Thursday, April 26, 2012

दूसरा छोर....

चाय.. सिगरेट... और पीछे बहुत सी चिड़ियाओं का कलरव..। KEITH JARRETT का.. The Melody at night.. with you.. नाम का PIANO ALBUM…. जो पिछले कुछ महीनों से लगातार मेरे कंप्यूटर पर बजता रहता है..। कभी-कभी पूरा दिन गुज़र जाता है और मैं पियानों को सुन नहीं पाता जबकि वह लगातार बज रहा होता है.. तो कभी अचानक पियानों के तीन नोट कुछ इस तरह सुनाई देते हैं कि मानों मैंने अभी-अभी बजाएं हो... उन तीन नोट पर मैं अपने तीन कदम, बिना सोचे कुछ इस तरह बढ़ा लेता हूँ मानों कोई बहुत अपना तीन कदमों के बाद मिलने वाला हो... और वह मिलता है... दूसरा छोर... बहुत समय से रुकी हुई कहानी का दूसरा सिरा... कांपता सा। पियानों सुनना फिर बंद हो जाता है... बहुत हलके से उस कंपते हुए सिरे के बिखरे पड़े धागे संभालता हूँ...। उन धागों को छूते ही... पेरों की आहट सुनाई देती है... कोई दरवाज़े पर है ऎसा लगता है... किसी ने अभी-अभी मेरा नाम पुकारा... कोई मेरे कंधे के पीछे खड़ा मेरे मुड़ने की प्रतिक्षा कर रहा है... और मैं एक लंबे टहलने निकल जाता हूँ...। लगातार चले आ रहे इंतज़ार में... उसका मिलना प्रसन्नता से भर देता है। फिर टहलना, टहलना नहीं रह जाता.. वह एक संवाद में बदल जाता है..। उस वक्त मैं उन धोर निराशा के क्षणों का उससे हिसाब मांगता हूँ... बहुत समय तक बिगड़ा-उखड़ा रहता हूँ... मान जाने के लिए आतुर मैं सवालों का ढ़ेर लगा देता हूँ। वह दूसरा छोर... डरा हुआ मेरे साथ चलता है... और तभी पेड़ों के पीछे से कहीं एक खिड़की खुलती है.. उस खिड़की से मुझे आसमान दिखाई देता है...। आसमान.. नीला आसमान... सफेद रुई जैसे बादलों से भरा... मैं सोचने लगता हूँ कि सच में मुझे आसमान कितना पसंद है... नीले आसमान में मैं बचपन में घंटो चील को उड़ते हुए देखता था। मुझे वह हरी कांच की खिड़की भी याद है... बूढ़ी चील..। तभी पियानों के तीन नोट ओर सुनाई देते हैं...। दूसरा छोर कहीं गायब हो जाता है... मैं टहलकर वापिस आ चुका हूँ... नशे में हूँ... सन्न हूँ...। मैं अपनी रुकी हुई कहानी निकालता हूँ... पर लिखता कुछ नहीं... मुझे पहला शब्द पता है... उससे जो वाक़्य फूटेगा वह भी उसी शब्द के आस-पास कूद रहा है... पर
मैं कुछ नहीं लिखता। मैं तारीख़ के बारे में सोचने लगता हूँ जब आखरी बार मैं इस कहानी पर था... करीब चार महीने... चार महीने...। मैं उस पहले शब्द से पूछता हूँ... ’चार महीने?’ ... जबकि मैंने अभी उस शब्द को लिखा भी नहीं है... मैं पहले जवाब चाहता था। इतना लंबा खालीपन... मुझे अचानक वह दिन याद आने लगते हैं... जिसमें मैं घंटों इस कहानी के सामने बैठा था... जो भी लिखता उसे फाड़ देता... कोरे पन्नों को ताकते-ताकते मेरी आँखें थक जाती.. पर कहीं से कोई आशा नहीं बंधती... मुझे हिसाब चाहिए था.. मैं यूं ही इस शब्द को नहीं लिख सकता.. इस शब्द को जवाब देना होगा....। मैं कहानी से उठकर दूर हो जाता हूँ....। मुझे पियानों के पांच नोट सुनाई देते हैं... नाटकीय पांच नोट...। मैं अधूरी पड़ी कहानी को दूर से देखता हूँ.... मैं जानता हूँ..जो शब्द मुझे लिखना है वह भी इस कहानी के आस-पास ही कहीं मंड़रा रहा होगा... पर मैं दूर हूँ.... मैं दूर से खड़े रहकर बदला लेना चाहता हूँ... कहानी से.. उस घोर निराशा से जो मैंने इन चार महीनों में महसूस की है... उस शब्द से जो मुझे मिलते-मिलते नहीं मिलता था...। मैं अब कहानी आगे लिख सकता हूँ पर मैं नहीं लिखता हूँ....। मैं चाय चढ़ाने लगता हूँ... कुछ देर सिगरेट खोजता हूँ... वह बहुत देर बाद मिलती है.. उसे जलाते ही मुझे चिडियाओं की आवाज़े सुनाई देती हैं... मैं बाहर बालकनी में चला जाता हूँ... एक लंबा कश सिगरेट का खींचता हूँ... मेरे चहरे पर एक मुस्कुराहट आ जाती है। चार महीने का लंबा खालीपन खत्म होने पर था...। मुझे उन कुछ किताबों की याद हो आई.. जब वह खत्म होने पर होती हैं... तब मैं उनका पढ़ना लगभग बंद कर देता हूँ... उस किताब के अंतिम पृष्ठ पर पहुंचने से पहले उसी किताब के सामने दूसरी किताब पढ़ना शुरु कर देता हूँ... ज़बरदस्ती...। अभी मुझे अपनी इन हरकतों पर हंसी आती है.... पर इस वक़्त मैं जो अपनी कहानी के साथ कर रहा हूँ वह मुझे बिलकुल वाजिब लगता है...। अपनी चाय खत्म करके... सिगरेट फूंककर मैं वापिस अपनी कहानी पर जाता हूँ... पर उसके ठीक बगल में रखे कोरे पन्ने को उठाता हूँ.... और उसपर पहला शब्द लिखता हूँ.... चाय...। यह अंतिम बदला है... रुकी हुई कहानी के ठीक बगल में बैठकर कुछ और लिखना...जैसे अपनी ही प्रेमिका के सामने किसी दूसरी लड़की से फ्लर्ट करना...। बस अब बहुत हुआ....। अब मुझे ही बुरा लग रहा है...। मैं कहानी पर वापिस जाता हूँ।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल