Sunday, May 23, 2010

निर्मल और मैं....


23rd May 23, 2010
निर्मल- जब हम कहानी लिखते हैं-या उपन्यास- तो एक फिल्म चलने लगती है- इस फिल्म में छूटे हुए मकान हैं और मरे हुए मित्र, बदलते हुए मौसम हैं और लड़कियाँ, खिड़कियाँ, मकड़ियाँ हैं और वे सब अपमान हैं जो हमने अकेले मे सहे थे, और बचपन के डर हैं और क्रूरताएँ हैं जो हमने माँ-बाप को दी थी और माँ-बाप के चेहरे हैं, छत पर सोते हुए और छतें हैं, रेलों की आवाज़े हैं और हम यह एक अदृश्य स्क्रीन पर देखते रहते हैं मानो यह सब किसी दूसरे के साथ हुआ है, हमारे साथ नहीं- हम अपनी नहीं किसी दूसरे की ’फिल्म’ देख रहे हैं; यह ’दूसरा’ ही असल में लेखक है, मैं सिर्फ स्क्रीन हूँ, परदा, दीवार.... लेकिन अँधेरे में हम साथ-साथ बैठे हैं; कभी-कभी हम दोनों एक हो जाते हैं, तब पन्न खाली पड़ा रहता है और दीवार पर कुछ भी दिखाई नहीं देता!
मैं- सही है... पर यह ’दूसरा’ जब गायब होता है तो आप अकेलेपन के उस वीराने में खुद को पाते हो जहाँ महज़ खालीपन है.. पीड़ा है... और बहुत दूर कहीं अपको कुछ लोग खड़े दिखते हैं... जिनसे वापिस संबंध स्थापित करने की एक खाई है जो थका देती है।
निर्मल- जीवन में अकेलेपन की पीड़ा भोगने का क्या लाभ यदि हम अकेले में मरने का अधिकार अर्जित न कर सकें? किन्तु ऎसे भी लोग हैं जो जीवन-भर दूसरों के साथ रहने का कष्ट भोगते हैं, ताकि अंत में अकेले न मरना पड़े।
मैं- आप आज यह लिखी हुई बातें क्यों कर रहे हैं?
निर्मल- तुम ही पढ़ रहे हो।
मैं- मैं उन दिनों की बात कर रह हूँ जब आपसे लिखा नहीं जाता... या वह दिन जब आप कोई सघंन खत्म करके उठे होते हो... आप तृप्त होते हो... कुछ मौलिक सा लिख देने की खुशी होती है... पर ठीक उस खुमारी के बीच वह ’दूसरा’ आपके जीवन से अचानक गायब हो जाता है.. तब कोई भी आसरा नहीं रहता क्यों कि वह पिछले समय में सारे आसरों को धुंधला कर चुका था.. तब उन दिनों में क्या किया जा सकता है।
निर्मल- तुम क्या मुआवज़ा चाहते हो?
मैं- नहीं मैं कोई मुआवज़ा नहीं चाहता।
निर्मल- तो इतनी तड़प क्यों?
मैं- क्योंकि... कोई आस-पास नज़र नहीं आता। लिखने से जो एक खुशी का विस्फोट हुआ था वह भी अकेली गुफाओं से टकराकर दंम तोड़ देता है। आप अपनों की तरफ देखते है.. वहाँ आपको अपनी ही लिखी हुई कुछ पंक्तियाँ नज़र आ जाती है जो आपने अपनों के जीवन से चुरा-चुराकर लिखी थी। माँ-बाप, वह माँ-बाप नहीं रह जाते, उनसे अब पुरानी सहजता से नहीं मिला जा सकता है.. क्योंकि इस बीच आपके वह ’दूसरे’ आदमी ने उनका इस बुरी तरह से इस्तेमाल कर लिया है आप उन्हें संदेह की दृष्टी से देखते हो.... इतना ही नहीं आपको अपना पूरा जीवन एक कहानी लगने लगता है.. तो जहाँ कहीं स्थिरता नज़र आती है आपका पूरा शरीर इस कोशिश में लग जाता है कि कोई घटना हो.. कहीं से रिस्ति हुई पीड़ा टपके.... कुछ ओर हो.. जहाँ पूरा जीवन वापिस अस्थिर हो जाए... कहानी पढ़ने में मज़ा आए... जबकी वह कहानी पढ़ी नहीं जा रही है वह जी जा रही है।
निर्मल- मैंने कहीं पढ़ा था कि आप जैसा जीवन जी रहे है, असल में आप बिलकुल ऎसा ही जीवन जीना चाहते थे, चाहे अभी आप इस बात को माने या ना माने।
मैं- आपको कभी भी सांत्वना नहीं दे सकते?
निर्मल- सांत्वना झूठ है... लिखने से कुछ हासिल नहीं होता... अगर कुछ हासिल करना है तो वह काम करों जिसमें हर माह एक मुश्त मुआवज़ा मिले तुम्हें तुम्हारे काम का... और उसके लिए भी लगातार दौड़ते रहने का बल चाहिए। यहाँ चुप्पी है... शांति है... पागलपन की परिधी पर टहलता हुआ वह ’दूसरा’ है जो किसी भी कायरता की भनक पाते ही ग़ायब हो जाता है। जीने और लिखने के बीच हमेशा एक दूरी बनी रहती है... वही दूरी तुम्हारी और वह ’दूसरे’ के बीच की दूरी है। अपने जीने की गंदगी से ’दूसरे’ दूर ही रखो।
मैं- मेरी नई कहानी पढ़ी आपने?
निर्मल- हाँ...
मैं- कैसी लगी?
निर्मल- उसी के बारे में बात करने आया था... पर तुम अपनी कमज़ोरियाँ लेकर बैठ गए।
मैं- पर कैसी लगी..???
निर्मल- उसके बारे में बाद में बात करेगें... अभी एक चाय पीते हैं...।
मैं- हाँ...मेरी भी इच्छा है।

2 comments:

दिलीप said...

bahut sundar abhivyakti

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

मेरा वो ’दूसरा’ आज गायब है... और वही कुछ लिख देने की बेचैनी मुह बाये मेरी तरफ़ बढ रही है..

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल