Thursday, June 3, 2010
‘तोमाय गान शोनाबो...’
‘तोमाय गान शोनाबो...’
’मैं थक चुकी हूँ... सुनो... नहीं... मैं सच में बहुत थक चुकी हूँ, समीर प्लीज़... मुझे सोने दो।’
समीर कुछ बचपने की हरकतों के बाद पीछे हट गया। उसने अपनी टी-शर्ट भी उतार ली थी। वह धीरे से बिस्तर से नीचे उतरा, उसने टी-शर्ट को दो बार झाड़कर पहन लिया।
शील सोई नहीं थी, समीर के जाते ही वह तकिये से लिपटकर, दूसरी तरफ करवट किये लेटी रही। उसकी कोई भी हरकत इस वक्त एक बहस को जन्म दे सकती थी सो वह चुपचाप लेटी रही। तभी उसे प्यास लगने लगी... उसने सोचा वह उठकर पानी तो पी ही सकती है...वह उठने को ही थी कि उसे सिगरेट की महक आई और वह लेटी रही।
समीर अपनी डेस्क पर था... उसने सिगरेट पीते हुए एक किताब खोल ली... कुछ देर वह एक ही पन्ने पर शील से बात-चीत के सवाल जवाब पढ़ता रहा। कुछ देर में वह किताब रखकर कमरे के चक्कर काटने लगा। सिगरेट खत्म हो चुकी थी... वह धीरे से शील के करीब आया.. उसे लगा था कि वह शायद उसकी आहट से जग जाएगी, उसने उसके कंधे पर हाथ भी रखा पर वह सोई रही।
शील ने समीर का उसके बगल में आना महसूस किया, उसका स्पर्ष अपने कंधे पर भी महसूस किया पर वह लेटी पड़ी रही। उसे पता था अगर वह उठेगी तो क्या होगा.. कैसी बातें होगीं.. वह इन बातों के बीज अपने तलुए में महसूस कर रही थी। उसे अचानक अपने तलुओ में खुजली हो ने लगी... कुछ देर की बैचेनी के बाद उसने अपने दाहिने पैर से अपने बाएं पैर के तलुए को खुजला ही दिया, कुछ इस तरह कि वह गहरी नींद में है। कुछ ही देर में समीर की आहट बंद हो गई... फिर बिस्तर पर कुछ हरकत हुई और उसने समीर की देह को अपने बगलमें पसरते हुए महसूस किया। वह कुछ शांत हो गई। उसे पता था समीर कुछ देर में सो जाएगा... वह बहुत देर तक जगा नहीं पाता था। शील ने तकिये को कुछ और अपने भीतर भींचा... और लेटी रही।
समीर कुछ देर खिड़की का पर्दा खोलकर शहर देख रहा था... इसी में वह दिन भर खपा रहता है। वह अपने कल के दिन के बारे में सोचने लगा.. फिर सुबह उठना... घूमने जाना, नहाना, नाश्ता, ट्रेफिक, हार्न, पसीना, शील को उसके ऑफिस छोड़ते हुए अपने ऑफिस की लिफ्ट के बाहर देर तक खड़े रहना... आठवां माला... गुड मार्निंग की चिल्लपो... फाईल, कमप्यूटर, बॉस, ब्रेक... थकान, ऊब... और...अपने ऑफिस से घर तक धीरे-धीरे रेंगते हुए.. रोज़ चले आना.... तभी शील ने अपना तलुआ खुजाया और समीर की दिनचर्या थम गई... उसने पलटकर शील को देखा.. तब तक वह स्थिर हो चुकी थी। उसने वापिस खिड़की का पर्दा लगाया... धीरे से बिस्तर में घुसा और आँखे बंद कर ली।
शील को पानी पीना था... पर उसे कुछ इंतज़ार कराना होगा... समीर अभी अभी लेटा था। वह रोहन के बार में सोचने लगी। रोहन नया-नया उसके ऑफिस में आया था। दिखने में काफी सामान्य था पर बातें बहुत गोल-मोल करता था। पिछले कुछ समय से वह शील को इधर-उधर छूने से भी नहीं चूकता था। पहले-पहल शील ने एतराज़ नहीं किया पर बाद में उसने रोहन से कहाँ कि यह उसे ठीक नहीं लगता है। रोहन ने उससे माफी मांगी और मांफी के लिए उसने उसके साथ कॉफी पीने की ज़िद्द की... शील बहुत ना-नुकुर के बाद मान गई। कॉफी पीने में क्या हर्ज़ है? पर कॉफी हाऊस में, उस भीड़ में रोहन ने शील की कमर में हाथ डाल दिया... शील कुछ देर चुपचाप बैठी रही तो उसकी उंग्लियाँ हरकत करने लगी। शील कुछ देर में उठ गई। आज वह रोहन के साथ फिल्म देखने गई थी... जहाँ रोहन ने शील को चूमा, अपना हाथ शील के कपड़ों के भीतर डाल दिया... शील ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। वह रोहन को इस बार नहीं रकना चाहती थी।
समीर सो नहीं पा रहा था... कुछ आटका पड़ा था। एक बार बात हो जाती, चाहे वह लड़ लेता, कुछ बात कर लेते पर इस तरह से सो जाना उसे खटक रहा था। वह जानता था शील बिना पढ़े सोती नहीं है... वह देर रात तक जागती रहती है। उसे ही कई बार कहना पड़ता है कि बत्ती बुझा दो... तब कहीं जाकर वह सोती थी। वह उठकर बैठ गया। बाथरुम में जाकर मुँह धोने लगा... फिर किचिंन में जाकर फ्रिज खोलकर थोड़ी देर खड़ा रहा, फ्रिज बंद करके गेस के पास कुछ टटोलने लगा.... लाईटर गेस के नीचे पड़ा था। लाईटर हाथ में लिए वह बहुत देर तक खड़ रहा... कई बार हवा में उसे जलाने की कोशिश की तीन बार की ’कट-कट’ के बीच एक बार वह जला। अंत में गेस जलाकर उसने कॉफी चढ़ा दी.. ब्लैक कॉफी। कॉफी बनाते वक्त पूरे समय उसके दिमाग़ में चल रहा था कि यह ग़लत है उसे कॉफी नहीं पीनी चाहिए.. वह सो नहीं पाएगा... पर अंत में वह कॉफी लिए वापिस उसी खिड़की पर खड़ा था... जहाँ से कुछ देर पहले वह अपने दिन भर के खपने के बार में सोच रहा था। उसे ऑफिस बहुत पसंद था, दिनभर की जल्दबाज़ी, काम पूरा करने की जद्दोजहद, फिर बीच में दोस्तों के साथ सीड़ियों पर जाकर सिगरेट के कश लगाना... एक भरा-पूरा माहौल.. उसमें उसे जो सबसे कठिन काम लगता था वह था उसका ऑफिस के घर आना... अचानक किसी का हाथ समीर ने अपने कंधे पर महसूस किया और उसके हाथ से कॉफी गिर गई।
शील ने करवट बदल ली थी...। किचिन से कुछ आवाज़े आ रही थी। वह कुछ देर रुकी रही... फिर धीरे से पलंग पर ही खिसकते हुए उसने समीर की तरफ पानी की बोतल खोजनी चाही पर वहाँ उसे बोतल नहीं मिली। उसे कॉफी की महक आई... ’इतनी रात गए समीर कॉफी पी रहा है?’ अब वह सोई नहीं.. उसे एक बहाना मिल गया था कि ’किचिन की खट-खट से नींद टूट गई’। बहाना मिलते ही वह बिस्तर से उठने को हुई पर कुछ सोचकर रुक गई। ’समीर किचिन से कॉफी लेकर आएगा और उसे इस तरह बिस्तर पर बैठा हुआ पाएगा...’ शील को यह ज़्यादा नाटकीय लगा सो उसने उठकर पानी पीना स्थगित कर दिया। वह बिस्तर पर बैठ गई और समीर का इंतज़ार करने लगी। समीर कुछ देर में किचिन से बाहर आया और सीधा खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया.... मानों कि नींद में चल रहा हो। शील को लगा कि समीर ने उसे देखा था... वह मुस्कुराई भी थी पर वह सीधा खिड़की पर जाकर खड़ा हो गया...। शील गुस्से में उठी और सीधा किचिन में गई... पानी पीया... और सीधा समीर के बगल में आकर खड़ी हो गई...। उसने धीरे से समीर के कंधे पर हाथ रखा और समीर के हाथ से कॉफी का कप गिर गया।
शील भीतर कॉफी बना रही थी। समीर, वाक्य विन्यास में कुछ गैर ज़रुरी शब्दों को निकाल रहा था और कुछ बहुत महत्वपूर्ण शब्दों को विन्यास में ठूस रहा था। उसे एक वाक्य में कुछ उस स्थिति के बारे में बात करनी थी जिस स्थिति को वह पिछले कुछ समय से महसूस कर रहा था। शील कॉफी लेकर बाहर आ गई...
’क्या हुआ?’
शील ने समीर को कॉफी पकड़ाते हुए कहा... समीर को इससे बहतर मौका नहीं मिलना था... उसने तुरंत अपना बनाया हुआ वाक्य उगल दिया।
’शील ठीक नहीं लग रहा है।’
समीर के हिसाब से सारे गैर ज़रुरी शब्दों को निकालने के बाद यह वाक्य ही उसकी स्थिति को सही सही स्थापित करता है।
’क्या हुआ?’
’मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ... थोड़ा खुलकर..।’
’समीर तुम ठीक तो हो ना...।’
शील उसे छू नहीं पा रही थी, उसके हाथ बार-बार समीर की तरफ जाकर रुक जाते थे।
’मुझे ऑफिस से घर आना, घर से ऑफिस जाना लगता है।’
’क्या???’
’मतलब लोग ऑफिस से घर जाते वक्त जितने उत्साहित रहते हैं मैं घर से ऑफिस जाते वक्त उतना उत्साहित होता हूँ।’
’That means you love your work. उसमे गलत क्या है?’
’इसमें कुछ भी गलत नहीं है?’
’मुझे तो नहीं दिखता...!!!’
’अरे!... ’
’तुम्हारे ऑफिस को पसंद करने की कोई दूसरी वजह तो नहीं है?’
’दूसरी क्या वजह हो सकती है?’
’कोई लड़की...?’
’shut up…!!!’
शील चुप हो गई। इस बातचीत के बीच में वह बार-बार रोहन का चहरा अपनी गर्दन के इर्दगिर्द महसूस कर रही थी। हर थोड़ी देर में शील का हाथ उसकी गर्द पर चला जाता मानों पसीना पोछ रही हो।
’इसमें गलती है... इसमें एक बड़ी गलती है।’
समीर अचानक उठा और पलंग पर जाकर बैठ गया, पलंग के किनारे पर उसके पेर कांप रहे थे... लग रहा था मानों वह किसी दूसरे के घर में बैठा है।
’समीर ज़्यादा स्ट्रेस मत लो।’
’शील अब मैं घर आना पसंद नहीं करता... मुझे यहां बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता.. मैं यहाँ से लगातार बाहर निकलने के बहाने खोजता हूँ... मैं घर में आता हूँ और थक जाता हूँ। मैं बाहर दूसरा आदमी हूँ... वहाँ मेरी चाल अलग हो जाती है... वहाँ मैं... मैं... समीर हूँ... और यहाँ....’
’यहाँ क्या हो...?’
’यहाँ वह आदमी है जो समीर का रहस्य लिए तुम्हारे साथ रहता है।’
शील कतई यह confrontation वाला गेम इस वक्त समीर के साथ नहीं खेलना चाहती थी। उसने खाली कॉफी के कप उठाए और किचिन में चली गई।
’समीर यह कुछ दिनों का बुखार है उतर जाएगा, इसे इतना seriously मत लो!!!’
शील ने कचिन से, एकदम causally, यह कह दिया... मानों वह कई बार ऎसी स्थिति से गुज़र चुकी हो। समीर हेरान रह गया। शील सीधे बिस्तर पर पसर गई....।
’समीर लाईट बंद कर दूँ?’
शील ने समीर को देखे बिना यह कह दिया...। वहाँ से कोई जवाब नहीं आया। शील की लाईट बंद करने की हिम्मत नहीं हुई।
’शील... शील...’
समीर की आवाज़ आई... शील पलट गई।
’क्या है?’
’शील वह गाना सुना दो?’
’क्या?’
’वह टेगौर का ’तोमाय गान शोनाबो.....’”
शील हतप्रभ रह गई।
’समीर मुझे वह अब ठीक से याद भी नहीं है... और अचानक...’
’जितना याद हो... जैसा भी... सुना दो।’
शील खिसक के समीर के बग़ल में आ गई। समीर बिना बदलाव के अटल सा था।
’मैं कोशिश करती हूँ।’
यह बात शील ने खुद से कही और आँखें बंद कर ली। दाहिना हाथ धीरे से हवा में सुर टटोलने लगा और गाना कुछ रुकता-रुकाता शुरु हो गया। कितने साल बीत गए वाली सारी खराश आवाज़ में थी। बीच-बीच में गाना रोककर शील गला साफ कर लेती और फिर दुबारा, शुरु से शुरु करती...। अंतरे के कुछ शब्द धुंधले पड़ चुके थे... वह थके हुए रेंगते से आते तब तक गाना humming का सहारा लेकर आगे बढ़ जाता। गाना जारी रखने के लिए केवल मुखड़े का ही सहारा था... अंतरे अपने शब्द और अर्थ दोनों खो चुके थे। दूसरे अंतरे के धुंधलेपन में शील का गला रुंधने लगा। वह रुक गई। उसे हमेशा से पता था कि यह गाना उसके पास है... कईयों बार उसने उसे ऑफिस आते जाते गुनगुनाया था... पर वह गाना छूट गया है, कहीं बीच में ही। शील को अचानक वह सारी चीज़े याद हो आई जो उसके पास शुरु से थी... एक छोटी पेंसिल रबर लगी हुई, टिफिन का डिब्बा, गुल्लक... समीर के दिये हुए पुराने लेटर और ग्रीटिंग कार्ड्स... रिबिन, पुरानी हरी-लाल चूड़ियाँ... यह सब कहाँ है? उसने सभी चीज़ो को संभाल के रखा था कहीं... कहाँ? उसे याद नहीं आया।
’तुम बहुत अच्छा गाती हो।’
समीर को गाने के टूटेफूटेपन से कोई फर्क नहीं पड़ा था। यूं भी उसे बांग्ला समझ में नहीं आती थी। शील ने उसे कई बार इस गाने का अर्थ समझाया था पर वह हर बार भूल जाता था।
’तोमाय गान शोनाबो, ताईतो आमाए जागिए राखो.....।’
’तुम्हें गाना सुनाऊ इसिलिए तुम मुझे जगाए रखती हो...’
उसे इन शब्दों का अर्थ अभी भी याद था...। शील के गाए हुए बाक़ी गाने में वह इसी वाक़्य के अलग-अलग अर्थ गढ़ते रहता। उन गड़्मड़ अर्थों के बीच समीर सोच रहा था कि कितना प्यार करता था वह शील को... उसे वह दिन याद आ गया जब ज़िद्द करने पर शील ने यह गाना उसके दोस्तों बीच सुनाया था... गाते हुए, बीच के कुछ शब्दों में शील समीर की तरफ देख लेती.., और वह दोनों एक व्यक्तिगत रहस्य उस भीड़ में जी लेते। कितना रोमांच था... कितना सेक्स था.. हाँ सेक्स... कितनी ही बार समीर, बाज़ार में चलते हुए शील की कमर में हाथ डाल देता था.... उसे अपने पास खींच लेता.. और इच्छा हो जाती कि यहीं भरे बाज़ार में शील को प्यार करे.. जी भरकर। वह सेक्स कहाँ गया... वह आखिरी बार शील के साथ कब सोया था? समीर सोचने लगा पर उसे याद नहीं आया। तभी शील की आवाज़ कुछ टूटने लगी... फिर भारी हुई और वह चुप हो गई। टैगोर के शांत होते ही उस कमरे में मानों किसी ने ठूस-ठूस कर मौन भर दिया हो.. सब कुछ एकदम से स्थिर हो गया। समीर पीछे खिसकते हुए पलंग पर लेट गया...
’तुम बहुत अच्छा गाती हो।’
शील यह सुनते ही बाथरुम चली गई। समीर लेटे हुए छत ताकता रहा।
’यहाँ वह आदमी है जो समीर का रहस्य लिए तुम्हारे साथ रहता है….’ उसने अपने ही कहे हुए वाक्य को दौहराना शुरु कर दिया... मानो वह वाक्य छत पर कहीं छपा हो.. जिसे वह हिज्जे करते हुए पढ़ रहा था।
हिज्जे करते हुए वह ’रहस्य’ शब्द पर रुक गया। समीर का ’रहस्य’... उसके खुद के होने का ’रहस्य’... उसे लगा वह हमेशा से ’रहस्य’ भीतर पाल रहा है... बचपन से।
जब वह छोटा था तो उसने अपने भाई के टिकिट संग्रह की कुछ टिकटें चुराकर एक क्रिश्चन लड़की को दे दी थी... यह बात उसने कभी किसी को नहीं बताई थी।
अपने माँ-बाप को एक रात सेक्स करते हुए उसने देखा था... बड़े होने तक वह उस छवी को नहीं भुला पाया था... पहली बार जब वह एक लड़की के साथ सोने गया तो उसे बार-बार वही छवी सताती रही... और वह बहुत समय तक उस लड़की के साथ सो नहीं पाया था। यह एक रहस्य ही तो था... समीर का रहस्य जो वह अपने भीतर लिए घूम रहा था।
बाप की जेब से पैसे चुराकर... ढ़ेरों कंचे खरीद कर घर ले आता और कहता कि मैंने यह खेल में जीते हैं।
अपने ऑफिस की एक ट्रिप में एक रात वह एक लड़की के साथ सोया था... शील को आज तक यह बात नहीं पता है।
शील से जब उसका रिश्ता शुरु ही हुआ था तब माँ की अर्थी के बगल में बैठकर वह.. शील के साथ सोने के सपने देख रहा था.... यह बात उसने दौबारा खुद को भी नहीं बताई थी।
उसे याद आया.. जब वह स्कूल जाता था तो उसके पास दो चीज़ हुआ करती थी...जेब में एक टॉफी और स्कूल बेग में एक नंगी लड़की की तस्वीर... वह तस्वीर उसके पास कहाँ से आई उसे अब याद नहीं था पर यह दो चीज़ हमेशा उसके पास रहती थी.... जब कभी उसका हाथ टॉफी पर पड़ जाता या कोई किताब निकालते हुए वह नंगी लड़की की तस्वीर दिख जाती तो वह रोमांच से भर जाता।
ऎसे ही पता नहीं कितने सारे रहस्यों के बारे में वह सोचने लगा। उसे लगा.. उसका पूरा होना... इन रहस्यों की फेहरिस्त का ही हिस्सा है...। उसे ऎसा मौका कभी याद नहीं आया जब वह किसी रहस्य के बिना रहा हो...।
इन सारे रहस्यों के बारे में सोचते-सोचते समीर शांत हो चुका था, या वह थकान थी, पर अब वह उतना परेशान नहीं था..। उसकी आँखें बंद होने लगी थी। वह अब कल के बारे में भी नहीं सोचना चाहता था... उसने एक बार बाथरुम की तरफ देखा जहाँ शील गई हुई थी, वहाँ कोई भी आहट नहीं थी और उसने आँखें बंद कर ली....
शील भीतर बाथरुम में बहुत देर तक आईने के सामने खड़ी रही। वह आज डर गई थी। वह सोचने लगी.. आज समीर बहुत परेशान था, वह सब कुछ इंमानदारी से कहना चाहता था... पर आज उसके पास कोई जवाब नहीं थे। वह इस ’सब कुछ कह देने वाली इंमानदारी’ में पड़ना भी नहीं चाहती थी। अगर यह रात कुछ हफ्ते पहले आती तो वह भी अपनी पूरी इंमानदारी से इसका हिस्सा होती। उसे भी समीर से कई शिक़ायतें थी... पर वह सारी शिक़ायते अब अपने मायने खो चुकी हैं।
शील ने बहुत सारा पानी अपने चहरे पर डाला, वह सब कुछ धो देना चाहती थी।
’काश यह शतरंज का एक खेल होता...’ वह फिर सोचने लगी, ’और वह कह सकती कि बाज़ी फिर से जमाओ। अभी बहुत से प्यादे मारे जा चुके है... वह चारों तरफ से घिर चुकी है... नहीं वह हार नहीं मान रही है.. पर एक मौक़ा और नहीं मिल सकता है?
क्या एक मौक़ा और मिला तो वह रोहन को उसकी पहली ही हरकत पर चांटा मार देगी? वह उसे वहीं उसी वक़्त रोक देगी? बहुत सोचने पर भी शील कुछ तय नहीं कर पा रही थी कि रोक देगी कि नहीं? उसने फिर ढ़ेर सारा पानी अपने चहरे पर डाला...। आईने के एकदम करीब आकर खुद को घूरने लगी... और उसके मुँह से निकला... “नहीं मैं नहीं रोकूगीं...।’
रोहन, शील को उन दिनों की याद दिलाता था जब उसकी शादी नहीं हुई थी। समीर उस वक़्त उसे बिना छुए रह ही नहीं पाता था... कहीं भी.. बाज़ार में.. रेस्टोरेंट में... किसी दुकान पर...। वह समीर को लगातार झिड़कती रहती थी। उसे पता था यह ग़लत है इसलिए उसमें रोमांच था। उसे यह भी पता था कि समीर के साथ उसका संबंध ग़लत है, उसके माँ-बाप कभी इस संबंध को स्वीकार नहीं करेगें, इसलिए वह संबंध भी रोमांच से भरा था। अब रोहन है जो पूरी तरह ग़लत है इसलिए उसके बारे में सोचना भी शील को रोमांच से भर देता है। इसकी ग्लानी भी है.. पीड़ा भी है.. डर हैं... सब कुछ है।
तभी शील की निग़ाह उसकी भौं पर पड़ी। वह पिछले एक हफ्ते से पार्लर जाना टाल रही थी। उसने सोचा कल ऑफिस जाने से पहले वह पार्लर होती हुई जाएगी।
वह बाहर आई तो देखा समीर सो चुका था। उसने लाईट बंद नहीं की थी। शील, समीर के बग़ल में आकर लेट गई। उसने एक गहरी सांस भीतर ली... और अचानक उस गाने के सुर उसके मुँह से फूटने लगे। वह लेटे-लेटे बहुत हल्के-हल्के उसे गुनगुना रही थी। तभी उसे रोहन का ख्याल हो आया... उसने तय किया कि कल जब वह उससे मिलेगी तो उसे यह गाना सुनाएगी.. सिर्फ मुखड़ा... अंतरे के बारे में कह देग़ी कि ’वह उसे अच्छा नहीं लगता.. सो उसे याद नहीं... मुखड़ा सुंदर है बस इसे ही सुनो....’
’तोमाय गान शोनाबो, ताईतो आमाए जागिए राखो.....।’
वह मुस्कुरादी... उसने करवट बदली और लाईट बंद कर दी।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
मेरी कविताएँ...
मेरे नाटक पढ़ने के लिए... click here...
मानव
परिचय
- मानव
- मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल
14 comments:
एकदम ताज़ा फुहार... अलहदा शैली और अंदाज़ देर तक बांधे रखा... treatment भी बहुत पसंद आया...
toooooooooooooooooo big, but good
thnx
yakeen nanhi aata ki blog par itni achchi kahani bloger likhte honge aur aisi kahaniyan padhe bina bhi nanhi raha jata.
sunder
अच्छा लगा
कुछ कहकर मौन मे हो रही बातो को नही तोडूगा...
अभी इन्ही मे जी रहा हू..
bhai sahab pahli bar aapke blog pr aaya, jiske bhi sahare yaha pahucha use shukriya kahunga....
ultimate likha hai aapne, padhte hue aisa laga ki mano mai in palo me kahi samne hi khadaa dekh raha hu mehsus kar raha hu bataur ek darshak, aur achche lekhan ki yahi nishani hai.....
is maun ko...mehsus kar raha hu....
खालिस है...अक्सर कंप्यूटर पे लोग अपने आप को एडिट कर लेते है .......आपने नहीं किया....यही इसकी सबसे बड़ी खासियत है
जीते रहो...
जय हो...
ईश्वर आपको प्रसन्न रखे...
ऐसी रचना लंबे वक्त बाद पढ़ने को मिली है...
मौन की बात में बातों का मौन पढ़ लिया । मन के भावों को बड़े सलीके से व्यक्त किया । कहानी में प्रवाह रोचक है, क्रिया कलापों के माध्यम से ।
nice story manav. manto ki kahaniyon ke baad jo maun mehsoos karta hu, wahi maun mehsoos kar pa raha hu.
seedhi saral bhasha bahut pasand aaye.kahani bhi.
’तोमाय कोथा शोनाबो, ताईतो आमाए जागिए राखो.....।’
a ha...
Post a Comment