Sunday, February 24, 2013
प्यादा...
दीवार पर हम चिपक जाते हैं...। किसी तरह से बस दृश्य से गायब हो जाए... दूर चांद पर दीवार दिखती है.. उस दीवार पर मौसम नहीं बदलते हैं। नीचे मौसम के शिक़ार हम हैं... इन दिनों भीग रहे हैं देर तक अकेले...। फिर वह सपने सा धुंधला दृश्य दिखता है जिसमें पहली बार सभी मैदान में खड़े दिखते हैं... मैं इनमें से कुछ लोगों को पसंद करता हूँ और कुछ को नापसंद.. पर सभी एक दूसरे में इतने घुले-मिले हैं कि किसी को भी अलग से देखना असंभव है। मैं छांटना चाहता हूँ... क्या हम हमेशा इसी प्रयास में नहीं लगे रहते हैं? छांट दे... अलग कर दे अच्छे बुरे को.. प्रिय को अप्रिय से.. कहानी को नाटक से... कविता को शायरी से... पर सब एक दूसरे में फसे हुए हैं..। फिर मैं पहले दिन के बारे में सोचने लगता हूँ... पहले दिन जब यह सब शुरु हुआ था। वह एक तरीक़े का शतरंज का खेल जैसा था... मैं दूर था... सभी लोग अपने-अपने काले-सफेद खानों में चुप शांत खड़े थे...। मेरा किसी से भी कोई सीधा संबंध नहीं था... तब शायद हमने पहली ग़लती की थी... मस्ति के लिए... हमने एक छोटे प्यादे को आगे सरका दिया था...। हमें नहीं पता था कि उसका नतीजा यह होगा कि हम किसी एक तरफ हो जाएंगे... अब जीवन में या तो सफेद कदम रखना है या काले... हम यह रंग नहीं लांग सकते अब..। और बहुत समय बाद पता चलता है कि असल में हमने बहुत पहले एक खेल शुरु कर दिया था... हमें लगता है कि हमने चुना था.. पर असल में हम चुन लिये गए थे..। शतरंज के बगल में पड़े हुए कुछ प्यादे.. घोड़े नज़र आते हैं.... हम इस खेल के राजा हैं जिसके हाथ में कुछ नहीं हैं। इस खेल में हम सालों बने रहते हैं... क्यों कि हर चाल में हम सालों गवां देते है... जैसा कि रोज़ उठने पर हम टटोलते हैं कि इस जीवन ने हमारे सामने क्या चाल चली है... जीवन भी धीमा और तेज़ चलता है... कई बार रुक जाता है... बहुत लंबे समय तक..। अंत तो आता ही है... आभी नहीं तो सालों बाद.... हम इस बीच छोटे-बड़े कांप्रोमाईज़ करते चलते हैं... यह सारे कांप्रोमाईज़ समय मांगने जैसा है... हम मांगना चाहते है कि बस हमें बने रहने दो...। हम चिल्लाना चाहते हैं कि हम सफेद नहीं हैं... काले भी नहीं है... हम बस परिस्थिति में फसें हैं.. और अपनी चाल को जितना हो सके टाल रहे हैं...। हमें टालना आ जाता है। बीच में दूसरों को मारने में हमें खुशी मिलती है.... पर वह क्षणिक है... समय बीत रहा होता है... जैसे हम इस खेल में फसें हैं... बाक़ी भी यही है.. हम दिखाते नहीं है... क्योंकि हमें लगता है कि हम एक दिन जीत जांएगें.... असल में हम जीतते कभी भी नहीं है हम अपनी अंतिम हार टाल रहे होते हैं...।
Friday, February 15, 2013
धूप....
(अपनी लिखी जा रही कहानी का एक अंश...)
धूप थी बहुत तेज़... आँखें बार-बार बंद हो जाती थीं। वह बादलों जैसे कभी आती तो हम अपने छोटे-छोटे बर्तन इक्कठे करने में लग जाते..। माना कि एक किचिन होगा हमारे भविष्य में... में हम उन छोटे बर्तनों से नाश्ता बनाने लगते... बचपन की जैसी बातों के बीच देर तक चहकते-रहते... ऎसे में पसीने की खुश्बू होती थी... कहीं से हवा चलती ....हवा वो कहती, जो हम इन सारी बातों के बीच नहीं कह पा रहे हो...। शब्द देर तक टटोलने पर अपना मतलब खो देते... मैं उसे बादल कहना चाहता था... पर बादल ज़बान तक आते-आते गीला हो जाता... लगता... यह नहीं है जो वह है... वह ठंडक भी है... वह हवा है.. मैं अब उसे हवा कहना चाहता.. पर हवा चहरे पर पड़ते ही मैं आँखे बंद कर लेता...। मेरे हाथ बार-बार उसके शरीर पर चिपक जाते... जैसे वह कोई चुंबक हो। वह बात बदलने में बार-बार वही बात कह रही होती... जिसे हम दोनों देर तक सुनना चाहते हो..। वह आम के पेड़ के नीचे जाने से डरती थी कहती थी कि ऊपर से लाल चींटिया बरसती हैं.... मैंने उससे कहता कि मुझे आम पसंद नहीं है... हम दोनों बहुत ख़ास है... आम तो बाक़ी लोग है जिन्हें हम दिखते नहीं है। उसे नहीं दिखने की बहुत उत्सुक्ता रहती थी... हम दोनों बार-बार बाहर जाते कि हम लोगों को ना दिखें.. और हम सच में नहीं दिखते थे..। देर तक बिस्तर पर लेटकर एक दूसरे का हाथ टटोलने की हमें आदत थी... वह मेरी भविष्य की रेखा पर अपनी उंग्लियां फैरती थी... मैं उसकी भाग्य रेखा बहुत पसंद करता था.. मेरी हथेली में भाग्य रेखा नहीं थी... यह बात मैंने कभी उसे नहीं बताई..। हम सारी बेमतलब की बातें एक दूसरे के कान में कहते जबकि सारी महत्वपूर्ण बातें मौन रह जाती। वह अच्छा खाना बनाती थी... उसे घर सुंदर रखना पसंद था... मैं उसे बहुत पसंद करता था.. वह मेरी ज़बान थी जो हमेशा उसे देखकर बाहर रह जाती थी... वह बाहर रह जाती थी... मैं भीतर सपने देखा करता था। एक सपना था कि किसी दिन लंबा चलेंगें और भटक जाएगें... हर वह रास्ता लेंगें जो हमारी वापसी को असंभव बना दे...। जब पानी दिखे तो रुक जाएं... और जब पहाड़ दिखे तो सांस ले लें... मैं तुम्हें इमली के पेड़ की कोपल चख़ाऊ...। किस कदर हम हंसेगें... हम कितना साथ हंसते थे... मैं जब भी पुराने दिनों को याद करता हूँ तो एक मुस्कुराहट याद आती हैं.. आँखों में.. होठो का धीरे से सरकना दिखता है... बालों का चहरे पर गिरना फिर संभलना.. सब धीमी गति से सरकता हुआ समय.. जैसे किसी फिल्म का धीमी गति का कोई सीन चल रहा हो। तुम्हारे साथ मैं धीरे-धीरे सरकता था.. बिना किसी प्रयास के... मानों नदी में बह रहे हो... तुम्हारे साथ मुझे कहीं भी पहुंचना नहीं होता था... और हम कहीं भी नहीं पहुंचे।
अब इस तेज़ धूप में मैं ठंड़ी हवा की तरह तुम्हें लिखता हूँ... लिखते ही मुझे कश्मीर याद आता है। वह कोमल धूप जिसमें बैठे-बैठे दिन कट जाता था... हमारे बारामुल्ला के घर का आंगन... मुर्गिया नीचे और चील ऊपर... वह दौपहरें तुम्हें लिखते ही याद आ जाती हैं। और भी कुछ दिखता है... खिड़की... खिड़की से बाहर बर्फ ताकना... बुख़ारी का धुंआ.. कांगड़ी की आंच... पता नहीं क्यों हम साथ कश्मीर नहीं गए..। मैं असल में तुम्हें कश्मीर दिखाना चाहता था... खोजाबाग़... जहां मेरे बचपन के खेल.. गलियों में दबे छिपे पड़े हैं..।
चलों एक दिन चलते हैं। दूर... बहुत दूर... बहुत दिनों से हमने मिलकर कोई सपना नहीं देखा... तुम्हें याद है ना सारे पुराने सपने... चलों अभी इसी वक़्त एक सपना बनाते हैं... नया... जिसमें खुश्बू हो... जिसमें तुम हो... जिसमें हम हो और एक कहानी... कहानी में हम भटक जांए.. और उसका कोई अंत ना हो... क्या कहती हो? शुरु करें..।
आकार.....
एक आकार दिखता है। कुछ बातों में... मुलाकातों में... जब भी एक अच्छा मनुष्य होने की बातों पर ज़ोर देता हूँ वह दिखने लगता है... आकार!!! मैं बातों में बहक उस आकार की तरफ ख़िच जाता हूँ... आपनी ईमानदारी में मैं कहता हूँ... वह दिख रहा है मुझे फिर से... लोग पूछते हैं क्या है..? मैं कहता हूँ एक आकार है...। बस... फिर मैं खिसियाते हुए आगे जोड़ देता हूँ कि उस आकार के कई प्रकार हो सकते हैं... मैं जब भी यह कहता हूँ... बचकाना सुनाई देता हूँ। बिना आकार के उस निराकार को किस तरह अपना बना लूं... अपना बनाने का संघर्ष उतना नहीं है जितना उस निराकार को अपनी बातों में सिद्ध करने का... कैसे अपनों को अपने इस आकार के बारे में बताऊं जो बिल्कुल भी किसी आकार में बंधा हुआ नहीं दिखता है। मैं सारे काम त्याग देता हूँ और उसे आकार देने में लग जाता हूँ। एक मूर्तिकार की तरह छेनी और हथौड़े के साथ उसके पास पहुंचता हूँ.... उसे पीटता हूँ, जलाता हूँ, छलनी कर देता हूँ.... वह किसी आकार में आता दिखाई देता है... पर कुछ ही देर में वह आकार बिना किसी अर्थ लिए टूटा-फूटा सामने पड़ा दिखता है। मैं उसे समेटकर एक जगह रख देता हूँ.... मेरी परेशानी मेरे माथे के आस-पास सब भांप लेते हैं... कहते हैं मैं परेशान दिखता हूँ आजकल...!!! कैसे कोई बिना किसी आकार के ज़िदा रह सकता है... मैं स्वीकृति चाहता हूँ... अपनों से.. अपने समय से... अपने आस-पास से...। निराकार पूजना सही है... पर बिना आकार के जिये जाना... असंभव जान पड़ता है। मैं खुद को उस आकार/निराकार के साथ बंद कर लेता हूँ...। जब तक मैं उसे एक आकार नहीं दे दूंगा बाहर नहीं जाऊंगा की कसम खाते ही वह आकार धुंधला पड़ने लगता है.... मैं इस तरह उसपर काम नहीं कर सकता... जब तक निराकार ठोस रुप नहीं लेगा तब तक उसे किसी भी आकार में ढ़ालना असंभव है..। वह अपना ठोस रुप मेरे दुनियां में जाने पर लेता है.... मैं जितना सफल लोगों के बीच उठता बैठता हूँ... या भविष्य से डरे लोगों की संगत रखता हूँ उतना मेरा निराकार पकता जाता है... साफ दिखने लगता है...। मैं सभ्य लोगों के बीच पागल दिखता हूँ.... लोग बार बार मेरे आकार के बारे बात छेड़ देते हैं....। जो निराकार मुझे दिखता है उसका आकार लोग मुझमें देख लेते हैं... मैं पूछता हूँ... कैसा है इसका आकार? लोग कहते हैं इसे आकार नहीं कहते हैं... तो मैं कहता हूँ कि यह निराकार है फिर... इसपर सब हंस देते हैं... निराकार भी एक आकार में बंधा होता है जो तुममे दिखता है वह कुछ नहीं है।
एक सभ्य समाज के आकार में मैं अपनी पूरी सामर्थ लगा रहा हूँ कि मैं भी अपने आकार को उसमें फसा सकूं... और छुट्टी पाऊं...। मुझे लोग अपने होने वाले उत्सवों में बुलाएं... अपने बच्चे होने में... अपनी सामाजिक उन्नति की पार्टीयों में... अपनी चीख़ती हुई हंसी में मेरी दबी-छुपी खिसियाहट को शामिल कर लें।
फिर एक दिन अचानक चीज़े खुल गई। मैंने एक महफिल में अचानक उसे मुझसे छिटककर दूर जाते हुए देख लिया... इसका मतलब वह मैं ही था जो अभी चीख़ती हुई हंसी में छिटका था... मैं तुरंत उस महफिल से उठ गया... मैं एक दूसरा आदमी भीतर पाले हुए हूँ... एक निराकार जो मुझे दिखता नहीं है वह अलग हो जाता है.. दूर फिका जाता है...। अगर मैं इससे निजाद पा लूं तो सभी के बीच मैं बिना किसी परेशानी के रह सकता हूँ...!!! शायद तभी से इसे मार गिराने के औज़ार ढ़ूढ़ रहा हूँ..। कभी दाढ़ी बनाते हुए खून निकल आता है तो डरता हूँ कि कहीं वह भी तो मुझे मार गिराना नहीं चाहता है!!!
हमारे भीतर जो सबसे खतरनाक़ बात है वह है हर एक बात की आदत बना देना..। वह निराकार मेरी आदत के कमरे में घुस गया है... और यह कमरा मेरी पहुंच के बाहर है... आदत भीतर नहीं बाहर होती है... जैसे मैं बाहर होता हूँ जब भी वह आकर भीतर काम करता है..। पर मैं एक दिन बिना उसे पता लगे उसे पकड़ लूंगा.. दबोंच लूंगा... और उसे मारने के पहले.. इतने बीत गए सालों का हिसाब मांगूगा... हर अकेली शाम का.. हर नींद से लंबी रातों का.. इस गरीबी का.. और एक त्रासदी का... सबका हिसाब मांगूगा.. एक दिन..।
Thursday, February 7, 2013
पेटर्नस........
कल रात खत्म हुई थी वर्जीनिया वुल्फ की कुछ पंक्तियों से....। उनके लेखन का शायद यह सबसे असरदार पहलू है कि वह गूंजता है.. बहुत दिनों तक..। आज सुबह से कई बार पेटर्न शब्द ज़बान पर चढ़ा रहा...। शायद लिखने में हम सबसे ज़्यादा यह महसूस करते हैं... किसी भी एक भाव को जब हम सबसे ज़्यादा जी रहे होते हैं.. या जब वह हमें सबसे ज़्यादा परेशान करने लगता है तो हम उसके एक विचित्र से मोहपाश में बंध जाते हैं... उसे हमें लिखकर अपने शरीर से निकाल देना होता है...कैसे भी.... उस वक़्त हमारा जो भी लिखना चल रहा होता है.. हम पाते हैं कि हम अचानक वह लिखने लगे हैं जिस भाव से हम पिछले कुछ समय से परेशान थे... उस भाव के भीतर आते ही एक पेटर्न नज़र आने लगता है... और यह डरा देंने वाला चमत्कार जैसा है...। लगता है कि इसका यहीं इसी जगह होना एक बहुत बड़े पेटर्न का हिस्सा है... फिर लगने लगता है कि असल में सब चीज़ एक साथ जुड़ी हुई है... एक सूत की तरह जिसकी बात वर्जीनिया वुल्फ करती हैं। ठीक वैसे ही जीवन भी है... हम जैसा सोच रहे हैं हम असल में बिल्कुल वैसा ही जी रहे हैं, जैसा हम जीना चाहते थे...। या अगर कोशिश करके हम कुछ अलग भी जीने लगे तब भी हम देखते हैं कि वह अलग जीना भी एक किस्म के पेटर्न में फिट होकर ठीक वहीं, उसी जगह आ गया है जिस जगह पर रहकर हम जीना चाहते थे।
फिर एक दूसरी बात जो आज मैं सुबह पढ़ रहा था वह भी बहुत कुछ इसी तरह से अलग किस्म की है...। इसे “लेखक की रोटी” नाम की किताब में मंगलेश डबराल ने लिखा है.... “काश हम कवि पहले चोर या डाकू होते। एक दिन वाल्मीकि की तरह क्रौंच-वध जैसा कोई दृश्य देखते और हमारे मुख से कविता फूटती और हम महाकवि बन जाते.... या हम कोई राजकुमार होते और एक दिन संसार का दुख-दैन्य और जरा-मरण देखकर सब कुछ छोड़कर निकल पड़ते और मनुष्य की मुक्ति का रास्ता खोज लेते। ऎसा कुछ नहीं हो सका... हम सामान्य मानवीय जीवन से ऊपर नहीं उठे...” (मैंने कुछ चुने हुए वाक़्य लिए है)
दूसरी बात जो मुझे बहुत ही दिलचस्प जान पड़ती है वह है हमारे सारे के सारे दुख.. तकलीफें... ज़िद... पीड़ाए.. चमत्कार.. खुशी... यह सब कितने सामान्य है...कितने दैनिक है। दैनिक ही सही शब्द है... क्षणिक हो सकता था पर उसके अपने अलग अर्थ निकलते हैं....। जिस तरह बहुत देर तक जब कोई भाव तकलीफ देता है तो हमारे लेखन का हिस्सा हो जाता है.. कुछ इस तरह कि उसे इस पेटर्न में आना ही था... पर हम कितनी तक़लीफों को अपने साथ लेके चलते हैं...?? और कितनी देर तक??? हम तुरंत उसे किसी गुस्से पर खर्च कर देना चाहते हैं...। हमारी दिक़्कत है कि हम विपरीत नहीं तैर रहे हैं.. हम असल में इस जीवन में बहाव के साथ है... (बहाव के बदले बाज़ार भी पढ़ सकते हैं।) हमें सब स्वीकार्य है... हमारी किसी भी तरीक़े की कोई ऎसी लड़ाई नहीं है जिसका असर हमारे पूरे होने पर पड़े.... इसलिए मैंने दैनिक शब्द इस्तेमाल किया...।
आजकल मैं बहुत से जवान फिल्म निर्देशकों के संपर्क में आया...। मुझे निजी तौर पर बड़ी तकलीफ होती है यह देखकर कि उनका सारा फिल्म बनाने का उत्साह विदेशी फिल्मों को देखकर आता है.. सबके अपने बंधे बधाए पेटर्न है जिसमें वह खपना चाहते हैं... लगभग उन्हें जो भी करना है वह उनके बातचीत में दिखता है...। मैंने एक दिन किसी एक से यह सवाल किया...
“जब तुम्हें पता है कि तुम ऎसी सी फिल्म बनाना चाहते हो तो फिर उसे बना क्यों रहे हो??”
“क्या मतलब?”
“मेरे हिसाब से यह तो बहुत बोरिंग है... थका देने वाला काम... या अपने ही किसी काम को फिर से करने जैसा काम... तुम बोर नहीं हो जाओगे...?”
“अरे तो और कैसे बनाए फिल्म?”
असल जवाब मुझे भी नहीं पता हैं...। पर फिल्म बनाने के पीछे जो विचार है... मैं उस बात पर बात करना चाह रहा था... उस विचार में वह तकलीफ नहीं है... उसकी बातों में वह एक बात कहने का ज़िक्र भी नहीं है जिसके लिए वह फिल्म बनाना चाहता है...। सारा उत्साह किस तरह की वह फिल्म दिखेगी इसपर है....। मेरे पास और भी बहुत से सवाल थे.. जिसे शायद मैं खुद ही से पूछ्ना चाह रहा था... पर मैंने जाने दिया... मैं यूं भी उस केटेगिरि में गिना जाने लगा हूँ... जिसमें लोग आपकी पीठ पीछे आपको इंटलेक्चुअल कहकर पुकारते हैं.. यहां इंटलेक्चुअल को पागल भी पढ़ सकते हैं।
नाटकों की बात ज़्यादा नहीं करना चाहता क्योंकि मैं उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा हूँ... पर जो दिखता है वह कुछ यूं है..... “नाटक एक अच्छी इंवनिंग प्रदान करे... और करता रहे... जिसमें सभी नाटक करने वाले एक दूसरे से हंस कर मिलें.. और हंसी खुशी की बातें करे..... हमेशा..।“
अब इस सबमें बात जहां से शुरु हुई थी.. वह एक व्यक्ति की...। वह व्यक्ति जो चीज़े बनाता है.... मैं हमेशा उस व्यक्ति को लेकर उत्साहित रहता हूँ... इसलिए शायद यह लिख रहा हूँ। जब भी मैं ऎसे किसी व्यक्ति से मिलता हूँ जो चीज़े बनाता है... मैं कूद-कूदकर उससे बात करना चाहता हूँ... मैं बच्चों जैसा हो जाता हूँ...। इसमें मैं बार-बार इसी बात पर आता हूँ कि क्या चीज़ है जो हमसे इस वक़्त यह काम करा रही है...? मैं फिर उसका पेटर्न पकड़ना चाहता हूँ... मैं वापिस उसी जगह नहीं जाना चाहता जिस जगह पर खड़े रहकर मैंने अपना पिछला काम शुरुकिया था। या हम बस परिस्थियों से बने हुए आदमी है.. (जैसा कि अधिक्तर मुझे मेरे साथ लगता है.. कि मैं परिस्थियों की वजह से ऎसा हूँ.. मेरी जगह कोई भी होता तो वह लगभग ऎसे ही लिखने लगता.. या शायद मुझसे बहतर ही लिखता....)
मैं हमेशा से मानता आया हूँ कि हम जो भी चीज़ बनाते हैं.. उसमें हमारे जीवन के सारे पेटर्न नज़र आते हैं..। हमारी likes, dislikes ... हमारा चरित्र.. सब कुछ नज़र आता है..। मुझे शायद खुद को बदलना पड़ेगा... अगर मैं चाहता हूँ कि मेरे लिखने और निर्देशन में बदलाव आए..। पर बदलाव शब्द को मैं कितना जानता हूँ?
एक विचित्र बात यहां पर मैं देखता हूँ.... यह जो मैंने लिखा वह सिर्फ वर्जीनिया वुल्फ को रात में पढ़कर सोने का नतीजा था..। कितनी असरदार लेखनी है उनकी.... क्या मैं अपने लेखन में कभी उनकी खुशबू के पास भी पहुंच सकता हूँ? कभी... एक बार...???? बस एक बार!!!..................
Wednesday, February 6, 2013
NOTES FROM A SMALL ROOM.....
बहुत सुबह उठना मुझे हमेशा से पसंद है। मैं अपने कमरे में अंधेरा रखता हूँ और बहुत धीमी गति से रोशनी का कमरे में प्रवेश देखता हूँ.... यह हमेशा मुझे चमत्कार लगता है। शायद बहुत से छोटे कमरों में रहने के कारण मुझॆ हमेशा छोटी चीज़ों में दिलचस्पी रही है। मुझे सूर्य अस्त और सूर्य का उगना कभी बहुत पसंद नहीं आया.... वह मेरे लिये बहुत बड़ी चीज़ है... मुझे इन दोनों का असर बहुत छोटी चीज़ों पर महसूस करना बहुत पसंद है। जैसे बहुत पहले नैनीताल की सुबह देखी थी.... एक झाडू लगाता हुआ आदमी...चाय की दुकान का खुलना... दूर एक भजन की किसी मंदिर में शुरुआत... हरिओम शरण का वह भजन अभी भी याद है... वह बिल्कुल पूना में देखी सुबह जैसी थी पर फिर भी बहुत अलग... अखबार वालों का साईकल पर निकलना... दूधवाला... पहली चिड़िया की अलसाई पहली आवाज़... यह सब किसी नाटक के पैदा होने जैसा लगता है.. और यह सब सिर्फ सुबह के पात्र हैं... हर शहर में.. हर गांव में यह अपने नाटक की शुरुआत बिल्कुल अलग तरीक़े से करते हैं... नाटक एक ही है... पात्र भी लगभग वहीं हैं... पर फिर भी नाटक बिल्कुल अलग..।
शुरुआत मुझे हमेशा बहुत पसंद है... किसी नाटक की शुरुआत के वक़्त मैं बहुत उत्साहित रहता हूँ चाहे फिर उसे मैं लिख रहा हूँ या देख रहा हूँ...।
फिर मुझे दौपहरे भी बहुत पसंद है... मेरे गांव की दौपहरे मुझे बहुत याद आती है... बाड़े में हमेशा उत्सव का माहौल रहता था.. पर उत्सव मुझे कभी बहुत आकर्षित नहीं करते थे... मुझॆ उन दौपहरों के अंधेरे कोनों में खेले जा रहे खेल बहुत सुंदर लगते थे...। छोटे सीक्रेट... एक गुप्त कोना... एक बिल्ली जिससे देर तक बात करना... एक नदी... पर पूरी नदी नहीं उसका एक छोटा किनारा...। जब लिखना शुरु किया तब भी मुझे वह दौपहर बहुत अच्छी तरह याद है जिसमें मैंने शक्कर के पांच दाने का पहला शब्द लिखा था.. “मैं लड़ रहा हूँ.....”। मेरे लगभग सारे नाटकों की शुरुआत दौपहर के ख़ालीपन में हुई है... और हर नाटक की शुरुआत का वक़्त मुझे बहुत अच्छी तरह याद है। उस वक़्त किस तरीक़े का संगीत बज रहा था वह भी मुझे याद है....। यह अजीब है मुझे सुबह होते देखना पसंद है... और मेरे लगभग सारे कामों की शुरुआत दौपहरों में हुई है। मैं अपने खुद के साथ बहुत व्यस्त रहता हूँ... मैं किसी भी एक बात पर पूरा दिन बिता सकता हूँ.. जैसे कल मुझे मेरी बाल्कने पर चींटियों की रेल दिखी.... अब उसकी शुरुआत और अंत देखने की उम्मीद इतने थी कि मैं अपने उत्साह को रोक नहीं सकता हूँ.... पर तुरंत मेरी दिलचस्पी बदल जाती है जब मैं उन चींटियों के बीच एक ऎसी चींटी को देख लेता हूँ जो पूरी तरह चींटियों के चलने के या काम करने के नीयमों का पालन नहीं कर रही होती है... किसी एक ही चींटी की चाल में मस्ती होती है। हम सब कितना डरते हैं कि कहीं हम चली आ रही लाईन से अलग ना हो जांए... या अलग ना कर दिये जाएं... एक अच्छे आदमी बने रहने के सारे नीयम हम कितनी संजीदग़ी से निभाते हैं... क्या हमारी चाल में मस्ती है..???
फिर शाम आती है...। इन शामों को मैं टहलना बहुत पसंद करता हूँ... शाम को मेरे संबंध हमेशा किसी ना किसी से बन जाते हैं... जैसे मेक्लॉडगंज में एक पेस्ट्री वाला था... कृष्ना.. मेरी शामें वहां उसके साथ बीतती थी... उत्तरांचल के पहाड़ों पर हंसा था... मेरी बिल्डिंग के नीचे एक गोलगप्पे वाल है जो मुझे बेकेट के एबसर्ड नाटकों का पात्र लगता है... मेरे और उसके संवादों में कोई भी तालमेल नहीं होता है... मैं अगर उससे कहूँ कि आज बहुत अकेलापन लग रहा है.. तो वह कहता है कि पानी में मिर्ची थोड़ी तेज़ है आज... मैं कहता हूँ... यह फिल्म देखी तुमने? वह कहता है कि कल बारिश की वजह से आ नहीं पाया.. आप कहीं मुझे ढ़ूंढ़ तो नहीं रहे थे?.... मुझे बहुत अच्छा लगता है उस गोलगप्पे वाले के साथ अपना वक़्त बिताना.... मैंने अपनी बहुत निजी तक़लीफों को उससे बिना हिचके कह दिया है.... और उसके दिये सारे जवाब राम बांड की तरह काम करते हैं। हर गोलगप्पे के बाद मेरे चहरे की मुस्कुराहट बढ़ती जाती है। शाम को हमेशा यूं ही किसी से देर तक बात कर लेने का बहुत सुख होता है.. मुझे लगता है कि एक पूरा दिन बिता लेने के बाद.. ठीक रात में घुसने के पहले लोग उस दिन के बारे में बात करना चाहते हैं...। इसलिए शायद वह शामें ही है जहां मैंने अपने बहुत सुंदर दोस्तों को पाया है....। टहलने के अलावा मुझे अपनी अकेली निजी शामें भी बहुत पसंद हैं.. जिनमें मैंने कुछ भी नहीं किया है.... उनमें ज़्यादा से ज़्यादा मैंने दीवारों में छुपे हुए चहरों को देखा है... उनका ज़िक्र रहने देते हैं।
फिर रात होती है...। मैं इस वक़्त धीमी गति का संगीत रखता हूँ... और तब तक बल्ब नहीं जलाता हूँ जब तक कि रोशनी का आख़्ररी कतरे की विदाई ना कर दूं....। अपने कमरे से इस विशाल ब्रह्मांड का निकलना... पूरे दिन का जाना... किसी एक नाटक का अपने अंत पर पहुंचना... इसमें चुप्पी की ज़रुरत होती है... और उस चुप्पी में अगर एकदम सहीं संगीत को मिला दिया जाए तो वह दिल को छू देने वाला अंत हो सकता है...। ऎसे वक़्त मैं चाय नहीं कॉफी बनाता हूँ। मैंने अपनी अधीकतर पढी किताबों को ठीक इन्हीं शामों और रातों के बीच कॉफी पीते हुए खत्म किया है। किसी लंबे चली आ रही कहानी को खत्म करना... इससे सुंदर वक़्त कौन सा हो सकता है...। मेरे चहरे पर हमेशा एक मुस्कुराहट होती है... ऎसे वक़्त मैं अधिक्तर अपनी पढ़ी हुई किताबों को फिर से पढ़ने के लिए उठाता हूँ...। पूरे कमरे में टहलते हुए उस किताब को फिर से पढ़ता हूँ... पढ़ी हुई किताबों को फिर से पढ़ने में असल में पढ़ने का सुख है... वह दूसरी बार में आपकी अपनी हो जाती है... अपके अपने जिये हुए की खुशबू उस किताब के पन्नों से आने लगती है।
मैं बहुत देर रात तक नहीं जगता हूँ...। सुबह होती देखने का उत्साह मुझे हमेशा जल्दी सुला देता है। एक ड्रिंक... हाथ में सिग्रेट... उल्टी पड़ी हुई कोई किताब और पीछॆ हल्के सुर में चलता हुआ संगीत... यह दृश्य को देखते हुए मैं कब सो जाता हूँ मुझे पता ही नहीं चलता।
सो आज बहुत सुबह उठ गया हूँ....। अभी रोशनी ने कमरे में प्रवेश किया है.... कबूतरों चिड़ियों की आवाज़.... बाहर दो चील भी अपने करतब कर रहीं हैं... सामने के पेड़ पर नौ चिड़िया बैठी हुई हैं..। अब मैं लिखना बंद करता हूँ..... चाय पीने की इच्छा है...।
जिस पढ़ी हुई किताब को फिर से पढ़ते हुए आज सुबह की शुरुआत हुई वह यह है....
HAPPINESS IS AS ELUSIVE AS BUTTERFLY, AND YOU MUST NEVER PURSUE IT. IF YOU STAY VERY STILL, IT MIGHT COME AND SETTLE ON YOUR HAND.BUT ONLY BRIEFLY. SAVOUR THOSE PRECIOUS MOMENTS, FOR THEY WILL NOT COME YOUR WAY VERY OFTEN.
-RUSKIN BOND…
कितनी सुंदर सुबह है यह....।
Tuesday, February 5, 2013
बिना वजह...
काम खत्म होता है... एक सपना जिसे बहुत मन से देखा गया था खत्म होता है... दिन, पूरा जी लेने के बाद अपने अंजाम पर पहुंच जाता है... शाम टहलते-टोहते काली होती जाती है... एक गोलाकार शुरु होता है और अपने ही उद्गम से अंत में चिपक जाता है। हम कहते हैं असल में हर चीज़ गोल है...। खेल है लुका छिपि का.. हम हर सपने में आँखों पर पट्टी बांध लेते हैं... फिर भटकते हैं.. लगता है इस पूरी दुनिया में कोई चीज़ है जो हमसे टकरा जाएगी जब आँखें बंद होंगी... हमें पता नहीं होगा और रात कट जाएगी... और अधिक्तर रात इसी तरह कट जाती हैं...। जब सुबह होती है तो चमत्कार लगता है... लगता है कि पट्टी उतर गई है... क्या पट्टी उतर गई है? क्या हम सुबह देख रहे हैं? शाम होते-होते लगता है कि सब छलावा है... हम बस.. कुछ कदम चलकर वापिस वहीं खड़े हैं। किन्हीं अच्छे क्षणों में हमें हमारे पद्दचिन्ह दिखते हैं.. लगता है कि कितनी लंबी यात्रा की है... पर असल में हमारे पैर एक कदम आगे चलकर चार कदम पीछे आते हैं। यह पीछे की यात्रा टोहना हैं... यह टटोलना है... हम चले कम थे भटके ज़्यादा... हम सुबह उठते हैं तो रात में देखे सपनों को टटोलने में लग जाते हैं...। मैंने एक नाटक देखा था... मैं प्रेम में था... किसी ने सपने में मुझसे कहा था कि यह काग़ज रख लो और इसपर वह लिखो जैसा तुम जीना चाहते हो... तुम बिल्कुल वैसे ही जियोगे... पर तुम्हारे पास सिर्फ यह रात है.... सुबह होते ही कागज़ गायब हो जाएगा..। मैं तुरंत लिखने बैठ गया.. मैं प्रेम में था और मैं प्रेम लिखना चाहता था... मैं पेन ढ़ूंढ़ने लगा... पूरा कमरा छान मारा पेन नहीं मिला... फिर एक कप में पेन पड़ा था मैं उसे लाया पर उसमें सियाही ख़त्म हो चुकी थी.. मैं हड़बड़ाने लगा... मैं अपने घर से निकल गया... कोई दुकान..? किसी इंसान के पास पेन मिल जाए...? कोई नहीं दिखा...। फिर अचानक वह दिखी... मैंने उससे पूछा ’क्या तुम्हारे पास पेन है.. मैं हमारे प्रेम के बारे में लिखना चाहता हूँ...’ उसने अपने पर्स में खोजा उसे लाल रंग का एक पेन दिखा... मैं उससे मांगना चाहता था.. पर वह अचानक भागने लगी... मैं उसके पीछे भागा... चिल्लाता रहा... ’मैं हमारी बात लिखूंगा... हमारा प्रेम... रुको.. सुनों.. रुको....’ वह नहीं रुकी... दूर जाकर वह खड़ी हो गई और उसने पेन तोड़ दिया....। मैं अपने कमरे में वापिस था... पेन ढूंढना मैंने त्याग दिया..तभी मुझे अपनी किताबों में छुपा हुआ पेन दिखा... मैं बहुत देर तक उस कोरे कागज़ के सामने बैठा रहा... पर कुछ लिखने की इच्छा नहीं हुई...। मैंने बिना किसी वजह के चित्र बनाने लगा... जो मेरी समझ से बाहर थे... पर मैं उन चित्रों में बहुत सी संभावनाए देख सकता था... तभी सुबह हो गई... और वह कागज़ गायब हो गया।
मैं वापिस उद्गम पर खड़ा था...। मुझे बिना किसी वजह के चित्र याद रह गए... फिर लगा कि यह सही है... बिना किसी वजह के दिन.. साल... सब चीज़ सुलझने लगी...। फिर पद्चिन्ह को देखा... बिना किसी वजह का पहला कदम.. बस बात यहीं खत्म हो जानी चाहिए..। फिर भी जिस सपने ने यह बात बताई वह भी पीछे चलने पर मिला था... आगे चलना हमेशा सहमा सा अर्थ भीतर दबाए रहता है... बिना वजह की सीढ़ीयों पर काई के समान जमा वह सहमा अर्थ... जब उसपर पैर फिसलता है... तब वह जो चोट.. वह तकलीफ़ है पीड़ा है.. वही नाटक है,कहानियां है, कविताएं है.. और असल में कुछ भी नहीं है।
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मानव
परिचय
- मानव
- मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल