Thursday, December 13, 2012
ब्लू रेनकोट.....
बहुत देर से सोने के बाद भी सुबह बहुत सुबह हो गई.. यह सुबह धुंध लिए हुए थी.. पौ फटने को थी... सुबह इतनी खूबसूरत थी कि चुभ रही थी। मैंने सिगरेट जला ली। ख़ाली कमरा किसी सुबह जीवन के ख़ालीपन की चीख़ की तरह दिखता था... आज वही सुबह थी। पौ फटी और मैं बैठा रहा... पलंग से बाल्कनी की दूरी ज़्यादा नहीं थी... पर मैं हिला नहीं... वहीं एक जगह बैठे हुए अपने कमरे को ताकता रहा। बिस्तर के बगल में पड़ा हुआ रात का ख़ाली गिलास... झूठी थाली जिसमें चावल और सब्ज़ी सूख गई थी... टूटी हुई एशट्रे...। सामने गेरुए रंग का धुंध में लिपा पुता सूरज निकला... पहली किरण पेड़ों में से टूटती-फूटती हुई मेरा चहरा छूने लगी।
पिछली ठंड की इन्हीं सुबहों में मैं उसके साथ था। यही हल्का सूरज.. उसकी पहली किरण पेड़ों में से टूटती-फूटती.. उसकी नंगी देह को छू देती... मैं सूरज को उसकी देह पर पकड़ना चाहता था... मैं उसे यूं छूता मानो पहली बार छू रहा हूँ। वह अपनी अलसाई अंगड़ाई में चाय मांगती... मैं बहुत देर तक चाय टालता रहता...। मैं उसे चूमता... मानों सूरज की रोशनी उसकी देह पर से चुगना चाहता हूँ। उसकी देह पर रोंगटे खड़े हो जाते... मैं अपने हाथों से उन्हें सहलाकर वापिस बिठा देता..। उसने फिर सुबह की चाय की इच्छा जताई...।
मैं चाय बनाने लगा। ख़ाली पड़े गिलास को... थाली को सिंक में डाला... एशट्रे को डस्टबिन में खाली किया। हमेशा लगता है कि कुछ दिन बस गुज़र जाएं... बिना महसूस हुए.. खत्म हो जाएं...। ज़िदग़ी कितनी बड़ी है... कितनी लंबी... रोज़ सुबह होती है... रोज़ रात नींद के लिए करवटों के करतब.. मुझे अचानक अपनी दीवाल घड़ी से नफरत होती जा रही है..। उसका सेकेंड का काटा बहुत तेज़ चलता है... पर समय कहीं अटक जाता है..। मैं उसे बदल दूंगा... मैं दीवाल का रंग बदल दूंगा....मैं इस कमरे को बदल दूंगा.. मैं खुद को बदल दूंगा।
बदल लूंगा वाली बात लिए मैंने कब लेपटाप खोल लिया मुझे पता ही नहीं चला...। एक मेल आया हुआ था...कोरिया जाने का न्यौता... एक महिने के लिए बतौर लेखक कोरिया के किसी गांव में...। मुझे अचानक अपना उपन्यास दिखने लगा..। मैंने अब तक कहानिया लिखी.. नाटक लिखे.. कविताएं.. पर उपन्यास कभी नहीं लिख पाया। त्रिभुवन भाई ने एक बार मुझसे कहा था कि उपन्यास लंबी यात्रा है... तुम्हारे भीतर अभी लंबी यात्रा का संयम नहीं है। मुझे उस वक़्त यह बात बहुत खटकी थी। उसके बाद मैंने लगभग हर कहानी उपन्यास के लिए शुरु की.. पर हर उपन्यास एक किस्से के बाद अपना दम तौड़ देता। बाद में मैंने त्रिभुवन भाई को कहा कि आप सही हैं... मुझमें संयम नहीं है उपन्यास का...। वह हंस पड़े उन्होंने कहा कि देखो कहानियां तुम्हारे जीवन में आ रही महिलाओं की तरह है.. एक तरह का अफेयर... पर उपन्यास शादी जैसा है... जिससे तुम हमेशा भागते रहे हो..। इस बात पर हम दोनों बहुत हंसे थे...।
मैंने तुरंत उस मेल का जवाब दिया और उपन्यास की शुरुआत खोजने लगा। उसकी पृष्ठभूमी... कहां? किस स्थिति? किसके बारे में? अब वक़्त रुकता नहीं था। मेरा एक डच लेखक मित्र था क्लाऊस जो अपनी जेब में एक छोटी नोटबुक हमेशा रखता था... जब भी कोई अच्छा विचार आए उसे दर्ज कर लेता...। मैंने भी एक नोटबुक ख़रीद ली... कॉफी हाऊस की भीड़ में उस नोटबुक के कोरे पन्नों को निहारता... कुछ देर में दिनांक डालता... ऊपर उपन्यास लिखकर उसके नीचे कुछ लाईने ख़ीच देता.. फिर चित्र बनाने में मैं व्यस्त हो जाता। यह सब गलत है... मुझे लगा मैं जैसे ही कोरिया जाऊंगा... उपन्यास का आईडिया मेरे पहले वहां होगा..। मैंने नोटबुक को कॉफी हाऊस की डस्टबिन में त्याग दिया और अपने जाने की तैयारी करने लगा।
एक बार उसे फोन करके बता दूं.. कि महिने भर के लिए कोरिया जा रहा हूँ? हम किस-किस तरह बदला लेना चाहते हैं? एक संबंध खत्म होने के बाद कितना ज़्यादा अंदर रह जाता है। क्या संबंधों को बचाया जा सकता है...? या कुछ सालों के बाद उसे वैसा का वैसा जिया जा सकता है? मैं अपने पुराने संबंधों पर कभी भी वापिस नहीं गया था। मेरे लिए जो खत्म हो गया वह अतीत का हिस्सा हो गया... यह कह देना भी एक फलसफे की तरह लगता है.. पर सच्चाई यह है कि मैं सैल्फ डिस्ट्रक्शन पर होता हूँ... जो चीज़ उस वक़्त मुझे सबसे ज़्यादा अपनी तरफ ख़ीच रही होती है मैं उसी चीज़ से बदला ले रहा होता हूँ... उसके विरुद्ध चलकर... इसलिए कोरिया बहुत ज़रुरी था। मैं अपने हिससे की पीड़ा चुनना कभी भूलता नहीं था.. पर यह संबंध मुझे वह भी नहीं दे पा रहा था, इसलिए मेरी इच्छा थी कि फोन करके बता दूं... कह दूं कि जा रहा हूँ..। वह शायद बात भी ना करे... गलियां दे दे... तो शायद मैं पीड़ा के कुछ हिस्से बटोरकर एक महिने के लिए निकल जाऊं।
मैंने फोन नहीं किया।
Toji… नाम की इस स्कालरशिप पर मैं कोरियन एयरपोर्ट पर था। घर छोड़ने के पहले मेरी पुरानी आदत पड़ चुकी है अपने घर से बात करने की... ताला लगाने के ठीक पहले... बिस्तर पर बैठकर... मैं हवा में अपने घर से (कमरे से...)... गुड बॉय कहता हूँ। जो हमें लगता है निर्जीव है.. वह कितनी ज़्यादा ज़िदा हैं हमारे भीतर... मैं कितना खुल के अपने कमरे से बात कर लेता हूँ..।
तभी मुझे मेरा नाम चमकता हुआ दिखा.... एक आदमी मुझे लेने आया था। करीब चार घंटे का ड्राईव करके हम एक गांव में पहुंचे... वांजू। मैं लगभग पूरे सफर में सोता रहा। यह एक बहुत सुंदर गांव था... चारों तरफ गहरे हरे पहाड़.. खेत.. उनके बीच में यह तीन अलग-अलग बिल्डिंग बनी थी। बीच की बिल्डिंग ऑफिस था दूसरी दो बिल्डिंग में आर्टिस्ट रहते थे। एक महिला मिलि जिनकी अंग्रेज़ी बहुत खराब थी.. बड़ी मुश्किल से वह मुझे समझा पाई कि यह मेस है.. यहां नाश्ता आपको खुद बनाना है... लंच और डिनर का एक निश्चित समय है...। वहां सब कुछ कोरियन में लिखा था.... सो मैंने अनुमान लगा लिया... मैं लगभग हर बात पर ओके.. ओके कह रहा था। एक दूसरा आदमी मुझे मेरे कमरे की तरफ ले गया... सामान उठाने में किसी ने कोई सहायता नहीं की.. मैं खुद ही अपने साथ अपना बोझ घसीट रहा था। मेरे कमरे में घुसते ही आदमी ने मेरा हाथ पकड़ लिया.. वह आदमी मेरे जूतों की तरफ इशारा कर रहा था। मैंने तुरंत बाहर निकलकर जूते उतारे... आदमी ने एक चप्पल की तरफ इशारा किया.... मैंने चप्प्ल पहनी और पीछे से दरवाज़ा उस आदमी के मुँह पर बंद कर दिया। अंदर आते ही मानों कुछ चिटक गया हो.. मैं झटके से बैठ गया.. जहां था वहीं। कई बार बहुत सालों की थकान एक क्षण में महसूस होने लगती है। उस एक क्षण में सब कुछ भारी लगता है। आठ साल पहले लिखी मेरी पहली कहानी... पता नहीं किस क्षण में कैसे भीतर कहीं पड़ी बातें पन्ने पर तैरने लगी थीं। उसके बाद असल में मैंने कुछ नहीं किया... सिवाए अपना लेखक होना बार-बार सिद्ध करने के। लंबी यात्रा के पहले क्षण में ही मैं थक गया था.. उपन्यास।
कमरा बहुत सुंदर था। बाल्कनी जंगल की तरफ खुलती थी। एक छोटी खिड़की थी जिससे सामने की सड़क दिखती थी। पलंग उसके ठीक बगल में लगा हुआ था। छोटा फ्रिज, चाय बनाने का इलेक्ट्रिक केटल, बड़ा सा टेबल, कुर्सी, टेबल लेंप... और एक एशट्रे। मैंने अपनी कुछ किताबें निकालकर टेबल पर जमाई... फिर सिगरेट के कार्टन.. अलमारी में अपने कपड़ों को सलीके से रखा। इस सारी कारवाही में मैं एक घंटे व्यस्त रहा। अब व्यस्त होने के लिए कुछ बचा नहीं था सो मैं अंत में अपने लेपटाप के सामने बैठा गया।
उपन्यास की शुरुआत... पहले नाम.. नाम.. नाम... नाम...। नाम बाद में.. पहले कुछ लिखना शुरु करता हूँ.. यह सोचकर मैंने एक नया वर्ड डाक्युमेंट खोला...।
हड़बड़ाकर उठा तो देखा मैं एक खाली से कमरे में था... मैं अपने घर पर नहीं हूँ..
मैं कब सो गया था मुझे पता ही नहीं चला...। मैं एक सुंदर कमरे में हूँ... वानजू नाम के एक गांव में। अचानक सारा जिया हुआ अपनी व्यवस्था में वापिस आ गया। मेरे सोने से फाईलों में अव्यवस्था फैल गई थी... सारी पुरानी फाईलों में मैं कुछ तलाश रहा था... कहीं पीछे अतीत में कोई टुकड़ा गुम गया था। एक कड़ी.. एक कड़ी जिससे हर चीज़ अपने मायने पा जाए.. मेरा जीवन कुछ मायने पा जाए..।
टेबल पर घड़ी रखी हुई थी। रेंगते हुए समय देखा.. शाम के छे बजने वाले थे। बालकनी का दरवाज़ा खोला तो सामने पहाड़ दिखाई दिये... गहरे हरे रंग से पुते हुए। किसी ने दरवाज़ा खटखटाया... यह वही आदमी था जिसके मुँह पर मैंने दरवाज़ा लगा दिया था। उसने खाने का इशारा किया... मैंने उससे कहा कि आता हूँ। मेरे अलावा यहाँ सभी कोरियन हैं... किसी को भी कोरियन के अलावा कोई भी भाषा नहीं आती है... या शायद आती हो पर कोई मुझसे बात करने में दिलचस्पी ना रखता हो। मैं जल्दी-जल्दी तैयार होकर खाने के लिए मेस में निकल पड़ा....। सिर्फ आँखे और मूक अभिवादन पहचान के थे..। सभी लोग मुझे इस आश्चर्य से देखते कि मुझे लगता कि मेरे सिर पर सींघ हैं... या मेरे चार हाथ हैं। कुछ ही देर में हम सब अपनी-अपनी थालीयों में सिर घुसाए खाते रहे..।
खाने के बाद मैं टहलने के लिए गांव की तरफ निकल आया... बहुत साफ सुथरा गांव है... बहुत कम लोग दिखाई देते है...। घर हैं लेकिन घर के बाहर कोई चहलकदमी नहीं दिखती.. लॉन ख़ाली... घरों के भीतर झांको तो कुछ परछाईयों से लोग टहले दिख जाते हैं.. पर लगभग सभी बूढ़े..। चारों तरफ खेती है... और उन खेतों को गहरे हरे रंग के पहाड़ों ने चारों तरफ से घेर रखा है..। एक बूढ़ा आदमी खेतों में काम करता दिखा...मैंने अभिवादन मे सिर झुकाया तो वह शर्मा गया। किसी अजनबी देश के अजनबी गांव में आपको लोगों की आँखें अजीब सी लगती हैं.. लगता है वह लोग एक खूबसूरत संसार में हैं.... जिसकी प्रदर्शनी किसी आर्ट गैलरी में लगी है.. और मैं किसी गंदे पर्यटक की तरह उन्हें निहार रहा हूँ, उनकी तस्वीरें लेना चाहता हूँ... जिसे वह बिलकुल भी पसंद नहीं करते। कुछ ही देर में मैं वीराने मे पहुच गया.. घर खत्म हो गए थे... यह वीराना मेरे भीतर के खालीपन से मेल खा रहा था.. सो मैं आराम से सांस लेने लगा। इस पूरे इलाके में अजीब सी चुप्पी है.. हर कुछ देर में कोई गाड़ी सड़क पर से गुज़र जाती है तो उस चुप्पी का एहसाह होता है जो स्थिर है... जो चारों तरफ फैली हुई है। मैं एक पत्थर पर बैठ गया... इस गहरी चुप्पी में कुछ बुदबुदाने लगा... फिर मुझे याद आया मैं असल में बहुत समय से चुप हूँ... मैंने अभिवादन और धन्यवाद जैसे शब्दों के अलावा कुछ भी नहीं बोला है..। मैं खुद से बातें करने लगा कुछ ऎसे जैसे खुद से नहीं किसी दूसरे से बोल रहा हूँ। फिर अपनी ही बातों से चिढ़ होने लगी... खुद से मैं कितने झूठे सुर में बोलता हूँ.. इससे तो चुप्पी ही बहतर है..। मैंने सिगरेट जलाई और कुछ आगे की ओर चल दिया...। तभी सामने से आती हुई एक वृद्ध महिला दिखी... मैं उन्हें पहचान गया.. मेस में इन्हें लगातार देखता आया हूँ और यह हमेशा एक अजीब सी चौड़ी टोपी लगाए रहती हैं..। वह मेरी तरफ ही चली आ रही थी... मैं उन्हें देखकर मुस्कुरा दिया... पर भीतर एक डर था कि उनसे बात क्या होगी...? उन्होंने आते ही.. कोरियन भाषा में बोलना चालू किया... मैं उनका दिल नहीं तोड़ना चाहता था सो कुछ यूं सिर हिलाता गया कि मुझे कुछ-कुछ बातें समझ में आ रही हैं..। सब लोगों के सामने वह अभिवादन करने में भी झेंप रही थीं.. पर अकेले में वह लगातार बोले जा रही थीं...। फिर बीच में वह बोलते-बोलते हंसने लगी..। मेरे लिए सब कुछ संगीत था सो मैं बस सुरों के उतार चढ़ाव समझ रहा था। हंसने के बाद वह कुछ देर चुप रहीं... इधर-उधर देखने लगी.. फिर एक छोटे से घर की तरफ इशारा किया.. और कुछ धीमी आवाज़ में बोलने लगी...। जब वह मेरी तरफ मुड़ी तो उनकी आँखें भीगी हुई थी...। मैं यह सुर पहचानता था... असल में हम सारे सुर पहचानते हैं...। शब्द झूठ को सहारा देते हैं.. सच सुरों में सुना जा सकता है। उनमें एक पवित्रता थी.. एक बच्चों सा भोलापन... जिसे देखकर मुझे खुद से घृणा सी होने लगी.... मैंने अपनी आखें नीचे कल ली...। उनके सुर टूट गए.. वह अचानक नीचे सुर में गाते-गाते रुक गई.... मुझे पता था कि उन्होंने पूरा राग नहीं गाया है... मेरी आँखे नीचे कर लेने में वह टूट गया बीच में कहीं। उन्होंने कुछ कदम मेरी तरफ बढ़ाए... मेरे कंधों को छुआ... सहलाया। मेरे भीतर एक चोर था... एक झूठ से भरा हुआ थेला लिए चोर... जो मेरे सारे जीने को, उनके अनुभवों को अपने झूठ के थेले में भर लेता है। जब भी मैं अपने अनुभवों, अपने जीए हुए के बारे में कुछ कहता, लिखता... सब कुछ झूठा दिखता..। वह मेरे कंधे को सहलाती हुई कितनी पवित्र थीं... मैं उनका सामना नहीं कर सकता था। मुझे पता था जैसे ही मैं उनकी तरफ देखूंगा, वह मेरे भीतर का चोर उनकी सारी पवित्रता को झूठ में बदल देगा...। फिर मुझे लगने लगा कि पहली बार मुझे किसीने पकड़ा है.... असल में पहली बार मैंने खुद को पकड़ा है... अपने समूचे झूठ को, अपनी पूरी कायरता में...। उन्होंने मेरे बालों पर हाथ फेरा और दूसरी ओर चल दी... मैं जड़ था।
भाषा कितना छोटा कर के रख देती है हर स्वाद को...। मैं अपनी इस बात को भी लिखने में असमर्थ हूँ.... भाषा घुसते ही नमक हो जाती है और हमको सब कुछ ठीक लगने लगता है... स्वादिष्ट।
मैं जड़ था.. और इसमें कोई स्वाद नहीं था... मैं कुछ भी देखना सुनना नहीं चाहता था...। मैं अभी भी उनका स्पर्ष अपने कंधे पर महसूस कर सकता था। मैं बार-बार अपने कंधे को छु रहा था... उनके बूढ़े कोमल हाथ... मैं उन्हें चूम लेना चाहता था... उन हाथों में अपना अनकहा पढना चाहता था।
मैं अकेला वहीं खड़ा था। रात हो चुकी थी... सब कुछ चुप था.. सिवाए रात की आवाज़ों के। मैं अपने कमरे की तरफ मुड़ गया...।
अपना लेपटाप खोलकर मैं बहुत देर कोरेपन को ताकता रहा....। मुझे वह सारे कमरे याद आ गए जिनमें मैं रहा था... वह सारी दीवारें, जिनपर मेरे शरीर के निशान रह गए थे...। वह अकेली वीरान रातें जिन्हें मैं भूल चुका था। तभी दरवाज़े पर ’खट..’ हुई...। मैंने दरवाज़ा खोला वह सामने खड़ी थी... उनके हाथ में एक बीयर की केन थी... और दूसरे हाथ में एक चिप्स का पेकेट... उन्होंने मुझे दिया... और वह जाने लगी.. मानों वह अपने इस बर्ताव से बहुत शर्मिंदा हों....। मैंने उन्हें रोका.... और धन्यवाद कहा... वह घबराई हुई जाने लगी...। मैंने उन्हें अपना नाम बताया... उन्होंने जवाब में कहा.... ’खुश....’। यह उनका नाम था... ’खुश..’।
बाहर घांस काटने की आवाज़ आ रही थी। एक चिड़िया तार पर बैठकर बहुत देर तक पूंछ हिला-हिलाकर किसी को बुला रही थी। दूर किसी के कपड़े धोने की आवाज़ थी। बीच-बीच में हवा का झोंका तेज़ी से आता और खिड़की के पर्दे उड़ जाते। मेरे बगल में पी हुई कॉफीयों के ख़ाली कप पड़े हुए थे, एक एशट्रे, लाईटर, कुछ आधी-अधूरी पढ़ी हुई किताबें... टेबिल लेंप.. और कुछ कोरे कागज़...। बहुत बुलाने पर भी उस पूंछ हिलाने वाली चिड़िया के पास कोई नहीं आया सो वह उड़ गई....मेरे खिड़की से बाहर देखने के एक मात्र कारण को लेकर...। मैं वापिस अपनी डेस्क पर आ गया। बहुत देर डेस्क की बिखरी हुई चीज़ों को देखा तो थकान से भर गया... फिर मेरी निग़ाह उस पेंटिंग पर गई जो मेरे कमरे में लगी हुई है। कोरे से केनवास पर एक आदमी (काली श्याही से आदमी का आकार) सिर झुकाए सात घांस के टुकड़ों को देख रहा है....और उसपर कुछ कोरियन भाषा में लिखा हुआ है। मैंने उस लिखे को एक कोरे पन्ने पर टाप लिया। बाहर निकला तो खुश मिली... उन्होंने मुझे अपने साथ चलने को कहा...। कुछ देर में उनके पीछे-पीछे मैं उनकी वर्कशाप में पहुंच चुका था। उन्होंने अपनी बहुत सी पेंटिंग दिखाई। मैं बहुत देर तक उनकी पेंटिग्स के सामने खड़ा रहा.. मेरे भीतर कुछ है जो टूटता नहीं है.. मुझे पेंटिंग्स समझ में नहीं आती.. कविताए अपने मतलब खो देती हैं.. संगीत चुप रहता है। मैंने कुछ झूठी तारीफ की... अपनी आँखें चुराते हुए.. उन्होंने एक बीयर मुझे पकड़ा दी। मैंने बीयर पीते हुए अपनी जेब सी पर्ची निकाली और उन कोरियन शब्दों का अर्थ पूछा...। उन्होंने बताया... I AM NATURE…. AS YOU ARE… मुझे यह बात बहुत सुंदर लगी..। पता नहीं क्या हुआ मैंने उन्हें कहा कि मुझे पेंटिग समझ में नहीं आती.. रंग ही दिखते हैं मुझे बस.. और रंग अच्छे हैं।
मुझे अपने कमरे में लगी पेंटिग अच्छी लगने लगी.. बिना रंग वाली..। जब भी इस पेंटिंग पर निग़ाह जाती है मेरे भीतर कुछ सुलझ जाता है..। मुझे विश्वास करने की इच्छा होती है सब पर... अपने डरे हुए कोनों में दिया जलाकर टहलने की इच्छा होती है। उन जगहों की याद हो आती है जिन जगहों पर जाना मैंने सालों से टाल रखा था। फिर अपने खालीपन में एक घांस का तिनका गिरा पड़ा मिलता है... और तब एक बोझ महसूस होता है...। उस तिनके को अपने जीए हुए लेंडस्केप में फसाने की कोशिश करता हूँ...। वह अपनी अलग कहानी लेकर आया हुआ लगता है...। उसे छूने पर लगता है कि यह सुख है... पर इस सुख को कहां टिकाकर रखूं इसका कोना कहीं दिखता नहीं है।
अभी रात है... देर रात अपनी बाल्कनी के कोने में खड़े रहने पर लगता है कि अंधकार कुछ खींच रहा है...। कहीं से कुछ रिसने लगता है.. मैं छूटता जाता हूँ... I AM NATURE.. AS YOU ARE…. वाली बात दिमाग़ में एक तिनके की तरह बैठी रहती है... वह सुख है.. पर उसे अपने भीतर टिकाकर रखने का कोना अभी भी खाली नहीं है।
मैं बाहर सड़क पर था। ठंड़ी हवा मेरे चहरे को छू रही थी। मैं ऊपर की तरफ चलने लगा.. अपने कमरे से दूर.. जहां अभी भी खुला हुआ लेपटाप है.. उसके सामने कुर्सी है..। मैं कहां से शुरु करुं... कैसे...? मुझे लगने लगा कि मैं एक युद्ध के मैदान में आ पहुंचा हूँ.. अपने सारे अस्त्र-शस्त्र के साथ.. पर सामने कोई नहीं है... पूरा मैदान खाली पड़ा है। क्या यह मेरा जीवन नहीं है...? किससे लड़ रहा हूँ? कौन है जिसके लिए शब्द निकल रहे हैं..? या नहीं निकल रहे हैं।
सामने से बड़ी सी टोपी लगाए हुए एक आदमी दौड़ता हुआ मेरी तरफ आ रहा था। वह जहां था वहीं रुक गया... कुछ देर में मेरी समझ में आया कि यह आदमी जागिंग कर रहा है..। मेरी आँखों में कुछ था.. शायद डर.. जिसकी वजह से वह कुछ धीमा हुआ। दौपहर को जब सूरज की परछाई जूता खा रही है... यह आदमी दौड़ रहा है.. मुझे आश्चर्य हुआ। वह मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। मैंने उसे अपना नाम बताया... उसने मुस्कुराते हुए यस.. यस कहा..। जैसे वह चाहता नहीं था कि मैं कुछ बोलूं... मैं चुप हो गया..। वह मुस्कुराते हुए मुझे देख रहा था जैसे हम किसी बच्चे को देखते हैं। उसकी आँखें... मैंने इतनी शांत आँखें बहुत कम देखी थीं..। वह वापिस दौड़ने लगे..। मैं उन्हें देखता रहा.. यह मुझे जानते हैं..। मैं इन्हें बहुत सालों से मिलना चाह रहा था... मुझे लगा कि यह मेरी किसी कहानी के पात्र हैं.. मानों मैं अपने ही लिखे हुए से अभी-अभी मिला हूँ। मेरा झूठ मेरे लिखे हुए पात्र जानते हैं या मैं..।
किसी के साथ बिताया गया ख़ाली अल्साया वक़्त कभी भूलता नहीं है। एक दूसरे की चद्दरों को देर तक ख़ींचना... चाय के बहानों से बहुत दूर चले जाना... फिर वापिस आकर ऎसे मिलना जैसे बरसों बाद मिलें हों..। मेरा शिक़ायत करना... तुम्हारा नाराज़ होना... किचिन में देर तक खाना बनाना... बाथरुम के बाहर खड़े होअकर नहाना सुनना... और वह चलना रुकना.. देर तक आईने के सामने खड़े रहना... बार-बार एक ही गानों का लगना.. चाय... फिर चाय और बहुत सारी चाय।
मैं अपने कमरे में वापिस था। लेपटाप पर गेम खेल-खेलकर मैं थक गया था। कुछ देर में मैं बाल्कनी पर आकर खड़ा हो गया। बाहर मौसम बदल गया था... धुंध थी... हल्की फुहार पड़ रही थी। बाल्कनी की मुडेर पर बैठकर मैंने सिगरेट जला ली। मेरी बाल्कनी से सटी हुई एक दूसरी बाल्कनी थी... जिसका दरवाज़ा हमेशा बंद रहता था। तभी मुझे नीचे झाड़ीयों से एक आहट सुनाई दी.. हिरन का एक छोटा सा बच्चा डरा हुआ झाड़ियों के पीछे कुछ चबा रहा है...। उसके ठीक पीछे उस बच्चे की माँ भी है। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा... बाल्कनी के नीचे हिरन..। मैं हंसने लगा.. अपना केमरा लाकर मैंने कुछ तस्वीरे ख़ींची... तभी इच्छा हुई कि किसी को यह बात बताऊं... किसे..? तभी बगल की बाल्कनी का दरवाज़ा खुला... एक लड़की.. छोटे बालों वाली.. बाहर निकली... मैंने अपने उत्साह में हिरन की तरफ इशारा किया...। वह हिरन को देखकर मुस्कुरा दी... बस..। मैं चिल्लाने सा लगा कि मेरी खुशी को बांटने के लिए कोई तो है.. पर उस लड़की ने बस यस.. यस कहा.. और वह भीतर चली गई। मुझे अचानक सब कुछ बहुत सामान्य लगने लगा। लगा कि कितना मूर्ख हूँ मैं.. इस उत्साह में मैं ठीक से हिरन भी नहीं देख पाया था। नीचे देखा हिरन भी गायब थे... भीतर कमरे में आकर अपने केमरे में क़ैद हिरन को देखने लगा..।
शाम को खाने के बाद एक छोटी सी पार्टी का आयोजन किया गया। मेरे अलावा वहां करीब पंद्राह और लेखक.. कवि... म्युज़िक कंपोज़र.. पेंटर रह रहे थे। मैं अपने देश की सस्ती विस्की लेकर उस महफिल में पहुंचा... मेरे भीतर पहुचते ही मेरी कुछ आवभगत होने लगी। अगर उन लोगों के सुर को शब्द मिले तो मुझे वह बिचारा समझ रहे थे.. क्योंकि यहां उन लोगो के बीच मैं अकेला पड़ गया था... उन्हें ऎसा लग रहा था... पर मैं यूं भी अकेला ही हूँ.. अपने देश में भी.. सो मुझे बहुत फर्क नहीं पड़ता..। पर इन कोरियन लोगो को यह बात समझाने में बहुत समय लगता सो मैं बेचारा बना रहा। उन्होंने मुझे चावल की लोकल शराब पेश की गई... उसका स्वाद कुछ वाईन जैसा था। सभी ने धीरे-धीरे अपना परिचय कराया। मैं नाम याद रखने में यूं भी बहुत कमज़ोर हूँ पर उसमें से कुछ लोगो के नाम मैंने अपने दिमाग़ में दौहरा लिये... एक जो वृद्ध महिला मेरे कमरे के सामने रह रही थी उसका नाम janghae(जंगहे..) है.. वह म्युज़िक कंपोज़र है.., sook (painter) जिससे मैं पहले ही मिल चुका था... son young-hee वह लड़की थी जिसकी बालकनी मेरी बालकनी से लगी हुई थी... उसके बाद मेरे याद रखने की क्षमता खत्म हो गई सो मैं बस सतही अभिवादन में व्यस्त हो गया। फिर मेरी बारी आई...नाम के बाद मैं बहुत आत्मविश्वास से नहीं कह पाया कि मैं लेखक हूँ...। मैंने कुछ मज़ाक करते हुए कहा कि मैं शायद एक लेखक हूँ जिससे अब लिखते नहीं बनता है.... पर मेरा जोक कोई समझ नहीं पाया...। मुझे लगा मैं अपना परिचय दे चुका हूँ.. पर सभी कुछ और इंतज़ार करते रहे.... सो कुछ टूटे फूटे शब्दों में मैंने नाटक, कहानिया और कविताए भी लिख चुका हूँ कहकर बैठ गया। फिर वह लोग अपनी बातों में मश्गूल हो गए। हर कुछ देर में वह मेरी तरह मुख़ातिफ होते पर अंग्रज़ी की समस्या के करण वह चुप रह जाते। सन-यग-ही ने कुछ ज़्यादा पी ली थी.. सो उसके अंग्रज़ी के वाक़्य कुछ ठीक निकल रहे थे.. उसने बताया कि वह पहले भी यहां आ चुकी है.. तब उसने एक बच्चों का बेस्ट सेलर उपन्यास लिखा था। अभी वह अपना दूसरा उपन्यास लिखने आई है। मैंने बहुत मंद स्वर में कहा कि मैं भी यहां उपन्यास ही लिखने आया हूँ.. पर उस मंद स्वर की गूंज मेरे भीतर बहुत ज़ोर से हुई..। रुके थमे तलाब में किसी ने बूढ़े देवदार को गिरा दिया हो। तभी वह आदमी दिखा जिसे मैंने दौड़ते हुए देखा था.. वह लगातार मुझे देखे जा रहा था। मैंने सन-यग-ही से उसके बारे में पूछा...उसने बताया कि उनका नाम MOON-YOUNG HOON वह एक कवि हैं। करीब बीस सालों से पेरिस में रह रहे हैं... वह फ्रेंच और कोरियन दोनो भाषाऒं में कविताएं लिखते हैं। मैंने अपने दिमाग़ में उस आदमी का नाम कवि रख लिया।
मैं सिगरेट पीने के बहाने बाहर आया..। बाहर ठंड बढ़ गई थी... मैंने कुछ कांपते हुए सिगरेट जलाई... भीतर से हंसी के ठाहाकों का स्वर यहां तक रेंगता हुआ चला आ रहा था। मैं कुछ आगे की तरफ चलने लगा...। सिगरेट खत्म हो चुकी थी पर भीतर से आती आवाज़ों के बाज़ार में मेरी घुसने की इच्छा नहीं हुई..। कोरियन वाईन का असर मेरी चाल में था... जब आवाज़े पीछे से खत्म हो गई तो मुझे अच्छा महसूस होने लगा..। यही वह समय है जब मेरी इच्छा भटकने की होने लगती हैं... लगता है कि गुम हो जाओ... बंधे-बंधाए रास्तों को रबर लेकर मिटा दो... और भटक जाओ..। मैं ऊपर आसमान की तरफ देखने लगा... कितने सारे सितारे हैं... यह वहां से भी दिखते हैं... मैं उन तीन सितारों को खोजने लगा जिसे मैं अपने घर की बाल्कनी में से देखा करता हूँ...। मुझे अचानक एहसास हुआ कि मेरे पीछे कोई है। मैं पल्टा तो पीछॆ कवि खड़े हुए थे..। इस बार मैं सीधा उनकी आँखों में देख रहा था। नशे ने एक अजीब तरीके का गुस्सा भीतर बढ़ा दिया था...। कवि ने आसमान की तरफ इशारा किया और कहा ’स्टार्स...(तारे)’। मेरी इच्छा हुई कि मैं चला जाऊं पर मैं वहीं खड़ा रहा...। फिर उन्होंने कहा... ’अलोन.. ’ यह कहते ही एक सांत्वना भरी मुस्कान उनकी आँखों में छलक आई..। मेरी इच्छा हुई कि उन्हें धक्का दे दूं... चिल्ला दूं उनके सामने... चीख़ पड़ू... मैंने कहा.. गुड नाईट.. और वहां से चल दिया।
बहुत देर बाद अपने कमरे की खिड़की से झांककर देखा तो वह वहीं खड़े थे... तारों को देखते हुए।
तभी दरवाज़े पर आहट हुई। सन-यग-ही बाहर खड़ी दिखी.. उसने पूछा ’आपके पास सिगरेट है क्या?’ मैं भीतर सिगरेट लेने आया तब तक वह अंदर कमरे में आ गई थी। मैं ने उसको सिगरेट दी... उसके हाथ में बियर थी...। मैंने उसे भीतर आने को कहा... जबकि वह पहले ही भीतर खड़ी थी सो वह बैठ गई। मैं बहुत असहज था... मैंने बाल्कनी का दरवाज़ा खोल दिया..। फ्रिज से एक बियर निकालकर उसे दी... और उसकी बीयर मैं पीने लगा... इस बात पर उसको हंसी आ गई। वह बहुत देर तक अपनी हंसी को शब्द नहीं दे पा रही थी। मैंने एक सिगरेट जलाई और बालकनी में आ गया.. सन-यग-ही भी पीछे-पीछे बाल्कनी में आ गई। बहुत विचित्र था... हम दोनों की भाषा अलग थी.. वह पता नहीं कौन थी और उसके लिए मैं पता नहीं किस विचित्र टापू का आदमी था... फिर भी मैं ठीक ऎसा कितनी बार महसूस कर चुका था.. मैं मानों अपना ही पुराना लिखा पढ़ रहा था। मुझे इस बात से बहुत... घुटन सी होने लगी... मेरा दिमाग़ इस बात को इटरप्रेट करने में व्यस्त हो गया। मैं लिख नहीं पा रहा हूँ उसका शायद कारण है कि मैं बिलकुल एक जैसा जी रहा हूँ। मैं ठीक ऎसा जी चुक हूँ.. यह सब हो चुका है मेरे साथ...। मैंने अचानक सन-यग-ही को अपनी तरफ खैंचा और उसे चूमने लगा। पागलों की तरह.. उसकी बीयर उसके हाथों से गिर गई। मैंने भी अपनी बीयर छोड़ दी...। कुछ देर में वह मुझे मना करने लगी.. मैं ज़बर्दस्ती करने लगा..। मैं उसके कपड़े उतारने वाला था कि उसने झटके से मूझे अलग कर दिया...। मैं सॉरी बोलना चाह रहा था पर मैंने नहीं कहा... क्यों कि मेरे सॉरी कहते ही मैं फिर वही जीने लगता जो जी चुका हूँ.. सो मैं चुपचाप खड़ा रहा..। वह कुछ देर में अपने कमरे में चली गई। मुझे शायद अपने से इतनी घृणा कभी नहीं हुई थी। मैं उल्टी करना चाह रहा था... पर मैं कर नहीं पाया..। मैंने फ्रिज से और बीयर निकाली... और अपने लेपटाप के सामने आकर बैठ गया.. मैंने पहला शब्द लिखा..
’अलोन...’
फिर उस शब्द को बहुत देर तक घूरता रहा..। कवि ने यह शब्द कहा था... अलोन..। वह अभी ठीक इसी वक़्त उसे जी रहा था।
दरवाज़े पर फिर आहट हुई...। मैं खोलने उठा पर लड़खड़ाकर गिर पड़ा... मैं बहुत नशे में था। दरवाज़े पर सन-यग-ही खड़ी थी..। नहा धोकर एकदम पवित्र... मैं कह भी नहीं पाया और वह अंदर आ गई। सीधे पलंग पर लेट गई और अपने कपड़े उतारकर एक चद्दर ओढ़ ली...। मैं इसके लिए तैयार नहीं था...। नशा बहुत था मैं ठीक से सोच नहीं पा रहा था... फिर वही बात मेरे दिमाग़ में उबकाई मारने लगी कि मुझे पता है इसके बाद क्या होगा... और मैं पलट गया। मेरा सिर भारी हो रहा था.. मैं वापिस जाकर अपने लिखे अलोन के सामने बैठ गया। मैंने लिखा... ’वह मेरे पलंग पर नंगी लेटी हुई थी... मैं किसी दूसरी लड़की से बदला लेने के घमंड में बिस्तर पर नहीं जा रहा था।... रात होते ही जैसे सारा दिन भर का जिया सिमटकर कमरे में जमा हो जाता है। रात होते ही घर के कोने बहुत भारी लगने लगते हैं..। दिन भर के जिए हुए के कुछ कोमल क्षण अपने होने पर संदेह में रहते हैं। वह आपस में सिमटकर एक छोटा सा जुगनू बना लेते हैं.. जुगनू की कहानी उसके अंधेरे में है जिसे वह अपने दो चमकने के बीच में जीता है... यह मैंने ही लिखा था कहीं... पर इस कमरे के भारीपन में जल्द ही जुगनू दम तोड़ देता है। मैं कल के इंतज़ार हूँ.. हमेशा से.. मैं उस लड़की के पास नहीं जाता हूँ जो अभी.. इसी वक़्त.. मेरे बिस्तर पर मेरा इंतज़ार कर रही है.. मैं शायद कल उसका इंतज़ार करुं... कल...मैं आँखें बंद कर बैठा रहता हूँ... कितना विचित्र है यह.. कितना हास्यासपद.. कितना।’ मेरे लिखने का एक सिलसिला शुरु हो गया...। अब सच क्या था?, क्या हुआ था...? पलंग पर कौन लेटा था? सब पीछे छूटने लगा.. मैं कहीं दूसरी ही जगह पहुंच गया था। मेरा नशा उतरने लगा... मेरी कमर सीधी होने लगी... तभी बहुत तेज़ इच्छ हुई सिगरेट पीने की.... मैंने बाल्कनी का दरवाज़ा खोला और सिगरेट पीते हुए अपने लिखे के तार जोड़ने लगा। मुझे समय का पता नहीं चला.. कुछ समय में दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ आई। वह अपने कमरे में वापिस जा चुकी थी। फिर मैं नहीं लिख पाया.... एक शब्द भी नहीं...।
क्या यह सच में हुआ था.. जो भी अभी तक मैंने लिखा है? यह मेरे भीतर की एक अव्यवस्थित दुनियां है जिसमें ख़ाली पग्डंडियां अनंत में कहीं खुलती है... जिनमें मैं भटक रहा हूँ। शायद सन-यग-ही का नाम बस मैं जानता हूँ... शायद उससे कभी मेरी बात भी नहीं हुई... शायद मैं यह नहीं लिख रहा हूँ। मैं ’अलोन’ शब्द के लिखते ही कमरा छोड़कर चला गया था...। मेरा इस लिखे से कोई संबंध नहीं है।
सुबह बहुत बोझ लिए हुए हुई। देर तक आईने में खुद को देखता रहा। सोते उठते हुए कई बार मैंने अपना रात का लिखा पढ़ा। बहुत दिनों तक मैं सन-यग-ही को देख नहीं पाया.. कई बार मैंने अपनी बाल्कनी से उसे आवाज़ लगाई पर उसकी बाल्कनी का दरवाज़ा बंद ही रहा।
इस बीच मेरी जंगहे से दोस्ती बढ़ गई थी... जो मेरे ठीक सामने रहती थीं। उन्हें वॉक करने और पहाड़ चढ़ने का बड़ा शोक़ था... मैं उन्हें एक सही साथी मिल गया था। Janghae 48 साल की थीं पर उतनी उम्र की लगती नहीं थी... वह Switzerland में रहती हैं पिछले बीस सालों से... अकेले। मेरी उनसे दोस्ती बहुत जल्द हो गई थी..। उन्हें अंग्रेज़ी बोलना आता था यह बात उन्होंने अब तक मुझसे छुपाकर रखी थी... क्योंकि वह नहीं चाहती थीं कि वह मेरे और बाक़ी कोरियन आर्टिस्ट के बीच ट्रांसलेटर बन जांए..। मैं उनकी तक़लीफ समझ सकता था सो मैंने कभी उन्हें ट्रांस्लेटर नहीं बनने दिया। इस बीच मुझसे एक ग़लती हो गई... एक दिन जब हम घूमने गए थे.. मैंने मस्ती में उनसे कह दिया कि मैं हाथ पढ़ सकता हूँ...मुझे नहीं पता था कि कोरिया में fortune telling एक बिज़नस है... लोगों का गहरा विश्वास है उसपर...। मेरा मज़ाक मुझपर ही भारी पड़ गया... janghae ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और बहुत संजीदगी से मुझे देखने लगी। मुझे कुछ भी नहीं आता था.. पर मैंने अपने दोस्तो को बहुत ही संजीदगी से यह सब करते हुए देखा था सो मैं उन्हें कुछ सतही चीज़े बताने लगा... पर मेरी हर बात को वह कुछ इस तरह भीतर जज़्ब कर रहीं थी मानों वह पूर्ण सत्य हो...। सो मुझे लगा कि कुछ अच्छी बात कर लेनी चाहिए... मैंने उन्हें बताया कि आपकी luck line बहुत बढ़िया है.... आप बहुत lucky हैं.. वह चुप रहीं... मैंने कहा कि आपका जल्दी विश्वास नहीं करती लोगों पर... ऎसा उनसे बात करते हुए मैंने महसूस किया था। मैंने कहा आपके पास जल्दी ही बहुत काम आने वाला है.... क्योंकि वह इस बात को लेकर बहुत परेशान थी कि उनके पास आजकल कोई काम नहीं है...। वह मेरी एक बात पर बहुत मायूस हो गईं कि उनकी luck line बहुत अच्छी है.. वह कहने लगी कि ’मैं बिल्कुल भी lucky नहीं हूँ... मैंने बहुत संघर्ष किया है.. अब इस उम्र में मैं अकेली हूँ.. कोई आगे-पीछे नहीं है.. अपना कोई घर भी नहीं.... बहुत ज़्यादा महत करती हूँ तो एक कमिश्न मिल जाता है संगीत बनाने का.... हर महीने अपना किराया देने के लिए उठा-पटक करनी पड़ती है....” मैं स्तब्ध रह गया। मैंने उनसे कहा कि मैं एक fraud palm reader हूँ... पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी... मेरे कहे हर वाक़्य को मैं उनके चहरे पर देख सकता था। उन्होंने कहा कि ’एक अर्टिस्ट का retirement कितना दुखद होता है... वह retire होना चाहे तो कहाँ जाए????’ मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था..।
मैंने शायद पहली बार अपने मज़ाक का इतना बड़ा असर देखा था। वह अचानक मुझे बहुत बूढ़ी दिखने लगीं। हम दोनॊं एक रेस्टोरेंट में बैठे हुए थे। मैंने कहा कि ’लेट मी ट्री यु टुडे..’। यह उन्हें सांत्वना सी लगी...। मैंने उनके मन पसंदिदा नूडल्स मंगाए.. हमने कोरियन वाईन पी... मुझे लगा हम बात-चीत में सब कुछ भूल गए हैं। पर वह बार-बार अपना हाथ देखती रही। अंत में हम दोनों ने अपने-अपने खाने का पैसा दिया। बस में बैठे हुए वह खिड़की के बाहर कुछ तलाश रही थीं... एकदम चुप... मुझे मेरा शब्द फिर याद हो आया...’अलोन..’। मेरा अकेलापन इनके अकेलेपन के सामने छिछला था। मेरे सामने अभी भी दरवाज़े खुले हुए थे... मैं अभी भी बहुत से निर्णय ले सकता था... पर जंगहे... मैं उनकी असहयता बस समझ सकता था। मैंने अपने बेग से निकालकर एक चॉक्लेट उन्हें दी... उन्होंने मना कर दिया.. तब मैंने देखा वह रो रहीं थी। रोते हुए उन्होंने मुझे कई बार सॉरी कहा... जबकि मैं उनसे माफी मांगना चाहता था।
जंगहे बहुत व्यस्त हो गई थीं... उन्होंने बताया कि.. ’हमारे वापिस आने के बाद मैंने संगीत की दो कंपोजिशन लिखीं ... ऎसा मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ है... शायद तुम सही कह रहे थे... मुझे जल्द ही कोई बड़ा काम मिलने वाला है।’ उन्होंने अपना हाथ मेरे सामने बढ़ाया और कहा luck line….। मैं खुश हो गया... कि वह खुश थीं...। इस बीच मैं वापिस अपनी उपन्यास रुपी कहानी पर आया... जंगहे भी उस उपन्यास में आ गई... पर यह मेरी उपन्यास में अभी भी रो रहीं थी... मेरी इच्छा नहीं हुई कि वह खुश हों... मुझे शायद कहीं पता था कि यह खुशी क्षणिक है।
रोज़ खाने की मेज़ पर कवि से मुलाकात हो जाती। उनको लेकर धीरे-धीरे मेरे भीतर आत्मीयता जाग उठी थी। वह हमेशा कोने वाली कुर्सी पर बैठते... अगर मैं पहले पहुंच जाता और कोई दूसरा उस कुर्सी पर आकर बैठता तो मैं उसे उठा देता.. कहता कि यह कवि की कुर्सी है। एक शाम डिनर के बाद उन्होंने मुझे अपने कमरे में कॉफी का न्यौता दिया। मैं उनके साथ हो लिया... वह बहुत उत्सुकता से मुझे अपने कमरे की तरफ ले गए। उन्होंने अपने कमरे का दरवाज़ा खोआ और मुझे बाहर ही इंतज़ार करने को कहा... फिर वह दरवाज़ा बंद करके भीतर चले गए। मैं बाहर खड़ा रहा। मुझे लगा भीतर कोई है जिसे वह मेरे आने के पहले छुपाना चाहते हैं...। मुझे यह सोचने में इतनी गुदगुदी महसूस हो रही थी कि एक बूढ़ा आदमी जो अकेला रहता है भीतर इस वक़्त क्या कर रहा होगा...। मैं सिगरेट जलाने ही वाला था कि उन्होंने दरवाज़ा खोल दिया... मैं अपने जूते उतारकर भीतर गया। बहुत अच्छी खुशबू आ रही थी। कोने में एक लेंप जल रहा था जिसकी पीली रोशनी पूरे कमरे में थी... एक दीवार पर सूखी लकड़ियों का जंगल था जो वह अपनी वॉक पर बटोरते चलते होंगे शायद। एक कोने में बच्चों की सी स्कूल डेस्क पड़ी थी जिसपर बैठकर वह लिखते होंगे..। मेरे भीतर पहुंचते ही उन्होंने संगीत लगा दिया। आपने ही कमरों में जिसमें हम बहुत सहजता से रहते हैं किसी अजबी के आते ही वही कमरा हमे सबसे असहज कर देता है... लगता है कि हम नंगे हो गए हैं.. वह हमारी व्यक्तिगत चीज़ो को देखकर मुझे जज कर रहा है। वह असहज थे.. मैंने उनके कमरे की तारीफ की... वह कॉफी ग्राईड करने में व्यस्त हो गए। मेरी निगाह पीछे रखी किताबों पर गई... फ्रेच और कोरियन किताबें भरी हुई थीं।
कॉफी बनाते हुए वह अपनी टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में कहने लगे.. ’बहुत पहले मेरे पास एक रेनकोट हुआ करता था... मुझॆ बताया गया था कि मौसम जीवन के जैसा है... सो कभी भी बारिश हो सकती है। अगर बारिश हो गई और तुम्हारे पास ठीक उस वक़्त रेनकोट नहीं हुआ तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी। मैं मौसम के बदलने से बहुत डरने लगा... जब भी बिजली कड़ती.. बादल गरजते.. मैं खुद को अपने रेनकोट में सुरक्षित महसूस करता... पर असल में बारिश कभी हुई नहीं। एक दिन किसी व्यस्तता में मैं रेनकोट ले जाना भूल गया और उस दिन अचानक बिना बादल गरजे... बारिश होने लगी। मैं अपने घर की तरफ भागने लगा अपना रेनकोट उठाने... पर भागते-भागते मैं पूरा गीला हो चुका था... मैं रोने लगा.. फिर फिसल कर गिर पड़ा... जब उठा तो सामने से आती गाड़ी ने मेरे ऊपर कीचड़ उछाल दिया...। मैंने समर्पण कर दिया... मुझे लगा बस अब सब गड़बड़ हो गई... सब खत्म...। मैं वहां पड़े-पड़े भीगता रहा...। उस दिन मैंने मेरे शरीर से सब कुछ बहते हुए देखा था और मैंने अपनी पहली कविता बारिश पर लिखी थी। आज भी मैं अपना रेनकोट हर जगह साथ लेकर घूमता हूँ पर कभी पहनता नहीं हूँ।’
’पर आप अब रेनकोट क्यों साथ लिए घूमते हो?’ मैंने पूछा..
’हम बहुत जल्दी भूल जाते हैं... और मैं यह बात भूलना नहीं चाहता..। मेरा ब्लू रेनकोट हमेशा साथ रहता है।’
पता नहीं क्यों मुझे ऎसा लगा कि मैंने इन्हें भीगते हुए देखा है। उस वक़्त उस सड़क पर मैं भी खड़ा था। मैंने इनके ऊपर कीचड़ उडते हुए देखी है।
उन्होंने मुझे कॉफी दी..। मैंने उनसे पूछा... ’डू यू नो मी?’
उन्होंने बहुत सहजता से मना कर दिया।
हम दोनों अपनी-अपनी कॉफी पर शांत बैठे थे। वह अपनी डेस्क पर चले गए। और उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं उन्हें अपनी कुछ कविताएं सुना सकता हूँ। मैंने उनसे कहा कि मुझे फ्रेंच या कोरियन भाषा नहीं आती है... पर उन्होंने कोई बात नहीं कहकर अपनी कविताएं पढ़ना शुरु कर दी। हर कविता पूरी होने के बाद वह कुछ देर का वक्फा बीतने देते और दूसरी कविता शुरुकर देते..। मैं हर बार उनसे कहता कि मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है... पर वह बिना रुके बढ़ते जा रहे थे... मुझे हंसी आने लगी... मैं पहले अपनी हंसी दबाता रहा फिर ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा...। उन्हें भी हंसी आने लगी... वह अब हंसते हुए कविताएं पढ़ने लगे। मैं हंसना नहीं चाहता था... मैं उन्हें रोकना चाहता था...। अंत में मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उनकी किताब उनके हाथ से छीनी और बंद कर दी... और उनसे कहा कि मैं जाना चाहता हूँ। उन्होंने ठीक है कहा और खड़े हो गए। मुझे बड़े बेईज़्ज़ती सी महसूस हुई। मैं अपनी कॉफी बिना खत्म किए उठ गया। वह दरवाज़े पर खड़े होकर मेरे जूते पहनने का इंतज़ार करने लगे...। जूते पहनते ही मैं खड़ा हो गया... वह मुस्कुरा रहे थे... बिलकुल वैसे ही जैसे कि वह मुझे जानते हो... मुझे लगा कि मैं उन्हें कुछ कह दूं कि वह थोड़ा बेईज़्ज़त महसूस करें। मैंने पूछा...
’आपने मुझे वह कविताएं क्यों सुनाई जो मेरी समझ में भी नहीं आ रही थीं?’ मैं बहुत गुस्से में था।
’तुम भी यही कर रहे हो।’ उन्होंने कहा..।
मुझे लगा कि उन्होंने यह वाक़्य हिंदी में बोला है। या शायद यह वाक़्य इतनी बुरी तरह मेरे भीतर गिरा कि उसकी गूंज हिंदी की सी सुनाई दी। मैं हतप्रभ रह गया। उन्होंने दरवाज़ा बंद कर लिया। मुझे याद नहीं कि मै कितनी देर उनके दरवाज़े के बाहर खड़ा रहा। ’मैं भी यही कर रहा हूँ...’ फिर उनकी ब्लू रेनकोट वाली कहानी मेरे दिमाग़ में घूमने लगी।
मैंने खुद को सड़क पर खड़ा पाया.... मैं बहुत देर से तारे देख रहा था। ठंड़ बहुत बढ़ गई थी। मैंने अपने कमरे की तरफ देखा... वहा अंधेरा था। मैं अंधेरे की तरफ मुड़ गया।
यह दौपहरे कितनी देयनीय कर देती हैं कभी-कभी। यह इतनी बीच में होती हैं कि कुछ किया नहीं जा सकता... मैंने कुछ कॉफी पी ली... कई बार सोने की कोशिश की... लिखना कुंए में अपनी आवाज़ सुनने जैसा है... क्या किया जा सकता है इन दौपहरों का? फिर मैं उसके साथ बिताए दिन टोहने लगा। कोई भी संबंध का खत्म हो जाना इन्हीं दौपहरों में असहनीय हो जाता है। मैं खत्म कर चुका हूँ सब कुछ फिर भी यह तकलीफ शारिरिक रुप से असहनीय जो जाती है कभी-कभी। कहां होगी वह..? इस वक़्त किसके साथ होगी? क्या मेरे बारे में सोचती होगी? ऊफ!! यह दयनीयता...। मैं दौपहर में जंगहे के पास चला गया...। वह काम कर रही थी... उसने कहा शाम को मिलते हैं। मेरी इच्छा हुई कि सन-यग-ही से मिलूं... मैंने हिम्मत करके उसका दरवाज़ा खटखटाया.... वह सो रही थी... उसके बाल अस्त-व्यस्त थे..। पर उसने एक मिनिट कहा और दरवाज़ा बंद कर लिया। कुछ देर में वह अपनी अस्त-व्यस्तता खत्म करके मेरे सामने खड़ी थी। इच्छा हुई कि उसे सब कुछ कह दूं... सारा मवाद.. सारे घिनौने सत्य... सब कुछ... मैंने कहा कि चलो कहीं घूमने चलते हैं... मैं बोर हो रहा हूँ। उसने मेरे संवाद की दयनीयता सूंघ ली वह मेरे साथ हो ली। हम बस पकड़कर युनिवर्सिटी की तरफ चले गए..। वहां एक तलाब था। तलाब के बगल से एक छोटा रास्ता जंगल की तरफ जाता था.. हम वहां निकल गए। मैं जगह तलाशने लगा अपने संवाद कहने की.. मैं अपने भीतर से सब कुछ निकाल देना चाहता था। मैं रोना चाहता था। तभी उसे एक फूल दिखा.. सफेद पंखड़ियों वाला छोटा फूल जो बीच में पीला रंग दबाए होता था। सन-यग-ही ने कहा कि बचपन में वह इस फूल को अंडे का फूल कहती थी... यह उसे बिल्कुल अंडे जैसा लगता है। मुझे अचानक वह बच्ची सी दिखने लगी...। मैं तलाब किनारे एक पेड़ से टिक्कर खड़ा हो गया... वह अंडे के फूल से खेलती रही। मुझे कवि की याद हो आई... उनकी ब्लू रेनकोट वाली बात... उनकी कविताएं... एक टुकड़ा सुलझ गया..। मैं इसे कह नहीं सकता... पर मुझे लगा कि कुछ ठीक हो गया। सन-यग-ही का फूल से खेलना... ब्लू रेनकोट.. फ्रेंच और कोरियन कविताएं... कुछ मेरे भीतर सुलझ गया.. तिड़क गया। मैं जहां था वहीं बैठ गया।
सन-यग-ही मेरे बगल में आकर बैठ गई..। यही वह जगह थी जिसे मैं ढूंढ रहा था जहां मुझे अपने भीतर का सब कुछ कह देना था.. पर भीतर कहीं कुछ बचा नहीं था। सब सरल हो गया था। सन-यग-ही के हाथ में फूल था और मुझे सच में वह छोटा सा अंडा दिखने लगा था। मैंने सन-यग-ही से सॉरी कहा...। वह मुझे इस तरह देखने लगी मानों वह खुद को देख रही हो... वह मेरे बहुत करीब आ गई....। पहले उसकी सांस जो मैं अपने होठों के आसपास महसूस कर सकता था... फिर उसके गर्म मुलायम होंठ मेरे होठों को छूने लगे...। मैं चूम रहा था उसे... बिल्कुल वैसे ही जैसे वह मुझे चूम रही थी।
वह झटके से हट गई और वापिस चलने लगी। हमने आपस में पूरे रास्ते कोई बात नहीं की। मैं हल्का था.. उसके भीतर बहुत कुछ चल रहा था। मैंने उससे पूछा ’यू वांट टू ड्रिंक टुनाईट?’ उसने हामी में सिर हिला दिया। मैंने जंगहे के लिए भी उसकी पसंदीदा बीयर उठा ली। हम दोनों शाम को सीधे जंगहे के रुम पर गए और उसे बीयर दी... उसने आज बहुत काम किया था सो वह भी सलीब्रेट करने के मूड में थी। हम तीनों बरामदे में कुर्सी लगाकर बैठ गए। फिर वह हुआ जिसे मैं कमीनापन कहता हूँ... यह ठीक-ठीक झूठ भी नहीं है... यह किसी एक बहुत अंतरंग अनुभव को हास्यासपद बनाने का हुनर है। जो बतौर किस्सागो आपके भीतर बढ़ता रहता है। मैंने उन दोनों के बीच कवी का किस्सा छेड़ दिया। लगभग वैसा ही जो हुआ था... पर उसका एक छिछला... सतही... हास्यासपद... घटना क्रम... जिसमे मैं नायक था और वह महज़ जोकर। दोनों हंस-हंसकर दौहरे हो गए। मैं भी बीयर के नशे में उस पूरी घटना में अपने चालाक हिस्से जोड़ता जा रहा था।
मैं कहां बदल जाता हूँ...? यह कौन था जो मेरे भीतर के अंतरंग अनुभव को एक किस्सा बनाए जा रहा था? फिर हम दोनों में से वह कौन है जो लिखता है, और वह कौन है जो कमरा छोड़कर चला जाता है???
कुछ ही देर में मैं उन दोनों के बीच एकदम अकेला हो गया। ’मैं नहाना चाहता हूँ...’ यह कहकर मैं अपने कमरे में गया.. फिर बाहर आने की इच्छा नहीं हुई। मैं कुछ देर में सच में नहाने लगा था। मैंने ठंडा पानी अपने शरीर पर डाला... कुछ सुन्न करने लिए। साफ कपड़े पहनकर मैं अपने लिखे के सामने बैठ गया। ईमांदार... कम से कम मैं यहां तो ईमांदार हो सकता हूँ। मैंने पहला वाक़्य लिखा... ’यह उपन्यास नहीं है.... यह एक छोटी कहानी है.. मैं उपन्यास नहीं लिख सकता... उपन्यास लिखने का ठहराव मेरे भीतर नहीं है। लंबी यात्रा का संयम मेरे पास नहीं है।’ मुझे अचानक लगा कि यह हार भी मेरी कहानी का अंग होना चाहिए.. मेरे पूरे कमीनेपन से लथ-पथ कहानी होनी चाहिए। यह काल्पनिक है... काल्पनिक ही होनी चाहिए.. क्योंकि यथार्थ बहुत उबाऊ है...। सो जो भी कहानी में हो रहा है.. वह हो सकता था की परिधी पर भाग रहा है... और जो हुआ है.. वह मूल है जिसका कहानी से बहुत ज़्यादा संबंध नहीं है। ’अलोन..’ मैंने फिर वह शब्द पढ़ा और कहानी लिखना शुरु किया। अब इस कहानी के मुख्य पात्र.. जंगहे, सन-यग-ही और कवी थे... और मैं इस कहानी में..... विदुषक हूँ। मैंने ’अलोन..’ शीर्षक को मिटाया और उसकी जगह कहानी का नाम रखा “ब्लू रेनकोट..”।
मैं कितना कुछ देख सकता था इन तीनों में...। जंगहे के बारे में लिखते हुए मुझे बार-बार लगता रहा कि मैं अपनी माँ के बारे में लिख रहा हूँ...। एक दिन मैंने उनसे कहा कि ’मैं आपसे मिलने एक दिन Switzerland आऊंगा...’ उन्होंने कहा ’ठीक है आना.. सुंदर जगह है.. पर मैं तुमसे नहीं मिलूंगी..।’ मैं आश्चर्य से उन्हें देखता रहा.. उन्होंने भी बहुत देर मुझसे निग़ाह नहीं हटाई...। यह अजीब क्रूरता है... जो मैंने जंगहे में कई बार देखी थी... एक क्षण में वह मुझे इतना दूर कर देती थीं कि लगता नहीं था कि हमने इतना सारा वक़्त साथ बिताया है...।
सन-यग-ही नाम लिखते ही मुझे सब सरल और शुद्ध लगने लगता। अपनी खिड़की से मैंने उसे कई बार जंगल में अकेले घूमते हुए देखा था... कई बार इच्छा हुई कि उसके साथ हो लूं... पर मैं नहीं गया। उसका अकेले घूमना, यह दृश्य इतना कुछ कह रहा होता था कि मैं उसे लिखे बिना नहीं रह सकता था। फिर ऎसी बहुत सी बातें थी जो मेरी लिखी हुई सन-यग-ही और जो असल सन-यग-ही है उससे मेल नहीं खाती थी.. जैसे उसका देर रात मेरे कमरे में चले आना... बहुत समय तक एक कोने में कुर्सी लगाकर बैठे रहना.. बिना बात किसी भी समय कह देना ’I hate you..’। मैं समझता था.. मैं बहुत सारी चीज़े नज़रंदाज़ कर देता था। मुझे पता था क्या असर हो रहा है उसपर... मुझे पता था बीच में अचानक उसका कुछ दिनों के लिये गायब हो जाना क्या था....। उसकी पीठ के कंपन्न से मैं उसके भीतर की उथल-पुथल समझ सकता था... पर मैं कायर था। मैं हमेशा से बचना जानता था। मुझे यह हुनर बहुत अच्छी तरह आता था...। मैं उससे कहना चाहता था कि... मुझे नहीं पता.. सच मेरे पास उसको कहने के लिए असल में कुछ नहीं था। मैं उसे पसंद करता था और वह इसे भोग रही थी।
कवी ने सब सुलझा दिया था। यह सब फिर से गड़-मड़ होने वाला है मैं जानता था। पर अभी... फिल्हाल कवी ने धो पोछकर मुझॆ सुखा दिया है। मैंने उनको एक बार अपने कमरे पर आमंत्रित किया... वह बहुत देर तक मेरा आमंत्रण सुनते रहे फिर उन्होंने मना कर दिया। मुझे अच्छा लगा... उन्हें नहीं आना था और वह नहीं आ रहे हैं। पर उन्होंने इसका एक कारण बताया... कहने लगे कि ’मैं एक कविता लिख रहा हूँ... और उस कविता से मेरी लड़ाई चल रही है।’ मैं फिर फस गया...।
’तो उस लड़ाई का मेरे आमंत्रण से क्या संबंध है?’ मैंने पूछा..
’मैं इस लड़ाई में हर उन जगहों पर जा रहा हूँ जिन जगहों का ज़िक्र मैंने अपनी कविता में किया है... जैसे नीचे का तालाब.. ऊपर जंगल में एक मंदिर.. पीछे मिर्ची के खेत..। जबकि कविता अकेली कमरे में पड़ी रहती है... उन्हीं चीज़ों का मुर्दा ज़िक्र लिए।’
’इससे क्या होता है?’ मैंने शायद यह नहीं पूछा था... या यह मेरे चहरे पर उन्होंने पढ़ लिया था।
’फिर जब मैं उन जगहों से घूमकर वापिस अपनी कविता के पास आता हूँ तो वह मुझे स्वीकार कर लेती है। अभी जो कविता मैं लिख रहा हूँ वह ज़्यादा ज़िद्दी है।’
खाने के बाद मेस के कोने में पड़े कॉफी मेकर से हम दोनों ने कॉफी बनाई...।
मुझे कवी की बातें सपनों के भीतर के संवाद जैसे लगती हैं। इनमें कोई सिरे नहीं होते... बस एक सघनता है जो बहुत ही सरल है।
मैं उनके बगल में खड़े होकर कितना विचलित लगता हूँ... जबकि वह कितने स्थिर..। वह जाने लगे... मैंने उनसे कहा कि..’मैं आपका ब्लू रेनकोट देखना चाहता हूँ।’ उन्होंने चलते-चलते अपना हाथ हवा में हिला दिया... जिसका मतलब हर भाषा में ’ठीक है’ होता है...।
देर रात मैं कवी के बारे में लिख रहा था... तभी मुझे रात में एक परछाई सामने की सड़क पर चलती हुई दिखी। जब ध्यान से देखा तो सन-यग-ही और कवी तलाब की तरफ जाते हुए दिखे। मैं बहुत देर तक सोचता रहा कि उनके पीछे हो लूं... पर बाहर इतनी ठंड थी कि हिम्मत नहीं हुई।
सोचा सन-यग-ही से कवी के बारे में पूछूंगा कि वह उससे क्या बात करते होंगे? क्या उससे भी संवाद बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे वह मुझसे करते हैं? पर यह तो सीमा लांघना हुआ... अपने ही लिखे एक पात्र से, अपने ही लिखे दूसरे पात्र के बारे में पूछना... यह कितना छिछला काम है। नहीं मैं यह नहीं कर सकता...।
वापसी का वक़्त निकट आ चुका था। मैं वापिस जाऊंगा फिर उसी जंगल में... जहां कभी-कभी सांस लेना भी दूभर लगता है.. पर वह नशा है.. बार-बार मैं सिगरेट जला लेता हूँ। मैं धीरे-धीरे अपने सामान को समेटने लगा हूँ... हर बार पीछे जंगल में जाता हूँ तो लगता है कि यह शायद आखरी मैं इन्हें देख रहा हूँ। मैं कभी भी सन-यग-ही जितना पवित्र संबंध पेड़ों, फूलों, जंगलों से नहीं बना सकता... मैं उनसे बात करते हुए भी एक नाटकीयता महसूस करता हूँ...। मैं उन पेड़ों को छू रहा था जिनके नीचे, इस बीच, मैंने अपने अकेलेपन भोगे हैं.... उनसे मैं संवाद कर पा रहा था.. मैं गुडबॉय कह रहा था। अजीब है कि मैं इन्हें शायद अपने पूरे जीवन में फिर कभी दौबारा नहीं देख पाऊंगा... भीतर तीव्र इच्छा हुई कि कह दूं कि मैं आऊंगा... इस सड़क पर एक बार फिर चलूंगा... एक बार फिर...।
कमरे पर वापिस आ रहा था तो देखा कवी मेरा इंतज़ार कर रहे थे। मैं भागता हुआ अपने दरवाज़े तक पहुंचा.. बिना अभिवादन के मैंने दरवाज़ा खोल दिया... मेरी हड़बड़ाहट में वह शांति से भीतर घुसे..। कमरा अस्त-व्यस्त था। वह अपनी जगह ढ़ूढ़कर शांत बैठ गए। मैंने कॉफी पीयेंगें पूछा... उन्होंने कहा.. इसलिए तो आया हूँ। वह खुश थे... यह देखकर मैं भी सहज हो गया। कॉफी बनाने की व्यस्तता में मैंने देखा वह मेरा कमरा ठीक करने लगे..। मैंने उन्हें रोका नहीं... उनका मेरे ऊपर कुछ अधिकार था.. वह उस अधिकार से मेरा कमरा जमा रहे थे। मैं कॉफी तैयार करके उनके सामने आया... उन्होंने कहा कि वहां टेबल पर रख दो। कुछ देर में हम दोनों टेबल पर आमने सामने थे... कमरा की अस्त-व्यस्तता खत्म हो चुकी थी। उनकी निग़ाह मेरे लिखे पर पड़ी.. उन्होंने कभी हिंदी लिपी नहीं देखी थी.. वह आश्चर्य से उसे देखने लगे। फिर बच्चे के उत्साह से मुझसे आग्रह किय कि कुछ लिखो... मैंने उनका नाम लिखा.. उनके बारे में कुछ शब्द लिखे...। वह हंसने लगे बच्चों जैसे।
अचानक आपके सामने वह क्षण आ जाता है जब आप महसूस करते हो कि मैं खुश हूँ। मैं खुश था.. और यह खुशी यहीं इसी कमरे की अस्त-व्यस्तता में कहीं बिखरी पड़ी थी...। सब कुछ आस-पास ही था। तभी उन्होंने अपने झोले से रेनकोट निकाला... ब्लू रेनकोट..। क्या मैं इसे छू सकता हूँ....? मैंने उनसे पूछा... उन्होंने वह मेरे हाथों में दे दिया..। मैंने हल्के से उसे घुमाकर देखा.. वह जगह-जगह से छन गया था... उसकी बाहों के छोर काले पड़ गए थे.. पर वह ज़िदा था। मुझे लगा उस कोट के भीतर कोई है... मैंने उसे समेट कर अपनी गोदी में रख लिया मानों वह एक छोटा बच्चा हो..। मुझे अचानक खिड़की दिखी.. खिड़की नहीं रोशनदान... सुबह का सूरज छनता हुआ मेरे घर की दीवर पर पड़ता था... फिर वह पेड़... नदी... गलियां... मेरे घर के पीछॆ मैंने खुद को चलते हुए देखा.. सपने देखते हुए... बड़बड़ाते हुए.. मुझे माँ दिखी... अपने सपनों को मुझे सोपती हुई... पिताजी नदी से एक डूबे हुए जहाज़ को बाहर निकाल रहे थे... मैं अपने घर को चारों तरफ से सूंघ रहा था।
’मैंने कविता पूरी कर ली...’ उन्होंने कहा...
’अरे वाह! क्या मैं सुन सकता हूँ?’ मैं बाहर आ गया...
’सुनाऊंगा अगली बार...’
हम दोनों को पता था कि अगली बार नहीं आने वाला है। अगली बार हम कभी भी एक दूसरे को नहीं मिलेंगें... अगली बार अंत है।
’तुमने क्या लिखा?’
’मैं उपन्यास लिखना चाह रहा था... पर वह... नहीं हुआ.. और फिर..।’
’लिखना नाखून है... उंग्लियां है... या किसी-किसी के लिए पूरी बांह है... बस...जीना पूरा शरीर है.. उसे मत भूलना।’
’पर मुझे लगता है कि मैं जो जी रहा हूँ वह जी नहीं रहा उसे लिख रहा हूँ।’
’अगर लिख रहे हो तो ऎसा लिखना कि बूढ़ा होने पर उसे पढ़कर आनंद मिले....’
’आनंद.... मैं वापिस नहीं जाना चाहता... मुझे नहीं पता कि मैं क्या करुंगा वहां... मेरा कहीं कोई काम नहीं है.. मैं यहां छुपने आया था... मैं... जाना चाहता हूँ।’
मुझे लगा कि वह शायद मेरे कमरे की तरह मेरे भीतर के अस्त-व्यस्त आदमी को जमा देंगें...। मैं अपने भीतर का सारा बिखराव उनके सामने उड़ेल देना चाहता था।
’कॉफी बहुत अच्छी थी... अब मैं चलता हूँ मुझे वॉक पर जाना है...।’
मैं ब्लू रेनकोट उन्हें सोंपा.. और वह चल दिये। वह कवी थे.. और कविता जी रहे थे।
मैं उनसे कितना कुछ कहना चाहता था..। मैं पूछना चाहता था उन खाली खिड़कियों के बारे में... खिड़कियां नहीं रोशनदान... उन लंबी घनी अकेली रातों के बारे में... उन अलिखित शामों के बारे में.. मैंने हिसाब सा कर रखा था.. एक हज़ार एक घनी क्रूर रातों का.... उसके एक-एक क्षण का..। उनके जाते ही मैं हल्का हो गया... मुझे कुछ भी बहुत बुरा नहीं लग रहा था.. बहुत अच्छा लगने के कारण मेरे पास ज़्यादा नहीं थे। मैंने सोचा काश कुछ लिख लिया होता... पर यह् सोच हमेशा मेरे साथ बहती रहती है।
सुबह एक नई चिड़िया बाल्कनी की मुडेर पर बैठे चहक रही थी। मैंने अपनी अल्साई अंडाई में उसे देखा। मुझे सुबह की दूसरी बस की आवाज़ सुनाई दी... वह अभी-अभी आई थी। यह आख़री स्टाप है बस का.. वह बस आकर करीब बीस मिनिट खड़ी रहती है फिर चल देती है... एक लंबा हार्न बजाकर...। मैंने चाय चढ़ाई... और बाल्कनी में आकर खड़ा हो गया। बस स्टाप पर मुझे सन-यग-ही दिखी... अपने सूटकेस के साथ.. उसके बगल में जंगहे थी शायद... । मैंने ज़ोर से आवाज़ लगाई... उसने मुझॆ देखकर हवा में हाथ हिलाया... मैंने इशारे से पूछा कि कहां जा रही हो... उसने कोई जवाब नहीं दिया.. वह पलट गई। जंगहे ने मुझॆ इशारे से आने को कहा... पर सन-यग-ही ने जंगहे का हाथ रोक लिया...। मुझे ठीक नहीं लगा.. मैं तुरंत बस स्टाप की तरफ लपका..।
मेरे वहां पहुंचते ही जंगहे हम दोनों को एक साथ करके खुद दूर जाकर खड़ी हो गई। मैंने देखा सन-यग-ही रोए जा रही है...। मैंने उससे पूछा... ’कहां जा रही हो? क्यों? मैं कल जा रहा हूँ.. तुम मुझे गुडबॉय नहीं करोगी?’
’नहीं... बिल्कुल नहीं...।’ उसने जवाब दिया..
’कहां जा रही हो?’
’कुछ काम है।’
वह एक टक मुझे देखे जा रही थी। अचानक मुझे उसमें वह असहायता दिखी... जिससे छिपकर मैं यहां कोरिया में बैठा था। मैं समझ सकता था... मैं जानता था... पर मैं चुप था।
तभी बस ने अपना आखरी लंबा हार्न बजा दिया। जंगहे मेरे पीछे प्रगट हो गई। उसने सन-यग-ही के कसकर गले लगे... और वह बिना मुझे देखे.. बस में चढ़ गई। जाती हुई बस से उसने एक बार मेरी तरफ देखा बस... एक बार.. आखरी बार..। मैं और जंगहे जब वापिस आपने कमरों में आ रहे थे तो उन्होंने कहा कि ’सन-यन-ही बहुत अच्छी लड़की है... भावुक.. तुम्हें समझना चाहिये था।’ मैंने इसका कोई जवाब नहीं दिया... मैं वापिस अपने कमरे में आकर बैठ गया। चाय का पानी कब का गर्म होकर ठंडा भी हो गया था। मैंने उसे फिर गर्म करने रख दिया...। हम खुद को बचाने के चक्कर में कभी कभी कितने कठोर हो जाते हैं... खुद पर। मैं वापिस जाने का डर भीतर लिए बैठा हूँ... फिर उसी दुनिया में जिसे मैं छोड़कर यहां छुपने आया था। मुझे लगा कि मैं हमेशा से एक भारी ब्लू रेनकोट जैसी कोई चीज़ लिये हर जगह पहुंच जाता हूँ.... जो हर उन चीज़ों से भरा होता है जिनसे मैं भागना चाहता हूँ...। सन-यग-ही भी चली गई पर क्या वह मेरे चले जाने को अपने साथ लेकर नहीं गई है जिससे कि असल में वह भागना चाहती थी। मेरे टूट चुके जिस संबंध की वजह से मैं यहां भाग आया.... मैं अपने साथ उसे भी ले आया था। हर चुप्पी में वह ख़िसकर कर मेरे करीब आकर बैठ जाता... और फिर मुझे उस पूरे संबंध की सारी गंदगी सहनी पड़ती..। हम क्यों भाग रहे हैं... किससे? कब तक? मेरी इच्छा हुई कि एक टेक्सी करके जाऊं और सन-यग-ही को बस में से उतारकर वापिस ले आऊं..। जैसे कि मैंने अपने जीवन में बहुत सी अहम चीज़े नहीं की हैं ठीक उसे तरह मैंने यह भी नहीं किया।
मेरे जाने के वक़्त टेक्सी बाहर खड़ी थी... जंगहे मुझे बाहर तक छोड़ने आई। मैंने जंगहे को गले लगाकर कहा कि ’हे माय ब्यूटिफुल लकी फ्रेंड... हम फिर से जल्द मिलेंगें।’ इस बार उसने हां में सिर हिलाया... ’वुई आर गोइंग टु मीट सून..।’
मैं विदा ले चुका था..। मेरी इच्छा हुई कि मैं एक बार भागकर कवि के कमरे में जाऊं और उन्हें बॉय कह दूं...। इस बार मैंने इसे जाने नहीं दिया.... मैं टेक्सी रुकवा दी... भागर मैं सीढ़ीया चढ़ते हुई कवि के कमरे के सामने खड़ा हो गया... वहां ताला लगा था। मैंने अपना सिर उनके दरवाज़े पर पटक दिया...। वापिस जाकर अपनी टेक्सी में बैठ गया।
टेक्सी एयरपोर्ट पर खड़ी हुई। मैंने उसे पैसे दिये... और सामने देखा सन-यग-ही खड़ी हुई है... वह मुझे देखकर मुस्कुरा रही थी। मैं अपनी खुशी को रोक नहीं पाया... मैं भागकर उसके गले लग गया। मेरे मुंह से सब कुछ हिंदी में निकल रहा था.. अंग्रेज़ी के शब्द कहीं गुम गए थे। वह हंसने लगी.. फिर हंसी-हंसी में वह भी कोरियन बोलने लगी..। मैं उससे कह रहा था कि कितनी पागह है वह.. कहां चली गई थी...। वह भी कोरियन में मुझसे कुछ कंप्लेन कर रही थी...। अंत में उसने मेरी छाती पर कुछ चांटे मारे और मेरे गले लग गई। हम दोनों चुप हो गए। टेक्सी वाले ने हार्न बजाया...। मैं भागकर वापिस गया.. अपना सामान लेने।
हम दोनॊं एयर पोर्ट के एक रेस्टोरेंट में बैठे थे। उसने कहा कि मैं तुम्हारे साथ आखरी डिनर करना चाहती थी सो चली आई। कितना दुखद था यह वाक़्य... कितना छोटा था यह संबंध.. कितनी सरल थी वह। हमारे पास कहने के लिए कुछ नहीं था। क्या कह सकते थे? हम दोनों कितने अलग थे... एक दूसरे की कहानी तक नहीं पता थीं..। संबंध में सिर्फ भाव थे... हम एक दूसरे को जानते नहीं थे। कुछ देर में उसने मेरा हाथ पकड़ लिया... यह वह पहले कभी भी नहीं कर पाई थी.. ख़ास कर इस अधिकार से तो नहीं। कुछ देर में उसकी बस थी... मैं बाहर आया उसे छोड़ने..। अंत में हमने एक दूसरे को चूमा... बहुत देर तक... बिना किसी की भी परवाह किये...। बस वाला हार्न मारे जा रहा था.. पर हम एक दूसरे को छोड़ नहीं पा रहे थे... वह एक बार बस में चढ़ने लगी पर फिर वापिस आ गई... हम फिर चूमने लगे। अब मैंने उसे महसूस किया... उसे चखा.. उसे जीया.. मुझे लगा अब मैं उसे जानता हूँ... मुझे लगा मैं उसे बहुत पहले से जानता हूँ.. हम दोनों बहुत समय से साथ हैं...।
हवाई जहाज़ आपनी उड़ान भर चुका था। कोरिया पीछे छूट रहा था... शहर की रोशनी छोटी होती जा रही थी। मैंने सोचा क्या यह बस यहीं तक था... बस? पता नहीं इस सबका कितना सारा कुछ मेरे ब्लू रेनकोट में भर चुका होगा.. जो पता नहीं कितने सालों तक मेरे साथ रहेगा। फिर मैं बहुत देर तक कवि के बारे में सोचता रहा... कवि से मैं सन-यग-ही पर पहुंच गया... फिर मुझे हंसती हुई जंगहे दिखाई दी...। मुझे लगा कि यह असल में कितनी पूरी कहानी है... ब्लू रेनकोट।
फिर एक उपन्यास... अपनी कहानी कह गया..।
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मानव
परिचय
- मानव
- मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल
2 comments:
कहां से कहां तक। ...............लम्बी उलाहना आखिर में कुछ तो सिद्ध हुई, इसका सुखद अहसास हुआ।
यह कहानी तबसे अटकी है जेहन में जब पहली बार पढ़ी थी...शायद इसीलिए जंग-हे इतनी अपनी सी लगीं.
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