Wednesday, January 18, 2012

दुबेजी...



(DUBEYJI TRIBUTE "DHAMAAL" 8th Jan.. 2012)
“मैं दुबेजी को सबसे ज़्यादा जानता हूँ... मैं उनके सबसे करीब था... मेरे और उनके संबंध बहुत निजी थे।“ यह वाक़्य सबसे मन में था... सारे लोग जो धमाल (दुबेजी की याद में आयोजित किया गया सेलिब्रेशन...) में बतौर अभिनेता हिस्सा ले रहे थे और जो दर्शकों में बैठे हुए थे.. सभी। ’पंडित सत्य देव दुबे...’ जिन्होंने ना जाने कितने लोगों को निजी तौर पर छुआ है। दुबेजी से सभी के मतभेद उतने ही थे जितना सभी उनसे प्रेम करते थे। पिछले चालीस सालों जाने कितने हिंदी, मराठी, गुजराती और अंग्रेज़ी नाटक वालों के ऊपर दुबेजी का असर रहा है... और सभी के पास उनके असंख्य किससे है। इसलिए यह बात सुनील शानबाग़ ने धमाल शुरु होते ही कही कि हम दुबेजी का जश्न मनाना चाहते हैं... जैसा कि दुबेजी भी पसंद करते.. सो कोई भी अपने निजी संस्मरण ना सुनाए (क्योंकि उसके लिए कुछ दिन भी कम पड़ जाते...)। सभी को लगभग पांच मिनिट दिये गए थे.. और सबने खूब जम कर उसे भोगा। इस थियेटर के जश्न में... सभी कुछ हुआ.. कविताए पढ़ी गई... नाटक के दृश्य मंचित किये गए... गाने गाए गए... नृत्य हुआ... याने नाटक की विद्या से जुड़ी लगभग सभी चीज़ देखने को मिली।
पर हम सब एक ख़ालीपन में थे...। हम सभी के भीतर दुबेजी के ना होने की एक ख़ाली जगह थी... इस ख़ाली जगह को देखने के बाद पता चलता है कि असल में दुबेजी कितनी जगह घेरे हुए बैठे थे... हम सबके भीतर उन्होंने अपनी एक जगह बनाई हुई थी। मुंबई थियॆटर को यह जगह भरने में पता नहीं कितना वक़्त लगेगा।
मैंने ’सुख का दुख..’ भवानी प्रसाद मिश्र की कविता सुनाई थी.. और मुझे लगा कि मैं कोई ऎसी बात कह रहा हूँ जो सारे दर्शकों ने रट रखी है...। मैं ही नहीं लगभग सारी प्रस्तुती में यह भाव था कि वह सबको रटा हुआ है... क्योंकि सभी दुबेजी के रिफरेंस में चीज़े सुन रहे थे... कह रहे थे.. जो उस थियेटर में बैठे हर व्यक्ति को व्यक्तिगत तौर पर छू रही थी। हर प्रफार्मेंस में लोग खुलकर हंसते... तालीयाँ बजाते... कभी चुप शांति छा जाती... मेरे ख्याल उस दिन बहुत खूबसूरत नाटक हुआ था... वह नाटक जिसका सभी हिस्सा थे...। नसीर ने कहा कि दुबेजी ने अपने जीवन में इतना काम किया है कि उन्हें एक नींद की ज़रुरत थी जो उन्होंने अपनी मृत्यु के पहले ली... तीन महीने वह सोते रहे... ऊपर बड़े नाटक में हिस्सा लेने से पहले शायद यह उनकी तैयारी थी। हमें जिस तरह दुबेजी को याद करना चाहिए यह धमाल उसका एक बैहतरीन उदाहरण था...। दुबेजी कहते थे (सुनील शानबाग़) कि अगर थियेटर को बचाना है तो हमें दो छोटे थियेटर और चाहिए इस शहर में... जिसमें 200 रुपये से ज़्यादा का टिकिट ना हो... थियेटर खुद बच जाएगा। अभी यह बात हम सबके दिमाग़ में है कि काश हमें प्रयोग करने की एक और जगह मिल जाये...।
वह बहुत अच्छे टीचर थे... डांट कर, चिल्लाकर, प्रेम से वह आपके भीतर से वह उस इंसान को बाहन निकालने में कामियाब हो जाते थे जो बरसों बरस डरा हुआ भीतर बैठा था... यह अलग बात है कि हम अपने डर को जीत जाते थे लेकिन दुबेजी से डरना शुरु कर देते थे। डर के बाद का बदलाव दोस्ती का होता था... हम सब उनके दोस्त हो गए थे। इसलिए शायद उनकी बातों पर जो कभी कभी बचकानी लगती थी, उनकी मृत्यु के बाद भी, उन बातों पर इतनी ज़ोर से हंस सकते थे। वह एक तरीके से कुम्हार थे... जिन्होंने हम सबकी गीली मिट्टी से एक मूर्ति बनने की यात्रा में अपने समझ के हाथ का साथ दिया था।
धमाल में उनकी पसंदीदा चीज़ो को प्रस्तुत किया गया था.. और आप आश्चर्य में पड़ जाएंगे कि किस कदर की अलग-अलग चीज़े उन्हें पसंद थी.... स्वानंद किरकिरे ने ’बावरा मन...’ गाना सुनाया, कुमुद ने ’सुदामा के चावल..’ (उनका निर्देशित नाटक) का अंश प्रस्तुत किया, पूर्वा नरेश ने अपने नाटक अफसाने का एक नृत्य प्रस्तुत किया, नीना कुल्कर्णी ने ‘Educating Rita..’, नमित और शुब्रो ने कुछ उनके पसंदीदा फिल्मी गाने गाए, नसीर ने फैज़ की एक नज़्म पढ़ी... और इसी तरह लोगों ने उत्सव मनाया... उनके हमारे बीच होने का। मुझे पता नहीं क्यों चेतन दातार की बहुत याद आई...चेतन ने एक बार दुबेजी के ऊपर एक छोटा सा नाटक प्रस्तुत किया था बहुत पहले पृथ्वी थियेटर में... मैं उसे कभी भी नहीं भूल पाता हूँ...। मैने चेतन से कहा था कि दुबे पर ऎसा नाटक आप ही लिख सकते हो... मुझे उस वक़्त चेतन से बहुत ईर्ष्या हुई थी।
धमाल का अंत फिल्मी गाने से हुआ.. ’ज़रा हट के, ज़रा बच के यह है बाम्बे मेरी जान...’। सारे लोगों ने एक साथ मिलकर उस गाने को गाया...। जब धमाल खत्म होकर हम सब बाहर आए... तो एक अजीब से किस्सों का सिलसिला शुरु हो गया... हर आदमी के पास बहुत कुछ था कहने को... सभी लोग अपने अनुभव एक दूसरे को सुनाना चाहते थे। मैंने अलग-अलग गुटों में खड़े होकर करीब बीस नए किस्से सुने..... कुछ देर में मुझे लगा कि दुबेजी बहुत जल्द ’विचित्र किंतु सत्य...’ जैसे कोई व्यक्तित्व हो जाएंगे... जिन्हें हमें उनके किस्सों में पकड़ना पड़ेगा। फिर मैं किस्सों से थोड़ा थक कर अकेला खड़ा हो गया... सिग्रेट मुंह को लगाई थी कि.... तभी मुझे एक रिक्शा आता हुआ दिखा... मुझे लगा अभी इस रिक्शे से दुबेजी उतरेगें और पूछेगें... ’क्या मानव, क्या हो रहा है यहां?’ तब मुझे अचानक यह बात बहुत ही डरावनी जान पड़ी कि अब दुबेजी कभी भी यहां नहीं आएंगें...। तब शायद मैंने पहली बार उनका ना होना महसूस किया था... मैंने एक गहरी सांस भीतर ली.... मेरे दिमाग़ में एवम्‍ इंद्रजीत नाटक धूमने लगा.. फिर इंशा अल्लाह के कुछ दृश्य... फिर मुझे धर्मवीर भारती की बात याद हो आई... ’ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे यद्यपि मैं ही वसंत का अग्रदूत- निराला।’ उनके हिसाब से दुबेजी पर यह पंक्ति पूरी तरह लागू होती थी। फिर मुझे भवानी प्रसाद मिश्र की वह कविता याद हो आई जो मैंने कुछ महिनों पहले दुबेजी को सुनाई थी... “आराम से भाई ज़िदग़ी ज़रा आराम से... तेज़ी तुम्हारे प्यार की बर्दाश्त नहीं होती अब...” दुबेजी को यह कविता बहुत पसंद आई थी... उन्होंने कहा था कि ’यह मुझे लिख कर दे दो...।’ मैं उन्हें यह कविता दे नहीं पाया था। फिर अकेले खड़े रहने की हिम्मत नहीं हुई... मैं वापिस सारे लोगों के बीच शामिल हो गया.... जो अभी भी दुबेजी के किस्से में जी रहे थे... जो सभी उनके दोस्त थे।

6 comments:

रश्मि प्रभा... said...

बहुत बढ़िया .... यह कहना काफी नहीं होगा , बस ये कहना है कि धीरे धीरे मैं सारी रचनाओं से गुजर रही हूँ ...

प्रवीण पाण्डेय said...

दुबेजी की यादों का धमाल, रसभरा, यशभरा...

रश्मि प्रभा... said...

http://urvija.parikalpnaa.com/2012/01/blog-post_23.html

S.N SHUKLA said...

बेहतरीन प्रस्‍तुति ।
please visit my blog too.

कविता रावत said...

Dubey ji ki kisson mein dubi sundar prastuti..

सदा said...

बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल