अभी कुछ ही दिन पहले किसी दिल्ली के हिन्दी अख़बार के किसी पत्रकार ने मेरा इन्टरव्यूह लिया, और वही बासी सवाल, जिनके जवाब देते देते लगभग हर नाटक से जुड़ा व्यक्ति बोर हो चुका। ये कुछ सवाल हैं।
-थियेटर मर रहा है क्या?
- हिन्दी नाटको में लेखक की कमी क्यों हैं?
- हिन्दी थियेटर में पैसा क्यों नहीं है?
- हिन्दी दर्शक?
- नाटको में निर्देशको की कमी?
- ब्ला-ब्ला... ब्ला-ब्ला... ब्ला-ब्ला...?
मैं सच में जानना चाहता हूँ कि वो कौन सा थियेटर नाम का आदमी है जो मर रहा है और जो सिर्फ इन्हीं से मिलता है, हमें कभी दिखाई नहीं देता।उसे कौन सी बीमारी है,जिसकी वजह से ये दुबले हुए जा रहे हैं पर उसका इलाज नहीं हो पा रहा है। मैं आए दिन, हर बार किसी न किसी पुराने थियेटर कर्मी से टकराता हूँ, और वो मुझसे कहता हुआ पाया जाता है कि-“थियेटर तो हम करते थे।अब तो बहुत बुरी हालत है।“ तो क्या थियेटर उनके साथ ही बूढ़ा हो रहा है? हमारे हाथ क्या वो थियेटर लगा है जिसकी दौड़ने की अब क्षमता नहीं रही... वो बस रेंग सकता है?और अगर कुछ ही दिनों में वो मर गया तो हम क्या करेगें...? मैं इस मरते हुए आदमी ’थियेटर’ से कभी नहीं मिला, लेकिन अगर वो मुझे कहीं मिल जाए तो मैं उससे एक सवाल ज़रुर करना चाहूगाँ- “भाई तुम मरते क्यों नहीं हो?’मर जाऊगां का डर’- बनाए रहते हो, मगर मरने का नाम ही नहीं लेते?” मुझे रेंगने वाले, बूढ़े होते हुए थियेटर में कोई दिलचस्पी नहीं है... मैंने उस पत्रकार से एक सवाल किया कि- “भाई तुमने कितने नाटक अभी हाल ही में पढ़े हैं? देखे नहीं पढ़े है?” तो वो चुप हो गया... मगर फिर घूमफिर के वो ही सवाल...। मेरी ये इन्टरव्यूह करने वाले लोगों में एक बहुत ही दिलचस्प बात लगती है कि असल में वो हमेशा अपना ही इन्टरव्यूह ले रहे होते..हाँ सच में... उनके पास बने बनाए सवाल होते हैं जिनका जवाब भी वो जानते हैं... तो जब तक उन्हें वो जवाब नहीं मिल जाता वो अपने प्रश्नों को दाग़ना बंद नहीं करते।फिर मैंने तंग आकर उस पत्रकार से कहां कि “मैं जल्द ही दिल्ली आ रहा हूँ क्या तुम मुझे इस मरते हुए आदमी ’थियेटर’ से मिलवा सकते हो?” वो हंसने लगा। मैंने कहा “मैं मज़ाक नहीं कर रहा, मैं सच में उससे मिलना चाहता हूँ?” बाद में वो अपने प्रश्नों पे अड़ा रहा, और मैं अपनी बात पे कि पहले मैं उससे मिलना चाहता हूँ।इंटरव्यूह नहीं हो पाया... परेशान होकर उसने फोन काट दिया। “हम थियेटर क्यों करते हैं?” मैं चाहता हूँ कि कोई मुझसे ये प्रश्न पूछे... और सच कहता हूँ मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं होगा।मैं चुप हो जाऊगाँ...। पर सच में अगर मैं सोचूं कि हम थियेटर क्यों करते हैं? अगर मैं आज थियेटर करना बंद कर दूं तो एक साल बाद किसी को याद भी नहीं होगा कि मानव नाम का एक आदमी थियेटर किया करता था। कई महीनों की महनत के बाद हम जब एक नाटक खोलते हैं, उसके दूसरे ही दिन समझ में नहीं आता कि क्या करें? थियेटर बहुत क्षणिक कला है,हमेशा से वो एक छोटे से समूह के लिए ही होती है, वो उस समय का पूरा मज़ा देती है।मेरे हिसाब से नाटक करना कुछ सिगरेट पीना जैसा है... जब भी आप दूसरी सिगरेट पी रहे होते हो तो पहली का नशा कभी याद नहीं रहता। और मेरे हिसाब से थियेटर सच्चे अर्थों में सिगरेट पीने की तरह किया जाना चाहिए... नई सिगरेट जलाने का सुख हमेशा बना रहता है पर उसे पीते ही... वो वहीं खत्म, समाप्त। थियेटर में अतीत मृत है, उसका महफिलों में बात करने के अलावा कोई मतलब नहीं हैं। मैं इस किस्म का थियेटर करना चाहता हूँ जो हमेशा जन्मता है, उसी वक्त उसे पैदा होते देखा जा सकता है।अपना समय पूराकरके एक नाटक मरता है और दूसरे नाटक को पैदा होने की जगह देता है। इस हिसाब से थियेटर लगातार मर रहा है और लगातार पैदा हो रहा है। मैं भी नाटक तब तक ही कर सकता हूँ जब तक जन्म देने की क्षमता भीतर भीतर बरकरार है। नाटक का पूरा मज़ा उसके कीए जाने में है उसके बारे में बात करने में नहीं। अब उपर्युक्त लिखे गए सारे प्रश्न मुझे बेमानी लगते है... जिनका जवाब मैं हमेशा एक सवाल से ही देना चाहूगाँ-“अगर आपको वो मरता हुआ आदमी ’थियेटर’ मिले तो क्या आप मुझे उससे मिलवा देगें।“
9 comments:
Katon, Goukakyu no jutsu.
बहुत अच्छे और वाजिब सवाल उठाए हैं आपने। हर दौर में नई पीढ़ी को डरवान का काम ही कुछ हताश लोग करते रहते हैं। केवल नाटक ही नहीं, बल्कि कविता, कहानी, आलोचना हर क्षेत्र में ऐसा ही है
hindi naatak paida hi kahan hua hain jo marega? aaj bhi Hindi mein maulik natakon ke naam par kya hai? Habib Tanveer, Mohan Rakesh. jyada karke to nuvad kiye hue natak hi hain. aur phir Hindi theater hain kahan. koi bhi natak dekhne chahiye poore natak ka parichay English mein likha hota hai. aagr English hi padhna hai to Hindi natak bhi kyon karein
अगर ये मरता हुआ आदमी मिले तो मुझे भी मिलवा देना। जितनी जान मैं चार लोगों के एक नाटक में देख पाता हूँ उतनी बालीवुड के सेठों की 50 करोड़ की फ़िल्म में भी नहीं दिखती अकसर।
अगर ये मरता हुआ आदमी मिले तो मुझे भी मिलवा देना। जितनी जान मैं चार लोगों के एक नाटक में देख पाता हूँ उतनी बालीवुड के सेठों की 50 करोड़ की फ़िल्म में भी नहीं दिखती अकसर।
ऐसा सवाल करने वाली की मंशा आम तौर पर उसकी व्यापकता के सिलसिले में होती है.. हिन्दी और गुजराती नाटक के दर्शक संख्या में बड़ा अंतर है पर ये अंतर उसकी गुणवत्ता पर भी प्रभाव डालता है.. कह सकते हैं कि नाटक की हालत हिन्दी साहित्य जैसी ही है.. उसे लिखने/करने वाले और पढ़ने/देखने वाले एक ही लोग हैं लगभग..
तुम उसी बात को स्वान्तः सुखाय के एक दूसरे अर्थ में सिद्ध कर रहे हो.. मानो उसकी सीमा ही वहाँ तक हो.. उस हद को पार करते ही वो मरने के लिए अभिशप्त हो..
सच तो ये है कि तुम्हारे जैसे लोग ही हिन्दी नाटक को जिलाए हुए हैं.. उम्मीद है कि तुम और तुम जैसे दूसरे प्रतिभासम्पन्न नौजवान नाटक के दायरे को और व्यापक बनायेंगे.. तुम्हे मेरी अनेको शुभकामनाएं!
Galti se is blog par aayi, ab aisa lag raha hai ki baar baar ye galti ho, dil ko chhu jaane waali abhivyakti ke liye bahut badhaai.
मानव जी बहुत अच्छा लिखा है आपने और बिलकुल सच।
चच्चा लगे रहो।
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