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शंख और सीपियां...
24th,may, 2010
अतृप्त, बैचेन, छल, नींद, समझ.....
और फिर हम सुखी रहने लगे। कहते थे कि हम किसी भी तरह से गुज़र जाएगें, धीरे-धीरे ही सही पर हम गुज़र ही जाएगें।
फिर बहुत समय बाद......
’उदासी’ का कोई संबंध ’उदासीनता’ से नहीं है... या है...?
छोटी-छोटी खुशियाँ जो किनारे बहती हुई चली आती वह उन्हें बटोरकर घर सजा लेती... घर में सीपियों और शंखों की अपार भीड़ थी। मैं कभी-कभी छोटे शंख बजा लेता तो वह मना कर देती कहती अपशकुन होता है। वह विश्वास करती थी... मैं विश्वास और अविश्वास के झूले में झूलता रहता था। शंख हम बचपन में पल्ली पार जाकर बजाते थे... वहाँ बहुत रेत थी... ढ़ेरों शंख मिलते थे... उन्हें उग्लीयों के बीच में फसाकर खूब बजाते। मैंने उससे कहा कि
‘यह मेरे बचपन का खेल था...’
तो वह नाराज़ हो गई।
‘अब तुम बड़े हो चुके हो... बचपन बीत गया... अब घर बनाना है।‘
घर नहीं बन रहा था... वह बार बार मेरे पास आती और पूछती कि
‘घर क्यों नहीं बन रहा है?’
मैंने उससे कहा कि
‘मैं बचपन में घर-घर खेलता था, वहाँ मैंने बहुत घर बनाए हैं.. मुझे घर बनाने की आदत है.. मुझे आता है घर बनाना।‘
पर मैं अभी भी खेल रहा था.... मैं अभी-भी वहीं, खेल वाला घर बनाता हूँ रोज़।
उसने सारे शंख और सीपियाँ बाहर फेंक दिये।
मैं डर गया... कितना सारा शरीर से निचुड़कर निकल जाता है एक घर बनाने में...।
मैं अपने सीपियों और शंखों के चले जाने की तकलीफ ही बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। वह बाहर कहीं खुले में पड़े होगें... कोई कार.. कोई तांगा.. कोई स्कूटर उनके ऊपर से अभी तक गुज़र भी चुका होगा। अब कमरे में शंख, सीपियों की जगह खाली थी। मैंने वहाँ एक पानी से भरा खाली कटोरा रख दिया। ‘खाली जगह खुद अपने सामान तलाश लेती है...’- वह कहती थी, ‘घर ऎसे ही तो बनता है, बस एक खाली जगह मिल जाए जो अपनी हो, घर वह जगह खुद बन जाएगी।‘
खाली जगह की तलाश में मैं कई बार नदी किनारे गया। यहाँ काफी खाली जगह है... पर यह खाली जगह खाली नहीं है यहाँ शंख है सीपियाँ है... रेत है..., कुछ सांप है जो टहलते हुए इस तरफ चले आते हैं, गुबरेले कीड़े हैं.. झाड़ है, मछलियों के बाहर आकर तड़पने के निशान हैं। मैंने उससे कहा कि…
‘एक जहग मुझे मिलि है नदी किनारे.. पर वह खाली नहीं है वह बहुत सी चीज़ो से भरी पड़ी है, क्या उन सबके बीच तुम रह पाओगी?’
उसने कहा कि....
‘वह उन्हें खाली कर देगी बस उसे चार दीवार चाहिए।‘
अरे, यह शंख और सीपियों की जगह है, उन्हे उन्हीं की जहग से कैसे खाली किया जा सकता है?
चर्र... चट... चर्र... पट...
मैं पहाड़ों की तरफ चला गया। पहाड़ों में खाली जगह की कमी लगी। पहाड़ों में पहाड़ी गांव थे... या पहाड़ थे.. जहाँ भी खाली जगह थी वहाँ खेत थे, खेत खत्म होते ही पहाड़ शुरु हो जाता था। कुछ खाली जगह दिखी तो लोगों ने कहाँ कि यह जंगल है... । मैंने कहाँ जंगल तो थे...? तो उन्होने कहाँ कि
‘अगर यह जगह चाहिए तो इनके कटने का इंतज़ार करो.....’
पर मैं आगे बढ़ गया। बहुत से पहाड़ खत्म होने पर मुझे पहाड़ी गांव के कुछ चरवाहे मिले, मैंने उनसे कहा कि
’देखो मैं एक आदमी हूँ, एक औरत के साथ मैं रहता हूँ एक कमरे में... अब हमें लगता है कि हमारे पास एक घर होना चाहिए..।’
कुछ चरवाहे थे और उनके पास कुछ भेडें थी... भेड़ों ने सिर हिला दिया। मुझे लगा वह भेड़े हाँ और ना साथ में कह रही हैं...। मैं भेड़ों की भाषा समझने उनके कुछ करीब चला गया..
’हे...? हे...?’
मैं हे.. हे....करके उनसे वापिस पूछने लगा। तभी चरवाहों को लगा कि मैं शायद भेड़ों की भाषा जानता हूँ... सो उन्होने बीच में टोकते हुए कहा कि...
’सुनों तुम ठीक सोचते हो.....।’
सभी चरवाहे ’हाँ..’ में सिर हिला रहे थे...। वह मेरी बात समझ रहे थे। उस बात से वह इत्तेफाक भी रखते थे, सो मैंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि...
’तो अब हमें एक खाली जगह चाहिए...।’
इस बात पर सभी चरवाहे चुप थे... ’खाली जगह?’- के प्रश्नचिन्ह उनकी आँखों में मैं देख सकता था। मैंने सोचा थोड़ा विस्तार में बता दूँ...
’देखों खाली जगह चाहिए, वह कहती है कि घर खुद-ब-खुद बन जाएगा।’
यह विस्तार उनके लिए बहुत बड़ा विस्तार था शायद... वह थोड़ा पीछे हट गए। मैं कुछ कदम उनके पास गया... वह कुछ कदम और पीछे हट गए। मुझे लगा विस्तार को खत्म करके सीधे बात पर आता हूँ...
’घर बनाना है... जगह चाहिए।’
सभी चरवाहे दूर पहाड़ों की तरफ देखने लगे। सारी भेड़ों ने इशारा जान उस और चलना शुरु कर दिया। भेड़ों को चलता देख सभी चरवाहे उनके साथ हो लिए.. और मैं उनके पीछे-पीछे। मैं भेड़ नहीं था... मैं चरवाहा नहीं था। भेड़ चाल मुझे थकाए जा रही थी। पर मैं उनके साथ बना रहा। घर बनाने के लिए भेड़-चाल ज़रुरी है। मैं बीच-बीच में रुक कर चीख़ता..
’खाली जगह... खाली जगह...।’
कभी भेडें तो कभी चरवाहे रुक कर देखते... फिर आगे को चलने लगते। इस तरह की बेइज़्ज़ती के बाद मेरा उनके साथ रहना मुश्किल था.. पर मैं बना रहा। घर बनाना है तो जो कर रहे हो उसे करते चलो... लगातार।
शाम होते-होते सभी भेड़े छितरने लगी। सारी भेड़ों ने अपनी-अपनी खाली जगह देखी और पसर गई। चरवाहों ने अपनी खाली जगह चुनकर आग जला ली। मैं दूर बैठा रहा। आग जलते ही चरवाहों की जगह घर लगने लगी... लगा उसने घर में चूल्हा जला लिया है। मैं भागकर चरवाहों के पास पहुँचा पर अगर यह घर है तो मुझे दरवाज़ा खटखटाकर भीतर जाना चाहिए... पर दरवाज़ा तो नहीं था.. मैं भीतर कैसे जाऊँ? ’भीतर’ कहाँ से शुरु होता है? क्या मैं अभी बाहर हूँ?
मैं कुछ देर भीतर-बाहर की टेक में लगा रहा। फिर एक आसान सा रास्ता अपना लिया। जहाँ तक उनके आग की रोशनी का दायरा है वहाँ तक उनका घर है। मैंने एक लकड़ी उठा ली और आग के दायरे के बाहर खड़ा होकर उस लकड़ी को ज़मीर पर खटखटाया..। चरवाहे मेरी तरफ देखने लगे...
’क्या मैं भीतर आ सकता हूँ?’
मैंने उनके जवाब की प्रतिक्षा की बजाए सीधा आग के उजाले में घुस गया।
’घर के लिए चूल्हा ज़रुरी है? हे ना?’
’हम्म!!!’
’दीवारे तो मानी जा सकती है?’
’हम्म!!!’
आग की लपट ने चरवाहो के चहरों पर अजीब से रंग की पुताई कर रखी थी। उनके जवाबों में रहस्यों की लपट थी।
’छत का क्या करोगे?’
एक बूढ़े चरवहे की आवाज़ बीच में से आई। वह कहाँ है? मुझे दिख नहीं रहा था।
’छत मानी नहीं जा सकती है।’- बूढ़े ने फिर कहा..मैंने उसे अबकी बार देख लिया था।
’बिना दीवारों के छत टिकेगी नहीं।’- मैंने कहा..
’दरवाज़ों के बिना दीवारों का कोई मतलब नहीं है।’ -इस बार यह बात एक जवान चरवाहे ने कही।
’दरवाज़े के बिना, अगर भीतर हो तो भीतर ही रह जाओगे और अगर बाहर हो तो बाहर ही रह जाओगे।’-एक बच्चे चरवाहे ने चुहल करते हुए कहा।’
मैंने हथियार डाल दिये थे.. मैंने हार कर कहा
’तो क्या सिर्फ आग जलाना काफी नहीं होगा?’
बूढ़ा चरवाहा खड़ हो गया वह मेरे पास आया और उसने कहा..
’एक ताला खरीद लो... घर खुद-ब-खुद बन जाएगा।’
अगले दिन मैं वहाँ से वापिस चला आया।
....
मैं ताला लिए उसके सामने खड़ा था।
’यह क्या है?’
’ताला!!!’
’क्या करें इसका?’
’यह घर बनने की शुरुआत है।’
’मतलब?’
’यह घोषणा है कि इस ताले के इस तरफ आना मना है, यहाँ हम रहते है।’
’लेकिन ताला लगाओगे कहाँ?’
’दरवाज़े पर।’
’दरवाज़ा कहाँ है?’
और मैं दरवाज़े की खोज में निकल गया।
“विचलित तन, विचलित मन, विचलित कुछ- सबकुछ।
कम ऊर्जा, कम बुद्धि, कम हम- श्रम।
रक्त बांह, रक्त थाह, रक्तिम ज़मी- हम।
रम अर्थ, रम कल्पना, रम विधी- शक्ति।
सार कम, सार श्रम, सार शून्य- थम।
थम चित्त, थम नित, थम हम- तुम।
प्रेम पीड़ा, प्रेम राग, प्रेम चंचल- मन।
घर कब्र, घर मंज़िल, घर चर- अचर।“
सहारे के लिए हमेशा की तरह मैंने खुद को नदी के पास पाया। नदी सहारा देती है... यह सिद्ध सत्य है। मैंने नदी से बात करनी चाही पर अंत में खुद को, अपने से ही बड़बड़ाते हुए पाया। कुछ देर की चुप्पी के बाद एक मल्लाह अपने डोंगे (छोटी नाव..) पर सवार मेरे सामने आ गया।
’पल्ली पार जाना है?’
मुझे अपनी शंख और सीपियाँ याद हो आई.. उस पार बहुत मिलती है। मैं डोंगे पर बैठ गया।
डोंगा चलाते हुए मल्लाह बार-बार मेरी तरफ देख लेता। मैं उससे नज़रे चुराते हुए यहाँ-वहाँ झांक रहा था। तभी उसने कहना शुरु किया..
’एक बार एक छोटी मछली उछलकर मेरे डोंगे में आ गई और तड़पने लगी। मैं कुछ देर उसे देखता रहा.. जब उसका तड़पना कुछ कम हुआ तो मैंने उसे उठाकर वापिस पानी में फेंक दिया.. वह बच गई।’
मैं उसे सुन रहा था पर नहीं सुनने की इच्छा में पानी से खेल रहा था। वह चुप हो गया। मुझे इस बात का कोई ओर-छोर समझ में नहीं आया... पर मैंने पानी से खेलना बंद कर दिया, शायद वह कुछ बोलेगा, इस आशा से मैं उसकी ओर देखने लगा।
’कुछ दिनों बाद यह घटना फिर से हुई। मैंने फिर से उस मछली को पानी में फेंक दिया... पर मेरे फेंकते ही वह वापिस उछलकर डोंगे में आ गई। मैंने फिर फेंका.. वह फिर आ गई।’
वह इस घटना को करके बता रहा था.. डोंगा बुरी तरह हिलने लगा.. मैं डर गया।
’फिर मैंने उसे वापिस नहीं फेंका... बहुत देर तक तड़पने के बाद वह मर गई।’
और वह चुप हो गया। वापिस वह अपना चप्पू उठाकर चलाने लगा। मैं बहती नदी के पानी में अपना मुँह धोने लगा...
’क्या वह मछली आत्महत्या कर रही थी?’- उसने कहा..
’हें...?’
आत्म हत्या शब्द मछली के साथ जाता नहीं है... मैंने सुना है कि पक्षि आत्महत्या करते हैं... पर मछली !!!
’क्या आपको लगता है कि उसने आत्महत्या कर ली थी?’- उसने फिर पूछा
किनारा अभी दूर था.. मैं जवाब टाल नहीं सकता था।
’मछलियाँ आत्महत्या नहीं करती।’- मैंने कहा...
किनारे पर आते ही उसने डोंगे को नदी के बाहर खींच लिया... ।
’आप मेरे साथ उस मछली के घर पर चलेगें?’ – उसने इच्छा व्यक्त की...
’मछली का घर?’
’हाँ मैंने उसके लिए एक घर बनाया है।’
’मछली के लिए..? घर क्यों बनाया? वह तो मर चुकी है ना?’
’हमारे यहाँ कहते हैं कि मरने पर जब आदमी अंतिम, गहरी नींद सो रहा हो तो उसे एक घर देना चाहिए, दरग़ाह जैसा कुछ...जिसमें वह बिना किसी तक़लीफ के चेन से सो सके।’
’तो क्या वह मछली इसीलिए तुम्हारे डोंगे में आकर मरी थी कि तुम उसे घर दे सको?’
’शायद....’
’तुमने उसके घर में ताला लगाया है?’
’क्या???’
मैं अपना सवाल दोहराना चाह रहा था, पर तब तक मछली का घर आ गया। एक छोटी सी दरग़ाह उसने मछली के लिए बना रखी थी... पीपल का पेड़ ऊपर था... एक कटोरा पानी उसके बगल में रखा था। मल्लाह ने पानी फेंक कर ताज़ा पानी नदी से भरकर उस कटोरे में रख दिया।
’क्या यह अपने घर से बाहर निकलती होगी?’
’हाँ तभी तो पानी रखा है।’
’पर तुमने घर में दरवाज़ा तो बनाया ही नहीं?’
’उसकी ज़रुरत नहीं है।’
मल्लाह मेरे सवालों से थोड़ा चिढ़ने लगा था। सो मैंने पूछना बंद कर दिया।
कुछ देर बाद मैं नदी किनारे शंख और सीपियां खोजने लगा...। इच्छा थी कि मल्लाह से दरवाज़े के बारे में पूछू पर हिम्मत नहीं हुई।
मैं बहुत से शंख और सींपियों को लिए वापिस उसके पास आ गया। वह मेरा इंतज़ार नहीं कर रही थी। मैंने चुप-चाप शंख और सीपियां उसी जगह पर रख दी जिस जगह पर शंख और सीपियां पहले रखी हुई थी। कटोरा भर पानी जो उसकी जगह मैंने रख दिया था उसे मैंने दूसरे कोने में रख दिया... सोचा जब दोबारा मछली के घर में जाऊंगा तो वहाँ रख आऊंगा।
जीतेजी खाली जगह का मिलना, दीवारे बनाना, दरवाज़ा में ताला लगाना जैसे काम असंभव लगा। असंभव नहीं है... संभव है.. पर मेरे भीतर मछली जितना साहस नहीं है... कि मैं उछलकर अपने पानी से बाहर आऊं और घर के लिए किसी के डोंगे में तडपता फिरु...। ना ही मुझमें चरवाहों जितनी शक्ति है कि जहाँ आग जलाऊं वहीं घर हो जाए...। मैंने घर के आगे समर्पण कर दिया और कमरे में अपना ताला लगाने लगा। वह नाराज़ रही फिर कहने लगी कि मैं अपना घर खुद बनाऊंगी ... मुझे एक खाली जगह मिली है...। कुछ सालों बाद वह अपनी खाली जगह पर चली गई... अपना घर बनाने.....।