Thursday, April 29, 2010
फ्रिज में रखा हुआ सुख...
किसी कविता का फिर से पढ़ा जाना जो सुख की गुदगुदी पैदा करता है वह उसका पहली बार पढ़ा जाना नहीं करता है। पहली बार का आश्चर्य होता है। दूसरी बार में अपनापन शामिल रहता है। मैं भी बड़े अपनेपन से अपनी कुछ कविताए दुबारा पढ़ता हूँ। दौबारा वही सुख, उसी अपनेपन की तलाश मुझे अपने ही जिए हुए अनुभव की तलाश जैसी लगती है, जो बहुत ही हास्यास्पद है। मानों अपनी बचपन की किसी ब्लैक-एंड-व्हाइट तस्वीर में दौबारा घुसने की कोशिश करना।
तो कैसे हमें ’सुख’ शब्द पता है... सुख शब्द की कुछ कहानिया हमने पढ़ी है, कुछ किस्से सुने है, कुछ लोगों को कर्तब करते देखा जिन्हें बाद में उन्हीं लोगों ने सुख का नाम दिया है... और कुछ वह है जो इस परिभाषा में हुए हमारे जीए हुए क्षण है....। हम इन्हें ’सुख’ के फ्रिज में डाल देते हैं...। वहाँ सुख खराब नहीं होगें... वहाँ हमने सुख के पहले अनुभवों को संभालकर रखा है। जब भी हम अपने जीने में सुख जैसी कोई छु लेते है तो तुरंत अपना फ्रिज टटोलते हैं... ’हाँ यह सुख ही है।’ की आह से हम सुखी हो जाते है।
कल नाटक खत्म होने के बाद, रिक्शा में अकेला, एक बीयर की बोतल के साथ हाईवे पर, घर की ओर चला जा रहा था... देर रात...। रिक्शा वाला बहुत ही धीमें रिक्शा चला रहा था...। अचानक एक शांति... शांति नहीं, कुछ ओर... शांति जैसी कुछ... ठीक सुख भी नहीं... खुशी भी नहीं... ऎसा कुछ भी नहीं जिसे अपने अनुभव के फ्रिज में हाथ डालकर, टटोलकर छू सकूं... कुछ ओर... तसल्ली सा... कुछ... महसूस हुआ।
देर रात घर में पहुंचकर मैं काफी देर तक भीतर टटोलता रहा... क्या था वह? मैं नहीं बयान कर सका...। चूंकि मेरे अनुभव के बाहर का वह कुछ था सो उसे फ्रिज में भी नहीं ठूसते बना... तो क्या होगा इसका? बहुत देर तक मैं सोचता रहा.... हल्का गुस्सा भर आया, इच्छा हुई कि अपने फ्रिज को एक झटके में पूरा का पूरा कूड़े में उड़ेल दूं... क्योंकि यही है जो मुझे बार-बार एक जैसा जीने पर मजबूर करता है....। पर यह दोग़्लापन होगा... फ्रिज यूं ही.. इतनी आसानी से खाली नहीं होते... इसके लिए बच्चा हो जाने जितनी पवित्रा चाहिए...। एक नए तरीक़े के, अपरिभाषित सुख ने... मुझे उतना सुख नहीं दिया जितना... पुराने सुखों को सड़ान में बदल दिया?........................................................।
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मानव
परिचय
- मानव
- मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल
6 comments:
इसे फ्रिज में नया एडीशन ही मान लें..शायद फिर कभी ऐसी ही अनुभूति हो...
उम्दा लेखन!
अद्भुत .......शानदार लेखन है ....इन विचारो को बस बहने दो यार......
बहुत कुछ बोलती रचना है ये
bahtrin bahut khub
badhia aap ko is ke liye
shkehar kumawat
अतिसुंदर और सरल ढंग से मन के विचारों को अभिव्यक्त किया है ..यह सरलता बड़ी दुर्लभ है मित्र . .शब्दों का चयन और वाक्य विन्यास सुंदर बन पड़े हैं. ..लवली
अब मै वो ज़ज्बा - ए - मासूम कहा से लाऊ...
फ़्रिज मे बन्द पडी ’सुख की परिभाषाये’. वाह!!
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