Tuesday, September 4, 2012

खाली तीन कुर्सी सामने थी। एक गंदगी सी केफे के टेबल पर थी। वेटर एक शुगर फ्री ले आया था। कहने लगा कि तीन कॉफी पीने पर यह फ्री है आप इसे घर ले जा सकते हैं। मैं क्या-क्या चीज़े घर ले जा सकता हूँ? मैंने उसे मुस्कुरा कर देखा और कहा ’मुझे नहीं चाहिए.. आप इसे ले जाईये।’ वह कुछ देर चुप खड़ा रहा फिर कहने लगा कि मैं आपके टेबल पर रख देता हूँ अगर बाद में आपका मन बदल जाए तो ले जाईयेगा। मुझे लगा वह मेरे मन को मुझसे ज़्यादा जानता है। वह खाली कप उठाकर ले गया। अब मैं उस फ्री शुगर फ्री के साथ अकेला बैठा था। मैं अपने घर में उसके इस्तमाल की कल्पना करने लगा। कुछ ही देर में मुझे उसकी ज़रुरत अपने घर में महसूस होने लगी। सुबह की चाय में.. शाम के ख़ालीपन की कॉफी में... यूं ही स्वास्थ के लिए..। अगर मेरे सामने वह कोई पत्थर भी रख देता तो मैं उसकी जगह अपने घर में बना लेता। क्या मैं इस बारिश को अपने घर ले जा सकता हूँ। मेरे सामने बैठे उस ख़ाली बैचेन चहरे को.. जो मेरी ही तरह बहुत देर से अकेले कॉफी पीये जा रहा है... हर आने वाले की आँखों में जानने वाले की झलक ढ़ूंढ़ रहा है। उसने मुझे सबसे पहले अनदेखा कर दिया... मेरी बीच में इच्छा हुई कि उसे अपनी टेबल पर आमंत्रित कर लूं। पर हम अधिक्तर ऎसा नहीं करते... यह अचानक हुई घटना होती है वो बिदक सकता था। मैंने सोचा अगर वह पहल करेगा तो... पहल मतलब एक मुस्कुराहट मात्र.. तो मैं कुछ कदम आगे बढ़ाने की कोशिश करुंगा...। पर उसके लिए मैं था ही नहीं। कुछ देर में मैंने भी अपने दरवाज़े उसके लिए बंद कर लिए थे। सामने खड़ी बस में भी कैफे जैसा ही हाल था... वह सब एक साथ... पर अपनी दुनियाओं में अलग बैठे थे.. कोई किसी से मतलब नहीं रखता था...। एक दूसरे की बजाए लोग खिड़की से बाहर देखना उचित समझते हैं। हम एक दूसरे से इतने दूर क्यों हैं। हम नहीं... मैं... मैं सब लोगों से इतना दूर क्यों हूँ। इस बारिश में जाने कितने लोग हैं जो अकेले धूम रहे हैं... अकेलेपन में मैं उनके लिए और वह मेरे लिए वर्जित हैं... क्यों? एक पहचान के महिला आई..कुछ देर हम दोनों अंग्रेज़ी में बात करते रहे... हम दोनों बहुत अच्छी अंग्रेज़ी नहीं जानते हैं.. पर दोनों किसी ज़िद्दी बच्चे की तरह अंग्रेज़ी पर टिके रहे...। अंग्रीज़ी बोलने की असहजता.. हमारी असहजता बन गई .. और हम दोनों ने अचकचा सा बॉय एक दूसरे को किया और वह चल दी...। मैं बहुत देर तक सोचता रहा कि मैंने काहे इतनी ज़्यादा अंग्रेज़ी बोलने की कोशिश की... जबकि मैं हिंदी में बोलता तो शायद कुछ देर में वह भी हिंदी की तरफ सरक आती। बहुत कॉफी पीने से अजीब सी हरारत भीतर महसूस होने लगी थी.... मैं अब असहज हो रहा था। यही दृश्य जिसे पहली कॉफी पर देखकर मुँह से आह निकली थी.. वही तीसरी कॉफी के बाद बोझिल हो रहा था। कुछ लिखने की कोशिश की पर सब बचकाना... सब कुछ.. छिछला.. ओछा.. लगने लगा। जो जी रहा हूँ उसके बाहर लिखना खोज रहा हूँ... स्वस्थ हूँ.. अस्वस्थ ढूंढ़ रहा हूँ। मैंने फ्री शुगर फ्री नहीं उठाई... मेरे घर में अब उसके लिए जगह थी.. पर उसकी जगह ख़ाली ही रहनी चाहिए... उसकी जगह मैं बारिश को ले जाऊंगा... ऎसा कुछ सोचकर मैंने अपने भीतर पल रहे लेखक को रोटी खिलाई.. और कॉफी हाऊस से उठ खड़ा हुआ।

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मानव

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल