Saturday, August 10, 2013

चिड़िया के नहीं दिखने में उसके दिख जाने की प्रसन्नता छुपी है...

बाहर आजकल एक छोटी चिड़िया देर तक आंवले के पेड़ पर सुबह खेलती दिखती है। बाहर देखने का पेड़ बदल चुका है। यहां इस नए घर के आस-पास बहुत पेड़ हैं.... बहुत पेड़ों ने आसमान घेर रखा है..... इसलिए आजकल चील कम दिख़ती है... बाहर जाता हूँ और कभी चील जाए तो पुराने घरों की याद आने लगती है... उन यादों का सिलसिला फिर टूटे नहीं टूटता। सो मैं आसमान में चीलों को अब नहीं खोजता हूँ। जैसे कुछ देर के अभिनय के बाद सच में हंसी आने लगती है, ऎसे ही कुछ देर के अभिनय के बाद सच में प्रसन्नता आंवले के पेड़ पर खेलती दिखती है। एक जोड़ा गिलहरियों का सारे पेड़ों पर दौड़ लगाता है...। छोटी लाल चींटियां.... मालगाड़ी की तरह घर के एक कोन से दूसरे कोने में खों जाती हैं। मैं अपनी अधूरी लिखी कहानियों के बारे में सोचने लगता हूँ.... जिन्हें फिर-फिर खोलने पर भी मैं उनके आगे एक शब्द भी नहीं जोड़ पाता...। शायद कुछ कहानियां कभी पूरी नहीं होंगी... हम हमेशा उन क्षणॊं को कोसते रहेगें जिन क्षणॊं में हमने आख़री वाक़्य उन कहानियों में लिखे थे.... और अपनी डेस्क पर से उठ गए थे। काश हम उन्हें पूरा कर लेते... उस वक़्त...। नई कहानियां अधूरी कहानियों के बोझ तले शुरु नहीं होती... वह कुछ वाक्यों के बाद ही दम तोड़ देती हैं। शायद वह नई कहानियां... अधूरी कहानियों की पीड़ा सूंघ लेती हैं... और छूट जाती है। इसलिए शायद मैंने नई कहानियों को लिखने की जद्दोजहद त्याग दी है... अब मैं उस छोटी चिड़िया का इंतज़ार करता हूँ जो हर सुबह आंवले के पेड़ पर खेलने आती है। जितनी जल्दी दिखती है उतनी ही जल्दी ओझल हो जाती है.... वह फिर आएगी के इंतज़ार में गिलहरी सामने से भाग लेती है... चींटियां अपना पथ बदल लेती हैं... और जब मैं उस छोटी सी चिड़िया को खोजना छोड़ देता हूँ वह अचानक दिख जाती है... यही अचानक खुशी का आना है...। प्रसन्नता फिर आंवले पर बैठी दिखती है। कितनी छोटी है और कितना कुछ दे जाती है। मैं ठीक उसे देखते हुए सब भूल जाता हूँ... भूल जाता हूँ कि इस पेड़ के घने छप्पर के पीछे जो आसमान है... वहां चील अभी भी उड़ रही होगी... उस चील की अधूरी कहानी अभी भी मेरे कमरे की डेस्क पर मेरा इंतज़ार कर रही होगी। मैं सब भूलकर हाथ बढ़ाता हूँ और एक आंवला पेड़ से तोड़ लेता हूँ। मेरी ड़ेस्क पर बैठे हुए मैं उस छोटी सी चिड़िया की कलरव सुन सकता हूँ। आखिर में बाहर क्या है.... बाहर वह है जो मेरी खिड़की से मूझे दिखता है... पर जब सच में बाहर कदम रखता हूँ तो उसका कोई अंत नज़र नहीं आता। तभी ख़्याल आता है कि चिड़िया के नहीं दिखने में उसके दिख जाने की प्रसन्नता छुपी है...। अधूरी कहानियों की आड़ में कहीं एक नई कहानी जन्म लेती है... वह अचानक मुझे एक दिन दिख जाएगी जब मैं उसे खोजना बंद कर दूंगा।

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

पहले कितने संगी साथी थे दृष्टि में।

अनुपमा पाठक said...

सभी अधूरी कहानियां पूरी हों!

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल