Sunday, May 2, 2010

इति और उदय..


इति और उदय...

वह फिर वहीं बैठी थी... उसी पार्क की उसी बेंच पे। उसका हाथ उदय के हाथ में था। होंठ कभी तन जाते, तो कभी ढ़ीले पड़ जाते। आँखों के निचले हिस्से में पानी भर आया था। बाक़ी आँखें सूखी पड़ीं थीं। इस अजीब स्थिति के कारण उसका बार-बार पलक झपकने का मन करता... पर पानी छलकने के डर से वो उन्हें झपक नहीं पा रही थी। सो पलकों का सारा तनाव, उसके आँखों के नीचे पड़े गहरे, काले गढ्ढ़ों से सरकता हुआ होंठों तक आ गया था। सो होंठ कभी तन जाते कभी ढ़ीले पड़ जाते। चहरे के इतने तनाव में होने के बावजूद, कान असामान्य रुप से शांत थे, क्योंकि वो उदय की गोल-मोल बातों के आदी हो चुके थे। बाक़ी पूरा शरीर छूट के भाग जाने की ज़िद्द पर अड़ा था.. सो असामान्य रुप से ढ़ीला पड़ा हुआ था।
इति की निग़ाह अचानक उदय के हाथों पर पड़ी... इन सब में उदय की एक चीज़ जो इति को शुरु से अच्छी लगती है, वो हैं उदय के हाथ, जो आज भी वैसे-के-वैसे ही हैं, उसकी वो नर्म-गर्म लंबी उंगलियाँ, मखमली हथेली। इति के साथ इन सालों की यात्रा में उदय के हाथ वहीं के थे.... उन्हीं पुराने सालों के, जिन सालों में इति, इस संबंध को जीने के कारणों को बटोरा करती थी। कारण आज भी पूरे नहीं पड़ते...। ये संबंध पहले भी अमान्य था, आज भी अमान्य है। अब, इतने साल गुज़र जाने के बाद, इसमें संबंध जैसा भी कुछ नहीं रहा है। यह एक बीमारी हो गया है, जिसका इलाज इति, हर उदय की मुलाक़ात के बाद ढूँढ़ने में लग जाती है।
उदय के साथ सोये हुए भी इति को अब साल होने को आया है। ’यहाँ, उदय अब हम इसी पार्क में मिला करेंगें।’ इस बात की घोषणा इति ने ही की थी। इति को इस लंबी चली आ रही बीमारी में यह हल्की सी राहत देती थी।
’मैं लेखक हूँ।’ ये उदय शुरु से मानता रहा है। वो कभी भी अपना construction का काम छोड़कर सालों से अधूरा पड़ा उपन्यास लिखना शुरु कर देगा। इति ने तो अब उपन्यास का ज़िक्र करना भी बंद कर दिया है। पहले वह उदय को डरपोक, compromising वगैरह बोलती थी, पर अब वह बस उदय की तरफ एक बार देखती है और उदय बात पलट चुका होता है।
’मिली तुम्हारे बारे में पूछ रही थी? एक दिन घर मिलने आ जाओ...।’
अपनी बहुत सारी बातों के बीच में ही कहीं उदय ने अचानक अपनी बेटी का ज़िक्र छेड़ दिया।
’... और जिया..?’
इति ने सीधे उदय की आँखों में देखते हुए पूछा था। जिया, उदय की पत्नि है।
’उसे अपने टी.वी. सीरियल से फूर्सत ही कहाँ मिलती है।’
उदय ने ऎसे कहाँ, जैसे वो मौसम की बात कर रहा हो। इति को ये सब एकदम हास्यास्पद लगने लगा, वो सोचने लगी ’अब ये कैसे संवाद हैं, क्या है ये सब... इनसे कोई छुटकारा नहीं है।हर बार क्यों मुझे धूम फिर कर इन्हीं संवादों का सामना करना पड़ता है।“जिया कैसी है..?”,”मिली तुमसे मिलने की ज़िद कर रही थी”, यह क्या है, जिया उदय की पत्नि है और मैं उदय की कीप जैसी, नहीं... कीप जैसी क्यों, कीप कहने में मुझे अब क्या शर्म महसूस हो रही है। मैं कीप हूँ... रख़ैल।’
इति की निगाह उदय के चहरे पर गई... फिर होठों पे आकर ठहर गई... उदय के होठ किसी निरंतरता से बराबर हिल रहे थे, अपना कोई किस्सा सुनाने में व्यस्त। उसका एक हाथ, जो इति के हाथ में नहीं था, बीच में थोड़ा बहुत हिल जाता... शब्द कुछ अजीब फुसफुसाहट से मुहँ से निकल रहे थे।अगर यहीं इसी पार्क में इति, उदय के साथ दो दिन बैठी रहे, तो उदय दो दिन तक लगातार बोलने की क्षमता रखता है।पहले इति उदय की फुसफुसाती हुई बातों में पूरी तरह गुम हो जाती थी... ये बातें एक अजीब तरह का घेरा बनाती थी, जिसमें इति गोल-गोल धूमती रहती थी।अब उदय बोलता रहता है और इति, अपनी ही किसी गुफा में, उस इति को तलाश कर रही होती है जो बहुत पहले फिसल कर गुम गई थी।
’हम खर्च हो गये.. उदय।’-
पता नहीं इस बीच कब ये वाक्य इति के मूहँ से निकल गया।
’क्या...?’-
उदय अपनी बातों में शायद बहुत आगे जा चुका था.. कुछ देर बाद वापिस आकर उसने पूछा।
’तुमने कुछ कहाँ..?’
’नहीं..।’
इति ’नहीं’ भी नहीं कहना चाहती थी, वो सिर्फ सिर हिलाना चाहती थी, पर इस बार भी ये शब्द इति की इजाज़त लिए बगैर ही उसके मूहँ से निकल गया।
’इति, मैं तुम्हारे घर चलने की सोच रहा था, तुम्हारी माँ से मिले भी बहुत समय हो गया। वहाँ आराम से बैठके बात करते हैं।यहाँ पार्क में मुझे अजीब सा परायापन लगता है... मानों मैं तुम्हें जानता ही ना होऊं।’
ये उदय का पुराना गिड़्गिड़ाना है, जिसके तय स्वर हैं।घर में मिलो तो सेक्स के लिए, बाहर मिलों तो घर में मिलने के लिए, और अगर नहीं मिलो तो एक बार मिलने के लिए।इति भी पिछले एक साल से एक ही तय स्वर पर टिकी रहती थी-’ना कहना।’ उदय की लगभग हर गिड़गिड़ाहट पर वो यह ही सुर लगाती थी।
तभी बहुत धीमी गति से, डोलता हुआ एक सूखा पत्ता, पेड़ से नीचे गिर रहा था। इस पूरी स्थिरता इति उस पत्ते की आखिरी उड़ान देख रही थी... वह डोलता हुआ बहुत से पत्तों के बीच गिर गया। वह शायद गिरते ही उस पतझड़ में शामिल हो जाना चाहता था, जिसमें बाक़ी सारे पत्ते शामिल थे...। वह बाक़ी सारे पत्तों के बीच में था, लगभग उसी पतझड़ में था, फिर भी अलग था। उसे इति ने रोक रखा था.. इति की आँखों ने, जो उस पर आकर अटक गयी थी। वह कभी इस तरफ उड़ता कभी उस तरफ, पर इति की निग़ाह उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी।
अचानक इति को लगने लगा कि, उदय वो पत्ता है... जिसे वो उसकी पतझड़ में शामिल होने से रोके हुए है...। इस तरह, कभी-कभार उनका मिलना, उदय को अटकाए हुए है।
’फिर मैं क्या हूँ...’ इति सोचने लगी ’शायद मेरी भी कहीं अपनी पतझड़ है, यह मेरी सारी छटपटाहट शायद उस पतझड़ में गुम हो जाने का डर है, इसी डर से मैं बार बार उदय की निग़ाह ढ़ूढ़ती हूँ, कि वह रोक ले मुझे, इन पतझड़ के पत्तों में पूरी तरह गुम हो जाने से..।’
इति ने धीरे से अपना हाथ उदय के हाथ से अलग कर दिया।उदय चुप था। यह शायद उसकी बात खत्म होने के बाद की चुप्पी थी या नई बात शुरु करने के पहले की। इति ने उदय के हाथ से अपना हाथ तब हटाया जब उदय शांत था, सो उदय एक प्रश्नवाचक दृष्टि से इति को देखने लगा। ’हाथ क्यों हटाया?’ इसका क्या जवाब इति देती..? इति उन सारी बातों से बहुत पहले ही थक गई थी, जिनके जवाब कभी किसी के पास नहीं होते थे। उसके बदले बहुत सारे बहाने होते थे... दोनों मिलकर ढेरों बहाने पहले इकट्टठा करते थे.. फिर उन सारे बहानों का एक काग़ज़ का हवाई जहाज़ बनाते थे..फिर उसे उड़ाने के खेल में दोनों मसरुफ़ हो जाते।
-’उदय भूख लगी है.. कुछ लाओगे खाने को..।’
-’चलो कहीं चलकर खाते हैं।’
उदय खड़ा हो गया था।
-’एक समोसा बस.. और हाँ पानी भी लाना प्लीज़।’
इति के आग्रह में आदेश जैसी कठोरता थी, सो उदय थोड़े संकोच के बाद ’ठीक है’ कहकर चला गया।
उसके जाते ही इति ने एक गहरी साँस ली। उदय का होना उसके लिए इतना भारी था कि उसके जाते ही उसे लगा जैसे वो पहाड़ चढ़ते-चढ़ते अचानक समतल मैदान में चलने लगी है।उसकी इच्छा हुई कि वो इसी बेंच पर थोड़ी देर लेट जाए... पर वो इस समतल मैदान में चलना चाहती थी..।
इति बेंच से दूर, पार्क के दूसरी तरफ चली गई। यहाँ वो पहले कभी नहीं आई थी। उसे बच्चों के झूले दिखे... ये झूले उसे बेंच से नहीं दिखते थे। उस बेंच और झूलों के बीच, वो घना पेड़ था, जिसके पत्ते पतझड़ में शामिल हो रहे थे।इति को एक बच्ची की हँसी सुनाई दी, जो झूला झूल रही थी। उसने देखा एक लड़का... जो शायद उसका भाई था, वो उसे झूला झुला रहा था। उसकी हँसी में डर का कंपन था, गिर जाने के डर का कंपन। वो लड़का, अपनी पूरी ताकत से झूले को धक्का दे रहा था। इति उस लड़के को रोकना चाहती थी।तभी उस लड़की की हँसी में से डर का कंपन गायब हो गया। हर झूले की उछाल पर, उस लड़की की हँसी और तेज़ होने लगी।उस लड़के ने अचानक झूला झुलाना बंद कर दिया। झूला धीमा पड़ने लगा... और धीमा होते-होते वो रुक गया। लड़का भागता हुआ,दूसरे झूले पर बैठ गया। लड़की उसे मनाने भागी, उसे झूला झूलने में मज़ा आने लगा था... शायद वो और झूलना चाहती थी।लड़के की दिलचस्पी उसे झूला झुलाने में तभी तक थी जब तक वो डर रही थी... पर लड़की उसकी मनऊवल में लगी हुई थी... चिड़ के, डाँटकर, रो कर। पर वो नहीं माना। वो लड़की धीमी चाल से चलती हुई वापिस उस झूले में आकर बैठ गई। वो कुछ देर चुपचाप बैठी रही।इति के होंठ फिर तनने लगे,आँखों में जलन सी शुरु हो गई।उसने तय किया कि वो उसे झूला झुलाएगी।वो आगे बढ़ी पर उसके पैर नहीं उठे... वो वहीं खड़ी रही।उसे ये किसी नाटक का बहुत धीमी गति से चलने वाला एक दृश्य लगा... जिसे वो सिर्फ दर्शक बनकर देख सकती है।वहाँ मंच पर जाकर जी नहीं सकती। तभी उस लड़की ने ज़मीन पर पैर मारना शुरु किया। धीरे-धीरे झूले की रफ़्तार तेज़ होने लगी। लड़की की हँसी इति के कानों में बजने लगी।इस बार भी उस लड़की की हँसी में डर था, पर वो डर, हँसी के घर में दरवाज़े जैसा था, जिसे उस लड़की ने खोल रखा था। झूला झूलते हुए, उस घर में हँसी एक हवा की तरह प्रवेश करती और डर का दरवाज़ा काँपने लगता।
वो लड़का भी, लड़की की हँसी की आवाज़ सुनकर, उसके झूले के पास आकर खड़ा हो गया था। पर उस लड़की को अब किसी की परवाह नहीं थी, हर बार ज़मीन पर पैर मारने से झूले की उछाल और बढ़ती जाती... वो झूले जा रही थी..तेज़.. और तेज़..और तेज़।
-’अरे, तुम यहाँ हो, मैं तुम्हें पूरे पार्क में ढूँढ़ रहा था।’
इति को लगा, जैसे वो झूला झूलते-झूलते गिर पड़ी।
-’तुम पानी लाए?’
उदय ने इति को पानी दिया और उसने लगभग एक बार में पूरी बोतल खाली कर दी।दोनों वापिस बेंच की तरफ चलने लगे।इति की साँस थोड़ी तेज़ चल रही थी मानो वो कहीं से भाग कर वापिस आई हो।
-’उदय तुम्हें याद है ना मुझे रोस्कोलनिकोव बहुत पसंद था।’(crime and punishment-Dostoevsky)
-’हाँ।’
उदय हाथ में समोसों की थैली लिए था।इति ने पानी की बाँटल कचरे के डिब्बे में फेंक दी, पर वो अभी भी झूले में ही बैठी थी।
-’कहाँ जा रही हो, बैठोगी नहीं?’
इति आगे निकल चुकी थी... वो वहाँ नहीं बैठना चाहती थी, जहाँ वो पहले बैठे थे।
-’वहाँ आगे वाली बेंच पर बैठते हैं।’
इति कुछ और चाहती थी। घटे हुए से अलग... कुछ दूसरा... जो उसके भीतर कहीं घट रहा था।
-’तुम्हें अचानक दोस्तोवस्की कैसे याद आ गया?’
उदय ने बैठते हुए पूछा। वो समोसा निकालकर इति को देने लगा, इति ने मना कर दिया।
-’एक हत्या के बाद, जिसे उस हत्या करने के पहले, बहुत से कारण देकर हम सही सिद्ध कर चुके होते हैं, उस हत्या के बाद, हम ना जाने और कितनी हत्याएँ ओर करते हैं।हे ना।’
ये इति उदय से कहना चाहते थी, पर उसने ’ऎसे ही..’ कहकर बात टाल दी।दोनों बेंच पर बैठ गए थे... यहाँ से इति को वो बच्चों के झूले साफ दिख रहे थे।पर वो लड़की वहाँ नहीं थी... बस खाली झूले लटके पड़े थे।
इति उदय से उस लड़की के बारे में पूछना चाहती थी... ’कहाँ चली गई वो?’, ’क्या वो वहाँ थी भी या मैं ही उसे देख रही थी?’। उसने उदय को देखा...उदय अपने किसी किस्से में, कहीं ओर ही जा चुका था... इति की निगाह फिर उसके होठों पर गई, वह अपनी निरंतरता से हिल रहे थे।
एक लम्बें समय तक साथ रहने के बाद... हमारे किसी भी संबंधो में शब्द खत्म हो जाते हैं... शब्द, संगीत हो जाते है। शब्दों का महत्व ख़त्म हो जाता है। शायद यह वह संगीत ही है जो इति को कहीं ओर ले जाता है...। अचानक इति को उस पत्ते की याद हो आई, जो पतझड़ में शामिल नहीं हो पा रहा था। वह उसे कहीं नहीं दिखा, वह शायद अपनी पतझड़ में शामिल हो चुका था।इति के चहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई,वह अभी भी उस रुके हुए झूले में बैठी थी, वो पूरे पार्क को देखने लगी... इस, चारों तरफ फैले कांक्रीट के जंगल में, एक हरा टापू...। उसने पहली बार कब इस पार्क को देखा था। उसे ठीक से याद नहीं... हाँ शायद उसकी नौकरी का पहला दिन... उस दिन उसने उदय के साथ, इसी पार्क के गेट के सामने चाय पी थी।तब तक इति और उदय महज़ अच्छे दोस्त थे... अच्छे दोस्त की सीमाओं को उन्होने, इति की पहली तनख्वाह मिलने के दिन ही लंगना शुरु किया था। उस दिन इति, उदय को dinner पर ले गई थी...786 नम्बर का एक सौ रुपये का नोट इति को,अपनी तनख्वाह के नोटों के बीच दिखा था।उदय ने वो नोट इति से लिया और उसे चूम लिया.. कहाँ ’ये एक नई शुरुआत की निशानी है, इसे संभालकर रखना।’आज भी इति के पर्स की चोर जेब में वो नोट उसने संभालकर रखा है।
इति ने अपना पर्स खोला और उस नोट को देखा... वो वहीं था... वैसा का वैसा...।
-’उदय, मैं तुम्हें dinner पे ले जाना चाहती हूँ... चलोगे?’
उदय को इति के इन छोटे-छोटे excitement’s की आदत थी.... उसने कभी इन उत्तेजनाओं के पीछे की कहानी नहीं जाननी चाही...। पर इस बात से वो खुश था।
-’ठीक है... पर मैं तुम्हें लेकर चलूगाँ...।’
-’नहीं... ये मेरी तरफ से है.. और हम उसी होटल में जाएगें जहाँ मैंने तुम्हें पहली बार डिनर कराया था... हम वहीं बैठेगें... उसी टेबिल पर, वो ही सब कुछ आडर करेगें... जो हमने उस दिन खाया था।... मैं वेटर को सौ रुपये टिप देना चाहती हूँ।’
-‘वेटर को सौ रुपये टिप?’
-’जब हमने पहली बार वहाँ डिनर किया था, तभी मुझे उसे सौ रुपये की टिप देनी चाहिए थी... नहीं दे पाई..। वह मैं उसे अब दे दूगीं।’
इति ने जब-जब इस 786 वाले नोट को याद किया है, उसे हमेशा ’हम खर्च हो गए’ वाली बात याद आई है।उदय शायद उस सौ रुपये को बहुत पहले ही भुला चुका होगा। उसने उस दिन की मोटी-मोटी बातें छेड़ दी जब वह दोनों पहली बार वहाँ dinner पर गए थे, बातों ही बातों में उदय तुरंत, दोनों के साथ सोने वाली बात पर पहुँच गया। इति के लिए उदय का संगीत फिर शुरु हो गया। अचानक इति को लगा कि...उसने ज़मीन पे एक पैर मारा है... उसका झूला... चीं... चूं... की आवाज़ करता हुआ हिलने लगा है।... उसे उदय का संगीत सुनते हुए लगा जैसे एक तेज़ हवा का झोका आया.. और उसने पूरे पत्तों को हवा में उड़ा दिया। यह सब इति के साथ पहली बार हो रहा था। फिर उसने देखा कि वो.. तेज़ भागती हुई कहीं से आई और उन उड़ते हुए पत्तों के बीच उसने नाचना शुरु कर दिया, धीमा... बहुत धीमी गति से चलने वाला कोई नाच, उसने नाचते-नाचते हँसना शुरु कर दिया। वो खुद को नाचते हुए देख रही थी, और झूले में तेज़... बहुत तेज़ झूलती हुई हँसे जा रही थी...।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल