Sunday, April 25, 2010

निर्मल और मैं....


निर्मल- क्या भाई अकेले-अकेले ही चाय पी लोगे... एक मेरे लिए भी बना दो?
मैं- वाह! बड़े दिनों बाद... बैठिये मैं चाय चढ़ाता हूँ।
निर्मल- तुम जगह ही नही दे रहे हो? ना तो आने की और ना अभी बैठने की?
मैं- यहाँ बैठिये... आईये।
निर्मल- कितने टुकड़े हैं..? और कितने जुड़ चुके हैं?
मैं- टुकड़े ही टुकड़े हैं। जोड़-घटाने का हिसाब हमेशा शेष रह जाता है। मैं उस और ध्यान नहीं देता।
निर्मल- हम सब हिसाबी है। हम सब हर चीज़ का हिसाब रखते चलते है... कितना खेल चुके है, कितना बक़ाया है, इसका गुणा-भाग लगातार हमारे दिमाग़ में चल रहा होता है।
मैं- निर्मल जी कुछ चीज़े पीढ़ियों से चली आ रही हैं। यह हमारे इस धरती पर बने रहने के इतिहास का हिस्सा है...। इससे अलग होना मुश्किल है। अब हम क्या कर सकते है इस जवाब का जो हमें बहुत पहले मिल चुका है कि अंत में फैसले का दिन आएगा और वहाँ सबका हिसाब किताब होगा...। तो बस अब हम लाचार है और पूरी ज़िन्दग़ी “हम ग़लत नहीं है” के सिक्के जमा कर रहे होते हैं।
निर्मल- यह क्या किताब है...?
मैं- दूधनाथ सिंह की... अच्छी है।
निर्मल- और ..क्या पढ़ रहे हो आजकल?
मैं- दूधनाथ सिंह पढ़ रहा था... फिर चेख़व के नाटक... और एक बर्नाड शॉ का नाटक.. कुछ टूटा फूटा सार्त्र भी... सार्त्र अभी-अभी खरीदकर लाया हूँ।
निर्मल- नई कहानी में कुछ स्थिरता है।
मैं- यह आप पूछ रहे हैं या बता रहे हैं?
निर्मल- बता रहा हूँ।
मैं- हाँ, मैंने महसूस किया था उसे लिखते वक़्त... अभी आज ही नई कहानी शुरु की है..। उसके बारे में सोचते हुए अच्छा लग रहा है। निर्मल जी मैं आपसे यह पूछना चाह रहा था... कि जैसे यह कहानी जिसकी अभी मैंने शुरुआत ही लिखी है... इस वक़्त इतना सुख दे रही है कि मैं बता नहीं सकता। और यह सुख अजीब सी मीठी खुजली है जो हड़्ड़ीयों में होती है.. ऊपर खुजाने से वह मिटती नहीं है... मतलब उसे किसी को बयान भी नहीं किया जा सकता है। लगभग मैं हर जगह एक छोटी सी मुस्कान लिए होता हूँ। पर कहानी के पूरा होते ही एक अजीब सी दूरी उससे बन जाती है। कभी-कभी इच्छा होती है कि कहानियाँ पूरी ही ना की जाए उसे कहीं अधूरा छोड़कर उठ जाना चाहिए... जिससे उस कहानी में मैं बना रहूँ... उस कहानी से मैं खत्म ना हो जाऊं।
निर्मल- वैसे कहानी खत्म होने के बाद भी, कहानी बची रहती है...उसके पूरे सत्य वहाँ नहीं होते, कुछ सिर्फ तुम्हारे पास ही बने रहते हैं... जब कभी तुम उस कहानी पर वापिस जाते हो, तब तुम वह कहानी नहीं पढ़ते हो, तुम उसके बीच में धीमी गति से सांस लेते हुए सत्य छुते हो.. और तुम्हें अच्छा लगता है। लेखक के पास इससे ज़्यादा और कोई सुख नहीं है।
मैं- चाय थोड़ी कड़क बन गई है? है ना?
निर्मल- ठीक है, शक्कर थोड़ी ज़्यादा है।
मैं- छोड़ दीजिए मैं दूसरी चाय बनाता हूँ।
निर्मल- रहने दो मुझे अच्छी लग रही है।
मैं- जल्दबाज़ी में चाय भी ठीक से नहीं बना पाया। आपसे मिलने की उत्सुक्ता थी।
निर्मल- चलो मैं अब जाता हूँ... तुम्हारी नई कहानी का इंतज़ार रहेगा... “स्थिर” शब्द: “स्थिर” ध्वनीश:।
मैं- हं... हं... ह॥

6 comments:

अनिल कान्त said...

कभी कभी बहुत कुछ ऐसा होता है...जो अपने से ही बात करने जैसा होता है ....तुमने नायाब तरीका अपनाया है

@ngel ~ said...

har lekhak ka sach hai shayad jis per wp sirf aashcharya karta hai bayaan nahi kar pata.. bahut achha likha hai.. :)

nidhi said...

anaayaas hi aapke blog pr pahunch gayi or pdhaa.bahut sundar lgaa..usse bhi khaas baat ki molik lekhan hai

Himanshu Pandey said...

निरन्तर पढ़ता रहा हूँ आपको रीडर में! पढ़ कर चुप रह जाना कई बार होता रहा । इस प्रविष्टि ने बुला लिया यहाँ !
खूबसूरत और अत्युत्तम !

सागर said...

I Love This Blog.. Just Great

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

:)

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल