18th August.09,
अलस्य सुबह दिल्ली में, होस्टल में हूँ। आज से workshop start है। my back is gone completely… anyways we’ll see.
कल काफ्का नाटक पढ़ा (आसिफ़ लिखित) नाटक मुझे बहुत अच्छा नहीं लगा, चूकि काफ्का मुझे बहुत पसंद हैं इसलिए शायद मैं नाटक पूरा पढ़ गया। नाटक में भाषा बहुत ही bookish है, शब्दों का प्रयोग कुछ इस तरह किया गया है कि काफ्का की सारी भीतरी उहापोह जीवनी जैसी sound करती है। नाटक में कहानी कहने का तरीक़ा बहुत अच्छा है। पर पात्र एक के बाद एक ऎसे enter करते है कि बहुत ही… अजीब लगता है… predictable सा। कुछ संवादों पर पीले स्कूटर वाले आदमी की याद आ गई थी। मैं अपने आपको काफ्का के बहुत करीब पाता हूँ… पर उसकी लिखने की इमांदारी के सामने एक छोटा कीड़े सा।
Last night I saw a polish play… theatre zar production… first I read the synopsis couldn’t understand a shit… then I saw the play and guess what couldn’t understand a shit… thank god I read the synopsis, so I was following the theme little bit… polish people are complicated peopleJ…
21st August.09,
अलस्य सुबह, (NSD) boys hostel, बासी, बहस, बातें, बक़वास… नींद में सने चहरे… और मेरे कभी ना खत्म होने वाले नाटक, कहानियाँ, कविताएँ, उपन्यास। बड़ी बातें करना कितना सुखद दिखाई देता है, हाँ दिखाई… जैसे भविष्य की बातें करते हुए उन्हें भविष्य दिखाई देता है…. मैं पहली बार उम्र दराज़ सा feel कर रहा हूँ… सबके सामने। नाटक… नाटक… और नाटक… और उन सारे नाटको का पागलपन। मैं कहाँ तक पूरानी बातों में नई बातें ढ़ूढ़ पाऊगाँ…। अपना नाटक कुछ इस तरह लिखा जा रहा है, वह मुक्तता लिए हुए है, एक ऎसी मुक्तता कि वह मेरे बस में ही नहीं है अब। Theatre Zar workshop… back is fucked… doc said complete bed rest… I am pushing the limits.. trek is in my mind… Oh! My body be with meJ
23rd August.09,
अलस्य सुबह, कुछ इस तरह आँख खुली कि ’कहाँ हूँ मैं’ को हड़बड़ाकर ढूढ़ने लगा। कुछ देर में समझ आया c.r. park में हूँ…. इस बीच इतने बिस्तर बदले हैं कि सुबह हमेशा कुछ समय लगता है वापिस इस दुनियाँ में आने में….।
कल रात बादल सरकार के खत और डॉयरीज़ पढ़ रहा था…”प्रवासी की कलम से…”, अजीब बात लगी कि हर लेखक एक समय में बिलकुल एक जैसा ही सोच रहा होता है। जो बातें मैं काफी दिनों से अकेलेपन को लेकर कर रहा हूँ वही बातें उन्होंने भी ठीक उसी एक सघंन क्षण में महसूस की थी।
“क्या लिख पाने का कोई संबंध अकेले रहने से है? साथी होने पर लिखा क्यों नहीं जाता? आनंद और तृप्ति होने पर भी लिखा नहीं जाता। लिखा जा सकता है अतृप्त होने पर, अटपटापन, अशांति और अकेलापन होने पर।
आनंद के बारे में लिखा जा सकता है। आनंद में होने पर नहीं लिखा जा सकता।“-बादल सरकार.
एक सीमा है… सारी बातों की, हम सबकी… उसके भीतर रहकर ही हम काम करते है… पर उस सीमा ही अंतिम रेखा को छूते रहना कभी नहीं भूलते… हमें पता है इसके बाहर जाते ही यह क्रिया… गुनाह हो जाएगी पर ठीक गुनाह होने के पहले की जो अवस्था है हम उसे बार-बार पाना चाहते है…।
अमृता प्रीतम, निर्मल वर्मा की लेखनी पर नाटक लिखने की इच्छा है।
Just finished reading a play “Sarachi” by OTA SHOGO…
It’s a beautiful play… almost the kind of play I wanted to write.. very similar to GAO XINGJIAN (soul mountain’s writer) writing style… I’ll love to direct this play some day… lets see…
In between the play when they talk about the past were they don’t know that this thing happened or not… between two of them… it’s the best point of the play.. difficult to direct… but I’ll try some day…J
The word sarachi literally refers to a “vacated” lot, that is a place where a building has been demolished.