Friday, February 15, 2013

आकार.....

एक आकार दिखता है। कुछ बातों में... मुलाकातों में... जब भी एक अच्छा मनुष्य होने की बातों पर ज़ोर देता हूँ वह दिखने लगता है... आकार!!! मैं बातों में बहक उस आकार की तरफ ख़िच जाता हूँ... आपनी ईमानदारी में मैं कहता हूँ... वह दिख रहा है मुझे फिर से... लोग पूछते हैं क्या है..? मैं कहता हूँ एक आकार है...। बस... फिर मैं खिसियाते हुए आगे जोड़ देता हूँ कि उस आकार के कई प्रकार हो सकते हैं... मैं जब भी यह कहता हूँ... बचकाना सुनाई देता हूँ। बिना आकार के उस निराकार को किस तरह अपना बना लूं... अपना बनाने का संघर्ष उतना नहीं है जितना उस निराकार को अपनी बातों में सिद्ध करने का... कैसे अपनों को अपने इस आकार के बारे में बताऊं जो बिल्कुल भी किसी आकार में बंधा हुआ नहीं दिखता है। मैं सारे काम त्याग देता हूँ और उसे आकार देने में लग जाता हूँ। एक मूर्तिकार की तरह छेनी और हथौड़े के साथ उसके पास पहुंचता हूँ.... उसे पीटता हूँ, जलाता हूँ, छलनी कर देता हूँ.... वह किसी आकार में आता दिखाई देता है... पर कुछ ही देर में वह आकार बिना किसी अर्थ लिए टूटा-फूटा सामने पड़ा दिखता है। मैं उसे समेटकर एक जगह रख देता हूँ.... मेरी परेशानी मेरे माथे के आस-पास सब भांप लेते हैं... कहते हैं मैं परेशान दिखता हूँ आजकल...!!! कैसे कोई बिना किसी आकार के ज़िदा रह सकता है... मैं स्वीकृति चाहता हूँ... अपनों से.. अपने समय से... अपने आस-पास से...। निराकार पूजना सही है... पर बिना आकार के जिये जाना... असंभव जान पड़ता है। मैं खुद को उस आकार/निराकार के साथ बंद कर लेता हूँ...। जब तक मैं उसे एक आकार नहीं दे दूंगा बाहर नहीं जाऊंगा की कसम खाते ही वह आकार धुंधला पड़ने लगता है.... मैं इस तरह उसपर काम नहीं कर सकता... जब तक निराकार ठोस रुप नहीं लेगा तब तक उसे किसी भी आकार में ढ़ालना असंभव है..। वह अपना ठोस रुप मेरे दुनियां में जाने पर लेता है.... मैं जितना सफल लोगों के बीच उठता बैठता हूँ... या भविष्य से डरे लोगों की संगत रखता हूँ उतना मेरा निराकार पकता जाता है... साफ दिखने लगता है...। मैं सभ्य लोगों के बीच पागल दिखता हूँ.... लोग बार बार मेरे आकार के बारे बात छेड़ देते हैं....। जो निराकार मुझे दिखता है उसका आकार लोग मुझमें देख लेते हैं... मैं पूछता हूँ... कैसा है इसका आकार? लोग कहते हैं इसे आकार नहीं कहते हैं... तो मैं कहता हूँ कि यह निराकार है फिर... इसपर सब हंस देते हैं... निराकार भी एक आकार में बंधा होता है जो तुममे दिखता है वह कुछ नहीं है। एक सभ्य समाज के आकार में मैं अपनी पूरी सामर्थ लगा रहा हूँ कि मैं भी अपने आकार को उसमें फसा सकूं... और छुट्टी पाऊं...। मुझे लोग अपने होने वाले उत्सवों में बुलाएं... अपने बच्चे होने में... अपनी सामाजिक उन्नति की पार्टीयों में... अपनी चीख़ती हुई हंसी में मेरी दबी-छुपी खिसियाहट को शामिल कर लें। फिर एक दिन अचानक चीज़े खुल गई। मैंने एक महफिल में अचानक उसे मुझसे छिटककर दूर जाते हुए देख लिया... इसका मतलब वह मैं ही था जो अभी चीख़ती हुई हंसी में छिटका था... मैं तुरंत उस महफिल से उठ गया... मैं एक दूसरा आदमी भीतर पाले हुए हूँ... एक निराकार जो मुझे दिखता नहीं है वह अलग हो जाता है.. दूर फिका जाता है...। अगर मैं इससे निजाद पा लूं तो सभी के बीच मैं बिना किसी परेशानी के रह सकता हूँ...!!! शायद तभी से इसे मार गिराने के औज़ार ढ़ूढ़ रहा हूँ..। कभी दाढ़ी बनाते हुए खून निकल आता है तो डरता हूँ कि कहीं वह भी तो मुझे मार गिराना नहीं चाहता है!!! हमारे भीतर जो सबसे खतरनाक़ बात है वह है हर एक बात की आदत बना देना..। वह निराकार मेरी आदत के कमरे में घुस गया है... और यह कमरा मेरी पहुंच के बाहर है... आदत भीतर नहीं बाहर होती है... जैसे मैं बाहर होता हूँ जब भी वह आकर भीतर काम करता है..। पर मैं एक दिन बिना उसे पता लगे उसे पकड़ लूंगा.. दबोंच लूंगा... और उसे मारने के पहले.. इतने बीत गए सालों का हिसाब मांगूगा... हर अकेली शाम का.. हर नींद से लंबी रातों का.. इस गरीबी का.. और एक त्रासदी का... सबका हिसाब मांगूगा.. एक दिन..।

5 comments:

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

आकार-निराकार का उल्‍लेखनीय दर्शन।

आनंद said...

कई आकारों के इस निराकार का दर्शन बहुत दुर्लभ है ... और जब ये आकार ले लेगा तो हिसाब लेना कहाँ याद रहेगा मानव जी |

Anonymous said...

मानव बस आपके जैसा कोई नहीं

Anonymous said...

ये सब कुछ इतनी स्पष्टता से कह लेना उलझे हुए को धागों में बट कबीर की तरह कपडा बुनना बस एक तुम्हारे ही बस की बात है |क्या कहू सुन्दर अति सुन्दर और उससे भी ज्यादा .........

My world and my words said...

This is something I connect to.... Hamare bheetar ka aakaara nirakaar ho toh hamesha ek baichaini si rehti hai......
Lovely writings Manav Ji.

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल