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Saturday, July 27, 2013
Colour Blind...2
कल पहला दिन था जब शुरु के सीन के साथ फ्लौर पर खेलेना शुरु किया था...। बार-बार लगता है कि हम किसी के बारे में बात कर रहे हैं जो वहां मौजूद है और कुछ कह नहीं रहा। पिछले कुछ महीनों से इतनी टेगोर पर बात हो चुकी है कि लगता है कि पहाड़ के किसी एक बड़े से घर में वह अकेले रहते हैं.. और मैं अपनी नोटबुक लेकर उनसे लगातार मिलने जाता हूँ। वह अपने जीवन के अंशों के बारे में कुछ इस तरह बात करते हैं जैसे वह अपनी कविताओं की व्याख्या कर रहे हो। मैं कुछ चीज़े नोट करता हूँ और कुछ जाने देता हूँ। जो जाने देता हूँ वह मेरे साथ रिहर्सल स्पेस में चला आता है और जो भी कुछ मैं नोट करता हूँ वह बेमानी लगता है। मुझे अधिक्तर अपनी नानी याद आती हैं... मैं जब भी उनके कमरे में उनसे मिलने जाया करता था तो महसूस होता था कि वह मुझसे कुछ कहना चाहती हैं.. हम बात करते और वह बीच बात में मेरा हाथ कसकर पकड़ लेती... मैं चुप हो जाता... वह मौन में मुझे ताकती रहती... और कुछ घटता। मैं अभी तक उस घटे हुए को पकड़ नहीं पाया हूँ... ठीक ऎसा ही मुझे महसूस होता है टेगोर के साथ... बीच बात में कोई जैसे मुझे चुप कर देता है... कुछ घटता है... और मैं चूक जाता हूँ। क्या घटता है मौन में...? क्यों चूक जाता हूँ? क्या मैं इस चूक को नाटक में शामिल कर सकता हूँ?
बने बनाए तरीके से एक कहानी दिखने लगती है... जो सीधी है...। उसपर विश्वास भी किया जा सकता है...। पर मेरा ध्यान बार बार मेरी नानी के बूढ़े हाथों पर जाता है... मैं नहीं रोक पाता खुद को...। एक त्रुटी है... इन सब बातों के बीच... जिसे मैं किन्हीं अच्छे क्षणों में देख भी लेता हूँ... पर पकड़ नहीं पाता हूँ। मैं इस त्रुटी का निर्देशन करना चाहता हूँ.... मैं अपनी नानी के हाथ को ... बीच में आए मौन को... टेगोर और हमारे बीच घट रहे ’कुछ..’ को मंचित होते देखना चाहता हूँ।
एक सवाल भी उठता है बार-बार कि इन सबमें टेगोर कहां है? टेगोर जिसे सब जानते हैं..। क्या मैं कभी भी सबकी कल्पना के टेगोर को मंच पर दिखा सकता हूँ? क्या मैं कभी भी टेगोर को दिखा सकता हूँ? थोड़ा सा भी? शायद नहीं। मैंने टेगोर को बीच बातचीत में कहीं देखा है... उनके बहुत सारे लिखे के बीच कहीं एक झलक उनकी देखी है... कहीं महसूस किया है कि ठीक किसी वक़्त मैं बिल्कुल ऎसा ही सोच रहा था...। सो अंत में उस एक झलक को अगर मैं मंच पर ठीक से देख सकूं तो कह सकता हूँ कि कहीं एक बात में इंमानदारी है...।
खुद को अलग कर पाना असंभव है इस प्रक्रिया में....। मेरा खाना.. पीना.. उठना.. बैठना... बैठे रहना... पीड़ा ... घाव.. असंतुलन.. मौन.. सब कुछ इस नाटक में शामिल होते मैं देख सकता हूँ। उत्साह और डर के बीच का कोई आदमी है इस वक़्त मेरे साथ.. जिसके साथ मैं चाय पी रहा हूँ।
फिर चाय... मृत्यु!!!
“कोपलें फिर फूट आई है शाख़ों पर... उससे कहना...”
कल यह वाक़्य पढ़ा और इसी में गुम हूँ।
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Colour Blind....1
हमें कोई पेंटिग क्यों पसंद आती है? मैंने कहीं यह पढ़ा था.. कि जब हम अपने जीवन के अंश उन रंगों में कहीं देख लेते है तो वह रंगो का समूह हमसे बात करता दिखता है... हम कहते हैं यह पेंटिग मुझे बहुत पसंद है। टेगोर अब मुझे रंगो में दिखते हैं... एक विशाल केनवास पर सघन रंगों के बड़े-छोटे स्ट्रोस..। थोड़ा दूर हटके उस पेंटिग को देखों तो जगहें नज़र आने लगती हैं... कुछ लोगों के चहरे दिखने लगते हैं। मैं जगह को पकड़ता हूँ... उसमें कुछ चहरों को मिलाकर पेंटिंग के करीब पहुंचता हूँ... तो वहा सिर्फ एक कत्थई रंग का ब्रश स्ट्रोक नज़र आता है... जैसे किसी कोरे कागज़ पर महज़ ’क...’ लिखा हो...। मैं इन सारी गड़मड़ आकृतियों से बात करने लगता हूँ... रंगों के गहरे स्ट्रोक्स को जब छूने जाता हूँ तो वह अभी भी गीले लगते हैं। कुछ रंग कम हैं... यह समझ में आता है... पर कमी और भी कहीं है...। असल में कमी ठीक शब्द नहीं है... ख़ाली है कुछ ऎसा लगता है। मानों एक कुर्सी पूरी ज़िदग़ी खाली रखी है कि वहां कोई आकर बैठेगा। यह ख़्याल आते ही मुझे यह पेंटिंग अपनी लगने लगती है।
अभी-अभी टेगोर नाटक का अपना हिस्सा ख़त्म करके चाय पी रहा हूँ। इस तरह से लेखन मैंने पहले कभी नहीं किया... एक व्यक्ति का लिखा हुआ और उसके जीवन के अंशो को दिमाग़ में रखकर संवाद लिखते जाना। मुझे कहीं बीच में लगा कि मैं बहुत असंभव से बिख़राव को एक धागे में पिरोने की कोशिश कर रहा हूँ....। यह एक तरह की लघु कथा है... जिसमें हर जगह टेगोर है और असल में कहीं भी नहीं है...।
लिखना खत्म करते ही लगा कि जैसे घर में से कुछ सामान निकल गया है...। कमरा ख़ाली लगने लगा। मैं गाना गुनगुना रहा था मुझे लगा कि वह गूंज रहा है... दीवारों से टकराकर सारा संगीत वापिस मेरे पास चला आ रहा है... कितना ख़राब गाता हूँ मैं.... मैं चुप हो गया। यह चुप्पी भी कितनी हल्की है... मैं चल रहा हूँ तो लग रहा है कि कपड़े नहीं पहने हैं...। एक सहारा चाय है जो बहुत अच्छी बनी है... अदरक़ गले को सहला रही है।
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मानव
परिचय
- मानव
- मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल