Sunday, June 6, 2010
शंख और सीपियां...
शंख और सीपियां...
24th,may, 2010
अतृप्त, बैचेन, छल, नींद, समझ.....
और फिर हम सुखी रहने लगे। कहते थे कि हम किसी भी तरह से गुज़र जाएगें, धीरे-धीरे ही सही पर हम गुज़र ही जाएगें।
फिर बहुत समय बाद......
’उदासी’ का कोई संबंध ’उदासीनता’ से नहीं है... या है...?
छोटी-छोटी खुशियाँ जो किनारे बहती हुई चली आती वह उन्हें बटोरकर घर सजा लेती... घर में सीपियों और शंखों की अपार भीड़ थी। मैं कभी-कभी छोटे शंख बजा लेता तो वह मना कर देती कहती अपशकुन होता है। वह विश्वास करती थी... मैं विश्वास और अविश्वास के झूले में झूलता रहता था। शंख हम बचपन में पल्ली पार जाकर बजाते थे... वहाँ बहुत रेत थी... ढ़ेरों शंख मिलते थे... उन्हें उग्लीयों के बीच में फसाकर खूब बजाते। मैंने उससे कहा कि
‘यह मेरे बचपन का खेल था...’
तो वह नाराज़ हो गई।
‘अब तुम बड़े हो चुके हो... बचपन बीत गया... अब घर बनाना है।‘
घर नहीं बन रहा था... वह बार बार मेरे पास आती और पूछती कि
‘घर क्यों नहीं बन रहा है?’
मैंने उससे कहा कि
‘मैं बचपन में घर-घर खेलता था, वहाँ मैंने बहुत घर बनाए हैं.. मुझे घर बनाने की आदत है.. मुझे आता है घर बनाना।‘
पर मैं अभी भी खेल रहा था.... मैं अभी-भी वहीं, खेल वाला घर बनाता हूँ रोज़।
उसने सारे शंख और सीपियाँ बाहर फेंक दिये।
मैं डर गया... कितना सारा शरीर से निचुड़कर निकल जाता है एक घर बनाने में...।
मैं अपने सीपियों और शंखों के चले जाने की तकलीफ ही बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। वह बाहर कहीं खुले में पड़े होगें... कोई कार.. कोई तांगा.. कोई स्कूटर उनके ऊपर से अभी तक गुज़र भी चुका होगा। अब कमरे में शंख, सीपियों की जगह खाली थी। मैंने वहाँ एक पानी से भरा खाली कटोरा रख दिया। ‘खाली जगह खुद अपने सामान तलाश लेती है...’- वह कहती थी, ‘घर ऎसे ही तो बनता है, बस एक खाली जगह मिल जाए जो अपनी हो, घर वह जगह खुद बन जाएगी।‘
खाली जगह की तलाश में मैं कई बार नदी किनारे गया। यहाँ काफी खाली जगह है... पर यह खाली जगह खाली नहीं है यहाँ शंख है सीपियाँ है... रेत है..., कुछ सांप है जो टहलते हुए इस तरफ चले आते हैं, गुबरेले कीड़े हैं.. झाड़ है, मछलियों के बाहर आकर तड़पने के निशान हैं। मैंने उससे कहा कि…
‘एक जहग मुझे मिलि है नदी किनारे.. पर वह खाली नहीं है वह बहुत सी चीज़ो से भरी पड़ी है, क्या उन सबके बीच तुम रह पाओगी?’
उसने कहा कि....
‘वह उन्हें खाली कर देगी बस उसे चार दीवार चाहिए।‘
अरे, यह शंख और सीपियों की जगह है, उन्हे उन्हीं की जहग से कैसे खाली किया जा सकता है?
चर्र... चट... चर्र... पट...
मैं पहाड़ों की तरफ चला गया। पहाड़ों में खाली जगह की कमी लगी। पहाड़ों में पहाड़ी गांव थे... या पहाड़ थे.. जहाँ भी खाली जगह थी वहाँ खेत थे, खेत खत्म होते ही पहाड़ शुरु हो जाता था। कुछ खाली जगह दिखी तो लोगों ने कहाँ कि यह जंगल है... । मैंने कहाँ जंगल तो थे...? तो उन्होने कहाँ कि
‘अगर यह जगह चाहिए तो इनके कटने का इंतज़ार करो.....’
पर मैं आगे बढ़ गया। बहुत से पहाड़ खत्म होने पर मुझे पहाड़ी गांव के कुछ चरवाहे मिले, मैंने उनसे कहा कि
’देखो मैं एक आदमी हूँ, एक औरत के साथ मैं रहता हूँ एक कमरे में... अब हमें लगता है कि हमारे पास एक घर होना चाहिए..।’
कुछ चरवाहे थे और उनके पास कुछ भेडें थी... भेड़ों ने सिर हिला दिया। मुझे लगा वह भेड़े हाँ और ना साथ में कह रही हैं...। मैं भेड़ों की भाषा समझने उनके कुछ करीब चला गया..
’हे...? हे...?’
मैं हे.. हे....करके उनसे वापिस पूछने लगा। तभी चरवाहों को लगा कि मैं शायद भेड़ों की भाषा जानता हूँ... सो उन्होने बीच में टोकते हुए कहा कि...
’सुनों तुम ठीक सोचते हो.....।’
सभी चरवाहे ’हाँ..’ में सिर हिला रहे थे...। वह मेरी बात समझ रहे थे। उस बात से वह इत्तेफाक भी रखते थे, सो मैंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि...
’तो अब हमें एक खाली जगह चाहिए...।’
इस बात पर सभी चरवाहे चुप थे... ’खाली जगह?’- के प्रश्नचिन्ह उनकी आँखों में मैं देख सकता था। मैंने सोचा थोड़ा विस्तार में बता दूँ...
’देखों खाली जगह चाहिए, वह कहती है कि घर खुद-ब-खुद बन जाएगा।’
यह विस्तार उनके लिए बहुत बड़ा विस्तार था शायद... वह थोड़ा पीछे हट गए। मैं कुछ कदम उनके पास गया... वह कुछ कदम और पीछे हट गए। मुझे लगा विस्तार को खत्म करके सीधे बात पर आता हूँ...
’घर बनाना है... जगह चाहिए।’
सभी चरवाहे दूर पहाड़ों की तरफ देखने लगे। सारी भेड़ों ने इशारा जान उस और चलना शुरु कर दिया। भेड़ों को चलता देख सभी चरवाहे उनके साथ हो लिए.. और मैं उनके पीछे-पीछे। मैं भेड़ नहीं था... मैं चरवाहा नहीं था। भेड़ चाल मुझे थकाए जा रही थी। पर मैं उनके साथ बना रहा। घर बनाने के लिए भेड़-चाल ज़रुरी है। मैं बीच-बीच में रुक कर चीख़ता..
’खाली जगह... खाली जगह...।’
कभी भेडें तो कभी चरवाहे रुक कर देखते... फिर आगे को चलने लगते। इस तरह की बेइज़्ज़ती के बाद मेरा उनके साथ रहना मुश्किल था.. पर मैं बना रहा। घर बनाना है तो जो कर रहे हो उसे करते चलो... लगातार।
शाम होते-होते सभी भेड़े छितरने लगी। सारी भेड़ों ने अपनी-अपनी खाली जगह देखी और पसर गई। चरवाहों ने अपनी खाली जगह चुनकर आग जला ली। मैं दूर बैठा रहा। आग जलते ही चरवाहों की जगह घर लगने लगी... लगा उसने घर में चूल्हा जला लिया है। मैं भागकर चरवाहों के पास पहुँचा पर अगर यह घर है तो मुझे दरवाज़ा खटखटाकर भीतर जाना चाहिए... पर दरवाज़ा तो नहीं था.. मैं भीतर कैसे जाऊँ? ’भीतर’ कहाँ से शुरु होता है? क्या मैं अभी बाहर हूँ?
मैं कुछ देर भीतर-बाहर की टेक में लगा रहा। फिर एक आसान सा रास्ता अपना लिया। जहाँ तक उनके आग की रोशनी का दायरा है वहाँ तक उनका घर है। मैंने एक लकड़ी उठा ली और आग के दायरे के बाहर खड़ा होकर उस लकड़ी को ज़मीर पर खटखटाया..। चरवाहे मेरी तरफ देखने लगे...
’क्या मैं भीतर आ सकता हूँ?’
मैंने उनके जवाब की प्रतिक्षा की बजाए सीधा आग के उजाले में घुस गया।
’घर के लिए चूल्हा ज़रुरी है? हे ना?’
’हम्म!!!’
’दीवारे तो मानी जा सकती है?’
’हम्म!!!’
आग की लपट ने चरवाहो के चहरों पर अजीब से रंग की पुताई कर रखी थी। उनके जवाबों में रहस्यों की लपट थी।
’छत का क्या करोगे?’
एक बूढ़े चरवहे की आवाज़ बीच में से आई। वह कहाँ है? मुझे दिख नहीं रहा था।
’छत मानी नहीं जा सकती है।’- बूढ़े ने फिर कहा..मैंने उसे अबकी बार देख लिया था।
’बिना दीवारों के छत टिकेगी नहीं।’- मैंने कहा..
’दरवाज़ों के बिना दीवारों का कोई मतलब नहीं है।’ -इस बार यह बात एक जवान चरवाहे ने कही।
’दरवाज़े के बिना, अगर भीतर हो तो भीतर ही रह जाओगे और अगर बाहर हो तो बाहर ही रह जाओगे।’-एक बच्चे चरवाहे ने चुहल करते हुए कहा।’
मैंने हथियार डाल दिये थे.. मैंने हार कर कहा
’तो क्या सिर्फ आग जलाना काफी नहीं होगा?’
बूढ़ा चरवाहा खड़ हो गया वह मेरे पास आया और उसने कहा..
’एक ताला खरीद लो... घर खुद-ब-खुद बन जाएगा।’
अगले दिन मैं वहाँ से वापिस चला आया।
....
मैं ताला लिए उसके सामने खड़ा था।
’यह क्या है?’
’ताला!!!’
’क्या करें इसका?’
’यह घर बनने की शुरुआत है।’
’मतलब?’
’यह घोषणा है कि इस ताले के इस तरफ आना मना है, यहाँ हम रहते है।’
’लेकिन ताला लगाओगे कहाँ?’
’दरवाज़े पर।’
’दरवाज़ा कहाँ है?’
और मैं दरवाज़े की खोज में निकल गया।
“विचलित तन, विचलित मन, विचलित कुछ- सबकुछ।
कम ऊर्जा, कम बुद्धि, कम हम- श्रम।
रक्त बांह, रक्त थाह, रक्तिम ज़मी- हम।
रम अर्थ, रम कल्पना, रम विधी- शक्ति।
सार कम, सार श्रम, सार शून्य- थम।
थम चित्त, थम नित, थम हम- तुम।
प्रेम पीड़ा, प्रेम राग, प्रेम चंचल- मन।
घर कब्र, घर मंज़िल, घर चर- अचर।“
सहारे के लिए हमेशा की तरह मैंने खुद को नदी के पास पाया। नदी सहारा देती है... यह सिद्ध सत्य है। मैंने नदी से बात करनी चाही पर अंत में खुद को, अपने से ही बड़बड़ाते हुए पाया। कुछ देर की चुप्पी के बाद एक मल्लाह अपने डोंगे (छोटी नाव..) पर सवार मेरे सामने आ गया।
’पल्ली पार जाना है?’
मुझे अपनी शंख और सीपियाँ याद हो आई.. उस पार बहुत मिलती है। मैं डोंगे पर बैठ गया।
डोंगा चलाते हुए मल्लाह बार-बार मेरी तरफ देख लेता। मैं उससे नज़रे चुराते हुए यहाँ-वहाँ झांक रहा था। तभी उसने कहना शुरु किया..
’एक बार एक छोटी मछली उछलकर मेरे डोंगे में आ गई और तड़पने लगी। मैं कुछ देर उसे देखता रहा.. जब उसका तड़पना कुछ कम हुआ तो मैंने उसे उठाकर वापिस पानी में फेंक दिया.. वह बच गई।’
मैं उसे सुन रहा था पर नहीं सुनने की इच्छा में पानी से खेल रहा था। वह चुप हो गया। मुझे इस बात का कोई ओर-छोर समझ में नहीं आया... पर मैंने पानी से खेलना बंद कर दिया, शायद वह कुछ बोलेगा, इस आशा से मैं उसकी ओर देखने लगा।
’कुछ दिनों बाद यह घटना फिर से हुई। मैंने फिर से उस मछली को पानी में फेंक दिया... पर मेरे फेंकते ही वह वापिस उछलकर डोंगे में आ गई। मैंने फिर फेंका.. वह फिर आ गई।’
वह इस घटना को करके बता रहा था.. डोंगा बुरी तरह हिलने लगा.. मैं डर गया।
’फिर मैंने उसे वापिस नहीं फेंका... बहुत देर तक तड़पने के बाद वह मर गई।’
और वह चुप हो गया। वापिस वह अपना चप्पू उठाकर चलाने लगा। मैं बहती नदी के पानी में अपना मुँह धोने लगा...
’क्या वह मछली आत्महत्या कर रही थी?’- उसने कहा..
’हें...?’
आत्म हत्या शब्द मछली के साथ जाता नहीं है... मैंने सुना है कि पक्षि आत्महत्या करते हैं... पर मछली !!!
’क्या आपको लगता है कि उसने आत्महत्या कर ली थी?’- उसने फिर पूछा
किनारा अभी दूर था.. मैं जवाब टाल नहीं सकता था।
’मछलियाँ आत्महत्या नहीं करती।’- मैंने कहा...
किनारे पर आते ही उसने डोंगे को नदी के बाहर खींच लिया... ।
’आप मेरे साथ उस मछली के घर पर चलेगें?’ – उसने इच्छा व्यक्त की...
’मछली का घर?’
’हाँ मैंने उसके लिए एक घर बनाया है।’
’मछली के लिए..? घर क्यों बनाया? वह तो मर चुकी है ना?’
’हमारे यहाँ कहते हैं कि मरने पर जब आदमी अंतिम, गहरी नींद सो रहा हो तो उसे एक घर देना चाहिए, दरग़ाह जैसा कुछ...जिसमें वह बिना किसी तक़लीफ के चेन से सो सके।’
’तो क्या वह मछली इसीलिए तुम्हारे डोंगे में आकर मरी थी कि तुम उसे घर दे सको?’
’शायद....’
’तुमने उसके घर में ताला लगाया है?’
’क्या???’
मैं अपना सवाल दोहराना चाह रहा था, पर तब तक मछली का घर आ गया। एक छोटी सी दरग़ाह उसने मछली के लिए बना रखी थी... पीपल का पेड़ ऊपर था... एक कटोरा पानी उसके बगल में रखा था। मल्लाह ने पानी फेंक कर ताज़ा पानी नदी से भरकर उस कटोरे में रख दिया।
’क्या यह अपने घर से बाहर निकलती होगी?’
’हाँ तभी तो पानी रखा है।’
’पर तुमने घर में दरवाज़ा तो बनाया ही नहीं?’
’उसकी ज़रुरत नहीं है।’
मल्लाह मेरे सवालों से थोड़ा चिढ़ने लगा था। सो मैंने पूछना बंद कर दिया।
कुछ देर बाद मैं नदी किनारे शंख और सीपियां खोजने लगा...। इच्छा थी कि मल्लाह से दरवाज़े के बारे में पूछू पर हिम्मत नहीं हुई।
मैं बहुत से शंख और सींपियों को लिए वापिस उसके पास आ गया। वह मेरा इंतज़ार नहीं कर रही थी। मैंने चुप-चाप शंख और सीपियां उसी जगह पर रख दी जिस जगह पर शंख और सीपियां पहले रखी हुई थी। कटोरा भर पानी जो उसकी जगह मैंने रख दिया था उसे मैंने दूसरे कोने में रख दिया... सोचा जब दोबारा मछली के घर में जाऊंगा तो वहाँ रख आऊंगा।
जीतेजी खाली जगह का मिलना, दीवारे बनाना, दरवाज़ा में ताला लगाना जैसे काम असंभव लगा। असंभव नहीं है... संभव है.. पर मेरे भीतर मछली जितना साहस नहीं है... कि मैं उछलकर अपने पानी से बाहर आऊं और घर के लिए किसी के डोंगे में तडपता फिरु...। ना ही मुझमें चरवाहों जितनी शक्ति है कि जहाँ आग जलाऊं वहीं घर हो जाए...। मैंने घर के आगे समर्पण कर दिया और कमरे में अपना ताला लगाने लगा। वह नाराज़ रही फिर कहने लगी कि मैं अपना घर खुद बनाऊंगी ... मुझे एक खाली जगह मिली है...। कुछ सालों बाद वह अपनी खाली जगह पर चली गई... अपना घर बनाने.....।
Thursday, June 3, 2010
‘तोमाय गान शोनाबो...’
‘तोमाय गान शोनाबो...’
’मैं थक चुकी हूँ... सुनो... नहीं... मैं सच में बहुत थक चुकी हूँ, समीर प्लीज़... मुझे सोने दो।’
समीर कुछ बचपने की हरकतों के बाद पीछे हट गया। उसने अपनी टी-शर्ट भी उतार ली थी। वह धीरे से बिस्तर से नीचे उतरा, उसने टी-शर्ट को दो बार झाड़कर पहन लिया।
शील सोई नहीं थी, समीर के जाते ही वह तकिये से लिपटकर, दूसरी तरफ करवट किये लेटी रही। उसकी कोई भी हरकत इस वक्त एक बहस को जन्म दे सकती थी सो वह चुपचाप लेटी रही। तभी उसे प्यास लगने लगी... उसने सोचा वह उठकर पानी तो पी ही सकती है...वह उठने को ही थी कि उसे सिगरेट की महक आई और वह लेटी रही।
समीर अपनी डेस्क पर था... उसने सिगरेट पीते हुए एक किताब खोल ली... कुछ देर वह एक ही पन्ने पर शील से बात-चीत के सवाल जवाब पढ़ता रहा। कुछ देर में वह किताब रखकर कमरे के चक्कर काटने लगा। सिगरेट खत्म हो चुकी थी... वह धीरे से शील के करीब आया.. उसे लगा था कि वह शायद उसकी आहट से जग जाएगी, उसने उसके कंधे पर हाथ भी रखा पर वह सोई रही।
शील ने समीर का उसके बगल में आना महसूस किया, उसका स्पर्ष अपने कंधे पर भी महसूस किया पर वह लेटी पड़ी रही। उसे पता था अगर वह उठेगी तो क्या होगा.. कैसी बातें होगीं.. वह इन बातों के बीज अपने तलुए में महसूस कर रही थी। उसे अचानक अपने तलुओ में खुजली हो ने लगी... कुछ देर की बैचेनी के बाद उसने अपने दाहिने पैर से अपने बाएं पैर के तलुए को खुजला ही दिया, कुछ इस तरह कि वह गहरी नींद में है। कुछ ही देर में समीर की आहट बंद हो गई... फिर बिस्तर पर कुछ हरकत हुई और उसने समीर की देह को अपने बगलमें पसरते हुए महसूस किया। वह कुछ शांत हो गई। उसे पता था समीर कुछ देर में सो जाएगा... वह बहुत देर तक जगा नहीं पाता था। शील ने तकिये को कुछ और अपने भीतर भींचा... और लेटी रही।
समीर कुछ देर खिड़की का पर्दा खोलकर शहर देख रहा था... इसी में वह दिन भर खपा रहता है। वह अपने कल के दिन के बारे में सोचने लगा.. फिर सुबह उठना... घूमने जाना, नहाना, नाश्ता, ट्रेफिक, हार्न, पसीना, शील को उसके ऑफिस छोड़ते हुए अपने ऑफिस की लिफ्ट के बाहर देर तक खड़े रहना... आठवां माला... गुड मार्निंग की चिल्लपो... फाईल, कमप्यूटर, बॉस, ब्रेक... थकान, ऊब... और...अपने ऑफिस से घर तक धीरे-धीरे रेंगते हुए.. रोज़ चले आना.... तभी शील ने अपना तलुआ खुजाया और समीर की दिनचर्या थम गई... उसने पलटकर शील को देखा.. तब तक वह स्थिर हो चुकी थी। उसने वापिस खिड़की का पर्दा लगाया... धीरे से बिस्तर में घुसा और आँखे बंद कर ली।
शील को पानी पीना था... पर उसे कुछ इंतज़ार कराना होगा... समीर अभी अभी लेटा था। वह रोहन के बार में सोचने लगी। रोहन नया-नया उसके ऑफिस में आया था। दिखने में काफी सामान्य था पर बातें बहुत गोल-मोल करता था। पिछले कुछ समय से वह शील को इधर-उधर छूने से भी नहीं चूकता था। पहले-पहल शील ने एतराज़ नहीं किया पर बाद में उसने रोहन से कहाँ कि यह उसे ठीक नहीं लगता है। रोहन ने उससे माफी मांगी और मांफी के लिए उसने उसके साथ कॉफी पीने की ज़िद्द की... शील बहुत ना-नुकुर के बाद मान गई। कॉफी पीने में क्या हर्ज़ है? पर कॉफी हाऊस में, उस भीड़ में रोहन ने शील की कमर में हाथ डाल दिया... शील कुछ देर चुपचाप बैठी रही तो उसकी उंग्लियाँ हरकत करने लगी। शील कुछ देर में उठ गई। आज वह रोहन के साथ फिल्म देखने गई थी... जहाँ रोहन ने शील को चूमा, अपना हाथ शील के कपड़ों के भीतर डाल दिया... शील ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। वह रोहन को इस बार नहीं रकना चाहती थी।
समीर सो नहीं पा रहा था... कुछ आटका पड़ा था। एक बार बात हो जाती, चाहे वह लड़ लेता, कुछ बात कर लेते पर इस तरह से सो जाना उसे खटक रहा था। वह जानता था शील बिना पढ़े सोती नहीं है... वह देर रात तक जागती रहती है। उसे ही कई बार कहना पड़ता है कि बत्ती बुझा दो... तब कहीं जाकर वह सोती थी। वह उठकर बैठ गया। बाथरुम में जाकर मुँह धोने लगा... फिर किचिंन में जाकर फ्रिज खोलकर थोड़ी देर खड़ा रहा, फ्रिज बंद करके गेस के पास कुछ टटोलने लगा.... लाईटर गेस के नीचे पड़ा था। लाईटर हाथ में लिए वह बहुत देर तक खड़ रहा... कई बार हवा में उसे जलाने की कोशिश की तीन बार की ’कट-कट’ के बीच एक बार वह जला। अंत में गेस जलाकर उसने कॉफी चढ़ा दी.. ब्लैक कॉफी। कॉफी बनाते वक्त पूरे समय उसके दिमाग़ में चल रहा था कि यह ग़लत है उसे कॉफी नहीं पीनी चाहिए.. वह सो नहीं पाएगा... पर अंत में वह कॉफी लिए वापिस उसी खिड़की पर खड़ा था... जहाँ से कुछ देर पहले वह अपने दिन भर के खपने के बार में सोच रहा था। उसे ऑफिस बहुत पसंद था, दिनभर की जल्दबाज़ी, काम पूरा करने की जद्दोजहद, फिर बीच में दोस्तों के साथ सीड़ियों पर जाकर सिगरेट के कश लगाना... एक भरा-पूरा माहौल.. उसमें उसे जो सबसे कठिन काम लगता था वह था उसका ऑफिस के घर आना... अचानक किसी का हाथ समीर ने अपने कंधे पर महसूस किया और उसके हाथ से कॉफी गिर गई।
शील ने करवट बदल ली थी...। किचिन से कुछ आवाज़े आ रही थी। वह कुछ देर रुकी रही... फिर धीरे से पलंग पर ही खिसकते हुए उसने समीर की तरफ पानी की बोतल खोजनी चाही पर वहाँ उसे बोतल नहीं मिली। उसे कॉफी की महक आई... ’इतनी रात गए समीर कॉफी पी रहा है?’ अब वह सोई नहीं.. उसे एक बहाना मिल गया था कि ’किचिन की खट-खट से नींद टूट गई’। बहाना मिलते ही वह बिस्तर से उठने को हुई पर कुछ सोचकर रुक गई। ’समीर किचिन से कॉफी लेकर आएगा और उसे इस तरह बिस्तर पर बैठा हुआ पाएगा...’ शील को यह ज़्यादा नाटकीय लगा सो उसने उठकर पानी पीना स्थगित कर दिया। वह बिस्तर पर बैठ गई और समीर का इंतज़ार करने लगी। समीर कुछ देर में किचिन से बाहर आया और सीधा खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया.... मानों कि नींद में चल रहा हो। शील को लगा कि समीर ने उसे देखा था... वह मुस्कुराई भी थी पर वह सीधा खिड़की पर जाकर खड़ा हो गया...। शील गुस्से में उठी और सीधा किचिन में गई... पानी पीया... और सीधा समीर के बगल में आकर खड़ी हो गई...। उसने धीरे से समीर के कंधे पर हाथ रखा और समीर के हाथ से कॉफी का कप गिर गया।
शील भीतर कॉफी बना रही थी। समीर, वाक्य विन्यास में कुछ गैर ज़रुरी शब्दों को निकाल रहा था और कुछ बहुत महत्वपूर्ण शब्दों को विन्यास में ठूस रहा था। उसे एक वाक्य में कुछ उस स्थिति के बारे में बात करनी थी जिस स्थिति को वह पिछले कुछ समय से महसूस कर रहा था। शील कॉफी लेकर बाहर आ गई...
’क्या हुआ?’
शील ने समीर को कॉफी पकड़ाते हुए कहा... समीर को इससे बहतर मौका नहीं मिलना था... उसने तुरंत अपना बनाया हुआ वाक्य उगल दिया।
’शील ठीक नहीं लग रहा है।’
समीर के हिसाब से सारे गैर ज़रुरी शब्दों को निकालने के बाद यह वाक्य ही उसकी स्थिति को सही सही स्थापित करता है।
’क्या हुआ?’
’मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ... थोड़ा खुलकर..।’
’समीर तुम ठीक तो हो ना...।’
शील उसे छू नहीं पा रही थी, उसके हाथ बार-बार समीर की तरफ जाकर रुक जाते थे।
’मुझे ऑफिस से घर आना, घर से ऑफिस जाना लगता है।’
’क्या???’
’मतलब लोग ऑफिस से घर जाते वक्त जितने उत्साहित रहते हैं मैं घर से ऑफिस जाते वक्त उतना उत्साहित होता हूँ।’
’That means you love your work. उसमे गलत क्या है?’
’इसमें कुछ भी गलत नहीं है?’
’मुझे तो नहीं दिखता...!!!’
’अरे!... ’
’तुम्हारे ऑफिस को पसंद करने की कोई दूसरी वजह तो नहीं है?’
’दूसरी क्या वजह हो सकती है?’
’कोई लड़की...?’
’shut up…!!!’
शील चुप हो गई। इस बातचीत के बीच में वह बार-बार रोहन का चहरा अपनी गर्दन के इर्दगिर्द महसूस कर रही थी। हर थोड़ी देर में शील का हाथ उसकी गर्द पर चला जाता मानों पसीना पोछ रही हो।
’इसमें गलती है... इसमें एक बड़ी गलती है।’
समीर अचानक उठा और पलंग पर जाकर बैठ गया, पलंग के किनारे पर उसके पेर कांप रहे थे... लग रहा था मानों वह किसी दूसरे के घर में बैठा है।
’समीर ज़्यादा स्ट्रेस मत लो।’
’शील अब मैं घर आना पसंद नहीं करता... मुझे यहां बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता.. मैं यहाँ से लगातार बाहर निकलने के बहाने खोजता हूँ... मैं घर में आता हूँ और थक जाता हूँ। मैं बाहर दूसरा आदमी हूँ... वहाँ मेरी चाल अलग हो जाती है... वहाँ मैं... मैं... समीर हूँ... और यहाँ....’
’यहाँ क्या हो...?’
’यहाँ वह आदमी है जो समीर का रहस्य लिए तुम्हारे साथ रहता है।’
शील कतई यह confrontation वाला गेम इस वक्त समीर के साथ नहीं खेलना चाहती थी। उसने खाली कॉफी के कप उठाए और किचिन में चली गई।
’समीर यह कुछ दिनों का बुखार है उतर जाएगा, इसे इतना seriously मत लो!!!’
शील ने कचिन से, एकदम causally, यह कह दिया... मानों वह कई बार ऎसी स्थिति से गुज़र चुकी हो। समीर हेरान रह गया। शील सीधे बिस्तर पर पसर गई....।
’समीर लाईट बंद कर दूँ?’
शील ने समीर को देखे बिना यह कह दिया...। वहाँ से कोई जवाब नहीं आया। शील की लाईट बंद करने की हिम्मत नहीं हुई।
’शील... शील...’
समीर की आवाज़ आई... शील पलट गई।
’क्या है?’
’शील वह गाना सुना दो?’
’क्या?’
’वह टेगौर का ’तोमाय गान शोनाबो.....’”
शील हतप्रभ रह गई।
’समीर मुझे वह अब ठीक से याद भी नहीं है... और अचानक...’
’जितना याद हो... जैसा भी... सुना दो।’
शील खिसक के समीर के बग़ल में आ गई। समीर बिना बदलाव के अटल सा था।
’मैं कोशिश करती हूँ।’
यह बात शील ने खुद से कही और आँखें बंद कर ली। दाहिना हाथ धीरे से हवा में सुर टटोलने लगा और गाना कुछ रुकता-रुकाता शुरु हो गया। कितने साल बीत गए वाली सारी खराश आवाज़ में थी। बीच-बीच में गाना रोककर शील गला साफ कर लेती और फिर दुबारा, शुरु से शुरु करती...। अंतरे के कुछ शब्द धुंधले पड़ चुके थे... वह थके हुए रेंगते से आते तब तक गाना humming का सहारा लेकर आगे बढ़ जाता। गाना जारी रखने के लिए केवल मुखड़े का ही सहारा था... अंतरे अपने शब्द और अर्थ दोनों खो चुके थे। दूसरे अंतरे के धुंधलेपन में शील का गला रुंधने लगा। वह रुक गई। उसे हमेशा से पता था कि यह गाना उसके पास है... कईयों बार उसने उसे ऑफिस आते जाते गुनगुनाया था... पर वह गाना छूट गया है, कहीं बीच में ही। शील को अचानक वह सारी चीज़े याद हो आई जो उसके पास शुरु से थी... एक छोटी पेंसिल रबर लगी हुई, टिफिन का डिब्बा, गुल्लक... समीर के दिये हुए पुराने लेटर और ग्रीटिंग कार्ड्स... रिबिन, पुरानी हरी-लाल चूड़ियाँ... यह सब कहाँ है? उसने सभी चीज़ो को संभाल के रखा था कहीं... कहाँ? उसे याद नहीं आया।
’तुम बहुत अच्छा गाती हो।’
समीर को गाने के टूटेफूटेपन से कोई फर्क नहीं पड़ा था। यूं भी उसे बांग्ला समझ में नहीं आती थी। शील ने उसे कई बार इस गाने का अर्थ समझाया था पर वह हर बार भूल जाता था।
’तोमाय गान शोनाबो, ताईतो आमाए जागिए राखो.....।’
’तुम्हें गाना सुनाऊ इसिलिए तुम मुझे जगाए रखती हो...’
उसे इन शब्दों का अर्थ अभी भी याद था...। शील के गाए हुए बाक़ी गाने में वह इसी वाक़्य के अलग-अलग अर्थ गढ़ते रहता। उन गड़्मड़ अर्थों के बीच समीर सोच रहा था कि कितना प्यार करता था वह शील को... उसे वह दिन याद आ गया जब ज़िद्द करने पर शील ने यह गाना उसके दोस्तों बीच सुनाया था... गाते हुए, बीच के कुछ शब्दों में शील समीर की तरफ देख लेती.., और वह दोनों एक व्यक्तिगत रहस्य उस भीड़ में जी लेते। कितना रोमांच था... कितना सेक्स था.. हाँ सेक्स... कितनी ही बार समीर, बाज़ार में चलते हुए शील की कमर में हाथ डाल देता था.... उसे अपने पास खींच लेता.. और इच्छा हो जाती कि यहीं भरे बाज़ार में शील को प्यार करे.. जी भरकर। वह सेक्स कहाँ गया... वह आखिरी बार शील के साथ कब सोया था? समीर सोचने लगा पर उसे याद नहीं आया। तभी शील की आवाज़ कुछ टूटने लगी... फिर भारी हुई और वह चुप हो गई। टैगोर के शांत होते ही उस कमरे में मानों किसी ने ठूस-ठूस कर मौन भर दिया हो.. सब कुछ एकदम से स्थिर हो गया। समीर पीछे खिसकते हुए पलंग पर लेट गया...
’तुम बहुत अच्छा गाती हो।’
शील यह सुनते ही बाथरुम चली गई। समीर लेटे हुए छत ताकता रहा।
’यहाँ वह आदमी है जो समीर का रहस्य लिए तुम्हारे साथ रहता है….’ उसने अपने ही कहे हुए वाक्य को दौहराना शुरु कर दिया... मानो वह वाक्य छत पर कहीं छपा हो.. जिसे वह हिज्जे करते हुए पढ़ रहा था।
हिज्जे करते हुए वह ’रहस्य’ शब्द पर रुक गया। समीर का ’रहस्य’... उसके खुद के होने का ’रहस्य’... उसे लगा वह हमेशा से ’रहस्य’ भीतर पाल रहा है... बचपन से।
जब वह छोटा था तो उसने अपने भाई के टिकिट संग्रह की कुछ टिकटें चुराकर एक क्रिश्चन लड़की को दे दी थी... यह बात उसने कभी किसी को नहीं बताई थी।
अपने माँ-बाप को एक रात सेक्स करते हुए उसने देखा था... बड़े होने तक वह उस छवी को नहीं भुला पाया था... पहली बार जब वह एक लड़की के साथ सोने गया तो उसे बार-बार वही छवी सताती रही... और वह बहुत समय तक उस लड़की के साथ सो नहीं पाया था। यह एक रहस्य ही तो था... समीर का रहस्य जो वह अपने भीतर लिए घूम रहा था।
बाप की जेब से पैसे चुराकर... ढ़ेरों कंचे खरीद कर घर ले आता और कहता कि मैंने यह खेल में जीते हैं।
अपने ऑफिस की एक ट्रिप में एक रात वह एक लड़की के साथ सोया था... शील को आज तक यह बात नहीं पता है।
शील से जब उसका रिश्ता शुरु ही हुआ था तब माँ की अर्थी के बगल में बैठकर वह.. शील के साथ सोने के सपने देख रहा था.... यह बात उसने दौबारा खुद को भी नहीं बताई थी।
उसे याद आया.. जब वह स्कूल जाता था तो उसके पास दो चीज़ हुआ करती थी...जेब में एक टॉफी और स्कूल बेग में एक नंगी लड़की की तस्वीर... वह तस्वीर उसके पास कहाँ से आई उसे अब याद नहीं था पर यह दो चीज़ हमेशा उसके पास रहती थी.... जब कभी उसका हाथ टॉफी पर पड़ जाता या कोई किताब निकालते हुए वह नंगी लड़की की तस्वीर दिख जाती तो वह रोमांच से भर जाता।
ऎसे ही पता नहीं कितने सारे रहस्यों के बारे में वह सोचने लगा। उसे लगा.. उसका पूरा होना... इन रहस्यों की फेहरिस्त का ही हिस्सा है...। उसे ऎसा मौका कभी याद नहीं आया जब वह किसी रहस्य के बिना रहा हो...।
इन सारे रहस्यों के बारे में सोचते-सोचते समीर शांत हो चुका था, या वह थकान थी, पर अब वह उतना परेशान नहीं था..। उसकी आँखें बंद होने लगी थी। वह अब कल के बारे में भी नहीं सोचना चाहता था... उसने एक बार बाथरुम की तरफ देखा जहाँ शील गई हुई थी, वहाँ कोई भी आहट नहीं थी और उसने आँखें बंद कर ली....
शील भीतर बाथरुम में बहुत देर तक आईने के सामने खड़ी रही। वह आज डर गई थी। वह सोचने लगी.. आज समीर बहुत परेशान था, वह सब कुछ इंमानदारी से कहना चाहता था... पर आज उसके पास कोई जवाब नहीं थे। वह इस ’सब कुछ कह देने वाली इंमानदारी’ में पड़ना भी नहीं चाहती थी। अगर यह रात कुछ हफ्ते पहले आती तो वह भी अपनी पूरी इंमानदारी से इसका हिस्सा होती। उसे भी समीर से कई शिक़ायतें थी... पर वह सारी शिक़ायते अब अपने मायने खो चुकी हैं।
शील ने बहुत सारा पानी अपने चहरे पर डाला, वह सब कुछ धो देना चाहती थी।
’काश यह शतरंज का एक खेल होता...’ वह फिर सोचने लगी, ’और वह कह सकती कि बाज़ी फिर से जमाओ। अभी बहुत से प्यादे मारे जा चुके है... वह चारों तरफ से घिर चुकी है... नहीं वह हार नहीं मान रही है.. पर एक मौक़ा और नहीं मिल सकता है?
क्या एक मौक़ा और मिला तो वह रोहन को उसकी पहली ही हरकत पर चांटा मार देगी? वह उसे वहीं उसी वक़्त रोक देगी? बहुत सोचने पर भी शील कुछ तय नहीं कर पा रही थी कि रोक देगी कि नहीं? उसने फिर ढ़ेर सारा पानी अपने चहरे पर डाला...। आईने के एकदम करीब आकर खुद को घूरने लगी... और उसके मुँह से निकला... “नहीं मैं नहीं रोकूगीं...।’
रोहन, शील को उन दिनों की याद दिलाता था जब उसकी शादी नहीं हुई थी। समीर उस वक़्त उसे बिना छुए रह ही नहीं पाता था... कहीं भी.. बाज़ार में.. रेस्टोरेंट में... किसी दुकान पर...। वह समीर को लगातार झिड़कती रहती थी। उसे पता था यह ग़लत है इसलिए उसमें रोमांच था। उसे यह भी पता था कि समीर के साथ उसका संबंध ग़लत है, उसके माँ-बाप कभी इस संबंध को स्वीकार नहीं करेगें, इसलिए वह संबंध भी रोमांच से भरा था। अब रोहन है जो पूरी तरह ग़लत है इसलिए उसके बारे में सोचना भी शील को रोमांच से भर देता है। इसकी ग्लानी भी है.. पीड़ा भी है.. डर हैं... सब कुछ है।
तभी शील की निग़ाह उसकी भौं पर पड़ी। वह पिछले एक हफ्ते से पार्लर जाना टाल रही थी। उसने सोचा कल ऑफिस जाने से पहले वह पार्लर होती हुई जाएगी।
वह बाहर आई तो देखा समीर सो चुका था। उसने लाईट बंद नहीं की थी। शील, समीर के बग़ल में आकर लेट गई। उसने एक गहरी सांस भीतर ली... और अचानक उस गाने के सुर उसके मुँह से फूटने लगे। वह लेटे-लेटे बहुत हल्के-हल्के उसे गुनगुना रही थी। तभी उसे रोहन का ख्याल हो आया... उसने तय किया कि कल जब वह उससे मिलेगी तो उसे यह गाना सुनाएगी.. सिर्फ मुखड़ा... अंतरे के बारे में कह देग़ी कि ’वह उसे अच्छा नहीं लगता.. सो उसे याद नहीं... मुखड़ा सुंदर है बस इसे ही सुनो....’
’तोमाय गान शोनाबो, ताईतो आमाए जागिए राखो.....।’
वह मुस्कुरादी... उसने करवट बदली और लाईट बंद कर दी।
Subscribe to:
Posts (Atom)
मेरी कविताएँ...
मेरे नाटक पढ़ने के लिए... click here...
मानव
परिचय
- मानव
- मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल