Thursday, May 20, 2010

‘अभी-अभी’ से ’कभी-का’ तक....


‘अभी-अभी’ से ’कभी-का’ तक....




सूरज ने कहा कि ’देर रात की बात थी। हम सब घबरा गए थे। कुछ समझ में नहीं आया क्या करें। तू समझ रहा है ना?’
मैं नहीं समझ रहा था। बहुत धुंधला सा सूरज दिख रहा था उसके चहरे पर मूछ नहीं थी। मैंने दो बार ज़बान पलटानी चाही कि उससे पूछू तेरी मूंछ का क्या हुआ? पर पलटा नहीं पाया। ’घों..घों...’ की आवाज़ मुँह से निकलती रही। सूरज मेरे बहुत पास आ गया। उसने अपने कान मेरे मुँह पर लगाभग चिपका दिये। मूंछ.. मूंछ... मूंछ... मैंने कई बार ज़ोर लगाकर कहाँ कि एक बार हलका निकल आया। धुंधला सा सूरज अलग हो गया... और हंसने लगा...। फिर मुझे कुछ और लोगों की हंसी सुनाई दी। उसके बगल में मेरे कुछ और दोस्त भी खड़े थे। शायद हंसा.. नील... और... और.. मेरी आँख वापिस बंद होने लगी, धीरे-धीरे सब गायब हो गया।
.........
सभी कुछ सफेद था। सामने की खिड़की से बहुत सारा प्रकाश भीतर आ रहा था। हरे पर्दों के बीच उस प्रकाश का तेज थोड़ा कम हो गया था। मुझे हमेशा हस्पताल का सारा वातावरण किसी नाटक का सेट जैसा कुछ लगता है। दोनों तरफ दरवाज़े हैं... मानों मंच पर आने-जाने का रास्ता। बीच में पूरा मंच खुला पड़ा है और अपने-अपने रोल सभी बखूबी निभा रहे हैं। एक नर्स ट्रे लेकर भीतर आती है... उसकी चाल ढ़ाल से लगता है कि उसे ज़बर्दस्ती यह रोल दे दिया गया है, वह यह रोल नहीं करना चाह रही थी। उसे शायद डॉक्टर बनना था। सामने के कुछ मरीज़ जो मुझे दिख रहे थे वह सभी बिलकुल मरीज़ो जैसे नहीं हैं... वह कराह नहीं रहे हैं, वह.. बस पड़े हुए हैं। मेरे बगल में एक प्लास्टिक बेग में कुछ फल रखे हुए हैं...। वह ट्रे वाली नर्स मेरे सामने से निकली.. मेरी आँखे खुली देखकर वह रुक गई।
’कैसे हो?”
मैं उसे घूरता रहा।
’तुम ठीक है?’
मैं नहीं मुस्कुराने जैसा मुस्कुरा दिया। वह कुछ देर यहाँ-वहाँ चीज़े टटोलती रही फिर चली गई। मुझे लगा कि मैंने एक काबिल मरीज़ की भूमिका ठीक से नहीं निभाई। मुझे उससे सवाल करने थे कि मैं यहाँ कब आ गया? कौन लाया मुझे? मुझे क्या हुआ है? पर मैंने कुछ भी नहीं पूछा।
’आपने मेरा चश्मा देखा?’
मैंने अपने दाहिनी ओर देखा एक बुज़ुर्ग मेरे बग़लवाले बेड़ पर थे...। वह कुछ बेड़ के नीचे घुसने की कोशिश कर रहे थे। मैं कुछ देर उन्हें देखता रहा।
’अरे यहीं रखा था अभी...। कहाँ चला गया? इधर कुछ भी नहीं मिलता है।’
वह किसी से भी बात नहीं कर रहे थे और सब से बात कर रहे थे। उनके हाथ में एक किताब थी.. फटी हुई। वह किसी किताब का बीच का हिस्सा जान पड़ता था। उस किताब के बीच से एक पीपल का सूखा हुआ पत्ता भी झांक रहा था...। मैं करवट लेकर दूसरी तरफ पलट गया... मैं किसी भी चीज़ का हिस्सा नहीं होना चाहता था। मैं शायद सच में यह मानने लगा था कि यह एक नाटक चल रहा है। अगर ऎसा है तो मैं इस नाटक में महज़ दर्शक बना रहना चाहता हूँ। मैं किसी भी घटना का हिस्सा नहीं होना चाहता। करवट बदलते ही मुझे बांय हाथ की तरफ दरवाज़े से भीतर आती हुई एक औरत दिखी... उसने बहुत पुरानी पीले रंग की साड़ी पहने हुई थी, चोटी इतनी कसकर बाधीं थी कि चहरा मांग से नाक की रेखा में.... दो अलग-अलग तरफ खिच गया था। उसके एक हाथ में रंग का एक डिब्बा था और दूसरे हाथ में कूंची..(कूंची जिससे पुताई की जाती है।) उसने कूंची को रंग में डुबोया और डरी हुई दीवार के कोनों की तरफ बढ़ गई। धीरे-धीरे उसने उस दीवार कोने को रंगना शुरु किया... नीला... सुंदर नीला रंग.. जैसा पहाडों में आसमान का साफ नीला रंग होता है वैसा नीला रंग धीरे-धीरे दीवार के कोने में फैलने लगा। ट्रे पकड़े एक नर्स भागती हुई आई और उसने उस औरत को कमर से पकड़ा और खींचती हुई बाहर ले गई... उसने जाते-जाते दो तीन हाथ दीवार पर मार ही दिये... और कूंची से नीला आसमान ज़मीन पर टपकता हुआ... बाहर चला गया। इस हलचल का कमरे पर कोई असर नहीं हुआ। कुछ मरीज़ों ने उस ओर देखा... और फिर वापिस अपने मरीज़िय अभिनय में घुस गए। मैं उस कोने को ही देख रहा था.. अब इस कमरे की मटमैली सी सफेद दीवार का एक कोना नीला था... आसमान जैसा नीला टुकड़ा इस सीलन भरे कमरे में उग आया था। मैं सीधा लेट गया। किसी भी घटना का हिस्सा नहीं होना कितना मुश्किल है... उसे देखना भर हमें उसका हिस्सा बना देता है... उसे सुनना हमें उसका हिस्सा बना देता है... कैसे बिना किसी भी चीज़ का हिस्सा बने हम रह सकते है। मैं दर्शक हूँ बस...मात्र दर्शक उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं। मैंने फिर दर्शक बने रहने की कसम खाई और अपनी आँखें बंद कर ली।
............
जब आँख खुली तो नील सामने खड़ी थी। उसके हाथ में पीपल की एक सूखी हुई पत्ती थी। धीरे से उसने वह पत्ती मेरे तकिये के बगल में रख दी।
’तुम अब ठीक लग रहे हो।’
बगल में ही एक स्टूल रख था जिसे मैंने अभी तक नहीं देखा था, उसे खिसकाकर वह मेरे पास बैठ गई।
’हाँ मुझे भी अब ठीक लग रहा है।’
’तुम्हार कुछ हिसाब बचा हुआ है।’
’हिसाब?’
’जब तुम्हारी तबियत बिगड़ गई थी तो मैं हिसाब लगा रही थी... तुम्हारे ऊपर कुछ चीज़े निकलती है। चिंता मत करो.... जब तुम पूरी तरह ठीक हो जाओगे तो उस बारे में मैं बात करुगीं।’
’मैं अब ठीक हूँ... तुम कह सकती हो।’
’मैं इस तरह कहना नहीं चाहती...।’
’किस तरह?’
’मतलब... यह अच्छा नहीं लगता है ना... तुम हस्पताल में हो और मैं हिसाब लेकर बैठ गई।’
’किसे अच्छा नहीं लगता? कौन देख रहा है? यहाँ कोई ओर भी दर्शक है?’
वह चुप हो गई। मुझे लगा मुझे उससे दर्शक वाली बात नहीं कहनी थी। वह कुछ आतंकित हो गई। मानों उसे लगा हो कि मैं अभी भी ठीक नहीं हुआ। उसने वापिस पीपल की पत्ती मेरे तकिये के पास से उठा ली और उससे खेलने लगी।
नील को मैं कब से जानता हूँ...? कैसे वह मेरे जीवन का हिस्सा है? कितने हिसाब-किताब हो चुके है इसके साथ? मैंने बहुत ज़ोर दिया... कुछ एक कमरे याद आए, कुछ बिस्तर, उनपर बिछी हुए अलग-अलग रंग की चादरे.. बालकनी, बालकनी के बाहर जाती हुए सड़क, फिर बिस्तर, फिर.. फिर... सूरज। सूरज और नील दोनों हाथ में हाथ डाले हुए सड़क के किनारे चलते हुए। कुछ बहसें, कुछ शिक़ायते... बिल्ली, आँसू, थकान.. रतजगे.. अकेलापन, खालीपन, मौन।
‘सूरज कहाँ है?’
’वह शाम को आएगा।’
’मुझे हुआ क्या है?’
’तुम ठीक नहीं हो।’
’वह मैं भी जानता हूँ इसीलिए तो हस्पताल में हूँ.. पर मुझे हुआ क्या है?’
’डॉक्टरों का कहना है तुम ठीक नहीं हो.. और तुम्हारे टेस्ट चल रहे हैं।’
’कैसे टेस्ट?’
’वही नार्मल.. ब्लड, युरिन.. वगैराह।’
‘इसमें वह पता क्या कर रहे हैं?’
’वह तुम्हें डॉक्टर ही ठीक से बता पाएंगे।’
’तुम कैसी हो?’
’अच्छी हूँ....।’
’अच्छी हूँ’ कहकर वह बगले झाकने लगी। किसी भी पुराने इशारे को वह साफ नकार देना चाहती थी, जैसे कुछ घटा ही ना हो। उसका हाथ मेरे बिस्तर पर ही था, इच्छा हुई कि धीरे से उसे छू लूं... बाद में माफी मांग लूगा। मैंने हाथ आगे बढ़ाया पर वह हिला नहीं... थोड़ा और ज़ोर लगाया फिर भी कुछ फर्क नहीं पड़ा।
’नील मेरा दाहिना हाथ...।’
तभी मेरा हाथ हिला और मेरे हाथ ने बिना मेरी पूर्वाअनुमति के, नील का हाथ कसकर पकड़ लिया... जकड़ सा लिया। नील घबरा गई, वह अपने स्टूल से उठकर खड़ी हो गई। मैं खुद हाथ छुड़ाना चाह रहा था पर नील चीख़ने लगी...। ट्रे वाली नर्स भागती हुई भीतर आई... उसने छुड़ाने की पूरी कोशिश, मैं खुद बहुत ज़ोर की कोशिश कर रहा था। उस ट्रे वाली नर्स ने ट्रे से मेरे हाथों पर वार किया... जब उन वारों से कुछ नहीं हुआ तो उसने कुछ वार मेरे सिर पर किये। अचानक हाथ छूटा और मैं बिस्तर पर निढ़ाल सा पड़ गया।
…………..
रोज़ के इग्जेक्शन बढ़े, कुछ दवाईया भी ज़्यादा हो गई, दोस्त आना कम हो गए। बीच में सूरज आया था... मैं उससे पूछता रहा कि तूने मूंछ क्यों कटवा ली पर वह कहता रहा कि कहाँ मूँछ तो है। जब भी मैं उससे कहता कि नहीं मूँछ नहीं है... वह हंसता और मेरे बग़ल में पड़े हुए बुज़ुर्ग़ की तरफ देखने लगता। वह बूढ़ा आदमी सूरज को घूरता रहा। जब बात मूँछ पर अटक ही गई तो सूरज ने फिर आने का वादा किया और चल दिया। उसके जाने के कई दिनों बाद... एक रात मेरी आँखें खुली तो देखा वह बूढ़ा मेरे पलंग पर बैठा हुआ मेरे चहरे पर कुछ पढ़ने की कोशिश कर रहा है। मैं एक छोटी चीख़ के साथ उठ बैठा...। वह बूढ़ा वैसे ही मुझे देखता रहा फिर मेरे ओर करीब आकर उसने कहाँ... ’मूँछ नहीं थी....’ ओर अपने पलंग पर जाकर लेट गया। उस रात मुझे बहुत देर तक नींद नहीं आई।
……………
कहीं से पानी के बहने की आवाज़ आ रही थी। करीब दो मीटर की ऊंचाई से वह गिर रहा था। उसके गिरने के बीच कोई रुकावट भी थी.. शायद कोई पत्थर...ईंट.. दीवार... पाईप। यूं मुझे लोगों के चलने की आवाज़ कमरे में नहीं आती थी... पर इस पानी के कारण.. वह सुनाई देने लगी थी। जब भी किसी का पैर पानी पर पड़ता तो ’छ्प’ से आवाज़ आती.. फिर बहुत दूर तक मैं उस ’छ्प... छ्प..छ्प....’ का पीछा करता रहता। कमरे के बाहर का रास्ता दांए और बांए दोनों तरफ मुड़ता था। यह मुझे पेर की आवाज़ों से पता चला। left की तरफ जाने वाले बहुत से लोग थे... लगभग अस्सी प्रतिशत या उससे भी ज़्यादा... मैं उन्हें चप्पल वाले लोग कहता। सभी लगभग चप्पल पहने होते... और right की तरफ कम ही लोग जाते थे.. बूट वाले.. उनकी आवाज़ में ’छ्प...छप” नहीं.... ’खट.. खट’ थी..। जब भी कभी ’खट.. खट’ की आवाज़े आती तो सारी चप्पलों की ’छप..छप’ की आवाज़े धुंधली पड़ जाती। ’छ्प’ आवाज़ों के चहरों की कल्पना आसान थी। वह सामान्य लोग थे.. हर ’छ्प...’ की आवाज़ आते ही मुझे उस आवाज़ का चहरा भी दिखने लगता। ’छप..छप’ की आवाज़ों के भाव भी मैं पकड़ लेता पर ’खट...’ की आवाज़ का कोई चहरा नहीं था... होगा शायद, मगर मेरी कल्पना उसे पकड़ने में असमर्थ थी।
’अरे मेरा चश्मा... मेरा चश्मा देखा क्या?’
मुझे फिर बूढ़े की आवाज़ आने लगी। मैंने उसकी तरफ पलटकर देखा... इस बार वह मुझसे सीधे पूछ रहे थे। दर्शक बने रहना आसान नहीं है... खासकर जब आपके पास खुद करने के लिए कुछ भी ना हो और आपके अगल-बगल इतने बहतरीन अभिनेता अभिनय कर रहे हो।
’चश्मा आपके सिर पर पड़ा है।’
उनका हाथ सिर पर गया। उन्हें चश्मा मिल गया। वह उसे कुछ देर देखते रहे। उस चश्में की एक डंड़ी गायब थी। कुछ ही देर में वह खराब पढ़ने के अभिनय में व्यस्त हो गए। मैंने उस दृश्य में अपना हस्तक्षेप रद्द किया। तभी बांए दरवाज़े से मुझे वह औरत झांकती हुई नज़र आई, जिसने नीले आसमान का एक कोना पोत रखा था। वह डरी हुई ट्रे वाली नर्स की तरफ देख रही थी...। वह भीतर नहीं आई... जब तक ट्रे वाली नर्स मंच पर है, कूंची वाले औरत प्रवेश नहीं कर सकती है। कूंची वाली औरत ग़ायब हो गई। तभी मुझे उन बुज़ुर्ग की आवाज़ आई... मैं औरत के दृश्य से निकलकर वापिस... बूढ़े आदमी के दृश्य में आ गया....
’चश्मा मिल जाना कितना दुखद है।’
’आप उसे ही तो ढ़ूढ़ रहे थे...?’
’ढूढ़ा और पाया!!!’
यहाँ मैंने तय कर लिया था, जीवन में यदि दर्शक ही बने रहूगाँ तो जो सब दिखाएगें मुझे देखना पड़ेगा। सो मैंने एक लंबी सांस भीतर खेंची और अभिनय की इस विराट दुनियाँ में मैं कूद गया।
’आपको देखने कोई भी नहीं आता?’ मैंने कहा...
’बाहर कोई भी नहीं है।’
उन्होने तपाक से जवाब दिया...। बतौर अभिनेता आपके पास बहुत से सवाल होने चाहिए... नए सवाल, सवालों के सवाल, बिना बात के सवाल।
’अरे यह तो अजीब है?’
’नहीं.. बाहर सच में कोई नहीं है।’
उनके हाथ में किताब थी, सिर उसमें ही घुसा हुआ था, मेरे जवाब मानों उस किताब में लिखें हो।
’मेरा नाम प्रयाग है।’
’प्रयाग?’
’हाँ... प्रयाग ही है, सच में।’
’मैं निरंजन...।’
’आप कब से हैं यहाँ.... निरंजन?’
’कई सालों से हूँ... ठीक ठीक याद नहीं है।’
’सालों से...?’
’मैं पहले उसी बेड़ पर था जिसपर तुम हो... पर पिछले एक साल से उन्होने मुझे यहाँ पटक दिया है।’
’आपको अगर वहाँ ठीक नहीं लगता है तो आप वापिस यहाँ आ सकते हैं। मुझे कोई आपत्ति नहीं है।’
’ऎसा नहीं हो सकता....’
’क्यों?’
’उस बेड़ की दवाईयाँ अलग हैं... डॉक्टर अलग हैं... वैसे भी अभी-अभी आए मरीज़ों को उसपर रखा जाता है।’
’तो मैं अभी-अभी का मरीज़ हूँ?’
’मैं भी पहले अभी-अभी का ही मरीज़ था... फिर जब मैं अभी-अभी का मरीज़ नहीं रहा तो उन्होंने मुझे यहाँ पटक दिया।’
’जब मैं अभी-अभी का मरीज़ नहीं रहूगाँ तो वह मुझे कहाँ रखेगें?’
’फिर तुम यहाँ, मेरे पलंग पर आ जाओगे।’
’और आप?’
’मैं सामने वाले पलंग पर फैंक दिया जाऊगाँ।’
’पर सामने वाला पलंग भी तो भरा हुआ है... फिर वह महाशय कहाँ जाएगें?’
यहाँ अचानक निरंजन ने किताब से अपना चहरा निकाला और मेरे पलंग की तरफ घूमकर बोले...
’अरे भाई... जैसे तुम अभी-अभी के मरीज़ हो... वैसे ही वह आख़री पलंग.. जो उस दरवाज़े के पास है उसपर ’कभी का’ मरीज़ है... वह जब मर जाएगा... तो घड़ी के काटे की तरह हम सब एक मिनिट आगे बढ़ जाएगें... तुम मेरे पलंग पर, मैं सामने वाले पलंग पर.... और तुम्हारे बेड़ पर कोई नया अभी-अभी का मरीज़ होगा।’
’पर मैं हमेशा अभी-अभी का मरीज़ रहना चाहता हूँ।’
’तुम्हारी किस्मत बहुत अच्छी है... पिछले एक साल से तुम अभी-अभी के मरीज़ हो। दरसल तुम्हें शुक्रगुज़ार होना चाहिए उस ’कभी-का’ के मरीज़ का जो पिछले एक साल से कभी-का मरीज़ है...। बहुत ढ़ीठ है.. बिस्तर खाली ही नहीं कर रहा है।’
’मुझे यहाँ एक साल हो चुका है?’
निरंजन ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। मैं अपने पलंग पर अब चुप था...। तो क्या बस यही होगा... हर एक मिनिट जब आगे बढ़ेगा, मैं उस पलंग पर होऊगाँ... फिर सामने वाले, फिर... एक दिन मैं भी ’कभी का’ मरीज़ होकर मर जाऊगाँ। नहीं.. नहीं इसमें कोई बीच में ठीक भी तो होता होगा तब? मैंने सोचा यह निरंजन से पूछूं...
’निरंजन...?’
’क्या है?’
’कुछ नहीं...।’
मैंने नहीं पूछा। अगर निरंजन ने कह दिया कि यहाँ कोई ठीक नहीं होता, तो मुश्किल हो जाएगी। कितना तकलीफ देह है यह.... हर आदमी का सफर आपको पता है, ’अभी-अभी’ से लेकर ’कभी का’ तक का... और आपको भी उस पूरे सफर के सारे पलंगों से होकर जाना है। अगर आप थोड़े ढ़ीठ हैं तो ’कभी-का’ पर रुके रहेगें.... नहीं तो एक मिनिट में बाहर......ओफ! ओफ! ओफ!
.................
प्रातः आँख खुली तो नील और सूरज को अपने पलंग के बग़ल में पाया। अब मेरे पलंग के बग़ल में स्टूल ना होकर एक बेंच रखी है। दोनों बेंच पर बैठे है... (black & white) सूरज का हाथ नील के कंधे पर है, और दोनों ’दूर गगन की छॉव में’ देख रहे हैं। (यह बिलकुल मुझे वैसे ही दिख रहे थे जैसे हमारे गांव के फोटोग्राफरों ने हमारे माँ बाप की रोमांटिक तस्वीरे ख़ीची थी, black & white… जिसे हम ’दूर गगन की छांव’ वाली तस्वीरें कहते थे… इन तस्वीरों में सभी कहीं दूर कुछ देख रहे होते थे।)
’सूरज तुम लोग कब आए?’
जब नील और सूरज दोनों साथ मिलते थे तो मैं सूरज से ही ज़्यादा बात करता था, अगर नील से बात करनी भी है तो पहले सूरज नाम लेकर फिर नील से बात करता था। सीधा नील कह देने से मैं पुरानी दुनियाँ में पहुच जाता हूँ... जो दुखद है..... अब...... सब...... बस।
’हम लोग बहुत देर से आए हुए हैं... तुम सो रहे थे तो सोचा तुम्हें परेशान ना करें।’
संजीदा अभिनेता होने के बतौर सूरज ने अपना वाक्य कह दिया।
’हम बस जाने ही वाले थे।’
बतौर चंचला... नील ने हल्की हसी के साथ अपनी बात कही।
पर अजीब था वह दोनों मुझे नहीं देख रहे थे... दोनों ’दूर गगन की छॉव’ में कहीं देख रहे थे... B & W...।
’तुम दोनों ने शादी कर ली है क्या?’
’कोर्ट मेरिज थी... ज़्यादा शोर शराबा नहीं किया.. सिर्फ परिवार के लोग थे।’
सूरज ने सफाई दी।
’तुम्हारी कमी लगी थी। मैं तुम्हारे घर गई थी कार्ड देने... पता था वहाँ ताला होगा, पर फिर गई...दरवाज़े से कार्ड भीतर सरका दिया।’
नील ने बहुत अपनेपन से कहाँ... पुरानी दुनियाँ वाले अपनेपन से। मैं ठिठक गया।
’क्यों... जब तुम्हें पता था मैं यहाँ हूँ... तुम हस्पताल में क्यों नहीं आई?’
’मेरी इच्छा थी कि जब मेरी शादी हो तो मैं तुम्हें अपनी शादी का कार्ड, तुम्हारे घर तुम्हें देने आऊं।’
’यह कैसी इच्छा है?’
मैं चौंक गया नील की आँखें देखकर। यह कहते हुए उनमें एक चमक थी, जबकि वह मुझे नहीं देख रही थी। सूरज एक अजीब मुस्कुराहट लिए हुए था। मैं दूसरी तरफ करवट लेना चाह रहा था पर ले नहीं पाया.. कुछ मुझे रोक रहा था। मैंने झटका दिया तो दिखा, मेरे दाहिने हाथ और दाहिने पांव को पलंग से बांध के रखा हुआ है। मुझे क्यों बांधा हुआ है... मैंने दो-तीन बार झटका दिया। नील और सूरज खड़े हो गए।
’तुम्हारा, तुम्हारे दाहिने हिस्से पर बस नहीं है।’
’क्या?’
नील और भी कुछ कहना चाह रही थी पर सूरज ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया और वह दोनों वापिस ’दूर गगन की छांव’ में देखने लगे। मुझसे यह सहन नहीं हुआ। मैं चिल्लाने लगा।
’क्या है यह?.. क्यों मुझे मेरे दाहिने हिस्से पर बस नहीं है? मुझे डॉक्टर से मिलना है। डॉक्टर.... डॉक्टर... डॉक्टर...... ।’
ट्रे वाली नर्स भागकर आई... इंग्जेक्शन... गुस्सा... धुंध... ’दूर गगन की छांव’... B&W… थम।
....................
दरवाज़े !!! मैंने पता नहीं कितने घर बदले हैं। पता नहीं कितने लोगों के साथ मैं अलग-अलग जगह, अलग-अलग परिस्थितियों में रहा हूँ। इस सभी जगहों में मेरा सबसे खूबसूरत संबंध दरवाज़ों से रहा है। मुझे लगभग हर घर के (जिनमें मैं रहा हूँ) दरवाज़े रोमांच से भर देते थे... महज़ एक खट-खट पर....। ज्यों ही दरवाज़े में ’खट-खट’ होती... मेरा पूरा शरीर एक रोमांच से भर जाता। कौन होगा उस तरफ? दरवाज़ा खोलने पर कौन सा आश्चर्य दिखेगा? मेरे भीतर बहुत सारी कहानिया शुरु हो जाती और कहानियों का दायरा बढ़ता ही चला जाता। हर ’खट’ की अलग कहानी, अलग चहरे। दरवाज़ा खोलने के ठीक पहले मैं महसूस करता कि मैं सालों से किसी की प्रतिक्षा कर रहा हूँ... कोई ओर जिसे कभी देखा नहीं, जाना नहीं... कोई जो मेरे दरवाज़े के उस तरफ, पूरे संसार में कहीं था और अब शायद उसने मुझे ढूढ़ लिया है, वह मेरे दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है।
.......................
देर रात आँखे खुली तो देखा सामने की पूरी दीवार नीली हो चुकी है... आसमानी नीली। पीले बल्ब की रोशनी में नीला रंग भुतहा दिख रहा था। तभी मुझे खट-खट की आवाज़ आई.... वह औरत अब छत को पौत रही थी...बिना सीड़ी के। वह बहुत लंबी दिख रही थी... ख़ासकर उसकी टांगे। मैंने नीचे देखा तो पैर की जगह दो बांस के डंडे दिखे... वह stilts पर खड़ी थी। इस बार उसके एक हाथ में नीला और दूसरे हाथ में सफेद डिब्बा था। कुछ देर वह नीले रंग की कूंची चलाती, फिर सफेद रंग की कूंची से इधर-उधर दो चार हाथ मार देती। यह सब वह बहुत तेज़ी से किये जा रही थी... सो सारा करतब एक नृत्य की तरह दिख रहा था। ज़मीन पर बांस की खट-खट... एक तरह का डरावना संगीत पैदा कर रहा था। इस सब में उसके बाल थोड़े बिखर गए थे... पर चहरा अभी भी.. मांग से नाक की सीध में दोनों तरफ खिंचा हुआ था। सफेद बादल पूरे आसमान में बिखरने लगे थे।
मैं उठके बैठ गया...। मेरे हाथ पैर नहीं बंधे थे, पर दाहिना हिस्सा थोड़ा सुन्न ज़रुर था। मैं उस औरत से बात करना चाह रहा था।
’सुनों... सुनों.. तुम कौन हो?’
उसने मेरी और गुस्से से देखा। मैं घबराया हुआ एकटक उसे देख रहा था। वह फिर काम करने में जुट गई। मैं अपने पलंग के कोने तक खिसक आया... थोड़ा आगे बढ़कर बोला...
’सुनों.. सुनों.... ???’
इस बार उसने मुझे देखा नहीं, बल्कि सफेद रंग की कूंची से मेरे हाथ पर एक वार कर दिया। मैं घबराकर अपने पलंग पर दुबक गया। चादर... सिर के ऊपर चढ़ा ली। कुछ देर मुझे बांस की ठक-ठक की आवाज़ आई फिर उस आवाज़ में ट्रे वाली नर्स की.. ट्रे की आवाज़ जबरन घुसने लगी। ट्रे के वार.., धंम्म से किसी के बहुत ऊपर से गिरना.. ’खड़-खड़’.. ’पट-पट’... ’धम-धम’.... फिर सबकुछ शांत...।
मैंने अपने मुँह से चादर हटाई... कमरे में कोई नहीं था। सारे मरीज़ ’कुछ भी नहीं हुआ’ वाले अभिनय में व्यस्त सो रहे थे।
कूंची से वार का एक सफेद धब्बा मेरे हाथ में दिखा... मैंने उसे मिटाने की कोशिश की पर वह मिटा नहीं... मैं उसे ज़ोर-ज़ोर से रगड़ने लगा। वह सफेद धब्बा हल्का गुलाबी हो गया... पर मिटा नहीं। मैंने छत की तरफ देखा... वहाँ मुझे बादल नहीं, बल्कि नीले आसमान में बहुत बड़ा हंस दिखाई दिया।
..................
मेरा एक दोस्त हंसा था (जो हस्पताल सिर्फ एक बार ही आया था....) जिसमें ’ना’ करने का गुण नदारद था। वह हमेशा, हर बात का जवाब ’हाँ..’ से देता और फस जाता। पचताना उसका मुख्य धर्म था। उसकी आँखों के नीचे गहरे काले दाग़ पड़ चुके थे... मुझे कभी-कभी लगता था कि वह काजल लगाता था... पर चूंकि उसे काजल लगाना नहीं आता था, इसलिए क़ाजल फैल जाता होगा। पर ऎसा नहीं था... । गहरे काले दाग़ की वजह से उसकी आँखें कभी सुंदर कभी डरावनी लगती थी। उसने एक बार मुझसे कहा था कि जब से वह पैदा हुआ है तब से वह व्यस्त है। उसने कभी किसी भी काम के लिए किसी को भी मना नहीं किया सो वह दूसरों के काम करने में हमेशा व्यस्त रहता था। जो लोग उसे जानते थे वह उससे अपना काम करने को नहीं कहते थे.. वह उसके बदले ’एक ज़रुरी काम की पर्ची..’ उसकी जेब में डाल देते थे, जिसे वह समय रहते पूरा करता चलता था। उसके पास एक जेब की कई सारी शर्टे थी... दो जेब वाली शर्ट पनने से वह घबराता था। मैंने उससे एक बार कहा था कि तुम बिना जेब की शर्ट पहना करो... तो उसने कहा कि काम की पर्चे वह हाथ में नहीं रखना चाहता है... काम के पर्चे पेंट की जेब में मुड़ जाते हैं... फिर क्या काम करना है ठीक से समझ में नहीं आता है। वह अपने घर के कामों की भी पर्चियाँ बनाकर जेब में रख लेता। अपने काम भी वह बाक़ी ज़रुरी कमों की तरह करता... समय रहते। इन पर्चियों के बीच उसका एक खेल भी था... एक दिन उसने मुझसे कहा था कि वह कई बार कोरी पर्चियाँ अपनी जेब में, किसी महत्वपूर्ण काम की तरह रख लेता... जब वह कोई महत्वपूर्ण काम के लिए कोई कोरी पर्चि निकालता तो खुश हो जाता... वह उस महत्वपूर्ण काम के समय... कुछ भी नहीं करता... और उसे यह बहुत अच्छा लगता था। काम के वक्त काम नहीं करने की आज़ादी बहुत बड़ी आज़ादी थी।
......................
हंसा ने आते ही अपनी इतने दिनों से ना आने की वजह बताई...
’बहुत काम था प्रयाग... अभी-अभी जेब से दो कोरी पर्ची निकल आई तो मैं उस खाली समय में तुमसे मिलने चला आया।’
मैं हमेशा हंसा को देखकर खुश हो जाता था। दुनिया जैसे उससे मिलने आती है वह उसे उसकी पूरी निष्ठा के साथ जीता है...। दुनिया के सत्य उसकी जेब में रहते हैं और वह उनका सामना करता चलता है।
’तुम अपनी कोरी पर्चिया यूं बरबाद मत करों... मैं तो यहां हूँ ही, तुम किसी काम से मुझसे मिलने आओ... ’
’किस काम से...?’
हंसा यूं सकपका जाता था। उसकी समझ में ही नहीं आया कि वह मुझसे किस काम के तहत मिल सकता है। मैं खुद सोचने लगा कि हंसा मुझसे किस काम से मिल सकता है। तभी निरंजन अपने पलंग से उछलता हुआ हम दोनों के बीच में आ गया।
’मैं मद्‍द करुं?’ निरंजन बोला..
’किस बारे में?’ मैं हंसा की अचकचाहट में बोला।
’काम बताने में...’
’हाँ... हमें मद्द चाहिए।’ हंसा बोला..
निरंजन चालाक नहीं था, पर दुनिया से वह कुछ इस तरह कब्बड्डी खेल चुका था कि.. अब वह हमेशा, आदतन, या तो खुद ’कब्बड्डी-कब्बड्डी’ करता हुआ दुनिया के पाले में जाता, या दुनिया का कोई खिलाड़ी कब्बड्डी-कब्बड्डी करता हुआ उसके पाले में घुस आता.. जहाँ वह एकदम अकेला था, हार-जीत मानी नहीं रखते थे.. पर वह खेलते वक्त हमेशा सतर्क हो जाता। यहाँ पिछले कुछ समय से वह मेरे साथ खेलना बंद कर चुका था। जब भी वह मेरे पलंग पर आता तो अपनी सतर्कता अपने पलंग पर छोड़कर आता था।
’भाग जाओ यहाँ से... कैसे भी।’
निरंजन, मुस्कुराते हुए बोला। हंसा और मैं उसकी ओर आश्चर्य से देखने लगे।
’अरे! यह कोई कैद में है क्या? हस्पताल में है। यहाँ से यह जब चाहे जा सकता है।’
हंसा, निरंजन को जानता नहीं था सो वह सीधी बहस पर उतर आया। निरंजन ने उसकी तरफ देखा भी नहीं, वह मेरे जवाब का इंतज़ार कर रहा था।
’निरंजन.. मैं ठीक नहीं हूँ... बाहर गया तो मारा जाऊंगा।’
निरंजन यह सुनते ही वापिस अपने पलंग पर चला गया और अपनी किताब पढ़ने लगा। हंसा अवाक सा निरंजन को देख रहा था। तभी निरंजन बोला...
’तुम जानते हो मूंछ नहीं है। लोग कहते हैं कि मूंछ है। फिर मेरे जैसे कुछ और लोग तुम्हारी तरफ हो जाएगें और तुम्हारे साथ कहेगें कि मूंछ नहीं है... जबकि लोग मूंछ है का बयान देकर, तुम ठीक नहीं हो, सिद्धा कर देगें... और तुम यहीं पड़े रहोगे। इसमें मूंछ है कि नहीं है.... हिंसा है। तुम देख लो।’
इस बात पर हंसा धीरे से मेरे करीब आया।
’क्या कह रहे हैं यह?’
’मैंने तुमसे कहाँ था कि तुम किसी काम से मुझसे मिलने आओ... लाओ मुझे एक पर्ची दो... मैं एक ज़रुरी काम तुम्हें दे देता हूँ।’
हंसा ने मुझे एक पर्ची निकालकर दी... तभी निरंजन फिर बोल पड़ा...
’”कभी-का” की तबियत नासाज़ है। पता नहीं कब.. एक मिनट आगे बढ़ेगा... तुम ’अभी-अभी’ का पलंग छोड़ दोगे.. और यहां आ जाओगे। तुम जानते हो यह कितना खतरनाक हैं। तुम ठीक नहीं हो... पर यहा इस पलंग पर आते ही सब ठीक है लगने लगेगा। फिर ’कभी-का’ तक, इसका कोई अंत नहीं है।’
’मैं ठीक होते ही यहाँ से चला जाऊंगा।’
मैंने कुछ गुस्से में जवाब दिया। फिर पर्ची खोलकर सामने बैठ गया। क्या लिखूं?
हंसा ने मेरा हाथ पकड़ा और कूंची से पड़े सफेद निशांन को देखने लगा।
’यह क्या हुआ है?’
’एक औरत... आसमान बनाने आती है... इस बार वह बादल भी बना रही थी... मैंने उससे बात करनी चाही तो उसने बादल भरी कूंची से मुझपर वार किया... उसी का निशान है यह।’
’क्या? कब हुआ यह?’
’रात को... ठीक-ठीक याद नहीं कब।’
हंसा उस निशान पर अपना अंगूठा घुमाने लगा।
’यह मिट नहीं रहा है... मैंने बहुत कोशिश की है... रहने दो।’
पर हंसा नहीं माना... वह अंगूठे के बाद हथेली ज़ोर-ज़ोर से रगड़ने लगा। मेरे मुंह से चीख़ निकल आई। हंसा ने रगड़ना बंद कर दिया। वह निशान गुलाबी पड़ चुका था। तभी हंसा उठा और दाहिनी तरफ दे दरवाज़े से प्रस्थान कर गया।
हंसा अचानक उठ गया था। निरंजन का सिर किताब में घुसा पड़ा था। मैं कोरी पर्ची और पेन लिए कोई महत्वपूर्ण काम के बारे में सोच रहा था। इच्छा हुई कि पर्ची पर लिख दूं ’मैं ठीक नहीं हूँ....’ या ’मूंछे हैं...’ या ’दाहिना हिस्सा मेरे बस में नहीं है....’ या ’नील... नील.. नील..’ या ’नीला आसमान... बादल... हंस...।’
तभी हंसा साबुन, एक मग्गा पानी और एक कपड़ा लेकर बांए दरवाज़े से प्रवेश करता है। मैं हंसा की इस चाल और इस गंभीरता को बखूबी पहचानता हूँ... वह एक ज़रुरी काम में व्यस्त है।
’हंसा.. मैंने अभी कोई काम नहीं लिखा है। यह पर्ची अभी कोरी है।’
पर हंसा को काम मिल चुका था। वह मेरा सफेद दाग़ निकालने में जुट गया था।
’वह नहीं निकलेगा।’
निरंजन की आवाज़ आई। हंसा कुछ देर के लिए रुका..
’निकले गा.. निकल रहा है।’
हंसा फिर घिसने लगा। कुछ देर में उसने साबुन के झाग को पानी से धोया... दाग़ वैसा का वैसा था.. पर अब वह अपना गुलाबी रंग छोड़कर थोड़ा लाल हो गया था। छुट-पुट बूंदे खून की भी उभरने लगी था। हंसा डर गया... उसने हार मान ली।
’तुम ठीक नहीं हो यह blessing है। तुम ठीक नहीं हो इसलिए मूंछे नहीं है। तुम ठीक नहीं हो... क्यों कि तुम हो। तुम ठीक नहीं हो... इसलिए भाग सकते हो।... भाग जाओ।’
निरंजन मानों किताब का अंतिम पेरेग्राफ पढ़ रहा था। हंसा पहली बार अपना काम नहीं कर पाया था। वह गुस्से में उठ खड़ा हुआ।
’सुनो प्रयाग, तुम्हें जो भी काम करवाना है इस पर्ची पर लिख दो मैं उसे पूरा करुगाँ...चाहे कुछ भी हो जाए।’
’मैं सोच रहा हूँ।’
’जल्दी करों...।’
हंसा अपनी हार से हकबका सा गया था। वह कमरे में धूमने लगा...। निरंजन पीपल का पत्ता और किताब हाथ में लेकर मेरे पास आया।
’मैंने इसे पढ़ लिया। इसका अंत और इसकी शुरुआत ग़ायब है।’
’तो?’
’तुम पर्ची में लिखकर इसकी शुरुआत और अंत मंगा दो।’
निरंजन मिन्नते करने लगा था। मैं मान गया। मुझे लगा मैं भी हंसा ही हूँ... मुझे भी ’ना..’ कहने की कला नहीं आती है। मैंने शायद आखरी बार ’ना...’ नील को कहा था।
’क्या लिखूं? कौन सी किताब है यह?’
’गोदो.... वेटिंग फॉर गोदो..।’
’अरे! निरंजन गोदो का शरुआत और अंत नहीं है।’
’है... होगा ही... ऎसा कैसे।’
’बेकेट(BECKETT) ने नहीं लिखा है।’
‘ऎसा कैसे हो सकता है?’
’वह लिखना चाहता था...।’
’मुझे इसका शुरुआत और अंत चाहिए... बस।’
’ठीक है मैं लिख देता हूँ, हंसा ले आएगा।’
मैंने लिख दिया... “गोदो का शुरुआत और अंत चाहिए। महत्वपूर्ण है।“ जैसे ही मैंने पर्ची लिखी, हंसा ने आकर उसे अपनी जेब में रख लिया।
’चलता हूँ। जल्द ही तुम्हारा काम पूरा होने पर मिलूगाँ।’
यह कहकर हंसा प्रस्थान कर गया। उसके प्रस्थान करते ही ट्रे वाली नर्स बिना ट्रे के भागती हुई प्रवेश करती है... वह सीधी ’कभी-का’ के बिस्तर पर चली जाती है। ’कभी-का’ के आदमी को वह सीधा करती है, उसके ऊपर चादर ढ़क देती है। तभी ’खट-खट-खट-खट’ की आवाज़ के साथ डॉक्टर प्रवेश करता है। वह सीध ’कभी-का’ के बिस्तर के पास जाता है। कुछ देर की खुसुर-पुसुर के बाद बिना ट्रे वाली नर्स और डॉक्टर चले गए।
मेरी इच्छा थी कि मैं डॉक्टर से पूछू कि मुझे क्या हुआ है? पर सब जगह इतना खुफियापन फैला हुआ था कि मेरी पूछने की हिम्मत नहीं हुई। मैं कमरे में एक अजीब सा सन्नाटा महसूस कर सकता था। कुछ हुआ है। क्या है? निरंजन चश्मा पहने, छत पर बने हंस को घूर रहा था। मैंने भी उस हंस को देखा, वह हंस बस उड़ने को था... जैसा अटका पड़ा था।
’एक मिनिट आगे बढ़ रहा है।’
निरंजन ने हंस को देखते हुए बोला। मैं अपने बिस्तर पर लेट गया। निरंजन बड़बड़ाता रहा।
’तुमने देर कर दी। अब तुम जल्द ही ठीक हो जाओगे। मैं हंसा का इंतज़ार करुगाँ... वह जल्द कहानी की शुरुआत और अंत लेकर आएगा... मैं इंतज़ार करुगाँ।’
मैं हंसा के बारे में सोचने लगा।
कुछ ही देर में कमरे में बहुत उठक-पटक होने लगी।.. चादरें बदली गई... बिस्तर यहाँ-वहाँ हुए...। निरंजन सामने के बिस्तर पर चला गया, मैं निरंजन के बिस्तर पर आ गया, ’कभी-का’ के बिस्तर पर... उसके पहले वाले बिस्तर वाला मरीज़ पहुंच गया। कुछ समय तक ’अभी-अभी’ का बिस्तर खाली पड़ा रहा...फिर एक लड़का बेहोशी की हालत में वहाँ लाया गया। वह कई दिनों तक सोता रहा। उसे देखने बस उसकी बूढ़ी माँ धीरे-धीरे चलती हुई आती थी, उसके बगल में बैठी रहती... उसके हाथों की रेखाओं को टटोलती रहती... उनमें कुछ ढूढ़ती रहती।
जब उस लड़के को होश आया तो उसकी माँ उसके पास नहीं थी।
वह लड़का मुझे देखने से कतराता रहता। निरंजन के बिस्तर के पास अब एक खिड़की थी... वह घंटों खिड़की पर बैठा हुआ हंसा का इंतज़ार करता रहता।
मैं अब ठीक महसूस करने लगा था... मेरे शरीर का दाहिना हिस्सा वापिस मेरे बस में आने लगा था।
कूंची वाली औरत ने पूरे कमरे को आसमान बना दिया था... मैं इंतज़ार में था कि कब वह ’अभी-अभी उड़ने को..’ का दूसरा हंस बनाएगी।

6 comments:

Pratibha Katiyar said...

kamaal ki kahani...

Aman said...

Shabd sab kuch kah nahi pate hain, unki galti nahi hai. Wo koshish to karte hain magar fir bhi sab kuch sahi se kah nahi pate. Shayad unme shamta hi nahi hai. fir bhi yehi kahna tha ki bahut khoobsoorat likha hai apne... Ab pata nahi ye shabd kya kahenge aapse..

Sarika Saxena said...

पूरी कहानी जैसे एक सांस में पढ गये। अदभुत!
कैसे कोई लिख सकता है ऎसा कुछ।

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

मानव भाई, awesome!
कल शाम से तबियत कुछ ढीली है..कही बाहर जा नही पाया.. घर पर बैठे बैठे सोचा आपकी पोस्ट्स पढता हू.. धीरे धीरे एक एक पढ रहा हू.. कुछ भी किसी से भी कम नही है.. लेकिन यहा आकर रुकना पडा.. लगा बिना आपकी कल्पनाशीलता को सलाम किये बिना आगे नही बढ सकता। आपका ईमेल आईडी चाहिये, मिलेगा? अभी कुछ रोज पहले हब माल के सामने किसी शख्स को देखा... थोडा दिमाग पर जोर डाला तो आपकी ही शक्ल लगी... मन तो किया था कि जाकर पूछ लू फ़िर लगा वो बद्तमीजी होती.. आप शायद किसी के साथ थे.. खैर..

आपका लेखन बहुत कुछ सिखाता है.. एक डोज दे देता है.. उस डोज के बाद मेरे जैसे गधो की कलम थोडी आगे तो बढ ही जाती है.. एक शानदार स्क्रीनप्ले/मन्जरनामा...

Sanjeet Tripathi said...

kya likhte hain bhai sahab aap, bas mai to is balak pankaj upadhyay ke blog ke marfat yahan chalaa aayaa , aaya aur padhna shuru kiya to bas jaise bandh gaya, aakhiri shabd padhkar jo baat mann me aai vahi upar sabse pahle likhaa....

ultimate...mano mai aapke shabdo aur vakyon ke saath behta sa chalaa gaya padhte vakt....


shukriyaa..

पद्म सिंह said...

मानव जी आपकी लेखनी को सलाम ! ... मेरे चंद खूबसूरत चुनिन्दा ब्लॉगों में आपका ब्लॉग शामिल करता हूँ ,... पंकज जी के ब्लॉग और अज़दक के बाद कुछ आपका ब्लॉग मिला है जो पढ़ने लायक है ... सुंदर लेखन के लिए बधाई

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल