Saturday, January 26, 2013

भवानी भाई, दुबेजी.. और कविताएं.....

भवानी प्रसाद मिश्र पर लिखने बैठा हूँ तो आश्चर्य हो रहा है कि मैं अपने बचपन से इन्हें जानता हूँ। शायद लिखना ना होता तो यह बात मेरे ज़हन में कभी नहीं आती। मुझे मेरे होशंगाबाद के दिन सबसे पहले याद आते हैं.. जब होशंगशाह गौरी के टूटे फूटे किले के पास एक पीपल के पेड़ के नीचे हम स्कूल से भागकर छिपा करते थे। बाद में वह हमारा अड्डा बन गया। एक दिन हमारे हिंदी के टीचन ने हमारे अड्डे पर धावा बोल दिया... बहुत पिटने के बाद उन्होंने कहा कि तुम्हें पता है भवानी प्रसाद मिश्र ने अपनी कविता “सन्नाटा” उसी टूटे फूटे किले के पीपल के पेड़ के नीचे लिखी है। मैं इस बात से चमत्कृत था। मुझे कभी कविताएं समझ में नहीं आई... मुझे लगता था कि हम जो किताबी कवियों को पढ़ते हैं वह असल में मंगल गृह की बातें करते हैं.... मुझे उस वक़्त कविताओं से नफरत थी। तब शायद पहली बार ऎसा हुआ कि मै सन्नाटे को लेकर उस पीपल के पेड़ के नीचे गया... मुझे वह घाट भी दिखा जहां बैठकर पागल गाया करता था... उस रानी की आहट भी मैंने पहली बार सुनी... वह उल्लू, सांप और गिरगट.. सब.. सब कुछ वहीं थे। इसके बाद मैं अपने दोस्तों को उस पीपल के नीच ले जाकर यह कविता सुनाता था... और यह कविता यहीं बैठकर भवानी प्रसाद मिश्र ने लिखी है, यह बात कुछ यूं कहता था कि मानों यह बात भवानी प्रसाद मिश्र ने ही मुझे बताई हो। इसके बाद “सतपुड़ा के जंगल” कविता का जीवन में आना लाज़मी था। पर फिर भी कविताओं ने वह प्रभाव नहीं छोड़ा... बात मेरे बड़े होने के उहापोह में खो गई। इसके बाद थियेटर से रिश्ता जुड़ा। मैं बंबई आकर सत्यदेव दुबे के साथ बतौर अभिनेता काम करने लगा। उनके पहले नाटक में मैंने मुख्य भूमिका निभाई “इंशा अल्ला”... उस नाटक के अंत में मैं एक कविता कहता था जो मुझे बेहद पसंद थी। सच कहो तो पूरे नाटक में मैं उस कविता के कहने का इंतज़ार करता था... “गीत-फ़रोश”। दुबे जी को भी कई बार वह कविता कहते हुए सुना था... मेरे पूछने पर उन्होंने कहा कि यह कविता भवानी भाई की है। पता नहीं उस वक़्त मैं भवानी प्रसाद मिश्र और भवानी भाई दोनों को अलग समझता रहा। यह शायद छोटे शहर की मानसिकता भी थी कि एक आदमी जो मेरे गांव के मेरे अड्डे (यानी टूटे फूटे किले के पीपल के पेड़) पर बैठकर कविता लिखता है.. उसकी कविता बंबई के नाटक में कैसे हो सकती है? फिर एक शांम दुबे जी की महफिल में अमरीश पुरी साहब भी आए हुए थे..। हम सब युवा अभिनेता दुबक कर एक कोने में पुरी साहब और दुबे जी की बातें सुन रहे थे। मुझे बहुत ज़ोर की पेशाब लगी, मैं बाथरुम में चला गया। मैं पिशाब कर रहा था तभी बाहर अचानक चुप्पी छा गई। फिर मुझे पुरी साहब की गूंजती हुई आवाज़ सुनाई दी... “तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको, फिर चुपके-चुपके धाम बता दूँ तुमको; तुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे-धीमे मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको।“ मैं अचानक उछल पड़ा..। मेरा गांव, मेरा अड्डा.. पीपल का पेड़, वह टूटा-फूटा किला... सब कुछ मेरा था.. जो बाहर हो रहा था। मैं बाथरुम में ही अपने उत्साह को दबाए बैठा था.. कविता खत्म होते ही सब लोग ज़ोर-ज़ोर से ताली बजाने लगे..। मैं बाहर आया और इच्छा हुई कि सबको कहूं कि यह मेरी कविता है.. भवानी प्रसाद मिश्र ने मेरे अड्डे पर बैठकर लिखी थी यह कविता। मुझे उस वक़्त लगा कि किसी को यह कविता समझ में नहीं आ सकती जब तक उन्हें वह पीपल का पेड़ ना पता हो... वहां से कैसे वह घाट दिखता है...? किला पीछे किस तरह हरकत करता है..?. कैसे कोई कैसे यह कविता समझ सकता है बिना मेरे अड्डे को जाने..??? यह मेरी कविता है.. मैंने इसे वहीं उसी जगह पढ़ते हुए समझी है जिस जगह वह लिखी गई है.. मैं पता नहीं क्या कुछ कहना चाह रहा था... पर मैं बहुत डरपोक था.. मैं चुप ही रहा। बाद में सब भवानी भाई की तारीफ करने लगे.... और मेरी बात समझ में आई कि यह तो भवानी प्रसाद मिश्र ही भवानी भाई हैं। तब से भवानी प्रसाद मिश्र मेरे लिए भी भवानी भाई हो गए। स्कूल की किताब से निकलकर अब उनसे एक आत्मीय संबंध जुड़ गया। मैंने उसी भीड़ के कोने में बैठे अपने दोस्तों को यह बात बतानी चाही कि यह कविता भवानी भाई ने होशंगाबाद में एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर लिखी थी... वह सभी हंस दिये.. बात किसी ने नहीं मानी। कुछ सालों में मैं दुबेजी के करीब आ गया। मेरा छोटे शहर का डर जाता रहा। दुबे जी भी बढ़ती उम्र में बहुत अकेले हो गए थे। वह रात को हालिड़े इन में जाकर बैठ जाते थे। इन्हीं कुछ अकेली रातों में मैंने कभी-कभी दुबेजी का साथ दिया था। हमारे बीच भवानी भाई की बातें निकलती रहती थीं...। दुबेजी भवानी भाई के बहुत करीब थे... उन्होंने बताया कि भवानी भाई की बीवी उनसे बहुत चिढ़ा करती थी.. वह गोरेगांव में रहते थे। भवानी भाई फिल्मों के लिए लिखने लगे थे... तो देश के बाक़ी सारे कवियों ने उन्हें बहुत भला बुरा कहा... इसी बात पर उन्होंने गीत-फ़रोश कविता लिखी थी। यह एक तरीके का जवाब था। मुझे यह बात बहुत अच्छी लगी.. उन दिनों मैं लड़कियों को बहुत गीत-फ़्ररोश सुनाया करता था। अब मेरे पास उस कविता की एक कहानी भी थी। हम कैसे किसी कवि के करीब आते रहते हैं... मैं भवानी भाई के बहुत करीब था... पर जिस कविता ने मुझे उनका क़ायल बनाया वह थी “सुख का दुख” मैंने यह कविता दुबेजी के मुँह से सुनी थी। “ज़िंदग़ी में कोई बड़ा सुख नहीं है... इस बात का मुझे बड़ा दुख नहीं है..”। इसके एक-एक शब्द पानी की तरह मेरे भीतर उतर गए थे। मैंने दुबेजी से कहा कि आप मुझे यह कविता दे दें.. दुबेजी ने साफ मना कर दिया। कहने लगे कि “तुम लड़कियों को इंप्रेस करने के लिए मांग रहे हो.. मैं नहीं दूंगा।“ मैंने फिर वह कविता उनसे नहीं मांगी... पर कई बार उनके मुँह से सुनी। फिर एक दिन इंटरनेट पर मुझे वह कविता मिल गई। मैंने तुरंत उसे याद कर ली सोचा दुबेजी को एक दिन सुना दूंगा... पर वह दिन नहीं आ पाया...। दुबेजी की तबियत बहुत ख़राब हो गई थी। मैं उन्हें यह कविता कभी नहीं सुना पाया। “मन एक मैली कमीज़ है...” मेरी किताबों की शेल्फ में दुब्की पड़ी एक पतली सी किताब। इस किताब में भवानी भाई की लगभग सारी उमदा कविताएं है.. सिवाए ’सुख का दुख’ को छोड़कर। भवानी भाई की सारी कविताओं में जो कविता मेरे सबसे क़रीब है वह है “घर की याद”। मैंने इस कविता को पढ़कर रोया हूँ... ज़ार-ज़ार.. इतनी इंमानदार कविता... इतनी सहज और सरल। शायद इसलिए भवानी भाई का असर इतने भीतर तक होता है। पिछले कुछ सालों से मेरे घर होने वाली सारी देर रात की महफिलों का अंत हम इसी कविता से करते हैं....। मैं जब भी इसे पढ़ता हूँ... मैंने देखा है कि उस वक़्त हम सब अपने घरों में.. अपने माँ बाप के पास चले जाते हैं.... “पिताजी भोले बहादुर.. वज्र-भुज नवनीत सा उर”, “माँ कि जिसकी स्नेह-धारा का यहाँ तक भी पसारा, उसे लिखना नहीं आता, जो कि उसका पत्र पाता।“ इस कविता का एक-एक वाक़्य भीतर कई ज़ंग लगे दरवाज़े खोल देता है.. हर बार यह कविता मैं बिल्कुल नए तरीक़े से पढ़ रहा होता हूँ। हर बार लगता है कि यह कविता मैं पहली बार समझ रहा हूँ। भवानी भाई की कविता इतनी सहज है कि आपसे बात करती है... आप इसे कह देतें है और लोग वाह कर देते हैं... उनकी कविताओं में कविता का भारीपन नहीं है। भवानी प्रसाद मिश्र स्कूल के दिनों से साथ हुए थे.. अब भवानी भाई नाम से मेरे जीवन में बस गए थे। उनका नाम लेते ही लगता है कि मैं किसी बहुत अपने की बात कर रहा हूँ... जिनका एक लंबा साथ है मेरे जीवन में रहा है। इस बीच दुबेजी की तबियत बहुत बिगड़ती चली जा रही थी। एक दिन उनसे पृथ्वी थियेटर में मुलाकात हुई... मुझसे उनकी हालत देखते नहीं बन रही थी..। उन्होंने कहा कि एक कविता सुनाओं... हम दोनों के बीच कविता का संबंध बहुत सुंदर था... और मेरे मुँह से फिर भवानी भाई निकले... मैंने उन्हें “आराम से भाई ज़िन्दगी ज़रा आराम से” सुनाई। “आराम से भाई ज़िन्दगी ज़रा आराम से, तेज़ी तुम्हारे प्यार की बर्दाश्त नहीं होती अब।इतना कसकर किया गया आलिंगन ज़रा ज़्यादा है जर्जर इस शरीर को.... आराम से भाई ज़िन्दगी ज़रा आराम से...।“ वह मुग़्ध इसे सुनते रहे। उन्हें आश्चर्य हुआ कि उन्हें इस कविता के बारे में बिल्कुल नहीं पता था। तुरंत उन्होंने मुझसे यह कविता मांगी... मैंने कहा कि आप ’सुख का दुख’ दे दीजिये मैं आपको यह कविता दे दूंगा... इस हाथ ले इस हाथ दे...। दुबेजी हसने लगे.. कहने लगे ’सुख का दुख’ तो तुम्हें मैं नहीं दूंगा। मैंने उनसे वादा किया कि मैं अगली मुलाक़ात में उन्हें यह कविता दे दूंगा...। मैं वादा पूरा नहीं कर पाया। दुबेजी तीन महीने कोमा में रहने के बाद चल बसे। मृत्योपरांत सभी लोग पृथ्वी थियेटर में मिले उन्हें श्रधांजली देने के लिए... मुझसे कविता पढ़ने को कहा गया। तब मैंने अपनी जेब से “सुख का दुख” निकाली...। इच्छा हुई कि इस कविता के पहले मैं एक पूरी यात्रा के बारे में बात करुं.... भवानी प्रसाद मिश्र से लेकर भवानी भाई तक... उस टूटे-फूटे किले के सन्नाटे से... पीपल के पेड़ तक... “आराम से भाई ज़िन्दगी ज़रा आराम से” से “सुख के दुख” तक.. और तब यह कविता सुनाऊं... क्योंकि मैंने सीख़ा है कि जब आपको कविता के पीछे की कहानी पता चलती है तब कविता आपकी अपनी हो जाती है। जैसे भवानी भाई मेरे अपने हो चुके थे। मैं सीधे कविता पर आया... कविता सुनाई और चुप चाप वहां से चल दिया। दुबे जी की वज़ह से मैं भवानी भाई के करीब आया और भवानी भाई की वजह से दुबेजी के..। बहुत कम ऎसे लेखक होते हैं जिनको लेकर आपके मन में यह ख़्याल आता है कि एक शाम चाय के साथ इनके साथ टहला जाए...। भवानी भाई को लेकर मेरे भीतर बार-बार यह ख़्याल आता है कि इनके साथ एक बार टहला जाए.. किसी एक लंबी शाम को... एक छोटी यात्रा जैसी चाय पी जाए। उनके मुँह से उनकी कविताएं सुनी जाए... और जो बात मैं सच में उनसे पूछना चाहता हूँ कि क्या सच में उन्होंने होशंगाबाद के उस टूटे-फूटे किले के पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर “सन्नाटा” लिखी थी।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल