Thursday, February 7, 2013

पेटर्नस........

कल रात खत्म हुई थी वर्जीनिया वुल्फ की कुछ पंक्तियों से....। उनके लेखन का शायद यह सबसे असरदार पहलू है कि वह गूंजता है.. बहुत दिनों तक..। आज सुबह से कई बार पेटर्न शब्द ज़बान पर चढ़ा रहा...। शायद लिखने में हम सबसे ज़्यादा यह महसूस करते हैं... किसी भी एक भाव को जब हम सबसे ज़्यादा जी रहे होते हैं.. या जब वह हमें सबसे ज़्यादा परेशान करने लगता है तो हम उसके एक विचित्र से मोहपाश में बंध जाते हैं... उसे हमें लिखकर अपने शरीर से निकाल देना होता है...कैसे भी.... उस वक़्त हमारा जो भी लिखना चल रहा होता है.. हम पाते हैं कि हम अचानक वह लिखने लगे हैं जिस भाव से हम पिछले कुछ समय से परेशान थे... उस भाव के भीतर आते ही एक पेटर्न नज़र आने लगता है... और यह डरा देंने वाला चमत्कार जैसा है...। लगता है कि इसका यहीं इसी जगह होना एक बहुत बड़े पेटर्न का हिस्सा है... फिर लगने लगता है कि असल में सब चीज़ एक साथ जुड़ी हुई है... एक सूत की तरह जिसकी बात वर्जीनिया वुल्फ करती हैं। ठीक वैसे ही जीवन भी है... हम जैसा सोच रहे हैं हम असल में बिल्कुल वैसा ही जी रहे हैं, जैसा हम जीना चाहते थे...। या अगर कोशिश करके हम कुछ अलग भी जीने लगे तब भी हम देखते हैं कि वह अलग जीना भी एक किस्म के पेटर्न में फिट होकर ठीक वहीं, उसी जगह आ गया है जिस जगह पर रहकर हम जीना चाहते थे। फिर एक दूसरी बात जो आज मैं सुबह पढ़ रहा था वह भी बहुत कुछ इसी तरह से अलग किस्म की है...। इसे “लेखक की रोटी” नाम की किताब में मंगलेश डबराल ने लिखा है.... “काश हम कवि पहले चोर या डाकू होते। एक दिन वाल्मीकि की तरह क्रौंच-वध जैसा कोई दृश्य देखते और हमारे मुख से कविता फूटती और हम महाकवि बन जाते.... या हम कोई राजकुमार होते और एक दिन संसार का दुख-दैन्य और जरा-मरण देखकर सब कुछ छोड़कर निकल पड़ते और मनुष्य की मुक्ति का रास्ता खोज लेते। ऎसा कुछ नहीं हो सका... हम सामान्य मानवीय जीवन से ऊपर नहीं उठे...” (मैंने कुछ चुने हुए वाक़्य लिए है) दूसरी बात जो मुझे बहुत ही दिलचस्प जान पड़ती है वह है हमारे सारे के सारे दुख.. तकलीफें... ज़िद... पीड़ाए.. चमत्कार.. खुशी... यह सब कितने सामान्य है...कितने दैनिक है। दैनिक ही सही शब्द है... क्षणिक हो सकता था पर उसके अपने अलग अर्थ निकलते हैं....। जिस तरह बहुत देर तक जब कोई भाव तकलीफ देता है तो हमारे लेखन का हिस्सा हो जाता है.. कुछ इस तरह कि उसे इस पेटर्न में आना ही था... पर हम कितनी तक़लीफों को अपने साथ लेके चलते हैं...?? और कितनी देर तक??? हम तुरंत उसे किसी गुस्से पर खर्च कर देना चाहते हैं...। हमारी दिक़्कत है कि हम विपरीत नहीं तैर रहे हैं.. हम असल में इस जीवन में बहाव के साथ है... (बहाव के बदले बाज़ार भी पढ़ सकते हैं।) हमें सब स्वीकार्य है... हमारी किसी भी तरीक़े की कोई ऎसी लड़ाई नहीं है जिसका असर हमारे पूरे होने पर पड़े.... इसलिए मैंने दैनिक शब्द इस्तेमाल किया...। आजकल मैं बहुत से जवान फिल्म निर्देशकों के संपर्क में आया...। मुझे निजी तौर पर बड़ी तकलीफ होती है यह देखकर कि उनका सारा फिल्म बनाने का उत्साह विदेशी फिल्मों को देखकर आता है.. सबके अपने बंधे बधाए पेटर्न है जिसमें वह खपना चाहते हैं... लगभग उन्हें जो भी करना है वह उनके बातचीत में दिखता है...। मैंने एक दिन किसी एक से यह सवाल किया... “जब तुम्हें पता है कि तुम ऎसी सी फिल्म बनाना चाहते हो तो फिर उसे बना क्यों रहे हो??” “क्या मतलब?” “मेरे हिसाब से यह तो बहुत बोरिंग है... थका देने वाला काम... या अपने ही किसी काम को फिर से करने जैसा काम... तुम बोर नहीं हो जाओगे...?” “अरे तो और कैसे बनाए फिल्म?” असल जवाब मुझे भी नहीं पता हैं...। पर फिल्म बनाने के पीछे जो विचार है... मैं उस बात पर बात करना चाह रहा था... उस विचार में वह तकलीफ नहीं है... उसकी बातों में वह एक बात कहने का ज़िक्र भी नहीं है जिसके लिए वह फिल्म बनाना चाहता है...। सारा उत्साह किस तरह की वह फिल्म दिखेगी इसपर है....। मेरे पास और भी बहुत से सवाल थे.. जिसे शायद मैं खुद ही से पूछ्ना चाह रहा था... पर मैंने जाने दिया... मैं यूं भी उस केटेगिरि में गिना जाने लगा हूँ... जिसमें लोग आपकी पीठ पीछे आपको इंटलेक्चुअल कहकर पुकारते हैं.. यहां इंटलेक्चुअल को पागल भी पढ़ सकते हैं। नाटकों की बात ज़्यादा नहीं करना चाहता क्योंकि मैं उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा हूँ... पर जो दिखता है वह कुछ यूं है..... “नाटक एक अच्छी इंवनिंग प्रदान करे... और करता रहे... जिसमें सभी नाटक करने वाले एक दूसरे से हंस कर मिलें.. और हंसी खुशी की बातें करे..... हमेशा..।“ अब इस सबमें बात जहां से शुरु हुई थी.. वह एक व्यक्ति की...। वह व्यक्ति जो चीज़े बनाता है.... मैं हमेशा उस व्यक्ति को लेकर उत्साहित रहता हूँ... इसलिए शायद यह लिख रहा हूँ। जब भी मैं ऎसे किसी व्यक्ति से मिलता हूँ जो चीज़े बनाता है... मैं कूद-कूदकर उससे बात करना चाहता हूँ... मैं बच्चों जैसा हो जाता हूँ...। इसमें मैं बार-बार इसी बात पर आता हूँ कि क्या चीज़ है जो हमसे इस वक़्त यह काम करा रही है...? मैं फिर उसका पेटर्न पकड़ना चाहता हूँ... मैं वापिस उसी जगह नहीं जाना चाहता जिस जगह पर खड़े रहकर मैंने अपना पिछला काम शुरुकिया था। या हम बस परिस्थियों से बने हुए आदमी है.. (जैसा कि अधिक्तर मुझे मेरे साथ लगता है.. कि मैं परिस्थियों की वजह से ऎसा हूँ.. मेरी जगह कोई भी होता तो वह लगभग ऎसे ही लिखने लगता.. या शायद मुझसे बहतर ही लिखता....) मैं हमेशा से मानता आया हूँ कि हम जो भी चीज़ बनाते हैं.. उसमें हमारे जीवन के सारे पेटर्न नज़र आते हैं..। हमारी likes, dislikes ... हमारा चरित्र.. सब कुछ नज़र आता है..। मुझे शायद खुद को बदलना पड़ेगा... अगर मैं चाहता हूँ कि मेरे लिखने और निर्देशन में बदलाव आए..। पर बदलाव शब्द को मैं कितना जानता हूँ? एक विचित्र बात यहां पर मैं देखता हूँ.... यह जो मैंने लिखा वह सिर्फ वर्जीनिया वुल्फ को रात में पढ़कर सोने का नतीजा था..। कितनी असरदार लेखनी है उनकी.... क्या मैं अपने लेखन में कभी उनकी खुशबू के पास भी पहुंच सकता हूँ? कभी... एक बार...???? बस एक बार!!!..................

6 comments:

  1. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।

    ReplyDelete
  2. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (9-2-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

    ReplyDelete
  3. आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा मेरे दिल के मंच पर है मगर दिखाऊंगा नहीं आपको न ही आपको वहाँ तक आने कि कोई जरूरत है :)

    ReplyDelete

आप के विचारों का स्वागत है!