म हुई थी। करीब रात के दस बज रहे होंगे... उसे नींद नहीं आ रही थी। सुबह पाँच बजे उसके पिताजी आने वाले थे। वह झेलम एक़्सप्रेस के बारे में देर तक सोच रहा था... उसे लगता कि उसके पिताजी असल में वेताल हैं और झेलम उनका सफेद घोड़ा है जिसपर सवार होकर वह सारे जंगल पार करते हुए उस तक पहुँचेंगे। फिर वह अपने पिताजी के चौड़े कंधो के बारे में सोचने लगा... कैसे वह उनके दोनों कंधों पर चढ़ जाएगा.. और फिर गहरी सांसों से उनके पास से आती हुई खुशबू को ख़ीचेगा भीतर... बहुत भीतर, जब तक कि उसका पेट ना भर जाए..... उसके पेट में कीड़े पड़ गए थे.. जिस वजह से वह हमेशा भूख़ा रहता था।  उसे लगता कि वह खुशबू सिर्फ उसे ही आती है और सिर्फ वह ही इसे सूंध सकता था। उसकी निग़ाह घड़ी पर गई... ग्यारह बजने को थे...   उसका बड़ा भाई गहरी नींद में था, माँ भीतर घर ठीक करने में व्यस्त थी।  जब भी उसके पिताजी आते उसे लगता कि थोड़ी ठंड बढ़ गई है... वह शायद हर बार अपने साथ अपना कश्मीर लेके आते थे। कश्मीर... नीला आसमान, सफेद बादल... उसे अचानक लगा कि असल में पिताजी के पास से कश्मीर की खुशबू आती है... हाँ... कश्मीर!!  उसने करवट बदली तो लगा पेशाब आ रही है... वह नहीं चाहता था कि पिताजी आए और वह बाथरुम में हो... सो वह तुरंत उठने को हुआ... पर वह हिल नहीं पाया... उसने फिर कोशिश की कि पेशाब करने चला जाए पर वह महज़ करवट बदल पाया.. उसने पूरा ज़ोर लगाया... एक चीख़ निकली और सब शांत हो गया।

अचानक उसकी नींद खुल गई... दोपहर का वक़्त था.. वह सीधा बाथरुम चला गया। बाथरुम की खिड़की से दोपहर की तपिश महसूस हो रही थी। वह आईने के सामने खड़ा हो गया... उसके सिर पर बाल नहीं थे... छोटी सी चोटी थी.. उसने अपने बाल दिये थे.. मृत्यु पर।  मृत्यु... ?  वह बाहर आया तो देखा वह पहाड़ो पर था... पूरा जंगल सूख़ा पड़ा था। उसने नज़रे घुमाई तो वह कश्मीर था... वीरान उजड़ा हुआ कश्मीर... आसमान नमी में ढूबा हुआ था.. वह जैसे-जैसे आगे बढ़ता उसके पैरों के नीचे सूख़े पत्ते चर्मराने लगते।  उसने अपने दूसरी तरफ देखा... वह डल झील के किनारे-किनारे चल रहा था... डल में पानी बहुत कम था और वह काला पड़ चुका था। चार चिनार में चिनार के पेड़ सूख़े पड़े थे। अचानक उसे आवाज़ आई, यह तो उसके पिताजी की आवाज़ थी... वह उसे बुला रहे हैं...। आवाज़ मुगल गार्डन से आ रही थी... वह भागकर मु्गल गार्डन पहुँचा.... देखा पिताजी गार्डन के पानी में खड़े हैं... और उससे कह रहे हैं कि जल्दी आओ... मेरे कंधे पर चढ़ जाओ तस्वीर ख़िचानी है। वह धीरे-धीरे उनकी तरफ बढ़ रहा था... पिताजी चिल्लाने लगे कहने लगे कि पानी इतना ठंडा है... मेरे पैर सुन्न हो रहे हैं जल्दी आओ। वह भागकर पानी में कूद गया। उसकी चीख़ निकल आई ... पानी सच में बहुत ठंडा था। वह भागकर अपने पिताजी से चिपक गया। चिपकते ही वह उन्हें सूंघने लगा.. वही खुशबू.... बिल्कुल वही कश्मीर की खुशबू... वह कश्मीर में ही था पर कश्मीर की खुशबू उसे अपने पिता से आ रही थी... तो क्या यह कश्मीर की खुशबू है जो पिताजी से आ रही है या यह पिताजी की खुशबू है जो पूरे कश्मीर में फैली हुई है? उन्होने लाल रंग का क्रोकोडायल की कंपनी का स्वेटर पहना था... सफेद पैजामा, पानी में घुटने-घुटने खड़े रहने के कारण, ऊपर चढ़ा हुआ था। ’चलो जल्दी... चढ़ जाओ कंधे पर मैं ज़्यादा देर रुक नहीं पाऊंगा... चलो...’  पिताजी ने उससे कहा...। उसने देखा सामने उसका भाई हाट-शाट का केमरा लिए खड़ा है... और उससे कह रहा है...’जल्दी कर ना.. देख पिताजी कितनी तकलीफ में हैं।’  वह जल्दी से पिताजी  के कंधे पर चढ़ गया...। तभी उसके भाई ने कहा कि ’अपना स्वेटर ठीक कर ले..’ उसने देखा पिताजी नहीं असल में वह लाल रंग का स्वेटर पहने हुए था... उसने अपने पिताजी को देखा वह सफेद बनियान पहने हुए थे.. और उनका चहरा सूजा हुआ था... होठ काले पड रहे थे..। उसकी निग़ाह पिताजी के पेट पर गई वह फूल चुका था... और कड़क हो रहा था... उनकी टांगे मुड़ने लगी थी... तभी पिताजी ने कहा कि ’जल्दी ख़ीच... जल्दी..’  भाई ने पिताजी के गिरने के ठीक पहले तस्वीर ख़ीची... बहुत तेज़ रोशनी उसकी आँखों के सामने चमकी... और सब गहरा काला हो गया।

उसकी आँखे जलने लगी थी... वह बहुत देर आँखें बंद नहीं रख पाया... उसने आँखे खोली तो वह एक छोटे से कमरे में था। उसके आधे बाल पक चुके थे.. दाढ़ी बढ़ी हुई थी...।  माँ बाल्कनी में सफेद साड़ी पहने हुए खड़ी थीं... और फोन की घंटी लगातार बज रही थी। ’माँ फोन उठाओ..’ उसने कहा.. ’तेरे लिए है...’ माँ ने कहा। उसने फोन उठाया दूसरी तरफ से पिताजी की आवाज़ आई....

’हाऊ आर यू माय सन... तूने फोन ही नहीं किया.. आए वाज़ वेटिंग.. कल मेच था.. बधाई हो इंडिया जीत गई.. धोनी ने सब के छक्के छुड़ा दिए।’ उसके पिताजी एक सांस में सब बोल गए। उसने कहा ’अच्छा...’ । पिताजी कुछ देर चुप रहे... उसने भी कुछ नहीं बोला..।

’अख़बार पढ़ रहा था...’ वह बोले.. ’आज कश्मीर में बर्फ पड़ी है... बहुत से जवान फस गए हैं...’

फिर कुछ देर की चुप्पी रही... पिताजी ने कहा.. ’मैं ठीक हो जाऊं फिर चलेंगें कश्मीर... मैं ले चलूंगा तुम्हें...। और कब आ रहे हो तुम....मैंने सोचा है....’ बीच बात चीत में उसने फोन काट दिया। माँ उसके लिए चाय बनाने लगी। चाय देते हुए माँ ने कहा... ’उनसे बात कर ले अच्छा लगेगा उन्हें वह तेरे फोन का इंतज़ार करते रहते हैं..।’ ’ठीक है कर लूंगा...’ उसने माँ को इगनोर करते हुए बोला...

’कब...?’ माँ ने कहा...।
’जब फ्री हो जाऊंगा..’
’अभी क्या कर रहा है?’
’चाय पी रहा हूँ।’

माँ कुछ देर चुप रही...। चाय ख़त्म होने के बाद माँ बोली...

’अब कर ले...।’
’कर लूंगा।’
माँ उसे देखती रहीं... वह उन्हें देखता रहा... फिर उसने कहा...
’बिज़ी हूँ...’

बिज़ी हूँ कहकर वह बाल्कनी में जाकर ख़ड़ा हो गया। बहुत देर तक बाहर देखता रहा। दो काले कव्वे सामने के पेड़ पर आकर बैठ गए... वह कव्वे पूरे काले थे..। उनके पीछे दो और कव्वे आ गए.. वह भी पूरे के पूरे काले... चारों उसकी तरफ देख रहे थे। उसे यह बहुत अजीब लगा।  तभी पीछे से दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आई... उसने कहा.. ’माँ देखो कोई है दरवाज़े पर...’। माँ ने कोई जवाब नहीं दिया... दरवाज़ा ख़टखटाने की आवाज़ फिर आई.... वह मुड़ा तो देखा माँ सो रही है...। वह ख़ुद दरवाज़ा खोलने के लिए चला तो पैरों तले चिनार के सूख़े पत्तों के चर्मराने की आवाज़ आ रही थी। उसने उस आवाज़ को अनसुना किया और चलने लगा..। दरवाज़ा इस बार कुछ ज़ोर से ख़टखटाया जा रहा था.... कमरा बहुत छोटा था पर वह दरवाज़े तक नहीं पहुच पा रहा था...। वह भागने लगा... तेज़.. और तेज़... पर दरवाज़ा फिर भी कुछ कदम दूरी पर ही बना रहा...।

तभी उसकी नींद खुली... उसने देखा भाई और माँ दोनों सो रहे हैं और कोई दरवाज़ा खटखटा रहा है..। उसकी निग़ाह घड़ी पर गई.. सुबह के पाँच बज रहे थे... उसके मुँह से पापा निकला... और वह दरवाज़े की और लपका...। दरवाज़ा खोलते ही उसने देखा कि सामने चलता-फिरता-प्रेत... याने वेताल ख़ड़ा था.. उसके पीछे उसका सफेद घोड़ा झेलम और शेरु कुत्ता बग़ल में थे...। उसने वेताल के पैर पड़े... और झट से गले लग गया। वेताल के पास से कश्मीर की खुशबू आ रही थी... वह उस खुशबू को खाने लगा। वेताल अपने दो बड़े सूटकेस लेकर अंदर आया। वह माँ को उठाने गया पर वेताल ने मना कर दिया।

’दरवाज़ा बंद कर दो.....’ वेताल ने कहा...

वह दरवाज़ा बंद करने गया तो वहाँ झेलम और शेरु कुत्ता नहीं था। पौ फटने को थी। वह उम्र ही कुछ ऎसी थी जिसमें किसी भी चमत्कार पर सवाल नहीं उठाए जाते थे.. सारे चमत्कार उनके होने में हतप्रभ के बुलबुले बनाते.... और वह बुलबुले कुछ ही क्षणों में ख़त्म हो जाते। जब वह मुड़ा तो उसके पिताजी सूटकेस खोले बैठे थे, उनके बगल में माँ बैठी थी.. और भाई उनके कंधो पर झूल रहा था। पिताजी ने उसे एक केटबरी चाकलेट दी, वह उसे लेकर बाहर निकल गया। जैसे ही बाहर निकला एक ठंड़ी हवा का झोंका आया और उसने अपनी आँखें बंद कर दी।

जब उसने आँखे खोली तो वह कश्मीर की एक सरकारी कालोनी में था। चारो तरफ बर्फ थी... पूरी कालोनी खंडहर हो चुकी थी..... वह गली के आख़री मकान की तरफ ख़िचा चला जा रहा था। आख़री मकान के बरामदे में पिताजी बर्फ़ के गोले बना रहे थे... तीन गोले बना चुके थे... चौथे गोले को धकेलते हुए, बाक़ी तीनों के पास रख रहे थे। वह बरामदे की मुडेर पर बैठ गया और अपने पिताजी की थकान देख रहा था। अब चारों गोले एक लाईन में आ चुके थे। उन्होंने जेब से कंचे निकाले सबकी आँखे बनाई।

’कैसा लग रहा है।’ उन्होंने बिना उसकी तरफ देखे उससे पूछा।
’आप मुझसे पूछ रहे है?’ हिचकिचाते हुए उसने कहा।
’और कौन दिख रहा है तुम्हें यहाँ?’
’अच्छा लग रहा है।’

तभी आख़री गोला जो सबसे बड़ा था वह बिख़र गया। उससे यह देखा नहीं गया... वह भाग कर उस गोले की बर्फ़ को वापिस समेटने लगा... वह जितना समेटता उतना ही वह गोला बिख़रता जाता। उसने देखा पिताजी मुड़ेर पर बैठे हैं जहाँ वह बैठा था। उनके बग़ल में चार कव्वे बैठे हैं एकदम काले। अब सिर्फ तीन गोले थे.... जिनमें कंचों से आँखें बनी हुई थी। उस बिख़री हुई बर्फ़ में वह दो कंचे ढ़ूढ़ने लगा...।

’तुमने मुंडन क्यों करा लिया?’

पीछे से पिताजी की आवाज़ आई पर वह बदहवास सा कंचे ढ़ूढ़ रहा था।

’मेरी आँखें खोज रहे हो?’ पिताजी ने पूछा।

और वह रुक गया। उसने पिताजी की तरफ देखा तो वह मुड़ेर पर एक फोन लिये बैठे थे... और नंबर डॉयल कर रहे थे। कुछ देर में घंटी बजी....। जिस फोन की घंटी बज रही थी वह फोन उनके बगल में ही पड़ा था.... वह भागकर मुड़ेर पर अपने पिताजी के बगल में बैठा और उसने फोन उठाया... दूसरी तरफ से उसके पिताजी की आवाज़ आई।

’हेलो....।’
’पापा... गोले तो चार होने चाहिए ना... यह एक गोला बिख़र क्यों गया?... अभी तो नहीं बिख़ना था.. अभी तो बर्फ़ है चारों तरफ... अभी-अभी तो हम सबको तेज़ गर्मी से राहत मिली थी... अभी-अभी तो हम सब एक साथ ख़ुश हुए थे... अभी तो नहीं बिख़रना था।’

वह यह कहकर अपने बग़ल में बैठे पिता को देख रहा था..

’पापा... मैं बीमार हूँ।’

यह सुनते ही पिताजी उसकी तरफ देखने लगे...  दोनों ने फोन कान पर लगाए हुए थे। पिताजी ने फोन काट दिया.. और उससे बोले....

’तुम पीला स्कूटर क्यों चलाते हो?’

उसने देखा कि वह बंबई में पीले स्कूटर पर बहुत तेज़ी से चला जा रहा है। उसके आधे बाल पक़ चुके हैं... दाढ़ी बढ़ी हुई है। वह पिताजी को लेने स्टेशन जा रहा था। सुबह का वक़्त है... उसे एक चाय की दुकान दिखती है... वह अपना स्कूटर रोक लेता है। चायवाला उससे बिना पूछे उसके हाथ में चाय  पकड़ा देता है। वह चाय के साथ सिगरेट सुलगाने ही वाला होता है कि चाय वाला उससे कहता है..

’आपको देर तो नहीं हो रही है?’
’नहीं... क्यों? किस बात की देर?’ वह पूछता है।
’आज इक्कतीस जनवरी है... ।’
’हाँ तो....?’
’तो देख लो... मुझे लगा पूछ लेता हूँ कि कहीं देर तो नहीं हो रही है।’

वह आराम से चाय पीता है... पर देर हो जाने की बात उसके दिमाग़ में रह जाती है। वह घड़ी देखता है पर उसने घड़ी नहीं पहन रखी है। वह अपना मोबाईल जेब में टटोलता है... वह भी उसके पास नहीं है। वह चायवाले से पूछता है..

’कितना वक़्त हुआ है?’
’वक़्त बहुत नहीं बचा है..।’

वह चाय रखता है.. जलती हुई सिगरेट फैंक देता है... और बिना चाय वाले को पैसे दिये स्कूटर में किक मारता है। स्कूटर स्टार्ट नहीं होता... वह चाय वाले की तरफ देखता है, उसे याद आता है कि उसने उसे पैसे नहीं दिये। वह पैसे देता है और पीला स्कूटर स्टार्ट हो जाता है।  वह बहुत तेज़ी से स्टेशन की तरफ चल देता है। उसका स्कूटर बहुत तेज़ चलने लगता है.... सड़क पर सुबह की धुंध बढ़ती जाती है... धीरे-धीरे आस-पास का सब कुछ ग़ायब होने लगता है... उसे घने कोहरे में ठंड़ लगने लगती है। तभी रेल की सीटी सुनाई देती है। वह अपने आस-पास कश्मीर सूंधता है। सामने के धुंधलके में एक स्टेशन उभरता है, उस स्टेशन का नाम कश्मीर है। वह अपना स्कूटर खड़ा करता है और स्टेशन के भीतर भागता है। इक्कत्तेस जनवरी की सुबह स्टेशन पर ट्रेन आ नहीं जा रही थी... जा रही थी। उसने पिताजी को लेने में नहीं छोड़ने में देर कर दी। ट्रेन स्टेशन से जा रही थी... उसे ट्रेन की एक ख़िड़की से पिताजी का हाथ दिख़ा... वह उस हाथ में ओम का निशान देख सकता था... वह उससे आख़री बार हाथ हिलाकर विदा ले रहे थे।

तभी पूरा स्टेशन धुंध में गायब हो गया और उसने देखा कि वह बर्फ़ से ढ़के चिनार के जंगल में खड़ा है। उसके हाथ में सिगरेट है और वह धुंध में कुछ तलाश रहा है। तभी एक चिनार के दरख़त के पीछे उसे पिताजी दिखे।

’आप इस तरफ कैसे?’ उसने पूछा...
’अपनी ज़मीन तलाश रहा था... सब तरफ बर्फ़ है... कुछ समझ नहीं आ रहा है।’ पिताजी बोले
’आपकी ज़मीन तो बहुत पहले चली गई थी। अब अगर आप अपनी ज़मीन पर भी खड़े होंगे तो भी अपको पता नहीं चलेगा कि यह आपकी ज़मीन है।’
’मुझे पता चल जाएगा।’
’यहाँ सब बदल गया है।’
’पर मैं नहीं बदला।’

पिताजी बोले और वह अपनी ज़मीन तलाशने लगे। बात करते हुए दोनों के मुँह से धुंआ निकल रहा था। वह पिताजी के करीब आया।

’पापा, आप बहुत जल्दी चले गए। अभी तो बहुत कुछ बाक़ी था।’
’क्या बाक़ी था?’
’आपके हिस्से की कहानी तो मुझे पता ही नहीं है?’

पिताजी मुस्कुरा दिये।

’तुम मेरे हिस्से की कहानी में ही खड़े हो...।’

तभी उसे घोड़े की टाप सुनाई दी। झेलम किसी धुंध में से आकर पिताजे के पास खड़ा हो गया। पिताजी जैसी ही उछलकर झेलम पर बैठे... वह वेताल हो चुके थे... चलता-फिरता-प्रेत।

झेलम की टाप... ट्रेन की आवाज़ सी कहीं दूर से जा चुकी थी। उसने अपना फोन उठाया और अपने पिताजी को फोन मिलाया। बहुत देर तक घंटी बजती रही.. पर दूसरी तरफ कोई नहीं था।

                                                                                                                                  

4 comments:

Abhijat Shekhar Jha said...
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Abhijat Shekhar Jha said...
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Avinash said...

पिता कभी देखा नही, सो ज्यादातर रहस्य ही रहे

दुख से उबरना एक नियम है..और हर बार नियम को अपनाने की सलाह दी जाये..जरुरी नहीं..
लेकिन पता नहीं क्यों आपके लगातार स्टेट्स को फॉलो कर रहा हूं..मन खुद गहरे दुख में डूब जाता है..
पिता को याद करना उदास शहर के किसी खाली गली में भटकने जैसा है..उसपर लिखना तो और भी मुश्किल..खैर, कभी कुछ लिखा था उसे भेज रहा हूं.. बस ये है कि आपके दुख में हम सबकी संवेदनाएँ शामिल हैं-


पिता
----
बचपन में बहुत दिन तक, तुम बने रहे उम्मीद का दूसरा नाम
लगता रहा
तुम हो यहीं कहीं
पुकारने पर आ जाओगे- झटपट
पीठ पर महसूसता रहा - तुम्हारी आँखें
बहुत दिनों तक
तुम्हारी आँखें हर सही गलत करते वक़्त
लगा घूर रही हैं मुझे
मैं अकेले में भी नही कर पाया-
बचपन में की जाने वाली बदमाशियां
इस तरह पूरा बचपन महसूस होते रहे
तुम !
सोता रहा चैन की नींद तुम्हारे ही भरोसे
और चोरी-छिपे आता रहा
रोने, बताने
अकेले उस कोठरी में जहाँ टंगी है तुम्हारी वह तस्वीर,
जिसमें तुम्हारी आँखें हैं बड़ी गोल-गोल
और होंठ मुस्कुराते हुए, आँखें शून्य को ताकते

तुम्हारी अनुपस्थिति बहुत बाद में मालूम हुई, जब होश संभाला, बड़ा हुआ

जब दुःख झेलने लगा,
जब माँ को अकेले में रोते देखता रहा- एकटक, चुपचाप
और कोई आँसू पोंछने नही आया

जब किस्सों में सुनता रहा तुम्हारी बातें
तुम्हारा संघर्ष,
तभी उस तस्वीर का मतलब समझ आया- जिसमें तुमने लहरा रखे हैं हाथ अपने हवा में,

और तुम उसी दिन मेरे जीवन से चले गए
मेरे ख्यालों में तुम बन गए
एक लाल सूरज
एक जादुई यथार्थ

अब वो तुम्हारी दो आँखें नही दिखती
वो लाल सूरज दीखता है

तुम्हारे आने का भरोसा नहीं आता
एक खाली अफ़सोस आता है
दो आँखें नहीं महसूस होती,
एक भरम के टूटने का दुख घर कर जाता है ।

अब अकेले में रोने में कोई उम्मीद नही नज़र आती
और बड़े होने का दुःख और गहरा हो जाता है....

Raam Mori said...

कुछ कहानिया सिर्फ कहानीया नहीं होती, दरअसल वो हमारे जीवन का एक फ्रिज हो चुका हिस्सा है जहां हम बार बार जीते है...आपकी ईस कहानी को सीर्फ कहानी कहना या डायरी का अंश कहना या फिर ईसे आत्मकथा का एक छोटा सा हिस्सा बताना यह बात कृति की गहराई को न्याय नहीं देगा, सच में यह मौन में बात है...बचपन ले लेकर आजतक बहोत कुछ पढता आया हूं...निर्मल वर्मा, मन्नु भंडारी, टागोर और यशपाल के बाद आप ही हो जीनका लीखा हुआ हर एक लब्ज मेरे लीये मायने रखता है..आपकी केखिनी के, आपके विचारो के और आपने नजरिये को हम बेहद मोहब्बत करते है...आप बस लीखते रहीए

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल