Friday, August 12, 2011

घोंसला...


जब भी कभी तेज़ हवा चलती है या तेज़ बारिश होने लगती है तो मैं चिंता करने लगता हूँ। मुझे आजकल तीन घोंसलों की बड़ी चिंता होती है। मेरी बाल्कनी से एक पेड़ दिखता है जिसपर एक छोटी चिड़िया (क्योंकि मैं हमेशा एक बार में एक ही चिड़िया देख पाता हूँ।) ने तीन घोंसले बनाए हैं। यह मेरे सामने ही बनना शुरु हुए... और अब एक सुंदर स्वरुप इख़्तियार कर चुके हैं। गर्मियों के दिनों में मेरी चिंता किंग्फिशर को लेकर थी.. वह रोज़ दोपहर के वक़्त मेरी तरफ मुँह करके बैठ जाती और देर तक अपना सिर हिलाती रहती। कभी-कभी लगता वह मुझसे कुछ पूछ रही है... धीर-धीरे मैं उससे बातें करने लगा.. यह बात मैंने कभी किसी को नहीं बताई। जब वह कुछ दिन नहीं आई तो मेरी चिंता बढ़ जाती... फिर दिखती तो मेरे सवाल और उसके सिर हिला-हिला के जवाब शुरु हो जाते। अभी बरसात में वह नहीं आती है.. उसके बदले यह छोटी चिड़िया आती है जिसने सुंदर तीन घोंसले बनाए हैं...।
कल रात बहुत बारिश हुई.. बुख़ार के पसीने में लथपथ मैं बार-बार अपनी बाल्कनी पर चला जाता। अंधेरा इतना ज़्यादा था कि कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने टार्च से भी देखने की कोशिश की पर कुछ नज़र नहीं आया। कुछ देर में मैं वापिस अपने बिसतरे पर था... इतनी बारिश में बेचारी क्या कर रही होगी? मैं बार बार उस चिड़िया के बारे में सोचने लगता। फिर लगने लगा कि शायद वह भी मेरे बारे में सोच रही होगी कि इतनी रात गए इसके घर की लाईट क्यों जल रहे है? शायद वह मेरी चिंता में सो ना पा रही हो? सो मैंने झट से उठक लाईट बंद कर दी। पर नींद से संबंध बहुत समय से ख़राब चल रहा है सो करवटों ने मुझे भीतर से छील सा दिया... उस छिलने की जलन से बार-बार मैं उठ बैठता..। खिड़की से निग़ाह बाहर जाती.. तो अंधेरे में लटके तीन घोंसले बहुत अकेले से दिखते..। फिर ख़्याल आया कि चिड़िया इंसान तो होती नहीं कि रात में उन्हें लाईट की ज़रुरत पड़े.. वह तो मेरी करवटों और हरकतों से ही जान गई होगी कि मैं सो नहीं पा रहा हूँ। मैंने वापिस जाकर लाईट जलाई और बाल्कनी में आकर खड़ा हो गया। कुछ देर अंधेरे में ताकते रहने से कुछ चीज़े साफ दिखाई देने लग गई... जैसे बहुत देर तक चुप शांत पड़े रहने से अपना ही जीवन साफ सुनाई देने लगता है... पर अपना जीवन सहन नहीं होता इसलिए हम तुरंत बोलना शुरु कर देते हैं... जबकि अंधेरा मुझे अपनी तरफ हमेशा से आकर्षित करता रहा है। अंधेरे में लटके हुए तीन घोंसले मुझे साफ दिखाई देने लगे। भीगे हुए... कुछ झूल से गए थे.. कल शाम को वह तीनों कितने सुंदर लग रहे थे... अभी रात के भीगेपन में वह खंडहर जैसे दिख रहे थे। मैं समझ गया कि चिड़िया वहा नहीं हो सकती.... उसकी इतने दिनों की पूरी महनत बेक़ार गई। अगर मैं चिड़िया की जगह होता तो अभी तक झल्ला गया होता.. चीख़ने चिल्लाने लगता.. गालिया दे देता पेड़ को, बारिश को.. सब को.. पर मुझे पता है कि सुबह होते ही चिड़िया आएगी और रात को खंड़हर हो चुके अपने घोंसलों पर काम करना शुरु कर देगी।
कुछ देर में मैं चाय बना रहा था...। देर रात को चाय पीने की मेरी पुरानी आदत है। चाय बनते ही मैं एक ऎसी क्रिया में व्यस्त हो जाता हूँ जो संगीत के जैसी है। चाय बनाना (ख़ास कर देर रात का चाय बनाना...) एक तरह का नृत्य है मेरे लिए जो मुझे हर झुंझलाहट से क्षणिक शांति प्रदान करता है। मैं चाय बहुत धीरे और एक लय में पीता हूँ..। मेरी मन: स्थिति चाय पीने की लय तय करती है। इस वक्त मैं झल्ला रहा था सो चाय पीने की लय कुछ तेज़ थी। मैं सोचने लगा काश यह चिड़िया चाय पीती.. इस बारिश में भीगने के बाद मैं उसे चाय बनाकर देता.. तो.. इस बात पर मुझे हंसी आने लगी... मेरी झल्लाहट थोड़ी कम हुई.. और मैं वापिस कुछ कोरे पन्नों को गूदने में व्यस्त हो गया।
समय बहुत तेज़ी से निकल गया.. मुझे चिड़ियों की आवज़े आने लगी...। पौ फट चुकी थी। मैं घबरा गया..। पौ फटते ही वह चिड़िया... अपने घर को खंडहर की शकल में देखेगी और कितना दुख होगा उसे.... मुझे पता है उसे कोई दुख नहीं होगा.. पर मेरी पीड़ा थी कि वापिस उसे उन घोंसलों पर काम करते देखना... । उसने तिनका-तिनका इक्कट्ठा करके यह घोंसले बनाए थे.. अब वापिस पूरा काम फिर से....। मैं यह सब नहीं देख सकता था....। मैंने चादर तानी और अपनी आँखें बंद कर दी........ चिड़ियों की आवाज़े बढ़ती गईं.. और उस सुंदर संगीत में मुझे कब नींद आ गई पता ही नहीं चला..........।

4 comments:

बाबुषा said...

Sundar hai.

Pratibha Katiyar said...

चिड़िया वाकई आपके बारे में सोच रही थी...चाय का इंतजार भी कर रही थी,उसमे हिम्मत है, हौसला है आप जब जागेंगे तो उसका नया घर बन चुका होगा.
फिर आप उसके लिए भी चाय बनाइएगा...

प्रवीण पाण्डेय said...

चिड़ियों की चहकने में नींद आये तो स्वप्न उड़ने लगेंगे।

Pawan Kumar said...

मर्मस्पर्शी रचना......

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल