आज ही सुबह-सुबह दूरदर्शन पर एक documentary देख रहा था जो ’दया बाई’(mercy Mathew) पर थी।उन्हीं के संबंध में लिखने की इच्छा हो आई। सो कुछ जानकारी जो मुझे मिली, उसे बाटना चाहता हूँ, जो इस प्रकार है।(इसमें से कुछ अंश मैंने नंदितादास के संस्मरण से भी लिए है... वो करीब एक हफ्ते उनके साथ रहीं थीं..।)
’दया बाई’ एकदम tribal औरत दिखती हैं.... उनकी आवाज़ में एक पेनापन है... वो छोटे-छोटे नुकड़ नाटक करती है...तो उनका अभिनय देखकर अपको अपने होने पर लज्जा सी होने लगती है।वो एक ऎसा जीवन है जिसका एक-एक पल दया बाई ने, निचोड़कर जिया है। केरला के एक समपन्न परिवार में दया बाई का जन्म हुआ... एक अच्छी क्रिश्चयन होने के नाते.. लोगों की सेवा करने के उद्देश्य से उन्होनें NUN बनना तय किया...। वो बिहार के एक मिश्नरी स्कूल में गई, पर उन्हें वो दो अलग-अलग दुनियाँ लगी... और वो वहाँ रहते हुए उस बाहर की दुनियाँ से संबंध स्थापित करने में, अपने आपको नाकाम महसूस करती रहीं।एक दिन वो वहाँ से भाग गई... और धूमती रही.... उस दुनियाँ.. उन लोगों की तलाश में जहाँ वो उन्हीं के बीच की होके काम कर सकें। उन्होंने रिफ्यूजी केंप (बांग्लादेश) में सन 1971 की जंग के बाद काम किया। फिर कुछ NGO’s के लिए... उन्होंने इस बीच masters in social work की पढ़ाई भी की पर वो अधूरी ही रह गई। वहाँ से वो फिर निकल गई.... इस बार वो मध्य प्रदेश के जंगलों में धूमी..और अंत में वो छिंदवाड़ा पहूची... । पर यह सब उन्होने कुछ भी तय नहीं किया था... वो कुछ संयोग ऎसा हुआ कि वहाँ से उनको आगे जाने के लिए ट्रेन लेनी थी... और उनके पास पैसा नहीं था। जब पैसा था नहीं तो उन्होने चलना तय किया... वो करीब 25 kms! चलीं... जब उनके पेर जवाब देने लगे तब वो एक गावं में पहुची.. जिसका नाम ’बारुल’/चिटवाड़ा (Barul) था, लगभग अगले पंद्रह सालों तक वो यहीं रहीं।पहले उनको यहाँ किसी ने भी अपनाया नहीं.... वो किसी के भी बरामदे में सो जाती.. जो भी कोई कुछ दे देता खा लेती.... फिर धीरे-धीरे उनकी रात की गाने की महफिलों में लोगों ने उनसे बात करना शुरु किया। वो बताती हैं कि किसी एक आदमी ने उनसे कहाँ कि ’आप यहाँ क्यों आई है.. हम बंदरों के बीच...।’ और उनकी आँखों से आँसू निकल आए... शायद ये ही वो क्षण हो जब उन्होने तय किया कि मैं यहीं रहूगीं...।उन्हें शुरु में समझ में नहीं आया कि वो कहाँ से अपना काम शुरु करें... उन्हें खुद भी कानून का ज़्यादा ज्ञान नहीं था, वो उन लोगों के लिए लड़ने में अपने आपको असमर्थ पा रही थी, तो उन्होनें तय किया कि वो Bombay जाएगीं... उन्होनें बंबई में अपनी master’s degree, सामाजिक काम के लिए पूरी की, उसके बाद वो वापिस बारुल/चिटवाड़ा गई वहा उन्होने अपना काम शुरु किया और साथ ही साथ उन्होने law में correspondence कोर्स भी किया।
उनके काम में, वहाँ के बच्चे जो चरवाहे है, उनके लिए रात में स्कूल चलाना।वहाँ की औरतों के लिए काम करना.. नुक्कड नाटक कर-कर के लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जानकारी देना।वहाँ वो बच्चों को ’अ’ से ’अनार’ नहीं बल्कि “अ” से “अंड़ा” पढ़ाती हैं, उनका कहना है कि गांव के बच्चों को ’अंड़ा’ पता है ’अनार’ नहीं। वहाँ के लोगों का कहना है... कि... ’दया बाई के रहते कोई भी पुलिस वाला यहाँ आकर कोई भी बत्तमीज़ी नहीं कर सकता।’
उनके पिताजी की मृत्यु के बाद उन्हें कुछ पैसा मिला... जिसे बहुत ही मुश्किल से इन्होंने स्वीकार किया.... और उस पैसे से पहली बार उन्होने उस गावं में अपनी थोड़ी सी ज़मीन खरीदी...। उनके परिवार में गाय है, बिल्ली है, बकरीयाँ है... मुर्गीयाँ ... और उनसे वो अपनी सारी परेशानियों के बारे में बात करती रहती हैं.... और वो सब ’दया बाई’ की बातें सुनती भी हैं।उन्होने कुछ चावल की खेती की है.. कुछ सब्ज़ीयाँ भी उगाईं है... एक दिन उन्हें, उन टमाटरों से भी बात करते हुए पाया गया।
गांव वाले कहते है कि इस उम्र में भी वो पैदल ही चलती हैं... किलोमीटर के किलोमीटर नाप जाती हैं। उनके बारे में बुरा बोलने वाले भी कम नहीं है उनकी जात से लेकर, उनकी काम को भी महज़ एक publicity का बहाना बताया गया है...। यहाँ तक कि उनको मारने की भी कोशिश की गई। वो कहती है जब भी मैं परेशानी में होती हूँ... ऊपर वाले को टेलीफोन कर के बात कर लेती हूँ। यूँ मैं भगवान में विश्वास नहीं करता हूँ.. पर इतना कह सकता हूँ कि अगर भगवान हैं तो उनसे टेलिफोन पर बात ज़रुर करते होगें।उन्हें 2007 का ’Vanitha Woman of the year’ award भी मिला है।किरन बेदी ने कहाँ कि –’ मेरी माँ के बाद ये ही मेरी role model हैं।’ मैं दया बाई के बारे में क्या सोचता हूँ.... मैंने कई बार लिखने की कोशिश कि.. पर हर बार कुछ वाक्य लिखने के बाद मुझे... सारा का सारा लिखा हुआ छोटा लगने लगा।मैं काफ़ी कोशिश करता रहा, तभी मुझे निर्मल वर्मा की बात याद आ गई... जो उन्होनें गांधी जी के लिए लिखा था।मैं बिलकुल ’दया बाई’ के लिए वैसा ही महसूस करता हूँ जैसा निर्मल जी गांधी जी के लिए करा करते थे। निर्मल वर्मा ने गांधी के बारे में लिखा है कि
–“जब भी मैं गांधी के बारे में सोचता हूँ, तो कौन-सी चीज़ सबसे पहले ध्यान में आती है? लौ-जैसी कोई चीज़- अंधेरे में सफेद, न्यूनतम जगह घॆरती हुई, पतली निष्कंप और पूरी तरह से स्थितप्रज्ञ!!! फिर भी जलती हुई, इतनी स्थिर कि वह जल रही है,इसका पता नहीं चलता। मोमबत्ती जलती है-लेकिन लौ? मैं जब कभी उनका चित्र देखता हूँ तो मुझे अपनी हर चीज़ भारी और बोझ लदी जान पड़ती है- अपने कपड़े, अपनी देह की मांस-मज्जा, अपनी आत्मा भी और सबसे ज़्यादा- अपना अब तक का सब लिखा हुआ। इसके साथ याद आता है गोएटे का कथन, जो उन्होंने आइकरमान से कहा था, ’हर स्थिति-नहीं, हर क्षण- अनमोल है, वह समूचे शाश्वत का परिचय देता है।’
Daya Bai in her speach said in her service to people she had faced several problems and even her life was threatened. However, 'I will continue to serve people.'My dream is that justice, equality and liberty becomes a reality to everyone in the nation'.
Daya Bai, whose original name was Mercy Mathew, was working for the last 27 years to educate tribals in Chintwada village and fighting for their rights.
’दया बाई’ एकदम tribal औरत दिखती हैं.... उनकी आवाज़ में एक पेनापन है... वो छोटे-छोटे नुकड़ नाटक करती है...तो उनका अभिनय देखकर अपको अपने होने पर लज्जा सी होने लगती है।वो एक ऎसा जीवन है जिसका एक-एक पल दया बाई ने, निचोड़कर जिया है। केरला के एक समपन्न परिवार में दया बाई का जन्म हुआ... एक अच्छी क्रिश्चयन होने के नाते.. लोगों की सेवा करने के उद्देश्य से उन्होनें NUN बनना तय किया...। वो बिहार के एक मिश्नरी स्कूल में गई, पर उन्हें वो दो अलग-अलग दुनियाँ लगी... और वो वहाँ रहते हुए उस बाहर की दुनियाँ से संबंध स्थापित करने में, अपने आपको नाकाम महसूस करती रहीं।एक दिन वो वहाँ से भाग गई... और धूमती रही.... उस दुनियाँ.. उन लोगों की तलाश में जहाँ वो उन्हीं के बीच की होके काम कर सकें। उन्होंने रिफ्यूजी केंप (बांग्लादेश) में सन 1971 की जंग के बाद काम किया। फिर कुछ NGO’s के लिए... उन्होंने इस बीच masters in social work की पढ़ाई भी की पर वो अधूरी ही रह गई। वहाँ से वो फिर निकल गई.... इस बार वो मध्य प्रदेश के जंगलों में धूमी..और अंत में वो छिंदवाड़ा पहूची... । पर यह सब उन्होने कुछ भी तय नहीं किया था... वो कुछ संयोग ऎसा हुआ कि वहाँ से उनको आगे जाने के लिए ट्रेन लेनी थी... और उनके पास पैसा नहीं था। जब पैसा था नहीं तो उन्होने चलना तय किया... वो करीब 25 kms! चलीं... जब उनके पेर जवाब देने लगे तब वो एक गावं में पहुची.. जिसका नाम ’बारुल’/चिटवाड़ा (Barul) था, लगभग अगले पंद्रह सालों तक वो यहीं रहीं।पहले उनको यहाँ किसी ने भी अपनाया नहीं.... वो किसी के भी बरामदे में सो जाती.. जो भी कोई कुछ दे देता खा लेती.... फिर धीरे-धीरे उनकी रात की गाने की महफिलों में लोगों ने उनसे बात करना शुरु किया। वो बताती हैं कि किसी एक आदमी ने उनसे कहाँ कि ’आप यहाँ क्यों आई है.. हम बंदरों के बीच...।’ और उनकी आँखों से आँसू निकल आए... शायद ये ही वो क्षण हो जब उन्होने तय किया कि मैं यहीं रहूगीं...।उन्हें शुरु में समझ में नहीं आया कि वो कहाँ से अपना काम शुरु करें... उन्हें खुद भी कानून का ज़्यादा ज्ञान नहीं था, वो उन लोगों के लिए लड़ने में अपने आपको असमर्थ पा रही थी, तो उन्होनें तय किया कि वो Bombay जाएगीं... उन्होनें बंबई में अपनी master’s degree, सामाजिक काम के लिए पूरी की, उसके बाद वो वापिस बारुल/चिटवाड़ा गई वहा उन्होने अपना काम शुरु किया और साथ ही साथ उन्होने law में correspondence कोर्स भी किया।
उनके काम में, वहाँ के बच्चे जो चरवाहे है, उनके लिए रात में स्कूल चलाना।वहाँ की औरतों के लिए काम करना.. नुक्कड नाटक कर-कर के लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जानकारी देना।वहाँ वो बच्चों को ’अ’ से ’अनार’ नहीं बल्कि “अ” से “अंड़ा” पढ़ाती हैं, उनका कहना है कि गांव के बच्चों को ’अंड़ा’ पता है ’अनार’ नहीं। वहाँ के लोगों का कहना है... कि... ’दया बाई के रहते कोई भी पुलिस वाला यहाँ आकर कोई भी बत्तमीज़ी नहीं कर सकता।’
उनके पिताजी की मृत्यु के बाद उन्हें कुछ पैसा मिला... जिसे बहुत ही मुश्किल से इन्होंने स्वीकार किया.... और उस पैसे से पहली बार उन्होने उस गावं में अपनी थोड़ी सी ज़मीन खरीदी...। उनके परिवार में गाय है, बिल्ली है, बकरीयाँ है... मुर्गीयाँ ... और उनसे वो अपनी सारी परेशानियों के बारे में बात करती रहती हैं.... और वो सब ’दया बाई’ की बातें सुनती भी हैं।उन्होने कुछ चावल की खेती की है.. कुछ सब्ज़ीयाँ भी उगाईं है... एक दिन उन्हें, उन टमाटरों से भी बात करते हुए पाया गया।
गांव वाले कहते है कि इस उम्र में भी वो पैदल ही चलती हैं... किलोमीटर के किलोमीटर नाप जाती हैं। उनके बारे में बुरा बोलने वाले भी कम नहीं है उनकी जात से लेकर, उनकी काम को भी महज़ एक publicity का बहाना बताया गया है...। यहाँ तक कि उनको मारने की भी कोशिश की गई। वो कहती है जब भी मैं परेशानी में होती हूँ... ऊपर वाले को टेलीफोन कर के बात कर लेती हूँ। यूँ मैं भगवान में विश्वास नहीं करता हूँ.. पर इतना कह सकता हूँ कि अगर भगवान हैं तो उनसे टेलिफोन पर बात ज़रुर करते होगें।उन्हें 2007 का ’Vanitha Woman of the year’ award भी मिला है।किरन बेदी ने कहाँ कि –’ मेरी माँ के बाद ये ही मेरी role model हैं।’ मैं दया बाई के बारे में क्या सोचता हूँ.... मैंने कई बार लिखने की कोशिश कि.. पर हर बार कुछ वाक्य लिखने के बाद मुझे... सारा का सारा लिखा हुआ छोटा लगने लगा।मैं काफ़ी कोशिश करता रहा, तभी मुझे निर्मल वर्मा की बात याद आ गई... जो उन्होनें गांधी जी के लिए लिखा था।मैं बिलकुल ’दया बाई’ के लिए वैसा ही महसूस करता हूँ जैसा निर्मल जी गांधी जी के लिए करा करते थे। निर्मल वर्मा ने गांधी के बारे में लिखा है कि
–“जब भी मैं गांधी के बारे में सोचता हूँ, तो कौन-सी चीज़ सबसे पहले ध्यान में आती है? लौ-जैसी कोई चीज़- अंधेरे में सफेद, न्यूनतम जगह घॆरती हुई, पतली निष्कंप और पूरी तरह से स्थितप्रज्ञ!!! फिर भी जलती हुई, इतनी स्थिर कि वह जल रही है,इसका पता नहीं चलता। मोमबत्ती जलती है-लेकिन लौ? मैं जब कभी उनका चित्र देखता हूँ तो मुझे अपनी हर चीज़ भारी और बोझ लदी जान पड़ती है- अपने कपड़े, अपनी देह की मांस-मज्जा, अपनी आत्मा भी और सबसे ज़्यादा- अपना अब तक का सब लिखा हुआ। इसके साथ याद आता है गोएटे का कथन, जो उन्होंने आइकरमान से कहा था, ’हर स्थिति-नहीं, हर क्षण- अनमोल है, वह समूचे शाश्वत का परिचय देता है।’
Daya Bai in her speach said in her service to people she had faced several problems and even her life was threatened. However, 'I will continue to serve people.'My dream is that justice, equality and liberty becomes a reality to everyone in the nation'.
Daya Bai, whose original name was Mercy Mathew, was working for the last 27 years to educate tribals in Chintwada village and fighting for their rights.