Wednesday, April 7, 2010
red sparrow... (play...)
30th jan 2010...
सही-सही और स्पष्ट-स्पष्ट कह देना भाई....:-)
Red sparrow के shows खत्म हुए...नाटक बहुत से लोगों को समझ में नहीं आया... नाटक के बाद बहुत से लोगों से बात हुई... सभी लोगों ने अपनी-अपनी समस्याए बताना चालू की... मैं शांत था... मुझे लगा कि मेरा शायद कुछ भी कहाँ गया बहाना लगेगा। सो मैं लगभग समर्थन में सिर हिलाता रहा…. जो पीड़ा था। खैर इसके अलावा बहुत कुछ कर सकने की वहाँ जगह भी नहीं थी। मेरे हिसाब से नाटक celebration जैसा कुछ है... बहुत सी चीज़ो का.. और उसे उसी गति से direct भी किया गया है... जितना दिखता है उससे बाहर उसका कोई अस्तित्व नहीं है। लोग कह रहे थे कि ’जो तुम कहना चाहते हो वह हम समझ नहीं पाए’। अरे भाई मैं कुछ भी नहीं कहना चाह रहा था... यह सब fun की तरह पिरोया और प्रस्तुत किया गया था। यह बात अलग है कि इसमें बहुत से छोटे-छोटे connections हैं, जिनका स्वाद मैंने लिखते और direct करते हुए चख़ा है। जिन्हें वह समझ में आएगें वह बहुत ही प्रसन्न होगें और जिन्हें नहीं... उनसे भी कोई समस्या नहीं है क्योंकि नाटक का निर्देशन कुछ इस तरह किया गया है कि... उसके परे भी आपको जो कुछ नज़र आता रहे....उसके अपने साफ सुथरे सत्य हैं। मैं समझ सकता हूँ कि कितने लोगों ने Charles bukowski को google किया होगा... नाटक के बाद.. हा..हा...हा। फिर कुछ इस तरह के लोग भी आए जिन्हें नाटक बहुत पसंद आया... पर उन्हें हमारे चहरे पर बहुत से शक़ दिखे सो वह सभी बहुत आगे बढ़ बढ़ के तारीफ करने लगे जिसे हमने सहर्ष ग्रहण किया। इस नाटक में हम जितने भी writers के नाम लेते है... उन नामों के कारण एक तरह का गमभीर वातावण तैयार हो जाता है.. खासकर उन लेखकों के कारण जिनका नाम लोगों ने सुना ही नहीं है... उस वजह से वह इस नाटक को कुछ और समझते हैं जो वह है नहीं...शायद।
कहीं तो मैंने पढ़ा था कि ’आप वह ही दुनियाँ बनाते हो जिसमें आप रहते हो...।’ मैं इस बात को थोड़ा सा आगे बढ़ाना चाहता हूँ कि... ’मैंने एक दुनियाँ बनाई है... मैं उसी में रहता हूँ और जो भी करीब आता है वह वही देखता है जो यहाँ इस दुनियाँ में बचा पड़ा है। जो मैं लिखता हूँ वही मैं हूँ उसके बाहर मेरा कोई अस्तित्व नहीं है।’ कहानी ना कहने का एक प्रयोग जिसका मैं बहुत समय से प्रयास कर रहा था... वह ’पार्क’ और ’red sparrow’ में पूरा होता सा दिखा है।
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मानव
परिचय
- मानव
- मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल
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