Friday, August 30, 2013

नाम “गुड्डू” निकला... (पिछली पोस्ट से जुड़ा हुआ....)

आह!!! उस चाय वाले का
मेरे पूरे शरीर ने उसका नाम सुनते ही ‘नहीं ई ई...’ चीख़ा। इसलिए शायद लेखक जिसके बारे में भी लिखना चाहते हैं... उसका नाम वह खुद ही रखते थे। किसी के होने से ही उसकी कहानी घट रही होती है...। सुबह की लंबी walk समुद्र पर रुकी....। सुबह छ: बजे समुद्र उफान पर था.... पानी की आवाज़ भीतर घट रहे संसार को संगीत दे रही थीं... मैं शांत बैठा रहा। दूर एक अकेली लड़ी बैठी हुई थी..... सिर पर चुनरी ओढ़े.... अपनी गुलाबी चप्पलों को बगल में रखे हुए वह अपना सिर घुटनों में दबाए हुई थी। बीच-बीच में वह समुद्र की तरफ देख लेती.. मैं उसकी चुनरी में से उसका चहरा देखने की कोशिश कर रहा था... चहरे के बिना कैसे कहानी जानी जा सकती है....। सुबह छ: बजे मेरे अलावा वह ही थी उस Beach पर.... सो मेरी जिज्ञासा, हर उसके सिर उठाने पर उसके सामने कूद जाना चाहती थी। मैंने सोचा मैं अपनी उपस्थिति दर्ज कराता हूँ.... कुछ गाकर... ख़ांसकर... अचानक हंसकर... या इन पत्थरों पर गिरने का अभिनय करके...। मैंने कुछ नहीं किया...। असल में इस सुबह में बहुत शांति है... सिर्फ पानी की आवाज़ है.. मैं उस पवित्रता में और कुछ भी नहीं हिंसक नहीं देख सकता था। मैंने उस लड़की की तरह पीठ मोड़ ली..... हम दोनों अपने अपने-अपने एकांत के साथ पूरे संसार के सामने बैठे थे...। एक बारको मुझे लगा कि मैं असल में पृथ्वी के ऊपर बैठा हूँ..... और पूरे ब्रंम्हांड को अपने सामने देख रहा हूँ... और दूसरे तरफ वह गुलाबी चप्पल वाली लड़की है जो मेरी ही तरफ पृथ्वी के ऊपर बैठी है पर वह ब्र्ह्मांड नहीं वह धरती के गर्भ में कहीं झांकने की कोशिश कर रही थी...। अचानक मुझे उसका धरती का मूल टटोलना मेरे ब्रह्मांड बांचने से ज़्यादा सुखद लगने लगा...। मैंने उसकी तरफ पलटा... और चौंक पड़ा वह मुझे देख रही थी.... और सब बिख़र गया... वह भी “गुड्डू...” निकली...। उसके हाथ में मोबाईल था वह गाने और मेसेज़ कर रही थी..... उसके देखने में एक दूसरी कहानी थी... जो इस सुबह की मेरी कहानी में दर्ज नहीं हो पा रही थी। मैं उठा और वहां से तुरंत चल दिया...। हमेशा दिमाग़ में इस तरह एक अजान लड़की को देखकर लगता है कि आज मैं पहली बार जीवन में किसी ऎसी लड़की से मिलूंगा जिसका मैं बरसों से इतंज़ार कर रहा था....। जो घटक की फिल्म से सीधा निकलकर आई हो... जो इतने सालों टेगोर की कहानी कविता में भटकर रही थी ... आज सुबह छ: बजे मैंने Beach पर उसे देख लिया है....। बस ठीक उसे वक़त मुझे वहां से निकल जाना चाहिए था... और अपनी डॆस्क पर बैठकर एक कहानी लिख देनी थी.... ’सुबह के घटने में उसका होना....’। पर मैंने ऎसा नहीं किया.... मुझे उत्सुक्ता थी...कुछ दूसरा देखने की.... कहीं कुछ छिपा बैठा है उसे ढूंढ़ निकालने की... कुछ नया आश्चर्य वगैहरा-वगैहरा। “जो मुझसे नहीं हुआ... वह मेरा संसार नहीं....” (कहीं पढ़ा था... याद आ गया।) वापसी में लगभग अलग-अलग टपरियों पर चाप पी.... गुरुद्वारे भी मथ्था टेक लिया वहां भी चाय मिल गई। वापिस आकर पहली बार मैंने ’सुबह’ Coetzee का लेटर पढ़ा..... मातृभाषा पर... उसमें Derrida की किताब का ज़िक्र है... Monolingualisam of the Other – 1996… यह किताब बहुत इंट्रस्टिंग लग रही है..। एक बार किसी ने शमशेर से मातृभाषा के ऊपर कुछ पूछा था... तो उनका जवाब था कि इस दुनियां में बोली जाने वाली सारी भाषांए हमारी मातृभाषा हैं। मुझे यह जवाब बहुत सुंदर लगा था... और कुछ इसी तरीक़े की पर पेचीदगी के साथ Derrida की किताब होगी जिसे पढ़ने में मज़ा आएगा.. क्यों कि वह बहुत सारी भाषा के जानकार थे। इसके बाद अचानक मेरी निग़ाह एक पुरानी ख़रीदी हुई किताब पर पड़ी जिसे जल्द पढूंगा की अलमीरा में रखा हुआ था... THE MASATER OF GO-YASUNARI KAWABATA… अभी इसे शुरु किया है...। “IT IS EASY TO ENTER THEE WORLD OF THE BUDDHA, IT IS HARD TO ENTEER THEE WORLD OF THE DEVIL.”

सुबह...

पिछले कुछ दिनों से PAUL AUSTER AND J.M. COETZEE बीच में हुए पत्राचार पढ़ रहा हूँ। साथ में कुछ दूसरी किताबों में दूधनाथ सिंह की ’लौट आ ओ धार..’ पता नहीं कहां से फिर छोले में साथ हो ली है। मुझे यह नाम बहुत पसंद है... HERE AND NOW… दो बड़े लेखक... खेल, लेखन, अर्थशास्त्र, दोस्ती... बूढ़ा होना... हर विषय पर कितनी सरलता से लिख रहे हैं। मैं इस किताब को रोज़ लगभग ऎसे पढ़ता हूँ कि एक ख़त मुझे भी आया है आज...। सुबह मैं PAUL का जवाब/ ख़त... पढ़ता हूँ और शाम का इंतज़ार करते हुए अपनी बाल्कनी में शाम की चाय के साथ Coetzee को। मैंने शाम Coetzee को क्यों पढ़ता हूँ मुझे नहीं पता...। मैंने कभी Paul के ख़त शाम को नहीं पढ़े...। कैसे लेखक संगीत की तरह हैं... जिस संगीत को सुनकर हम सुबह उठना पसंद करते हैं... उस संगीत को हम अपनी शाम के होने में शामिल नहीं करना चाहते....। बहरहाल...मैं इन दोनों के बीच डॉकिया जैसा कुछ हो गया हूँ..... नहीं डॉकिया नहीं... लेटर बाक्स...। ठीक इस वक़्त रात के तीन बज रहे हैं...। बाहर अभी ज़ोरों की बारिश शुरु हुई... मैं ’लेटर बाक्स’ शब्द लिखकर मुस्कुराया.... इस शब्द पर भी और बारिश के बुलावे पर भी...तुरंत बाल्कनी में भागा...। फिर याद आया कि चाय का कप तो टेबल पर ही छूट गया है। वापिस आया और चाय का कप लेकर बाल्कनी में बैठ गया। बहुत हल्की बारिश की फुहारें चहरे पर पड़ रही थी.... पूरी कालोनी में सन्नाटा था...। मैं बची-कुची आवाज़ों पर ध्यान देने लगा..। आंवले का पेड़ अपनी पत्तीयां छोड़ रहा है.... बाल्कनी के नीचे मानों पीला कालीन बिछ गया है। मैं वापिस भीतर आया मानों मुझे कुछ याद आया हो और मैंने वान गॉग के कुछ पत्र पढ़ ढ़ाले... “मुझ पर भरोसा रखना....”। हर बार एक अजीब आदत सी पड़ी है कि खुद को समेट लो...। झाड़ू लगाकर सारे बिखरे हुए को एक तरफ कर दो...। दो बजकर पैंतिस मिनट पर नींद खुली थी... मैं फिर सो जाता तो समेट लेता खुद को.... मैं उठ बैठा... लिखना, चाय, बारिश और चुप्पी....। अभी कुछ देर में मैं नीचे जाऊंगा... सुबह होने को देखने... कालोनी के गेट पर एक चाय वाला है जो सुबह.... पांच बजे दुकान खोल देता है। पीले बल्ब की रोशनी में जब वह मुझे सुबह-सुबह आता हुआ देखता है तो मुस्कुरा देता है...। शुरु कुछ दिनों में मुझे लगता था कि वह मेरे ऊपर हंस रहा है.... (इस शहर में आप अपने अकेलेपन पर झेंपना शुरु कर देते हो....) पर मैं ग़लत था... वह स्वभाव का अति उत्साही व्यक्ति है। सुबह मुझे जैसे आदमी को देखकर वह प्रसन्न हो जाता है। बारिश अभी रुक चुकी है...। “जो नहीं है... जैसे कि ’सुरुचि’ उसका ग़म क्या... वह नहीं है..” शमशेर का लिखा पढ़ा। कुछ देर तक उनकी बाक़ी लिखी चीज़े भी गूंजती रहेगीं। मैंने फिर खुद को समेटा... बाहर बाल्कनी में पहुंचा तो कुछ घरों से ख़ांसने बुहारने की आवाज़े आने लगी थी...। यह शहर ज़िदा हो रहा है.... हम सब यक़ीन से सोए थे कि सुबह उठ बैठेगें.... और सुबह हो रही थी। मैं आज उस चाय वाले का नाम पूछूंगा.... बस... नाम...।

Sunday, August 18, 2013

A very easy Death.....

A very easy Death…. Simone de Beauvoir …. “WHETHER YOU THINK OF IT AS HEAVENLY OR EARTHLY, IF YOU LOVE LIFE IMMORTALITY IS NO CONSOLATION FOR DEATH.” मृत्यु... कितना गहरा असर है इस किताब का...। बचपन की बहुत छोटी-छोटी चीज़ों का असर हम अपने पूरे जीवन देख सकते हैं...। माँ ऎसा शब्द है जो घर की तरह काम करता है....। दो बहने... Poupette और Simone …. और उनके उनकी माँ से संबंध... Complex, sometimes shocking …। हस्पताल में हर एक दिन का धीरे-धीरे गुज़रना...। माँ के चहरे के बदलते रंगों में, उनके सपनों में, उनके दिखने और नहीं दिखने में दिन का सरकना। मृत्यु को अपनी माँ के अगल बगल देखना और कुछ ना कर पाना... माँ की पीड़ा जिसमें उन्हें मृत्यु जल्दी आ जाए बिना तड़पे... यह प्रार्थना करना और फिर उस प्रार्थना की गलानी। एक बूढ़ी माँ का मरना बहुत स्वाभाविक है... पर सिमोन ने जिस तरह बहुत स्वाभाविक ढ़ंग से उनके अंतिम दिनों का ब्यौरा लिखा है... हम पर उनकी मृत्यु असर करने लगती है... और फिर वह बीच में उनकी बहन और उनके माँ से संबंध के बारे में लिखती है तो हमें पता चलता है कि वह माँ जो बिस्तर पर लेटी हुई है उनका कितना गहरा प्रभाव है दोनों बहनों पर.... कुछ ही देर में आप सिमोन की आँखों से सोमवार.. मंगलवार... का गुज़रना जीने लगते हैं। “When someone you love dies you pay for the sin of outliving her with a thousand piercing regrets.” आख़री पन्नों में…. जब मृत्यु के बाद माँ चीज़ों में बट जाती है...। सिमोन की बहन उनका रिबिन रखना चाहती थी... पर उससे क्या होगा? जब उन्हें शमशान ले जाया जा रहा था तो सिमोन की बहन ने कहा.... “THE ONLY COMFORT I HAVE IS THAT IT WILL HAPPEN TO ME TOO… OTHERWISE IT WOULD BE TOO UNFAIR.” हम किस तरह किसी के चले जाने की खाली जगह को भर सकते हैं? हमें हर बार लगता है कि वह गुण हमें आता है... पर हम हर बार हारे हुए उन ख़ाली जगहों में अपनी ही आवाज़ को गूंजता हुआ सुनते हैं। किसी अपने के चले जाने को पूरी ज़िदग़ी ढ़ोते रहते हैं.... फिर-फिर बार-बार वह अलग-अलग अर्थों में अलग-अलग कमरों में हमसे टकराता है पर हम उसे कभी देख नहीं पाते। जब मेरी नानी की मृत्यु हो रही थी तब मैं उनके बगल में बैठा था... ठंड थी... हम सब उनके शरीर से प्राण निकल जाने का इंतज़ार कर रहे थे... वह उल्टी सांसे लेने लगी थी। तब मैंने उनकी देह को बहुत करीब से देखा था... सूख़ी सी देह... मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था कि इसी शरीर ने मेरी माँ को जन्म दिया है....। तभी मुझे उनकी तनी हुई नसें दिखी थी... पता नहीं कितने सालों का संघर्ष... उन नसों में सूखकर जम गया था। मैं आज तक उस रात को नहीं भूला हूँ...। जब सिमोन अपने माँ के खुले हुए मुँह की बात कर रही थीं तब मैं अपनी नानी के चहरे को देख सकता था साफ...। इस किताब ने भीतर पल रहे पता नहीं कितने छोटे-छोटे हिस्सों को ज़िदा कर दिया है। हम सबने अपने माँ बाप की मृत्यु की कल्पना की है... पर हम कभी भी उसके लिए खुद को तैयार नहीं कर सकते...। सिमोंन जितनी बार हस्पताल का कमरा नम्बर 114 लिखती हैं किताब में... मैं उस कमरे के बाहर उनका खड़ा रहना देख सकता हूँ... धीरे-धीरे उनका रेंगते हुए उस दरवाज़े का खोलना.. धीरे-धीरे मृत्यु के करीब आने को लिखना। मैं जब दुबे जी (पं. सत्यदेव दुबे) को देखने हस्पताल गया था... वह कोमा में थे... उनकी मृत्यु के कुछ दिन पहले की बात है.... मैंने उनके पास खड़े रहकर पता नहीं क्यों उनके माथे पर हाथ रख दिया था... (जब वह ज़िंदा थे मेरी कभी हिम्मत नहीं थी कि उनका माथ छू दूं...)। शायद मुझे लगा था कि वह कोमा में कुछ बुरा सपना देख रहे हैं... उनकी देह बार-बार कांप जाती थी। उनके माथे पर हाथ रखते ही पता नहीं क्या हुआ मैं ज़ार-ज़ार रोने लगा... मैं खुद को संभाल नहीं पाया.... पता नहीं... आज यह किताब पढ़ते वक़्त मुझे बार-बार मेरा दुबे जी का माथा छूना याद आ रहा था... पता नहीं...मैं अपने रोने को लेकर इतना झेंप क्यों रहा था...... “THERE IS NO SUCH THING AS A NATURAL DEATH: NOTHING THAT HAPPENS TO A MAN IS EVER NATURAL, SINCE HIS PRESENCE CALLS THE WORLD INTO QUESTION. ALL MEN MUST DIE: BUT FOR EVERY MAN HIS DEATH IS AN ACCIDENT AND, EVEN IF HE KNOWS IT AND CONSENTS TO IT, AN UNJUSTIFIABLE VIOLATION.”- Simone ….

Friday, August 16, 2013

Colour Blind...5

कितना महत्वपूर्ण होता है जीवन का दिख जाना। ज़िंदा होते हुए शब्द... जो बहुत समय तक कागज़ पर मृत अक्षरों की तरह पड़े हुए थे...। नाटक को सांस लेते हुए देखना....। इन्हीं बहुत छोटी पहली सांसों के लिए नाटक करते रहने का सुख है...। कोई जब मुझसे यह छिछला सवाल पूछता है कि नाटक और फिल्मों में क्या अंतर है...? तो शायद उसका जवाब भी मुझे अब मिला है.... इस नाटक के जन्म में....। किसी चीज़ का जन्म होते हुए देखना... आपके खुद के मृत अतीत पर मरहम का काम करता है। और यह मज़ा सिर्फ नाटक में ही मिलता है क्योंकि नाटक का जन्म एक दिन नहीं होता... वह लगातार.. हर दिन.. हर तालीम (मराठी में रिहर्सल को तालीम कहते हैं.. जो मुझे बहुत पसंद है) में होता है। मैं अपना पूरा दिन बिना किसी काम के पड़े-पड़े बिता देता हूँ इस इंतज़ार में कि शाम होगी और आज की तालीम में मैं फिर कुछ पैदा होते देखूंगा। एक मूर्तिकार जब गीली मिट्टी से खेलता है.... और धीरे-धीरे पानी की मदद से वह उस मिट्टी को एक दिशा में धुमाना शुरु करता है तो अचानक एक संरचना दिखने लगती है। मेरे नाटक बनाने में थोड़ा अंतर है... मैं गीली मिट्टी के सामने घंटो बैठा रहता हूँ....। बहुत लंबे संयम के बाद मिट्टी अपने छोटे-छोटे हिस्सों में बात करने लगती है...। उस क्षण को मैं कभी पकड़ नहीं पाया जब मेरे हाथ खुद ब खुद उठकर खेलने लगते हैं। तब एक लुका-छिपी का खेल शुरु होता है.... इस खेल में मिट्टी अपनी संरचना पर खुद आती हैं.... चूकि मैं मूर्तिकार हूँ.... इसलिए मेरे हाथ उस मिट्टी की मदद करते हैं...। मैं उसे नहीं वह मुझे बनाती है...। मैं पूरी तरह खाली होकर मिट्टी के पास जाता हूँ... रोज़। बिना सोचे-जाने... इसमें हम दोनों एक दूसरे को तुरंत अपना लेते हैं... मैं अपने बंधे-बंधाए सिद्धांत उसपर थोपता नहीं हूँ.. और वह भी अपने संवाद में सूखती नहीं है। मिट्टी अपनाने में अपना समय लेती है... पर जब अपनेपन के खेल शुरु होते हैं तो मुझे मेरा बचपन का सा सुख दिखने लगता है। अभी नाटक किसी बचपन के खेल में मुक्त है। अभी वह पीपल और इमली के पेड़ के नीचे बैठकर सांस ले रहा है।

Monday, August 12, 2013

Colour Blind...4

एक पर्दा दिखता है। मेरे और टेगोर के बीच..। मैं कभी भी उन्हें पूरी तरह देख नहीं पाता हूँ। तभी एक व्यक्ति पर्दा हटाकर सामने आता है...। ना यह टेगोर नहीं है... इसने तो जींस और टी-शर्ट पहनी हुई है.. तभी वह कहता है कि वह टेगोर होने का अभिनय कर सकता है...। मैं अभिनय शब्द नहीं सुनता हूँ और उसके भीतर टेगोर का होना टटोलने लगता हूँ। मैं उसे गाने के लिए कहता हूँ... वह कविता कहता है... मैं उसे बैठने के लिए कहता हूँ... वह नाचने लगता है... उसकी चुप्पी में मुझॆ शब्द दिखते हैं... और उसके बोलते ही सब कुछ फिर से धुंधला हो जाता है। सच में किस तरह से दिख सकता है वह जिसे मैं टेगोर समझे बैठा हूँ। फिर प्रश्न यह भी है कि क्या मैं सच में महज़ टेगोर देखना चाहता हूँ...? या मैं टेगोर के बहाने खुद का उलझा हुआ कुछ सुलझा रहा हूँ। मैं हमेशा अपने सबसे उलझे हुए समय में.... अपने किसी नाटक की आड़ में छुप गया होता हूँ...। नाटक की उलझनों के सामने जीवन की पीड़ा बहुत टुच्ची दिखती है। हर बार रिहर्सल के बाद जब मैं... एक चाय और सिगरेट... के साथ होता हूँ... एक आश्चर्य मानों... बगल जैसी किसी जगह आकर बैठ जाता है। मैं अपनी सांस रोक लेता हूँ... यह तितली का आपके कंधे पर बैठने जैसा अनुभव है... मैं देर तक महसूस करता हूँ उसका बैठना पर उसे देख नहीं सकता हूँ। मेरे हिलते ही वह नदारद होगी। फिर अचानक लगता है कि मैं टेगोर भी नहीं देख सकता... मुझे नहीं पता कि मैं टेगोर देख पा रहा हूँ कि नहीं...। अपने आश्चर्यों और टेगोर के बीच अचानक मुझे एक तितली सांस लेती हूँ महसूस होती है। मैं बस इन तितली के रंगों के बीच color blind सा कुछ तलाश रहा हूँ। मुझे जो देखता है... और जो मेरे देखते ही नदारद हो जाएगा के बीच.... यह नाटक पल रहा है....। मेरे आश्चर्यों में आज मुझे बचपन में देखा टमाटर का छोटा सा पेड़ याद आया (कश्मीर में...)। मुझे हमेशा लगता था कि टमाटर बज़ार में मिलते हैं.. कोई इन्हें बनाता है शायद... पर उसे उगते हुए एक पेड़ पर देखना... यह मेरे लिए अदभुत था... मैं हंसता हूँ.... चाय के कुछ घूंट खीचकर ... सिगरेट बुझाता हूँ....। ठीक अभी कुछ सुलझा सा लगने लगा है.... यह सोचकर ... खुद से वर्जीनिया वुल्फ की लाईन कहता हूँ.... let’s take a walk….. |

Saturday, August 10, 2013

चिड़िया के नहीं दिखने में उसके दिख जाने की प्रसन्नता छुपी है...

बाहर आजकल एक छोटी चिड़िया देर तक आंवले के पेड़ पर सुबह खेलती दिखती है। बाहर देखने का पेड़ बदल चुका है। यहां इस नए घर के आस-पास बहुत पेड़ हैं.... बहुत पेड़ों ने आसमान घेर रखा है..... इसलिए आजकल चील कम दिख़ती है... बाहर जाता हूँ और कभी चील जाए तो पुराने घरों की याद आने लगती है... उन यादों का सिलसिला फिर टूटे नहीं टूटता। सो मैं आसमान में चीलों को अब नहीं खोजता हूँ। जैसे कुछ देर के अभिनय के बाद सच में हंसी आने लगती है, ऎसे ही कुछ देर के अभिनय के बाद सच में प्रसन्नता आंवले के पेड़ पर खेलती दिखती है। एक जोड़ा गिलहरियों का सारे पेड़ों पर दौड़ लगाता है...। छोटी लाल चींटियां.... मालगाड़ी की तरह घर के एक कोन से दूसरे कोने में खों जाती हैं। मैं अपनी अधूरी लिखी कहानियों के बारे में सोचने लगता हूँ.... जिन्हें फिर-फिर खोलने पर भी मैं उनके आगे एक शब्द भी नहीं जोड़ पाता...। शायद कुछ कहानियां कभी पूरी नहीं होंगी... हम हमेशा उन क्षणॊं को कोसते रहेगें जिन क्षणॊं में हमने आख़री वाक़्य उन कहानियों में लिखे थे.... और अपनी डेस्क पर से उठ गए थे। काश हम उन्हें पूरा कर लेते... उस वक़्त...। नई कहानियां अधूरी कहानियों के बोझ तले शुरु नहीं होती... वह कुछ वाक्यों के बाद ही दम तोड़ देती हैं। शायद वह नई कहानियां... अधूरी कहानियों की पीड़ा सूंघ लेती हैं... और छूट जाती है। इसलिए शायद मैंने नई कहानियों को लिखने की जद्दोजहद त्याग दी है... अब मैं उस छोटी चिड़िया का इंतज़ार करता हूँ जो हर सुबह आंवले के पेड़ पर खेलने आती है। जितनी जल्दी दिखती है उतनी ही जल्दी ओझल हो जाती है.... वह फिर आएगी के इंतज़ार में गिलहरी सामने से भाग लेती है... चींटियां अपना पथ बदल लेती हैं... और जब मैं उस छोटी सी चिड़िया को खोजना छोड़ देता हूँ वह अचानक दिख जाती है... यही अचानक खुशी का आना है...। प्रसन्नता फिर आंवले पर बैठी दिखती है। कितनी छोटी है और कितना कुछ दे जाती है। मैं ठीक उसे देखते हुए सब भूल जाता हूँ... भूल जाता हूँ कि इस पेड़ के घने छप्पर के पीछे जो आसमान है... वहां चील अभी भी उड़ रही होगी... उस चील की अधूरी कहानी अभी भी मेरे कमरे की डेस्क पर मेरा इंतज़ार कर रही होगी। मैं सब भूलकर हाथ बढ़ाता हूँ और एक आंवला पेड़ से तोड़ लेता हूँ। मेरी ड़ेस्क पर बैठे हुए मैं उस छोटी सी चिड़िया की कलरव सुन सकता हूँ। आखिर में बाहर क्या है.... बाहर वह है जो मेरी खिड़की से मूझे दिखता है... पर जब सच में बाहर कदम रखता हूँ तो उसका कोई अंत नज़र नहीं आता। तभी ख़्याल आता है कि चिड़िया के नहीं दिखने में उसके दिख जाने की प्रसन्नता छुपी है...। अधूरी कहानियों की आड़ में कहीं एक नई कहानी जन्म लेती है... वह अचानक मुझे एक दिन दिख जाएगी जब मैं उसे खोजना बंद कर दूंगा।

Friday, August 2, 2013

Colour Blind...3

टेगोर... क्या है इस नाम में...? मैं क्यों आकर्षित हो रहा हूँ उस बच्चे से... उसकी चुप्पी से... उसके अकेले खेलते रहने से.... टेगोर। एक विशाल से मैदान में एक बच्चा पालकी में बैठे हुए अपना छोटा संसार जीने लगता है। चॉक से बने गोले के बीच... पानी में सिर घुसा देने की सज़ा पाता है। किसी दूसरे की बनाई हुई फिल्म की तरह अपने ही बाप का जीवन देखता है। इस संसार में मुझे कोई कमी नहीं लगती है... इस संसार की सुंदरता टेगोर को भी उसके बड़े होने के बाद समझ में आई..। उसके बचपन के अकेलेपन में बहुत सारे खेल शुमार थे। बड़े होने में एक प्रतिक्षा थी... किसीकी... कोई था जो आ नहीं रहा था... कोई था जो चला गया था..। या वह असल में रतन थे.. (पोस्टमास्टर कहानी की लड़की) जो पीछे छूट गए थे। जो पूरा जीवन पोस्ट ऑफिस के चक्कर काटते रहे। किस जगह मैं टेगोर को पकड़ सकता हूँ? कैसे उनके लिखे में उनकी मन:स्थिति तक पहुंचा जा सकता है। उनका प्रेम बिना पीड़ा के नहीं दिखता... पीड़ा ढ़ूंढ़ने जाओ तो प्रेम पा लिया ऎसा लगता है। बचपन में ’मैं भी हूँ...’ की लड़ाई शुरु हुई... अपने होने को सिद्ध करने में जब अपने घर का दरवाज़ा खोला तो पूरा बंगाल था... जब बंगाल का दरवाज़ा खोला तो पूरा देश था... फिर विदेश... लड़ते-लड़ते अचानक पूरे ब्रह्मांड में उन्होंने खुद को सबसे छोटा पाया...। फिर सब धुल गया.... देश.. विदेश... सब कुछ... फिर वापिस वह अपनी पुरानी प्रतिक्षा पर लोट आए... किसी की... किसी एक की... वह वापिस पोस्ट-ऑफिस के चक्कर काटने लगे... कोई एक मिले जो बस सब सुन ले। फिर एक तरह से बहुत स्वार्थी भी दिखे... जिसने अपने लिखे को दूसरे के जिए में बटोरा... कभी भी किसी भी कहानी को उसके नेचुरल अंत तक नहीं पहुंचने दिया...। पर नेचुरल शब्द टेगोर पर जाता भी नहीं है जितना उन्होंने अपने जीवन में काम किया वह नेचुरल नहीं है। मैं कई बार उनसे संवाद करना चाहता हूँ जिसमें एक प्रश्न बार-बार दिमाग़ में आता है कि इतना सारा क्यों लिख रहे थे वह? मैं इस बात के मूल में पहुंचना चाहता हूँ इस नाटक के द्वारा... कि काम का इतना सारा बोझ.. जिसके अंत में वह टैगोन नहीं होना चाहते थे। सामान्य उनके जीवन में कुछ भी नहीं था...। आज सुबह उठा तो लगा टैगोर ने मेरी तरफ मुड़कर देखा... मेरी बहुत से सवालों का वह जवाब देने ही वाले थे कि सपना टूट गया। एलार्म चीख़ रहा था... मैं भागकर अलार्म बंद करके फिर लेट गया ज़ोर से आँख बंद की और टैगोर की आख़री झलक याद करने लगा...। व्यर्थ था सब कुछ..। करवटें... करवटें और फिर कुछ करवटें... मैंने बिस्तर त्याग दिया। बहुत देर तक किचिन में खड़ा रहा... चाय का पानी चढ़ा दिया था पर गैस चालू नहीं की... मैं खड़ा रहा... सपने का सिर पैर मेरी समझ से परे था। मेरी टैगोर से मुलाक़ात (सपने में...) उनके Switzerland प्रवास के दौरान हुई... जब वह तीन महीने के लिए Switzerland / Italy में विक्टोरिया का इंतज़ार कर रहे थे और वह नहीं आई। हमारी बातचीत में मैं कहे जा रहा था और वह चुप थे... बीच-बीच में एक गहरी सांस की आवाज़ आती और सब चुप... मेरे सारे सवाल व्यर्थ थे मानों वह सुन ही नहीं रहे हों... फिर पता चला कि मैं असल में एक स्क्रीन के सामने खड़ा हूँ जिसपर उनके इंतज़ार का लाईव टेलिकास्ट चल रहा है। जबकि मैं भी Switzerland में ही था... मैं उसी विला में था जिसमें वह थे पर मैं उन्हें स्क्रीप पर देख रहा था। सपना बिना किसी संवाद के खत्म हो चुका था। कुछ देर बाद मैंने गैस चालू की... चाय बनने की प्रक्रिया शुरु हो गई थी पर मैं वहां नहीं था। मुझे बैचेनी महसूस हो रही थी.. टैगोर की छवी मेरे दिमाग़ में बहुत सुंदर सी थी... फिर अचानक यह इंतज़ार वाली बात ने पता नहीं उस छवी के साथ क्या छेड़-छाड़ की कि लगा मैं इस बारे में उनसे बात करना चाहता हूँ.... पर कर नहीं पा रहा हूँ क्योंकि मैं उन्हें स्क्रीन पर देख रहा हूँ... सामने नहीं। मैं समझता हूँ उनकी मन: स्थिति को.... इस घटना के बाद वह ओर भी करीब थे... एक सीधे साधे इंसानी रुप में... जिसे ज़रुरत थी उस वक़्त किसी की..। मुझे लगा मैं उन्हें पकड़ सकता हूँ उनकी कहानीयों में... उनकी कविताओं में... पर वह हर बार छूट जाते थे... अब अचानक लगा कि वह मेरे सामने हैं... हम आँखो में आँखे डालकर एक दूसरे को देख ही रहे थे कि सपना टूट गया। बहुत कमज़ोर क्षणों में हम अचानक अपनी सारी कमान छोड़ देते हैं... फिर ऎसा करना है और ऎसा नहीं कर सकते के बीच की सारी की सारी उठापटक अपना मानी ख़ो देती है। ठीक ऎसे वक़्त शायद हम खुद को पहली बार देख लेते हैं... बिना आईने.. बिना कपड़ों के...। जैसे का तैसा सा सब कुछ सामने पड़ा होता है और हमें यक़ीन नहीं होता कि यह क्या हो रहा है...? असहायता.... यह शब्द मुझे टेगोर से जोड़ती हैं...। मैं इस नाटक में कुछ इस शब्द की कविता खोज रहा हूँ।

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मानव

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परिचय

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल