Friday, May 4, 2012
त्रासदी... (भाग-दो)
’कंपते थे दोनों पांव बंधु...’
(कहानी त्रासदी का भाग-दूसरा यह रहा....)
उसने सौलवें में कदम ही रखा था। देर रात चलने वाली कृष्ण लीला उसने कबीट का फल खाकर देखी... घर में आते ही एक थाली उठाकर उसे अपनी उंगली पर घुमाने की प्रक्टिस करने लगा। कृष्ण उसे भा गए थे... अपने दोस्तों में कृष्ण और गोपियों की लीला के किससे वासना में ढूबे हुए होने लगे... फिर किस्सों में कृष्ण हट गए और झूठे सेक्स के अनुभव सारे दोस्त एक दूसरे को सुनाने लगे...। वह अपनी जांघों के बीच हलचल महसूस करने लगा। इन सब बातों का अंत यूं हुआ कि उसने तय किया कि वह बासुरी बजाना सीखेगा। अशुतोष भाई के यहा वह गणित की ट्युशन पर जाता था... उसे याद था कि उनके कमरे में उसने हार्मोनियम रखा हुआ देखा था। आशुतोष भाई स्वभाव से ही गुस्से वाले आदमी थे....। एक दिन जब उसने आशुतोष भाई का मूढ़ थोड़ा ठीक देखा तो उसने उनसे कहा कि ’मैं संगीत सीखना चाहता हूँ... आप मार्गदर्शन करेंगें?’ आशुतोष भाई ने तुरंत अपना हार्मोनियम उठाया और कुछ बिना शब्द के आलाप जैसे चिल्लाने लगे... गणित की ट्युशन धरी की धरी रह गई और उसके कान सुन्न हो गए सो अलग।
एक रविवार की दोपहर अचानक आशुतोष भाई घर आए.आपनी साईकल पर... उन्होंने उसे आवाज़ लगाई... बंटी..(उसके घर का नाम बंटी था।) वह भागा हुआ बाहर पहूंचा तो उन्होंने कहा कि चल तुझे अपने गुरु से मिलवाता हूँ...। उसने चप्पल पहनी और अपनी एटलस गोल्डलाईन सुपर लेकर आशुतोष भाई के पीछे हो लिया। वह शहर के पीछे की तरफ एक मुस्लिम बस्ती में पहुंचे.. वहां एक गली में आशुतोष भाई आकर रुके.. उन्होंने अपनी साईकल को स्टेंड पर लगाया.. उसमे ताला लगाया...। बंटी ने भी उनके ठीक पीछे अपनी साईकल लगाई.. उसमें ताला लगाया...। आशुतोष भाई ने इशारे से बंटी को घर दिखाया... बाहर बोर्ड लगा हुआ था... “संगीत...” और एक वीणा बनी हुई थी... वह बोर्ड लगता था कि किसी आदिम खुदाई में निकला है... हर तरफ से उसका रंग झड़ चुका था... वह बोर्ड खुद बड़ी सहजता से दीवार का हिस्सा लगने लगा था। भीतर छोटे से कमरे में अशुतोष भाई ने एक बहुत बूढ़े आदमी के पैर पड़े... उसने भी उस बूढ़े के पैर पड़े....
’ददा.. यह बंटी है... तबला सीखना चाहता है।“
धोखा... कृष्ण.. गोपियां... अचानक बंटी के पैर ढ़ीले पड़ गए। उससे रहा नहीं गया और उसने कहा कि...
’नहीं... ददा मैं बासूरी सीखना चाहता हूँ।’
आशुतोष भाई ने धूरकर बंटी की तरफ देखा.. बंटी ने अपना सिर नीचे कर लिया...। वह बंटी के पास आए और उसके कान में उन्होंने कहा...
’तू ददा का मज़ाक उड़ा रह है...।’
बंटी ने तुरंत ना में सिर हिलाया...
’ददा के मुंह में दांत नहीं हैं.. शरीर में हवा खतम है... कैसे सिखाएगें तेरेको वह बासुरी...?’
अंत में बंटी के हाथ तबला लगा। ’धा.. धिन.. धिन.. धा...’ से संगीत शुरु हुआ। ददा थोड़ा बताकर सो जाते.. वह तबला पीटता रहता। तभी टी वी पर उसने उस्ताद ज़ाकिर हुसैन का ’वाह! ताज...’ वाला एडवरटाईज़मेंट देखा... उसके कृष्ण का बुखार काफूर हो गया और वह ’धा.. धिन.. धिन.. धा..’ की बजाए सीधा ’तिरकिट धा.. तिरकिट धा..’ बजाने लगा। ददा तिरकिट् पर नाराज़ हो जाते... ’यह क्या कुटुर-कुटुर करता है.. पहले सीधा तो बजा..’ इस बात पर पारुल को बड़ी हंसी आ जाती..। उसकी हंसी में संगीत होता... वह उसे सुनता और तुरंत तिरकिट धा.. तिरकित धा.. कर देता। पारुल गाति थी... वह उसकी संगत में तबला बजाता था। पारुल सुंदर सलवार-कमीज़ पहती थी...। एक दिन बंटी संगत करने उसके सामने बैठा था... तभी ददा को ख़ासी आ गई। आई (ददा की पत्नी) बाहर सब्ज़ी लेने गई हुई थी...। पारुल भीतर जाकर पानी ले आई.. वह भी खड़ा हो गया.. और ददा की पीठ पर हाथ फैरने लगा...। परुल ददा को झुककर पानी पिला रही थी.. तभी परुल की कमीज़ से उसने उसके वक्ष की एक झलक देखी..। कहीं से अचानक बंटी को मंद-मंद राग भोपाली सुनाई देने लगा... तभी उसे उस्ताद ज़ाकिर हुसैन दिखे... वह कृष्ण बनकर बासुरी पर राग भोपाली बजा रहे थे। सब कुछ थम गया... उसकी पलके भारी होने लगी... वह पूरा ज़ोर लगाकर उन्हें खुला रखना चाहता था.... पर वह बंद होना चाहती थीं....। वह इस दृश्य को भीतर गहरे में कहीं सजो लेना चाहती थी.. पर मन इस दृश्य को चखना चाहता था... खाना चाहता था... चबाना चाहता था। तभी अचानक पारुल ने अपना हाथ छाती पर रखकर अपने वक्ष को ढ़ांक लिया। बांसुरी बेसुरी हो गई... ज़ाकिर हुसैन गायब हो गए... वह जहां था वहीं बैठ गया। उस घटना के बाद कुछ भी सामान्य नहीं रहा.. उसकी निगाह पूरे वक़्त पारुल के वक्ष ही टटोलती रह्ती... वह उस दृश्य के पर पहुचने की कल्पना करने लगा। जब-जब उसकी निगाह पारुल से मिलती एक टीस उठती... असहनीय टीस.. मानों किसी ने हृदय पर एक धूंसा जड़ दिया हो...।
दिन साईकिल के पहिये हो गए थे... जो बिना किसी हलचल के चलते रहते... दिन की साईकल अचानक संगीत क्लास में आकर रुक जाती.... और उसे लगता कि बस यही एक घंटे के लिए पूरा दिन होता है..सुबह होती है, शाम होती है, रात होती है.... इस एक घंटे दिन की साईकल रुक जाती है.... इसके खत्म होते ही... दिन की साईकल एक गोल चक्कर लगाती है.. जैसे पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है.... और वपिस यहीं इसी गली में रुक जाती है। कृष्ण लीला अब उसे बहोत पसंद नहीं आती.. कृष्ण आस-पास बहुत सी गोपियां होती.. ना.. यह ठीक नहीं है वह अपने दोस्तों से कहता... राधा और कृष्ण वाली बात उसे अच्छी लगती। जब भी वह पारुल के बारे में सोचता उसके जांधों के बीच वह हलचल महसूस करने लगता।
एक दिन दिन संगीत क्लास के बाद उसने अपनी एटलस गोल्डलाईन सुपर... साईकल उठाई और घर की तरफ जाने लगा... पीछे से पारुल की आवाज़ आई...
’सुनो... रुको... साथ चलते है... तुम रोज़ भाग क्यों जाते हो..?’
वह रुक गया..। उसे पता था कि वह सिर्फ गली के अंत तक ही साथ चल सकते हैं.. उसके बाद वह दूसरी तरफ निकल जाएगी।
’कहाँ रहते हो तुम...?’ उसने चलते हुए पूछा...
’कसेरा बाज़ार में....’
’कसेरे में कहां...?’
’बाज़ार में...।’ उसने सहजता से जवाब दिया...।
’मैं भी आज उसी तरफ जा रही हूँ... मुझे महिला वस्तु भंडार जाना है...।’
तब पहली बार उसके पैर कपे थे...। उन दोनों के बीच में साईकल थी। वह कैसे पारुल को मना करे...। उसका घर बीच बाज़ार में है... लड़की के साथ चलते हुए सब लोग उसे देखेंगे...। वह महिला वस्तु भंडार के बगल में रहता है...। बंटी, छोटी, रग्धू, ठोंठा... बिक्की... सारे दोस्तों के चहरे उसके सामने धूमने लगे। उसके पैरों की कपकपी बढ़ गई।
’मेरा घर महिला वस्तु भंडार के पास ही है... मतलब बगल में है।’
’अरे वाह! तो चलो तुम्हारा घर भी देख लेंगें...।’
और उसे अचानक अपना घर पहली बार गरीब लगने लगा। उसे अपने घर की दरारें याद हो आई...।
’तुम बहुत अच्छा तबला बजाते हो।’
’अच्छा...।’
वह संवाद को कम से कम रखना चाहता था। उन दोनों ने अभी अभी बाज़ार में प्रवेश किया था। वह जितना हो सकता था उतना पारुल से दूर चल रहा था... उसने साईकल को भी बहुत अजीब ढ़ंग से पकड़ा हुआ था। कंधे कड़क थे... चहरे पर हवाईयां उड़ी हुई थी। लगभग हर आदमी उसे पहचान रहा था... धूर रहा था। उसने अपना सिर नीचे कर लिया...। बस वह महिला वस्तु भंडार के पास पहुंच ही गए थे कि तभी.... बंटी, छोटी, रग्धू, ठोंठा, बिक्की नहीं... उनसे भी खतरनाक चोटी... सामने से आता हुआ दिखा..। उसे मोहल्ले में ’चोटी पेपर’ कहते थे.. वह पूरे गांव की खबर रखता था.. और सारी खबरे... मसाला मारकर सबमें बांटता था...।
’ठीक है तो फिर कल मिलते हैं.. मेरा घर आ गया...।’
बंटी ने अचानक रुक कर कहा.. पारुल कुछ आगे निकल गई थी। चोटी.. उन्हें देखते ही सामने पान की दुकान पर रुक गया।
’अरे!! कौन सा घर है...?’
वह अपने घर के सामने खड़ा था पर उसने इशारा मुल्ला जी के घर की तरफ किया... जो उसके घर के ठीक सामने बना था। तीन मंज़िला.. मुल्ला जी ने यह घर अभी अभी बनवाया था। वह महिला वस्तु भंडार की तरफ बढ़ गई.. पर भीतर नहीं घुसी... वह पलटकर बंटी को देखने लगी। बंटी की एक निग़ाह चोटी पर भी थी जो पान की टपरी से हर एक हरकत नोट कर रहा था...। बंटी धीरे-धीरे मुल्ला जी के घर की तरफ बढ़ने लगा... उसने मुल्लाजी की घर के सामने अपनी साईकल खड़ी की... कुछ देर रुका.. देखा पारुल अभी भी महिला वस्तु भंडार के बाहर ही खड़ी है। चोटी समझ गया.. वह पान की टपरी से निकलकर थोड़ा बाहर की तरफ खड़ा हो गया.... वह एक नज़र पारुल पर डालता और एक बंटी पर...। बंटी, मुल्लाजी के घर की सीढ़ी चढ़ने लगा.. तभी उसके घर से उसकी मौसी बाहर निकल आई और उन्होंने चिल्लाया...
’बंटी बेटा कहां जा रहा है...?’
’मौसे... वह...’
घबराहट में उसके मुंह से मौसी निकला...। सब खेल बिगड़ गया.. वह अपनी शर्मिंदगी छुपा नहीं पाया... और भागता हुआ अपने घर की तरफ बढ़ गया। मौसी की कुछ समझ में नहीं आया....
’अरे साईकल वहां क्यों खड़ी कर दी...’
मौसी ने कहा पर तब तक बंटी दौड़ लगाता हुआ सीधा घर में घुस गया। चोटी हंसने लगा... पारुल महिला वस्तु भंडार नहीं गई.. वह वापिस अपने घर की तरफ चल दी...। चोटी उसे गली के अंत तक घूरता रहा।
अकेले रहने की चाह पहली बार बंटी के भीतर उगी थी। वह कई दिनों तक संगीत क्लास नहीं गया, दोस्तों से नहीं मिला। वह पारुल के बारे में सोचता रहता... उसके वक्ष की तस्वीर उसके दिमाग़ में छप गई थी.. जब-जब पारुल के वक्ष दिखते उसके पैर कांपने लगते। एक दौपहर उसके कमरे का दरवाज़ा उसकी मौसी ने खटखटाया... आवाज़ आई कि कोई लड़की तुमसे मिलने आई है...। बंटी धबरहट के मारे सीधा बाथरुम में धुस गया... उसने जल्दी-जल्दी अपने बालों में पानी मारा, कंगी से बाल चिपाए और बाहर आ गया..। पारुल बाहर के कमरे में सोफे पर बैठी थी... बगल में मौसा जी एटलस लिए बैठे थे। मौसा जी को बड़ी आदत थी कि यह बताने की कि वह दुनिया के किस-किस देश में रहे हैं... वह भी उनके बगल में आकर बैठ गया..। पारुल ने उसकी तरफ यूं देखा मानों वह असल में मौसा जी से ही मिलने आई हो...। मौसा जी ने अपनी विदेश यात्राऒं में बंटी को भी शामिल कर लिया... बंटी यह बातें बचपन से सुनता आ रहा है सो वह कुछ खीजने लगा... पर चुप था..। उसके चहरे पर उस दिन के झूठ की शर्मिंदगी अभी भी थी। तभी भीतर से मौसी आईं और उन्होंने मौसाजी को किसी काम से बज़ार भेज दिया...। कुछ देर में मौसी भी चिल्लाती हुई चली गई कि मैं वर्षा की माँ से मिलकर आती हूँ। अचानक वह दोनों अकेले हो गए.. तब लगा कि असल में उनके पास कहने के लिए कुछ भी नहीं है.. बंटी पारुल को देखकर एक दो बार मुस्कुराया..पर पारुल गंभीर बनी रही... फिर अंत में पारुल ने कहा...
’तुम इतने दिनों से संगीत की क्लास में क्यों नहीं आए..?’
’मैं कल से आऊंगा..’
फिर चुप्पी...
’अच्छा घर है तुम्हारा...।’
और वह चुप हो गया..। बंटी को रोना आने लगा.. अपनी गलती पर... वह उठा और अपने कमरे में चला गया। पारुल कुछ देर बाहर बैठी रही.. उसने बंटी को आवाज़ भी दी.... तीसरी आवाज़ पर बंटी का, रुंधे हुए स्वर में जवाब आया...
’आ रहा हूँ...।’
पारुल उठकर उसके कमरे में गई.... वह बाथरुम में था...।
’बंटी क्या हुआ...।’
’मुझे माफ कर दो उस दिन मैंने झूठ कहा था घर के बारे में...’
’अरे जाने दो... तुम बाहर तो आओ..’
’मुझे माफ कर दो.. बस..’
’अरे कर दिया माफ.. मुझे तो लगा शायद तुम्हारी तबीयत खराब है.. इसलिए पूछने आई.. ददा भी परेशान थे कि तुम अचानक नहीं आ रहे हो?’
उसने बाथरुम का दरवाज़ा खोल दिया..। बाहर आया तो वह पसीने-पसीने था। पारुल ने अपनी चुनरी से उसका चहरा पौंछा...।
’बच्चे हो तुम बिलकुल...’
अचानक बंटी ने उसके वक्ष को अपने बहुत करीब पाया..। उसके पैर बुरी तरह कांपने लगे..। पैर उसके शरीर का बोझ उठाने में असमर्थ थे... वह लड़खड़ाने लगा...। पारुल ने उसे पकड़ लिया..। जैसे-कैसे पारुल उसे पंलग तक ले गई। बैठते ही उसने अपने दोनों हाथ अपने घुटनों पर रख दिये.. पर घुटनों का कंपन बंद होने का नाम नहीं ले रहा था। पारुल को यह बहुत अजीब लगा.. उसने उसके घुटनों को छुआ.. छुते ही उसे गुदगुदी महसूस हुई वह हंसने लगी। उसने अपने दोनों हाथों से उसके घुटनों को रोकने की कोशिश की पर वह कंपे जा रहे थे...। उसकी हंसी में बंटी भी थोड़ा सहज हुआ... वह भी अपने घुटनों के इस तरह कांपने पर हंसने लगा। पारुल अचानक नीचे बैठ गई और उसने अपने दोनों हाथों से कस कर घुटने को जकड़ लिया... कंपना अब रह रह कर हो रहा था.. मानों उसका दिल उतरकर घुटने में आ गया हो... उसके घुटने धड़कने लगे थे। पारुल की हंसी अचानक रुक गई...। वह धीरे से उसके बगल में बैठ गई...। बंटी ने कांपते हाथों से उसकी कलाई को पकड़ा.. वह चुप रही.. उसने कलाई से अपने हाथ को धीरे धीरे खिसका कर उसके चहरे की तरफ ले गया...।
’यह क्या कर रहे हो बंटी..?’
यह क्या कर रहे हो बंटी सुनते ही उसके घुटनो का कंपन्न बंद हो गया और उसने अपनी जांघों के बीच हलचल महसूस की...। पारुल के दोनों हाथ मृत पड़े थे...
’बंटी यह ठीक नहीं है...’
यह सुनते ही अजीब सा ज्वर बंटी ने महसूस किया...। उसने पारुल को अपने बिस्तर पर लिटा दिया... और उसके ऊपर चढ़ गया। पारुल ने अपनी आँखे बंद कर ली... बंटी उसे बुरी तरह चूमने लगा...। कुछ देर बाद उसे पारुल के वक्ष याद आए... उसने चुनरी को खींचकर अलग कर दिया। चुनरी हटते ही वह क्या करे उसकी समझ में नहीं आया...। तभी पारुल की सांसे रुकने लगी... वह असहज हो गई.. वह अपने हाथों के ज़ोर से बंटी को अलग कर देना चाहती थी... पर बंटी पर पागलपन सवार था..। तभी उसे ध्यान आया कि घर के सारे दरवाज़े खुले हुए हैं...। वह दरवाज़ा बंद करने के लिए उठा तभी उसे मौसा जी भीतर आते हुए दिखाई दिये और सब खत्म हो गया। वह भागता हुआ, डर के मारे कमरे से बाहर निकल आया... उसने पारुल को वहीं... वैसा का वैसा छोड़ दिया। मौसा जी उसे सामने दिखे... उसे समझ में नहीं आया कि वह क्या कर तो वह सीधा किचिन में चला गया। मौसा जी वहीं खड़े रहे... पारुल उसके कमरे से निकली और सीधे घर के बाहर निकल गई। मौसा जी सन्न खड़े रहे... उनकी कुछ समझ में नहीं आया कि क्या हुआ?
बहुत दिनों के बाद एक शाम मौसा जी ने बंटी से माफी मांगी थी।
बंटी को पहली बार महसूस हुआ कि खुद के भीतर एक भरा पूरा संसार है। उसका संसार नदी की तरह है। जब गोता लगाओ तो पता लगता है.. बहुत गहरे सब कुछ हरा है.. और उस हरेपन के भी परे सब अंधेरा है...। वह भीतर जाता जा रहा था... भीतर अंधेरे के करीब उसे अपनी ही दो आँखे दिखती थी.. खुद उसको देखती हुई...। वह डर जाता... पर उसे रहस्य में सुख दिखने लगा था...। उसे दो आँखों के अगल-बगल पारुल के वक्ष भी दिखाई देते हैं.. पर उनके दिखने से उसके पैर नहीं कांपते..। पारुल का सामना करना खुद अंधेरे में अपनी आँखों का सामना करन जैसा था... वह डरता था.. सो बहुत दिनों तक वह संगीत क्लास नहीं गया।
एक दौपहर वह संगीत क्लास के सामने खड़ा था। भीतर से पारुल के गाने की आवाज़ आ रही थी। तीन-ताल... वह इस उसकी इस राग पर तीन ताल बजाता था... तीन ताल बज रहा था। उसे आश्चर्य हुआ कि उसकी जगह किसने ले ली... वह भीतर पहुंचा तो आशुतोष भाई तीन ताल बजा रहे थे। वह एक कोने में जाकर बैठ गया। पारुल ने गाते हुए उसको कुछ युं देखा जैसे जानती ही ना हो... आशुतोष भाई ने उसकी उपस्थिति भी दर्ज नहीं की। बंटी को लगा कि उसका आना किसी को ठीक नहीं लगा... राग खत्म होने पर आशुतोष भाई ने पारुल की तारीफ की... ददा ने उसक हाल पूछा... पारुल चुप रही...। कुछ देर में पारुल उठी, उसने ददा के पैर छुए.. और बाहर निकल गई... वह भी उठा.. उसने ददा के पैर छुए और जाने को हुआ...
’सुनों बंटी तुम रुको.. तुमसे बात करनी है...।’
पारुल बाहर उसके चलने का इंतज़ार कर रही थी..। वह दहलीज़ पर खड़ा रहा.. उसने पारुल को देखा... पारुल समझ गई..। वह मुस्कुराई और अकेली जाने लगी। बंटी की इच्छा हुई कि वह तबला उठाकर आशुतोष भाई के सिर पर मार दे और पारुल के साथ चला जाए.... पर नहीं.. अच्छे लड़के ऎसा नहीं करते.. वह डरते हैं.. वह डरपोक होते हैं.. वह भी अच्छे लड़के होने की लाईन में था... पूरा बचपन इसी संघर्ष में बीता था... और उसे पता था कि वह ऎसा ही बीतेगा। वह एक अच्छे लड़के की तरह दहलीज़ के इस तरफ ही रहा.... उसने दहलीज़ पार नहीं की...। आशुतोष भाई ने ददा के पैर छुए और बंटी को अपने साथ चलने का इशारा किया। बंटी आदेशानुसार उनके पीछे हो लिया....
गली में उनकी बात चीत...
’तो कैसा चल रहा है संगीत?’ आशुतोष भाई बोले...
’सही... ठीक.. अच्छा।’ हकलाते हुए उसने कहा...
’पारुल अच्छी लड़की है।’
’हें!!!’
’क्यों तुम्हें अच्छी नहीं लगती?’
’हाँ.. मेरा मतलब है कि.. अच्छा गाती है।’
’अच्छा तुम्हें उसका गाना अच्छा लगता है?’
’ठीक गाती है आशुतोष भाई...।’
’क्यों तुम अच्छा बजा लेते हो?’
’हें!!!’
’उसे संगत देते हो ना!! ददा बोल रहे थे खुद को ज़ाकिर हुसैन समझते हो तुम।’
’मैं??? नहीं भईया।’
’पारुल के बाप के बारे में जानते हो?... डॉक्टर है वह.... अंग्रेज़ी कुत्ते हैं उनके घर में... पारुल अपने कुत्तों से भी अंग्रेज़ी में बात करती है..। तुम्हें माय नेम इज बंटी के अलावा कुछ और कहना आता है?’
बंटी समझ गया था कि यह बात कहां जा रही है... वह अपनी शर्ट के तीसरे बटन को देखने लगा... और मौन हो गया...। वह अब पश्चाताप कर रहा था... काश वह पहले ही तबला उठाकर आशुतोष भाई के सिर पे दे मारता तो अभी इन सारे सवालों का उसे सामना नहीं करना पड़ता।
’हें....!!! क्या हुआ!! जवाब दो!! कितनी अंग्रेज़ी आती है तुम्हें...। कहीं पारुल के कुत्तों को घुमाना पड़ा तो माय नेम इज बंटी से काम नहीं चलेगा... क्या? पारुल के कुत्ते घुमाना चाहते हो?’
’मैं क्यों घुमाऊंगा उसके कुत्तों को... भाईया?’
’अच्छा तो उसे घुमाना चाहते हो?..... हें??? क्या कह रहा हूँ.. सुन रहे हो?’
आशुतोष भाई की आवाज़ में गुस्सा भर गया था। बंटी की ठुड्डी कांपने लगी थी... आँखें पाने फेंकने लगी थी।
’उस बेचारे बूढ़े आदमी के सामने.. जिसे दिखता भी कम है.. तुम यह सब घटिया काम कर रहे हो? हें? क्या उम्र है तुम्हारी...? तबला सीखने निकले थे जनाब पर सीख कुछ ओर ही गए... क्या करें?’
बस इस बात पर बंटी आपने आंसूओ को रोक नहीं पाया... वह ज़ार-ज़ार रोने लगा। आशुतोष भाई अब चुप हो गए थे... उन्होंने बंटी को उसके घर तक छोड़ा... घर के सामने रुककर उन्होंने बंटी के सिर पर हांथ फैरा और कहा...
’वह सामने मुल्ला जी का घर है... तुम्हारा घर यह है.. पता है ना तुम्हें?... कल से सुबह का समय करा लो... और तबला बजाने पे ध्यान दो...।’
बंटी अच्छे लड़के की तरह चुपचाप आशुतोष भाई की बातें सुनता रहा...। कुछ देर में सिर नीचा करके वह घर में घुस गया। उसे लगा कि इस पूरे गांव में वह सबसे पापी लड़का है..। वह इस बात का पश्चाताप करना चाहता था। उसने मौसा जी से पाप के प्राश्चित के संबंध में बातें की... मौसा जी ने के कहा कि काले महादेव पर जाओ और सच्चे मन से यदी माफी मांगोगे तो वह माफ कर देंगें...। मौसा जी के कहने पर वह हर दौपहर काले महादेव पर जाकर बैठ जाता.... घंटों माफी मांगता.. पर पारुल के वक्ष हर कुछ देर में उसे अपनी आँखों से सामने दिखने लगते... वह खुद का सिर पीटता... फिर काले महादेव से माफी मांगता कि देखो आपके पास भी मैं वही सब सोच रहा हूँ.. कितना बड़ा पापी हूँ मैं....। उसे लगा कि इस पाप से शायद छुटकारा नहीं है... उसे कुछ ओर करना पड़ेगा..। उसका खाना पीना सब गड़मड़ हो गया था... आँखों के नीचे गहरे काले गढ़ढ़े उभर आए थे.... पर वह रोज़ सुबह संगीत क्लास में जाता था... ददा जो कहें वह उसे आँखें नीची करके स्वीकार कर लेता था। उसे ज़ाकिर हुसैन या कृष्ण.... कुछ भी नहीं बनना था... वह गायब हो जाना चाहता था.. अदृश्य... बहुत अधिक गुस्से में वह कल्पना करता कि वह अशुतोष भाई के सिर पर तबले फोड़ रहा है... पर यह भी उसे बहुत गहरे पाप से भर देता... वह फिर इस पाप का प्राश्चित करने काले महादेव पर जाकर बैठ जाता।
एक सुबह वह बेमन तबला पीट रहा था कि उसे दरवाज़े पर पारुल खड़ी दिखी..। एक टीस उठी.. मानों किसी ने एक कील उसके हृदय में गाढ़ दी हो...। बंटी का चहरा बिगड़ गया.... पारुल उसके सामने नहीं बल्कि बगल में आकर बैठ गई...। ददा उसे देखकर खुश हो गए...। वह काले महादेव को भूल गया.. अपने सारे दिनों के प्राश्चित भूल गया...। उस दिन जो बंटी के कमरे में घटा था वह अब बंटी और पारुल का राज़ बन गया था... पर वह राज़ भी रहस्य था दोनों के लिए.. उस रहस्य एक तार की तरह दोनों को एक दूसरे की तरफ खींच रहा था। बंटी के पास पारुल को सीधे देखने का साहस नहीं था... पर वह वापिस सांस ले सकता था... उसे भूख लगने लगी थी... उसे लगा कि पता नहीं कितने दिनों से उसने खाना नहीं खाया है...। पारुल ने गाना शुरु किया और वह तबले पर ज़ाकिर हुसैन बन चुका था...।
संगीत क्लास के बाद दोनों गली के छोर तक चुप-चाप पहुंच गए। बंटी दांए मुड़ गया और पारुल बांए...। दांए मुड़ते ही बंटी ने एक गहरी सांस बाहर छोड़ी... जैसे वह अभी तक सांस रोके चल रहा था... तभी पारुल ने आवाज़ लगाई...।
’बंटी... मुझे महिला वस्तु भंडार पर कुछ काम है.. मैं तुम्हारे साथ चलूं?’
बंटी ना कहना चाहता था पर उसका सिर हा.. में हिल गया...। पारुल उसके साथ हो ली...। इस बार बंटी को डर नहीं था.. उसके दिमाग़ में उसका एक भी दोस्त नहीं आया... वह मुस्कुरा रहा था...। इसी बीच पारुल ने अपने संगीत के रजिस्टर से निकालकर उसे एक मोर का पंख दिया...
’यह मैं अगले दिन तुम्हारे लिए लाई थी.. पर तुमने तो आना ही बंद कर दिया था.. तो...’
’बहुत सुंदर है यह...।’
बंटी ने बात काट दी.. और मोर के पंख को निहारता रहा।
’एक चीज़ और है...!!!’
उसने अपने बेग़ से एक छोटी सी डायरी दी...। यह भी तुम्हारे लिये है...। बंटी ने देखा उस डायरी के पहले पन्ने पर कुछ लिखा है जिसे पढ़ने की उसकी हिम्मत नहीं हुई..। उसने सीधा उस डायरी को जेब में रख लिया।
’एक चीज़ और है...!!!’
उसने बेग़ से एक पेन निकाला।
’बस मैं इतनी सारी चीज़े नहीं ले सकता।’
’रख लो तुम्हारे ही लिये हैं...।’
बंटी ने पेन भी रख लिया। उस पेन पर किसी दवाई की कंपनी का नाम लिखा था.. फिर उसे याद आया कि उसके पिताजी डॉक्टर हैं... और उसे अचानक आशुतोष भाई की बातें याद हो आईं।
’तुम्हें पता है ना कि मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती है?’
’क्या...?’
’और मुझे कुत्ते भी बहुत पसंद नहीं हैं।’
पारुल की कुछ समझ में नहीं आया। बंटी घोषणा कर चुका था... सो हल्का होकर मुस्कुरा रहा था.. पारुल हंसने लगी.. वह भी उसके साथ हंसने लगा।
महिला वस्तु भंडार पर पारुल कुछ देर चूड़ियों के दाम पूछती रही.. फिर बिंदी का एक पत्ता लेकर वह वापिस हो ली। बंटी नए कपड़े बदलकर अपने घर के दरवाज़े पर खड़ा था। पारुल बंटी को देखकर हंस दी...।
बंटी ने भीतर जाते ही पाकेट डायरी खोली.. खोलते ही उसे डर लगा सो उसने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर दिया। पहला पन्ना पलटाया... उसपर लिखा था.. ’तबलची बंटी के लिए...’ और नीचे एक हंसता हुआ चहरा था। उसी पन्ने के आखिरी कोने पर उसने अपना नाम लिखा था.. पारुल...। बंटी रात भर मोर के पंख को अपने सिरहाने रखकर निहारता रहा।
उसके दिनों में जैसे किसी ने शक्कर घोल दी हो... हर चीज़ मीठी थी... हर उपस्थिति पूर्ण थी।
अगली सुबह वह पारुल के सामने बैठा था..। पारुल ने देखा कि उसका दिया हुआ पेन बंटी ने अपनी शर्ट की जेब में खोसा हुआ है। ददा उसे नई ताल सिखा रहे थे.. पर उसका ध्यान पारुल पर था। तभी आशुतोष भाई दरवाज़े पर प्रगट हुए।
कभी-कभी सपने बड़ी बेरहमी से टूटते हैं... उनके टूटने की आवाज़ सालों तक कान में गूंजती रहती है।
इसके बाद सब कुछ शांति से निपट गया। आशुतोष भाई ने फिर बंटी के साथ चलते-चलते प्रश्नों की झड़ी लगा दी... बंटी फिर रोया.. फिर पचताया.. इस बार वह आशुतोष भाई के सिर पर तबले के साथ-साथे हारमोनियम भी फोड़ देना चाहता था। अंत में आशुतोष भाई अड़ गए कि वह तुम्हारी गुरु बहन है... अपनी बहन के साथ तुम.... इसके बाद बंटी को कुछ सुनाई नहीं दिया... बंटी ने अंत में कहा कि...
’पारुल बहन है मेरी.. आशुतोष भाई... माफी...’
तब जाकर आशुतोष भाई शांत हुए..। बात काले महादेव के हाथों से छूट चुकी थी... बंटी को लगा कि वह माफी मांगने लायक नहीं है...। इन सब बातों का सिला यह हुआ कि उसने पहली फुर्सत में संगीत को जीवन से अलविदा कहा... और उस वक़्त के फैशन के हिसाब से वह बाज़ार से सलफाज़ की गोलियां खरीदकर ले आया....। कई रात वह उन गोलियों को अपने तकिये के नीचे रखकर सोया... गहन उदासी के लम्हों में वह उन्हें निकालकर देखता... और वापिस रख देता।
एक शाम मौसा जी उसके कमरे में आए... बंटी अपने पलंग पर चित्त पड़ा था। मौसा जी ने उसके कंधे पर हाथ रखा वह हड़बड़ाकर उठा...
’मैं घाट धूमने जा रहा हूँ... तबियत कुछ नासाज़ लग रही है.. तुम चलोगे...?’
बंटी बिना कुछ कहे उनके साथ चल दिया। वह दोनों नदी किनारे बैठे थे.. आरती का समय हो गया था... पीछे मंदिर में आरती और घंटो की आवाज़ सुनाई दे रही थी। बंटी बहुत शांत था... मौसा जी को रज्जू की दुकान के पेड़े बहुत पसंद थे.. आते वक़्त वह पाव भर खरीद लाए थे...। अपने हिस्से के पेड़े वह खा चुके थे.. बंटी के हिस्से के पेड़े अभी भी वैसे ही पड़े थे। बंटी उन्हें चखकर भूल गया था।
’अरे बंटी... पारुल मिली थी बाज़ार में.. मुझे लगा उसने मुझे पहचाना नहीं... या शायद भूल गई हो...।’
मौसा जी ने ज्यों ही पारुल का नाम लिया बंटी भभक कर रोने लगा। बंटी शर्म के मारे नदी पर चला गया और अपना मुँह धोने लगा। मौसा जी अपने जगह पर ही बैठे रहे। बंटी के हिस्से के पेड़े उन्होंने उठाकर अपने पास रख लिये..। कुछ देर में बंटी वापिस आया... मौसा जी चुप रहे... बहुत देर तक कोई कुछ नहीं बोला...। असहजता मौसा जी से बर्दाश्त नहीं हुई सो वह पेड़े खाने लगे..।
’मैं बहुत परेशान हूँ मौसा जी..।’ अंत में बंटी बोला...
’क्या बात है...?’
’जाने दो...’
’बड़ी ज़ालिम उम्र में हो.. इस वक़्त बहुत कुछ कर गुज़रने का मन करता है.. प्रेम से लेकर रेवेल्यूशन तक सब कुछ...सब कुच लगता है कि मुठ्ठी में है.. तुम मुठ्ठी खोलोगे और वह सब वहां पड़ा मिलेगा जो भी तुमने सोचा था... और मज़े की बात है कि मिलता भी है... पर हर चीज़ जो मिलती है उसकी एक क़ीमत होती है.. वह क़ीमत चुकानी पड़ती है.... उसका कोई पार नहीं है...। सच कहता हूँ यह ज़िंदग़ी बहुत लंबी है... हद से ज़्यादा लंबी... बहुत टाईम है तुम्हारे पास... इतनी जल्दी मुठ्ठी मत खोलो...।’
इन शब्दों ने बंटी पर बहुत असर छोड़ा...। बंटी खुद को मौसा जी के बहुत करीब महसूस करने लगा। संगीत... कृष्ण... उस्ताद ज़ाकिर हुसैन... वह सब भूल चुका था... पर पारुल उसे याद थी...। उसका दिया हुआ पेन, मोर का पंख और डायरी... सब वह अपने पास रखता था.. संभालके।
एक दिन पारुल, महिला वस्तु भड़ार के बहाने बंटी के घर आई...। मौसा जी ने उसे अंदर बुलाया.. चाय पिलाई.. जब उसने बंटी के बारे में पूछा तो.. मौसा जी ने उसे बताया कि वह तो शहर जा चुका है.. उसका एडमिशन बोर्डिंग स्कूल में हमने करा दिया..। पारुल ने चाय वहीं छोड़ दी और वह उठकर चली गई। मौसा जी और बंटी ख़तों से एक दूसरे के संपर्क में रहते थे.. पर मौसा जी ने कभी बंटी को पारुल के आने की बात नहीं बताई..।
त्रासदी... (भाग-एक)
(कहानी शायद पांच भागो में है... सो भाग-एक यह रहा.....)
बीमार...
सुबह पांच बज रहा होगा। वह बिना आवाज़ किये तीसरी बार बाथरुम जा रहा था। बाथरुम का दरवाज़ा पूरी तरह बंद नहीं होता था.... दरवाज़े और चौखट की लकड़ी आपस में अटक जाती थी। मौसी ने कहा था कि दरवाज़े में चिटकनी लगाने की ज़रुरत नहीं है बस उड़का दे...। बिना चटकनी लगाए कोई कैसे पैखाना जा सकता है...। तीनों बार उसने ज़ोर लगाकर चटखनी लगा दी। पिछले पचास सालों की आदत का वह क्या कर सकता था...? बिना चटकनी लगाए वह कभी हगा नहीं था.... यूं भी घर में उसके और मौसी के अलावा कोई नहीं था... पर दरवाज़ा तो था... और उसका पूरी तरह बंद होना एक सुरक्षा प्रदान करता है... जब तक वह सुरक्षित महसूस नहीं कर लेता उसका पेट साफ होना असंभव था। तीसरी बार दरवाज़ा खुलने का नाम नहीं ले रहा था... उसने बहुत ज़ोर लगाया पर वह अटका रहा... सोचा मौसी को आवाज़ लगा दे... उसका अनुमान था कि मौसी दरवाज़े की पहली ही आवाज़ में जाग गई थीं... पर यह महज़ अनुमान ही था। वह रुक गया..। बाथरुम में कपड़े और नहाने का साबुन साथ रखा था.. एक के ऊपर एक। कुछ भीगे हुए कपड़े एक छोटी हरे रंग की बाल्टी में रखे हुए थे। आईना अपने कोनों में ज़ंग खाकर खत्म हो चुका था...पर ठीक बी़च में वह अपना चहरा देख सकता था... उसने अपनी उंग्लियों से आईने के कोनों को छुआ.... खुरदुरे... मटमैले... कत्थई कोने। आईने को अपनी हद कैसे पता है? कैसे उसे पता है कि इस सीमा के बाद चहरा शुरु होता है..? उसने अपने चहरे को ध्यान से देखा... शायद साफ आईना होता तो वह यह ना करता... झुर्रियां...अपने चहरे की झुर्रियां.. आँखों के कोने... माथे की तरफ... पचास साल के गहरे होते निशान।
उसने कुछ और कोशिश की... पर दरवाज़ा खुलने का नाम नहीं ले रहा था। हारकर उसने आवाज़ लगाई...’मौसी... मौसी...’ उस तरफ से कोई आवाज़ नहीं आई..। शरीर में कमज़ोरी इतनी आ गई थी कि दो आवाज़ में ही पेट गुडगुडाने लगा... उसने दरवाज़े को फिर धक्का मारा और चिटकनी लगा दी...। पर इस बार पहले उल्टी हुई... रात का, सुबह का पिया हुआ सारा पानी बाहर निकल आया... सिर्फ पानी। तभी मौसी ने दरवाज़ा खटखटाया...
’इंदर... इंदर तूने ठीक है...?’
’मौसी दो मिनट...’
’अरे चिटकनी लगाने को मना किया था... इंदर... इंदर...।’
इंदर ने चिटकनी खोली...। मौसी बाहर से ऎसे धक्का दे रही थीं मानो दरवाज़ा तोड़ रही हो...। दरवाज़ा खुलते ही इंदर लड़खड़ा गया...। हाथ फिसलकर छोटी हरी बाल्टी में चला गया...। मौसी ने भीतर आकर उसे सहारा दिया...। खड़े होते ही वह थक गया... मानो कई हज़ार सीढ़ियां चढ़ा हो....। वाशबेसिन का सहारा लेकर वह खड़ा हो गया..। मौसी उसके बगल में उसे सहारा दिए खड़ी थीं...।
’क्या हुआ इंदर...?’
तभी इंदर के दिमाग़ में आया मौसी यह सामने ज़ंग खाया आईना कैसे देखती होंगी...? उन्हें अपना चहरा देखने के लिए किसी चीज़ पर चढ़ना पड़ता होगा... किस चीज़ पर? वह अचानक पूरे बाथरुम में वह चीज़ तलाशने लगा..
’क्या हुआ इंदर कुछ गिर गया क्या?... अरे तेरा तो पूरा शरीर तप रहा है....। तू चल अभी.. अस्पताल चलते हैं... चल...।’
मौसा जी की मृत्यु छह महीने पहले ह्रिदय गति रुक जाने की वजह से हुई थी। वह तब महज़ दो दिनों के लिए आ पाया था। जल्द आने को कह गया था... पर जल्द नहीं आ पाया....। ऑफिस... काम... संबंध... व्यस्तता.. आलस... बोरियत... कमीनापन... और खुद के साथ रहने की थकान... यह सारे कारण मिलाकर भी पूरा कारण नहीं बनता जिसे वह मौसी को कह सके? मौसी ने भी एक बार ही पूछा... वह खिसिया दिया.. मौसी ने बात बदल दी..। वह नहीं आना चाहता था... वह अभी भी नहीं आना चाहता था... वह कुछ नहीं जैसी निर्थकता में कहीं चरता रहना चाहता था...। ऎसी निर्थकता में आदतन सब कुछ हो रहा होता है... वह आदतन जी रहा था... इस आदत में कहीं हज़ारों लोग अचानक मर जाएं... या घर में चूहा आकर नई शर्ट कुतर डाले... दोनों ही पीड़ा का एक छोटा बुलबुला बनाते और वह बुलबुला दृश्य होते-होते फूट पड़ता..। बुलबुले के भीतर से जो दुनिया थोड़ी सी विकृत दिखने लगी थी... कुछ ही देर में सामान्य हो जाती... फिर सब कुछ वैसा का वैसा होने लगता...। मानों कोई देखी-दिखाई फिल्म चल रही हो... जिसके सारे दृश्य पता हो... सारे आश्चर्य अभिनय हों... सब कुछ जिया जा चुका हो... फिर भी रोज़ भूख लगती हो.... और रोज़ वही, एक ही जैसे स्वाद की स्मृति उसे खाने और हगने के चक्र के बीच में खड़ा कर देती हो।
वह मौसी के साथ अस्पताल की और चल दिया..। दो गलि छोड़कर एक प्रायवेट अस्पताल था...। कुछ दूर चलते हुए वह रुक गया...। मौसी के हाथ में पानी की बोतल थी..
’पानी पी ले...’
उसने मना किया और धीरे-धीरे चलने लगा..। पौ फटी थी... चौक पर अख़बार वालों की हलचल थी..। बहुत सी साईकिलों के बीच अख़बार वाले अपने-अपने अख़बार छांट रहे थे... ताज़ा खबरें.. सुर्खियां.. सब ज़मीन पर बिखरी पड़ी थीं..। ट्न..ट्न..ट्न.. की आवाज़ से उसकी निग़ाह पीछे चाय की दुकान पर चली गई... ऎसी सुबहों में उसे चाय पीना बहुत पसंद था... पर अभी चाय की कल्पना भी उसे बाथरुम याद दिला रही थी... उसने वहां से निगाह हटा ली..। उसके सामने एक काले रंग का कुत्ता चला आया... वह उसके साथ-साथ चलने लगा.. उसे कुत्ते बहुत पसंद नहीं थे... उसे ख़ीज होने लगी...। मौसी ने एक पत्थर उठा लिया... कुत्ता दुम नीची करके एक किनारे हो गया... पर कुछ दूरी बनाए वह पीछे-पीछे चला आ रहा था।
’शेखर अस्पताल’ उस बिल्डिंग में कई जगह लिखा था..। सामने लोहे का शटर था.. जो बंद दिख रहा था.. पर कोई ताला नहीं था। भीतर वीराना था.. सिर्फ एक ट्युबलाईट की रोशनी रिसेप्शन से चारों और फैली थी.. पर डेस्क पर कोई नहीं बैठा था। मौसी ने पानी की बोतल को इंदर के हाथों में पकड़ा दिया और खुद ज़ोर लगाकर शटर खोलने की कोशिश की.. पर वह कहीं अटक रहा था। फिर उन्होंने हारकर आवाज़ लगाई..। एक आदमी हाथ में बड़ी सी झाडू लिए चला आया... उसने एक झटके में दरवाज़ा खोल दिया..। जैसे ही इंदर ने अंदर प्रवेश किया... वही अस्पताल की बू,, उसके पूरे जिस्म में फैल गई..। दवाईया.. पसीने... खून.. पिशाब.. मृत.. ज़िदा.. बीमार बू...। कोमा में अपनी बहन के साथ बिताया समय.. हेपेटाईटिस-बी से लड़ते हुए पिताजी के अंतिम कुछ साल... अपनी पत्नि की टी.बी.... पीलिया की दौड़धूप... बहुत से दोस्तों के मौसी-बाप.. खून देना.. लाश उठाना.. पोस्टमार्टम.. बू.. बू.. बू...।
कमरा नंबर एक सौ चार... लिफ्ट काम नहीं कर रही थी.. उसे पहले माले पर सीढ़ी से ही जाना था। वह धीरे-धीरे सीढ़ी चढ़ने लगा..। मौसी उसकी बीमारी के पहले सुस्त थी अब वह बहुत फुर्ती में आ गई थीं... उन्हें एक काम मिल गया था... कुछ लोग होते हैं जिन्हें लोगों की चिंता करने में सुख मिलता है...। मौसी सीढ़ी चढ़ने में भी इंदर की मदद करना चाहती थीं... अपनी पूरी चिंता से... वह कभी इंदर के आगे चलती कभी उसके बगल में चलते हुई उसका हाथ पकड़ लेतीं तो कभी पीछे-पीछे चलने लगतीं..। इंदर रुक गया.. ठीक वैसे ही जैसे वह सुबह कुत्ते के सामने रुका था... उसने मौसी को आगे जाने का इशारा। मौसी जल्दी-जल्दी सीड़ी चढ़ गईं..। वह कमरा नम्बर एक सौ चार के सामने रुकी थीं....। भीतर एक औरत बिस्तर की चद्दर बदल रही थी। वह लेटना चाहता था... उसके पैर जवाब दे रहे थे.. पेट में रह-रह कर मरोड़े उठ रही थीं। उसके कमरे के ठीक सामने कमरा नम्बर एक सौ तीन था... जिसका दरवाज़ा हल्का खुला हुआ था..। बिस्तर पर कोई लेटा था और उसके हाथ आकाश की तरफ उठे हुए थे। उसने थोड़ा ध्यान से देखा वह किसी लड़की के हाथ थे.. पतले... एक हाथ में घड़ी थी.. वह अपनी उंगलियों से हवा में कुछ बना रही थी... या किसी का नाम लिख रही थी... उसकी बहुत इच्छा हुई उसका चहरा देखने की... पर दरवाज़ा बहुत कम खुला हुआ था.. वह हल्का दाईं ओर झुका.. पर उस लड़की की ठुड्डी ही दिखाई दी बस... तभी उसने आकाश में कुछ बनाना रोक दिया... मानों उसे मेरी आँखों की चुभन महसूस हुई हो... उसने झटके से अपना सिर उठाया और सीधा उसकी और देखने लगी...। वह चौंक गया.. पकड़ा गया... ’वह मेरी मौसी को बता देगी...’ वाला गिल्ट उसके भीतर मरोड़ की तरह उठा.. वह सीधा कमरा नम्बर एक सौ चार में घुसा और खुद को बाथरुम में बंद कर लिया।
अस्पताल... इसका एक केरेक्टर होता है..। सरकारी अस्पताल अपनी पूरी गंदगी में आपके चहरे पर होते हैं... और प्रायवेट अस्पताल, अस्पताल जैसा ना दिखने की ज़िद्द, आपको डरा देती है। इंदर समर्पण कर चुका था..। उसने अपना बटुआ मौसी को दे दिया था.. जब वह आँखें खोलता मौसी लोगों में उसे पैसे बाटती हुई दिखतीं...। कई बाटल ड्रिप और कई बार हगने के बाद... उसके सामने अंग्रेज़ी से संघर्ष करता हुआ एक डाक्टर आया.. उस डाक्टर के अगल बगल में बहुत से उसके चम्चे जैसे असिस्टेंट थे...। डाक्टर बिल्कुल डाक्टर के जैसा दिख रहा था... जैसे हमारे देश में जो चीज़ जैसी है बिल्कुल वैसी ही दिखती है...। उस डाक्टर की पतली सी काली मूछें... साफ चमकदार शर्ट.. अभी-अभी काले किये हुए बाल.. हल्की तोंद... कस कर बांधा हुआ ढ़ीला पेंट... काले चमकदार जूते.. और शरीर से आती हुई... अमृत जैसी खुशबू...।
’हाउ आर यू फीलिंग सर...?’
डॉक्टर ने बहुत करीब आकर पूछा...। इंदर कुछ कहने को हुआ उसके पहले ही डॉक्टर ने अपने असिस्टेंट से ’खुसुर-पुसुर’ जैसी ध्वनी में तीन बातें कहीं और तेज़ कदमों से चलता हुआ कमरा नम्बर एक सौ तीन की तरफ निकल गया।
कितना सस्ता है सब कुछ... इंदर ने सोचा... मेरा अब तक का जिया हुआ। एक क्षण में यह खुशबूदार आदमी कह सकता है कि अब बहुत मुश्किल है... और सब कुछ झड़ जाएगा... मेरा सारा बिखरा हुआ.. बटा पड़ा इंदर.. एक थड़ की आवाज़ के साथ खत्म हो जाएगा..। शायद कोई आवाज़ भी ना हो... ठीक उस क्षण से मैं अतीत की किसी गुफा में ज़बर्दस्ति घुसेड़ा जाऊंगा... जहां मौसा जी गायब हुए हैं... वहां शायद मुझे वह मिलेंगे.. क्या मैं वहां भी उनसे वही व्यस्तता का अभिनय करुंगा..। अपना सस्ता.. सुस्त.. घटिया अभिनय...। मौसा जी पिछले कुछ सालों में बहुत चुप रहते थे.. मौसी चुप्पी से ठीक उलट थीं... वह महिलाओं के साथ गप्पबाज़ी में अपना मनोरंजन ढ़ूढ़ने लगी थीं...। मौसाजी के ख़त मुझे हर कुछ समय में मिल जाते थे... कुछ अधूरे पढ़े और कुछ अभी तक नहीं खोले हैं।
वह सो चुका था..। डॉक्टर के जाते ही उसकी गहरी नींद लग गई थी। मौसा जी सपने में आए थे.. वह बहुत सुस्त लग रहे थे.. वह अपने सारे ख़तों को लेकर उसके पास आए थे... वह व्यस्त है वह कहता रहा पर वह इंतज़ार कर रहे थे..। वह अपने ऑफिस की खिड़की से देखता.. वह बिल्डिंग के नीचे खड़े उसकी राह तक रहे हैं.। इंदर हड़बड़ाकर उठ गया.. उसने उठते ही दो तीन बार अपनी आँखें घिंसी.... क्या हुआ? कितना बजा है? देखा बग़ल के तख़त नुमा पलंग पर मौसी नहीं है.. उस छोटी सी गुफा रुपी कमरे में कोई भी नहीं था..। उसे सांस लेने में तकलीफ होने लगी.. उसे लगा कि यह अतीत की गुफा है, अतीत का कमरा... जिसमें उसे ज़बर्दस्ती ढ़ूंसा जा रहा है... उसने चिल्लाया...।
’नर्स.. नर्स... सिस्टर.. सिस्टर...’
एक वृद्ध महिला आई जिसकी आवाज़ में मौसी सा अधिकार था...
’क्या है?.. आराम करो.. अभी बहुत ड्रिप लगने हैं...।’
’बाथरुम...’
बस एक यह ही शब्द काम करता था। नर्स ने थोड़ा मुंह बनाया.. उसके हाथ से सिरिंज निकाली... उस सिरिंज को वापिस बोतल में ठूंसा. और एक छोटा सा ढ़क्कन उस सिरिंज की जगह लगा दिया।
’जाओ.. हो जाए तो आवाज़ लगा देना...।’
’जी....।’
सिस्टर/नर्स तेज़ कदम ताल करती हुई निकल गई। उसे बाथरुम नहीं जाना था.. वह किसी एक इंसान से बात करना चाहता था। इस दुनिया के इंसान से... वह सपने में था जो बहुत ही असल सा था..। वह बहुत कमज़ोरी महसूस कर रहा था...। पीठ में टी शर्ट चिपकी हुई थी... पसीने से... उसने सोचा फ़ेन चालू कर दूं... तभी उसकी निग़ाह कमरा नम्बर एक सौ तीन के दरवाज़े पर गई... वह दरवाज़ा पिछली बार से कुछ ज़्यादा खुला हुआ था। वहां कोई है... कोई ऎसा जो इसका इंतज़ार कर रहा है... जो इसे जानता है.. शायद मौसा जी हों अपने ख़त लेकर.. नहीं.. पर उसने वहां एक एक लड़की का हाथ देखा था... वह अपने कमरे, एक सौ चार, की चौख़ट तक आया...। उस कोरिड़ोर के अंतिम छोर पर कुछ लोग खड़े थे.. सारे एक जैसे कपड़े पहने.. यह इसी अस्पताल का स्टाफ था। वह धीमे कदमों से चलता हुआ कमरा नम्बर एक सौ तीन के पास पहुंच गया। उसने खुले हुए दरवाज़े से झांककर देखा तो उसे वह लड़की दिखी.. वह सो रही थी... उसने पूरे कमरे में देखा तो उसके बहुत से कपड़े दिखे.. पर बगल वाले पलंग पर कोई नहीं था। नीचे चप्पल रखी हुई थी... उसे चप्पले बहुत छोटी लगीं.. लगा किसी बच्चे की हैं... उसकी इच्छा हुई कि वह उसके पैर देखे.. क्या इन्हीं पैरों की यह चप्पल है?
’पानी.. दे दीजिए।’
वह आवाज़ सुनकर चौंक पड़ा..। वह उसे ही देख रही थी... उसकी आँखें बड़ी थीं.. सीधी नाक़.. बिखरे हुए बाल.. सांवला रंग.. उम्र लगभग... लगभग.. चहरे से उसकी उम्र पता नहीं लग रही थी।
’पानी वहां है...’
सामने वाले पलंग के नीचे पानी रखा हुआ था...। वह गिलास ढूढ़ने लगा... कुछ देर में हारकर उसने उसकी तरफ देखा...। वह उसे जानती है... उसके बारे में सब कुछ... उसे ऎसा लगा।
’गिलास नहीं है..’
उस लड़की ने कहा और बोतल के लिए हाथ आगे बढ़ा दिया। पानी पीने के लिए वह कुछ सीधी होकर बैठ गई। इंदर ने उसके वक्ष देखे.. उभरे हुए... उसने ब्रा नहीं पहनी हुई थी। पानी पीते हुए उसने चद्दर से अपनी छाती ढ़ांक ली। इंदर ने अपनी आँखे नीची कर ली। उसकी उम्र करीब अट्ठाईस-उनतीस साल की होगी.. उसने अनुमान लगाया। फिर वह खुद को कोसने लगा.. नहीं ठीक कोसने नहीं... कोसने के ठीक पहले की स्थिति... उसकी उम्र पचास की थी.. पर किसी भी लड़की को बिना कपड़े के देखने की उसकी इच्छा वह कभी दबा नहीं पाया। उसने उस लड़की के हाथों से बोतल ली पर ज्यों ही वह उसको नीचे रखने के लिए झुका... उसके शरीर ने जवाब दे दिया.. उसे चक्कर आने लगे... वह कांपने लगा। लड़खड़ाता हुआ वह दूसरे बिस्तर पर पसर गया.. उसे ठंड़ लगने लगी... वह सिकुड़ने लगा। वह उसे देख रही थी...जैसे कि वह खुद को देखता हो... वह दयनीय नहीं दिखना चाहता था... वह कुछ संभला.. उसने लेटे-लेटे ही पानी की बोतल उठाई पर सिर्फ दो घूंट पानी पिया.. उसे पेट गुड़गुड़ाने का डर था..। कमरा नम्बर एक सौ तीन का दरवाज़ा खुला हुआ था.. इंदर ने अपने कमरे की तरफ देखा.. उसे लगा वह एक सौ चार में अभी भी पड़ा हुआ है.. उसे ड्रिप लगी हुई है.. और वह कमरा नम्बर एक सौ तीन के बारे में सोच रहा है। क्या वह सच में यहां है...? उसकी इच्छा हुई कि वह कमरा नम्बर एक सौ चार में जाए और खुद को देखकर आए कि वह वहां है कि नहीं....।
’अभी मत जाईये...।’
’जी...’
’दौपहर को कोई नहीं आता है यहां... मैं बोर हो जाती हूँ... आप कुछ देर और बैठ जाईये।’
’मैं कुछ देर बैठके ही जाऊंगा... मैं अभी जाने की हालत में भी नहीं हूँ।’
वह यहीं था... कमरा नम्बर एक सौ तीन में..। कमरा नम्बर एक सौ चार ख़ाली था... उसका बंबई का घर भी खाली था.. उसके ऑफिस की कुर्सी भी ख़ाली थी... वह यहां था..। कमरा नम्बर एक सौ चार यहां से गुफा की तरह दिख रहा था उसे...। उसने कमरा नम्बर एक सौ तीन का कमरा नम्बर एक सौ चार से तुलनात्मक अध्ययन किया... इस कमरे में दो खिड़कियां है... जबकि उसके कमरे में सिर्फ एक खिड़की है.. दूसरी खिड़की है पर उसमें एसी लगा हुआ है.. सो वह बंद कर दी गई है... यहां एसी नहीं है...। उसे एसी की ज़रुरत नहीं है.. उसे उजाला चाहिए.. उसे धूप चाहिए.. उसे गुफा में नहीं जाना। वह थक गया।
’मैं जल्दी ठीक हो जाऊंगी...’
लड़की ने यह खुद से ही कहा....।
’ठीक होने के बाद तुम क्या करोगी?... मतलब इस अस्पताल से निकलने के ठीक बाद तुम पहली चीज़ क्या करना चाहती हो?’
’गोलगप्पे खाऊंगी... वह नीचे देखो.. उस पेड़ के नीचे वह रोज़ शाम को बैठता है... बहुत भीड़ होती है उसके पास.. बस वहीं जाऊंगीं...।’
उस गोलगप्पे वाले के पेड़ को देखने के लिए उसे उसके पलंग के पास आना पड़ा। उसने उस पेड़ को देखा और मुस्कुरा दिया।
’और आप क्या करोगे?’
’मैं... पहली फ्लाईट पकड़कर सीधा बंबई.. बहुत काम पड़ा है... मुझे तो अपने ऑफिस की डेस्क दिख रही हैं.. और कुछ भी नहीं।’
झूठ था यह..। यह बोलते ही उसने अपने दोनों हाथों से पलग के छोर को दबाया.. उसके कंधों मे खिचाव आया.. उसकी गर्दन दोनों कंधों बीच झूल गई... फिर झूठ.. झूठ क्यों? सच यह है कि वह इस अस्पताल से छूटते ही सुरुचि के पास जाएगा... वह सिर्फ एक बार ही उसके साथ सोया है। फिर उसे नग्न देखने की चाह रह रहकर वह अपने भीतर महसूस करता है...। और एक तकलीफ भी...पज़ेसिवनेस। इस शब्द से हमेशा से वह भागता रहा है.. पर इस शब्द ने हमेशा उसे हर अकेली रातों में धर दबोचा है...। सुरुचि बदला था किसी और लड़की से... पर वह बदला, हमेशा बदला लेने वाले से बड़ा हो जाता था... असल में वह किससे बदला ले रहा था उसे कुछ समय बाद इस बात का कोई पता भी नहीं रहता। जलन.. तीख़ी जलन... सुरुचि इस वक़्त कहां होगी... किसके साथ.. वह अपने सुंदर शरीर को लेकर शायद किसी के बहुत करीब... सटी हुई खड़ी होगी...कोई और उसे छूएगा.. चिपकेगा... कोई उसके... ऊफ...!!! यह पज़ेसिवनेस नहीं है इंसिक्योरिटी है... इस तरह की इंसिक्योरिटी उम्र के साथ-साथ बढ़ती जाती है
’आप क्या काम करते हैं?’
कुछ देर के मौन के बाद उसने पूछा...। वह थोड़ा ऊपर होकर बैठ गई थी.. सिर के पीछे उसने तकिया लगा लिया था... उसने चद्दर सिर्फ कमर तक ही रखी थी.. उसके वक्ष वह देख सकता था... पर उसकी निग़ाह उसकी आँखों से नहीं हट रही थीं... उस लड़की की आँखों में कुछ था... वह उसे जानती थी... उसके बारे में सब कुछ फिर भी बहाना कर रही थी पूछने का... यह शायद सपना है.. उसे लगा.. सपने में ही आप ऎसे पात्रों से मिलते हो जो कहानी के पात्र जैसे लगते हैं... जिनके सामने समर्पण करने को जी चाहता है..।
’मैं सामान बेचने में मदद करता हूँ... एक ऎसी कंपनी में काम करता हूँ जो इश्तेहार बनाती है... जिससे आप जाकर उसे खरीदें... मैं सालों से यह काम कर रहा हूँ.. लोग कहते हैं कि मैं अपने काम में बहुत तेज़ हूँ... पर मैं वह नहीं हूँ.. मैं इंदर नहीं हूँ.. मैं खुद एक प्रोडक्ट जैसा हूँ... जिसे रोज़ नए-नए तरीके से मैं बेचने की कोशिश करता हूँ...। मैंने अपने चारो तरफ ’मैं बहुत अलग हूँ... मैं जीवन को उसकी मुक्तता में जीता हूँ.. मैं यायावर हूँ...’ जैसे वाक्यों का एक ओरा बनाया हुआ है... उसे रोज़ चमका के रखता हूँ... असल में मैं एक कमीज़ हूँ.... जो रंग बदलती है... मैंने बस उस कमीज़ की धुलाई सफाई की है... उसे चमकाया है.. उसे बाज़ार में हर बदलते मौसम में आज़माया है.. वह हमेशा काम करती है... मैं हमेशा काम करता हूँ...। मेरे लिए सबसे कठिन काम है अपने साथ रहना... अपने खुद के साथ.. खुद के पूरे झूठ के साथ लगतार रहना...। मेरे भीतर एक खालीपन है... जिसके लिए बस में दूसरों क उपयोग करता हूँ.. वह आते है और कुछ समय के लिए इसे भर देते हैं.. पर वह जाते ही मुझे एक कड़वाहट महसूस होती है.. अपने से.. खुद से.. उनके कुछ देर मेरे साथ होने से.. सब से.. और मैं बाहर निकल जाता हूँ.. फिर किसी को खोजता.. ढूढ़ता हुआ। मुझे असल में माफा मांगना चाहता हूँ... कहीं किसी गिरजे में कोई बूढ़ा फादर होगा जो कह देगा कि... जाओ....भगवान ने तुम्हें माफ किया...।’
इसके बाद शांति छा गई। वह कमज़ोरी महसूस करने लगा। वह कुछ नहीं बोली... चुप बनी रही...। इंदर से यह शांति सहन नहीं हो रही थी। उसने अपने माथे पर पसीने की एक बूद को सरकते हुए महसूस किया... वह बालों से निकलकर उसकी भौं की तरफ सफर कर रही थी। वह हलके से उठा... दो कदम चलकर उसने कमरा नम्बर एक सौ तीन का दरवाज़ा पकड़ लिया..। कुछ गहरी सांसे ली... उस लड़की की आवाज़ उसे आई...
’मेरा नाम रोशनी है...’
इंदर ने मानों उसका नाम सुना ही नहीं...। वह धीमे कदमों से चलता हुआ कमरा नम्बर एक सौ चार की तरफ बढ़ने लगा... जो बिल्कुल एक गुफा की तरह दिख रहा था...। वह जल्दी से उस गुफा में गुम जाना चाहता था... वह चाहता था कि वह सो जाए... गहरी नींद.. और जब उठे तो सब कुछ मिट जाए.. उसका कमरा नम्बर एक सौ तीन में जाना.. उसका इस शहर में आना... मौसा जी की मौत.. उनके ख़त.. सुरुची.. उसके ऑफिस की डेस्क... और उसका नाम.. सब कुछ.. मिट जाए..। वह कमरा नम्बर एक सौ चार में ऎसे घुस रहा था जैसे कोई अपनी नींद में प्रवेश करता है...।
- - ¬-
नींद एक धोखा है... बिखरी हुई ज़िदगी के बीच जब भी एक गहरी नींद मिलती है तो लगता है कि सब सही हो गया है... मानों बिखरा हुआ घर उठते ही वापिस, खुद-ब-खुद सलीके से जम गया। हमेशा लगता है कि एक बार सब सही हो जाए.. फिर नए सिरे से शुरुआत करेंगें... पर वह नया कौन होगा जो शुरु करेगा? वह खुद पचास साल पुराना है... झूठे बहानों से लदा हुआ... वह कैसे एक दम नई शुरुआत कर सकता है...? नींद एक अच्छा धोखा है.. नींद खुलते ही एक क्षणिक सुख प्रदान करता है... कि यह खेल की नई शुरुआत है... पर कुछ ही समय में सब कुछ वैसा का वैसा बिखर जाता है। इच्छा होती है कि वापिस नींद की शरण में चले जाओ.. बस सोते रहो... पर नींद दुत्कारके भगा देती है... बिस्तर पर देर तक उलट-पलट की कलाबाज़ी थका देती है...।
वह उठ गया था...। मौसी बगल में बैठी उसके लिए सेब काट रही थीं...। बिमारी कितना आश्रित कर देती है... उसे अचानक वह दिन याद आ गया जब बचपन में वह बरामदे में कंचे खेल रहा था और मौसी राजमा-चावल लिये उसके पीछे-पीछे धूंम रहीं थीं.. हर कुछ देर में एक कोर उसे खिला देती...। खेलते-खेलते मैं ज़्यादा खाना खा लेता हूँ ऎसा मौसी को लगता था। मौसी की उंग्लियों की नंसे दिख रही थी.. उभरी हुई... हरी नंसे..। मौसा जी के जाने के बाद वह कितनी अकेली हो गई होंगी... उन्होंने उसे फोन किया था... ’बेटा कुछ दिनों के लिए आ जाता तो अच्छा लगता।’ बस एक छोटा आग्रह.. विनती जैसा... वह कोई बहाना नहीं कर सका..। वह अभी तक वापिस चला गया होता अगर वह बीमार नहीं पड़ा होता।
’मौसी आप मेरे साथ बंबई चलो.. वहीं रहना मेरे साथ..’
बीमार भर्राई आवाज़ में बहुत हलके से उसने कहा...। मौसी ने कटे हुए सेब उसकी तरफ बढ़ा दिये...
’अभी बीमार है इसलिए ऎसा कह रहा है...।’
’नहीं मौसी.. आप सच में मेरे साथ रहो...।’
मौसी मुस्कुरा दी..। वह भी चुप हो गया। अचानक बचपन के ख़्याल से वह शायद भावुक हो गया होगा.. उसने सोचा..।
’मेरा मोबाईल आप लाईं हैं?’
’अरे कहां.. वह तो मिला ही नहीं.. मैं ढूढ़ रही थी.. फोन भी लगाया.. पर कहीं कोई आवाज़ ही नहीं आई...।’
’वह साईलेंट पर रखा है... बेग़ में है.. अंदर की पाकेट में.. अभी जाएं तो ले आना...।’
तभी वह बूढ़ी सिस्टर आई और उसने एक पर्ची मौसी के हाथों में थमा दी..।
’यह दवाईंया ले आईये...।’
यह कहकर वह चल दी..।
’पैसे हैं ना आपके पास..।’
’हाँ हैं.. मैं अभी आई..।’
कभी-कभी उसकी इच्छा होती थी कि वह मौसी से बैठकर बात करे... या शाम को अपनी लंबी वाक पर उन्हें साथ ले जाए। ऎसे कुछ क्षणों में वह मौसी से अपने बचपन के किससे सुनना चाहता था... उन मुक्त दिनों की बातें जब वह खेलने और खाने के बीच दौड़ लगा रहा होता था। कमरा नम्बर एक सौ तीन का दरवाज़ा बंद था... उसे लगा कि वह कमरा उसके कमरे से थोड़ा दूर हो गया है। जब वह वहां नहीं गया था तब वह कमरा उसे पास लगता था... उसके मिलते ही कमरा नम्बर एक सौ तीन, कमरा नम्बर एक सौ चार से थोड़ा दूर हो गया... जैसे बाक़ी सारे गृह पृथ्वी से दूर होते जा रहे हैं.. जैसे... धरती भी धीरे-धीरे फैलती जा रही है.. जैसे उसका जीवन जीते-जीते बिखरता जा रहा है... जो संबंध पहले एक हाथ की दूरी पर थे.. अब उनसे मिलना असंभव हो गया है। समय किसी एक कोने में कितना धीमा हो जाता है। उसकी गति इतनी धीमी होती है कि बीता हूआ सारा कचरा उस ओर धीरे-धीरे सरक कर जमा होने लगता है...। अपनी गलतियां.... क्या उन्हें कभी सुधारा जा सकता है?
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मानव
परिचय
- मानव
- मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल