Friday, May 7, 2010
निर्मल और मैं....
मैं- इतनी रात गए.. खामोश बैठे हैं?
निर्मल- कितना बज रहा होगा?
मैं- करीब एक...।
निर्मल- कितने रतजगों की कालिख आँखों के नीचे फैली पड़ी है... है ना?
मैं- हाँ।
निर्मल- किस लिए? क्यों? क्या है वह चीज़ जिसे लगातार टटोलते रहना होता है। कौन सा खिलौना है वह जिससे खेलते हुए हम थकते नहीं हैं... ऊबते नहीं?
मैं- मैं तो इसे खेल समझता था।
निर्मल- खेल अलग-अलग हैं पर खिलोना एक ही है।
मैं- “हाथ की आई शून्य...” यह वाक्य कई दिनों से चिपका हुआ है।
निर्मल- अच्छा है यह।
मैं- मुझे लगता है इस संवाद में एक पूरा नाटक छिपा है।
निर्मल- पर तुम्हें तो कहानिया लिखने में मज़ा आ रहा था?
मैं- मैं नाटकियता की बात कर रहा था।
निर्मल- शब्द कुछ ओर कहें! परिस्थितियाँ कुछ ओर हों।..... दॄश्य कुछ दिखाए! पर वाक्यों में पूरा खेल हो। संवाद यहाँ के हो! पर नाटक कहीं ओर हो।
मैं- बिलकुल ऎसा ही... यहीं नया प्रयोग होगा... यही मैं करना चाहता हूँ।
निर्मल- पर कैसे?
मैं- ओफ यह सवाल। होगा... जैसे आपने कहीं कहाँ था कि... “हमें उन चीज़ो के बारे में लिखने से अपने को रोकना चाहिए, जो हमें बहुत उद्वेलित करती हैं जैसे- बादलों में बहता हुआ चाँद, हवा की रात और हवा, अँधेरे में झूमते हुए पेड़, पहाड़ों पर चाँदनी का आलोक, स्वयं पहाड़ और उनकी निस्तब्धता..... “... इन सब के ’इम्प्रेशन’ हमारे भीतर होने चाहिए...एक तरह का ठोस आलोक-मंडल- जो चीज़ों की गहराई और पार्थिकता को बरकरार रखता है और उन्हें स्वतः शब्दों में बदल देता है।
निर्मल- तो?
मैं- तो मैं इस नए प्रयोग के ’इम्प्रेशन’ को अपने भीतर पाल रहा हूँ.. अब जो भी नाटक मैं लिखूगाँ... वह कुल मिलाकर ऎसी ही बात कहेगा...। सीधे प्रयोग ना लिखकर भी मैं प्रयोग ही कर रहा होऊगाँ।
निर्मल- क्या पढ़ रहे हो आजकल?
मैं- BILL BRYSON... और....TENNESSEE WILLIAMS.
निर्मल- non-fiction.
मैं- मैं धीरे-धीरे fiction से ऊबता जा रहा हूँ...। कहानियाँ मुझे बोर करती है। पुराने उपन्यास पढ़े नहीं जाते... कविताए काफ़ी झूठ कहती हैं। कम से कम non-fiction में कुछ पकड़ में तो आता है।
निर्मल- वैसे non-fiction और fiction… एक ही बात है... यह कहो कि तुम्हें non-fiction की कुछ अच्छी किताबें मिलि हैं। fiction में लेखक कहीं ज़्यादा इंमानदार होता है... non-fiction से।
मैं- हाँ.. यह सही बात है।
निर्मल- तो तुम पढ़ो अपनी किताबें... इसपर चर्चा करेगें।
मैं- जी... ।
निर्मल- मुझे रामकृष्ण परमहंस की बात याद हो आई-“नदियाँ बहती हैं, क्योंकि उनके जनक पहाड़ अटल रहते हैं।“ –मैं एक के साथ खड़ा हूँ, दूसरे के साथ बहता हूँ।................................... चलता हूँ।
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मानव
परिचय
- मानव
- मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल
1 comment:
-“नदियाँ बहती हैं, क्योंकि उनके जनक पहाड़ अटल रहते हैं।
अमूल्य पंक्ति जो आप के ब्लॉग से लेकर जा रही हूँ ....बहुत खूब
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