आज
दिवाली है। मैंने लगभग हर दिवाली पर अपने लिखने का सिलसिला बनाए रखा है। पहले
दिवाली पर अकेले रहना अपनी इच्छा से नहीं था... मैं चाहता था कि कोई आए। पर हर बार
दीवाली लगभग अकेले ही मनानी पड़ी। अब कुछ दोस्त आ सकते हैं... मैं कहीं जा सकता
हूँ... पर मैंने तय किया है कि नहीं अकेले ही रहता हूँ। यह चुनना सब बदल देता
है... चुनने से उदासी ख़त्म हो जाती है... चुनने में संगीत प्रवेश करता है और सारा
कुछ बहुत सादग़ी लिए हुए होता है। शायद यह उम्र का भी तकाज़ा है... पर आज का दिन मैं
बड़े आनंद में हूँ।
दीवाली
पहले कितनी महत्वपूर्ण होती थी... स्कूल की लगभग दो महीने की छुट्टी होती थी,
कश्मीर में पिताजी बहुत सारे पटाख़े लाते थे.. पड़े पटाखों की आवाज़ से मैं रो रहा
होता था। मुझे फुलझड़ी, अनार और साँप बड़े सही लगते थे। बहुत दिनों तक अपने पटाख़े
बचाए रखना मुझे बहुत अच्छा लगता था। फिर होशंगाबाद की राम लीला... हम खुद अपनी राम
लीला खेलते थे मोहल्ले में.. दोपहर में.... कोई देखने वाला नहीं होता था। बस हम
कुछ चार पांच दोस्त.. राजू और छोटू हमारे पड़ोसी थे.. पंडित.. उन्हें पूरी रामलीला ज़बानी
रटी थी तो ज़ाहिर है राम और लक्षमण वही दोनों बनते थे.. मेरा बड़ा भाई भरत और मुझे
हमेशा शत्रुघन बना देते थे...। शत्रुघन की कोई भूमिका नहीं होती थी... मैं बस धनुष बांड लिए... कभी राम के तो कभी भारत
के आगे पीछे घूम रहा होता था। फिर हम ग्राऊंड पर कुभकरण वध, रावण वध देखने जाते
थे। मुझे सबसे मज़ा आता था अपने दोस्तों को राम की सेना या रावण की वानर सेना में
पहचाना। सारे काले बच्चे रावण की सेना में और सारे गोरे बच्चे राम की सेना में
होते थे....। उस वक़्त यह बात कभी अख़रती नहीं थी... अभी यह लिखते हुए भी अजीब लग
रहा है। अजीब है कि राम की सेना बंदरों की होती थी... गोरे बंदर... जबकि बंदर तो
काले भी हो सकते थे। और रावण तो प्रगाड़ पंडित था ... उसकी सेना में गोरे बच्चे
ज़्यादा सही लगते... पर बुरा आदमी गोरा कैसे हो सकता है। अजीब था यह सब। मैं कुछ
दोस्तों को पहचान लेता तो नाम से चिल्लाता और वह सब अपना मुंह छुपाते फिरते....।
रावण की सेना के बच्चों को पूरे साल चिढ़ाया जाता... राम के बंदरों को कोई कुछ नहीं
कहता था।
आज
कभी-कभी सोचता हूँ वह हेमंत, निखिल, हेमराज, पटवा, राजू, मीनेष, बंटी, विक्की कहाँ
होगें... जीवन की किस जद्दोजहद में व्यस्त होंगे? आज सभी दीवली पर नए कपड़ों में
होंगे... खुश होंगे।
मुझे
अब बहुत ही तकलीफ होती है जब लोग पटाख़े छोड़ते हैं... हमारी संवेदनशीलता कितनी
ज़्यादा ख़त्म हुई पड़ी है कि जिन प्राणियों के साथ हम यह धरती पर रहना बांट रहे होते
हैं हम उनकी कतई फिक्र नहीं करते हैं। कैसे हम ऎसे हैं... मुझे सच में यक़ीन नहीं
होता... सारे पक्षी... जानवर.. उस सबके कान कितने सेंसटिव होते हैं हर एक आवाज़ को
सुनने के लिए और हम उनके बग़ल में बम फोड़ देते हैं। मैं इन त्यौहारों से भर पाया।
बचपन, बचपन था... अब यह सब उबा देता है... उबा नहीं तक़लीफ से भर देता है।
अभी
अभी पूरी बनाई थी.... खूब इच्छा हो रही थी पूरी ख़ाने की...। अब गोल पूरिया नहीं
बनती है.. और बहुत दिनों बाद बनाई थी सो वो फूली भी नहीं। पर स्वाद ठीक था। चाय और
पूरी... आह!!!
दीवाली
पर लिखने का सिलसिला कुछ शुरु हुआ लगता है... आशा है यह चलता रहेगा।