Saturday, June 21, 2008

हबीब साहब...



जब हम उनके घर पहुचे तो वो सो रहे थे.. हम सब शांत उनके घर में चुपचाप अपनी-अपनी जगह खोजने लगे,मानो गुरु के घर में बहुत से छोटे बच्चे आ गये हो। राम और धन्नू (जो सालों से उनके साथ काम कर रहे हैं।) हमारे साथ थे। दोनों रास्ते भर उनके गुरु की डाँट, फटकार के किस्से सुनाते आ रहे थे।दिन में भारत भवन में हम रवि लाल सांगड़े(रवि काका) से भी मिले थे... वो दो महीनों से हबीब साहब से खफा है क्योंकि उन्होनें, उन्हें किसी बात पर फिर से डाँट दिया था। ये उन दोनों का अजीब संबंध है जो सालों से चल रहा है, रवि काका बता रहे थे मैं तब से उनकी डाँट खा रहा हूँ जब से मैं उनकी गाड़ी एक रुपये में धोता था।खैर हम उनका इंतज़ार कर रहे थे, वो भीतर के कमरे में लेटे हुए थे, हमें दीख रहे थे... अचानक उनकी आवाज़ आई... ’कौन आया है?’
हम सब सकपका गए... हमने अपना परिचय दिया.. वो कहने लगे-’मैं सो नहीं रहा हूँ, बस थोड़ी कमर सीधी कर रहा हूँ आता हूँ...।
हम सब चुपचाप बैठे रहे.. थोड़ी देर बाद अपने कुछ छोटे-छोटे रिचुअल्स को खत्म करके वो हमारे सामने बैठे थे। हम सब शांत थे..उन्होने तुरंत अपना पाईप जलाया और एक सुनहरी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा-’और दसो तुसी?’।
और हम सब मुस्कुराने लगे.. सारा असहज धेरा एक मुस्कान में धराशाही हो गया था।फिर हम इधर उधर की बातें करने लगे.. कुछ दीपक (उनके नया थियेटर का अभिनेता जो काफी पहले उनसे अलग हो गया था।) की चिंता की बात चली..(उसे पेरेलेसिस का दूसरा अटेक आ गया है।)पर अधिकतर वो अपनी आत्मकथा की ही बात करते रहे... जिसको लेकर वो बहुत उत्सुक हैं।पेग्विंन इसे दो खंडों में छाप रहा है।फिर उन्होने कहा कि-
’मैं उसका कुछ अंश तुम्हें सुनाता हूँ जो मैंने अभी-अभी पूरा किया है।’
हम सब खुश हो गये। वो उर्दु में लिखे कुछ पन्ने लाए और अपना चश्मा अंदर से मंगवाया हम सब उनके पास खिसक आए।
वो अंश ’मौत’ पे था (१९३० के करीब..)। उस अंश के मध्य में कहीं उन्होंने एक वाक्य पड़ा-’ अम्मी (उनकी माँ) नमाज़ पड़ते वक्त जब भी वज़ू के लिए अपना सिर झुकाती तो वो सफेद छोटा सा तखत उनके लिए बिलकुल पूरा पड़ता।’ अचानक वो इस वाक्य के बाद रुक गये, उन्होने सीधा धन्नू से पूछा अरे वो मेरी अम्मा का सफेद तखत कहां चला गया।’हम सब ज़ोर से हंस दिये लगा कि जो बचपन का किस्सा वो सुना रहे थे वो किस्सा अभी तक चल रहा है... वो अतीत नहीं है... वो वर्तमान है..। धन्नू जवाब दे उससे पहले ही वो हमसे मुख़ातिफ होकर कहने लगे कि असल में मैं वो तखत अपने साथ ही ले आया था। मेरे से भी पुराना है वो, फिर वो धन्नू की तरफ देखने लगे धन्नू ने बताया कि वो आपके बगल में ही रखा है अपने बस उसे रंगवा लिया है।उन्हें याद ही नहीं था कि उन्होने उसे रंग्वा दिया था। फिर उसे नपवाया गया- कहने लगे कि वो उसे पूरे नाप के साथ लिखना चाहते हैं।
फिर उन्होने मौत का ही दूसरा अंश सुनाया... वो एक सिपाही की मौत पे था जिसे इनके आंगन मे धुलाया गया था... उसकी तस्वीर, वो बताते हैं कि आज भी उनके ज़हन में काफ़ी साफ है।
हबीब साहब फिर कहने लगे कि बचपन जो गांव में जिया जाता है वो कितना rich होता है उसकी कितनी सारी अलग-अलग तस्वीरें होती हैं।फिर वो आज कल के बच्चों की चिंता करने लगे, इसी बीच मैंने मेरी एक दोस्त ने उन्हें मेरे नाटक ’पीले स्कूटर वाले आदमी’ की याद दिलाई, उनसे कहां कि इस बार के रंग प्रसंग में है प्लीज़ पढ़े.. तो मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्होने वो नाटक देखा था। ’मुझे बहुत पसंद आया था।’ उन्होने कहा। फिर उन्होने रंग प्रसंग निकलवाई,उसे अपने बिस्तर के किनारे रखवा दिया और कहा कि मैं इसे पढ़्ना भी चाहता हूँ..।
जब वो अपनी आत्मकथा सुना रहे थे.. तो अचानक मैं राम के बारे में सोचने लगा.. वो भी उसे बड़े ध्यान से सुन रहा था...। क्या वो अपने बचपन के किस्से नहीं सुना सकता है? उसके क्या कोई किस्से ही नहीं होगें? फिर मुझे अचानक लगा कि हबीब साहब की आत्मकथा कैसी होनी चाहीए?... पता नहीं। जितना मैंने सुना-वो बस कुछ किस्से थे... पढ़ते वक्त वो उतने अच्छे नहीं लग रहे थे..पर. जब हबीब साहब खुद उन किस्सों के बारे में बात करते थे तो वो किस्से ज़्यादा मतलब और अनुभव फैंकते थे। शायद मैं ज़्यादा अपेक्षा कर रहा हूँ... पर ये मेरा मानना है कि लेखक अपनी आत्मकथा से कहीं ज़्यादा सच्चा अपनी बाक़ी कृतियों में होता है।
बाद में हबीब साहब अपने फिल्मों के आफर्स के बारे में बात करके फूले नहीं समा रहे थे।’मैं ही एक एक्टर होऊगाँ जो बुढ़ापे में लांच हो रहा है’ - इसे कहते हुए हबीब साहब खुद बहुत खुश हुए।
जब हम हबीब साहब के घर से निकले तो सभी चुप थे... राम और धन्नू हमारे साथ ही चले, रास्ते में चलते हुए मेरी एक दोस्त ने राम से पूछा कि-’तो अब क्या करोगे आगे कुछ सोचा है।’ राम चुप रहा फिर कहने लगा कि जाऊगाँ बम्बई जाकर स्ट्रगल करुगाँ... अगर कुछ नहीं हुआ तो गांव जाकर खेती करने लगूगाँ...। मुझे याद है मैंने राम को ’मुद्राराक्षस’ नाम के नाटक में देखा था... उसकी ’चाणक्य’ की भूमिका अभी तक मैं भूला नहीं हूँ। वो इतने सालों से लगातार रंगमंच कर रहा है... पंद्रह साल से हबीब साहब के साथ जुड़ा हुआ है.. वो सब कुछ छोड़कर खेती करेगा...। राम के चार बच्चे हैं... वो बम्बई में स्ट्रगल करेगा की बात पता नहीं मैं... कुछ कह नहीं पाया...। मैंने पूछा-’ और "नया थियेटर" उसका क्या होगा?’ तो धन्नु ने कहा कि हबीब साहब एक दिन खुद कह रहे थे कि-’क्या कहते हो.. बंद कर दे इसे..?’
मेरे पास इन सारे सवालों के बहुत ज़्यादा जवाब नहीं थे.. मैं चुपचाप राम को ही देखता रहा... वो थोड़ी देर बाद मुझे देखकर मुस्कुराया.. और मुझे अच्छा लगा...। मैं अभी भी उसे राम नहीं मानता हूँ,मेरे लिए वो एक अजीब सी परिस्थिति से धिरा हुआ राम नहीं है... मैं उसे वहीं चाणक्य के रुप में देखता हूँ... जिसे मैंने अपने थियेटर के शुरुआती दिनों में देखा था..।उस चाणक्य को इस परिस्थिति में मैं नहीं देख सकता हूँ...।
हबीब साहब की आत्मकथा जल्द ही बाज़ार में मिलने लगेगी.. हम सबको उसका इंतज़ार रहेगा।

3 comments:

Arun Arora said...

अच्छा लगा जी हबीब साहब के पुराने पलो से गुजरना

VIMAL VERMA said...

भारतीय रंगकर्म की बात जब भी चलेगी तब हबीब साहब का नाम तो ज़रूर लिया जायेगा...आप उनसे अभिभूत हैं... हबीब साहब का ’मै” हमेशा समूह से बड़ा रहा है...दीपक जैसे एक्टरों की वजह से हबीब साहब को जितना फ़ायदा हुआ है...वैसा फ़ायदा कभी उनके प्रतिभाशाली लोक कलाकार नहीं ले पाये....अगर दूसरे शब्दों में कहें तो कलाकारों का शोषण करके ही आज उन्होंने अपनी जगह बनाई है....चरन दास चोर, हीरमा की अमर कहानी,आगरा बाज़ार जैसे बेहतरीन नाटक उन्होंने किये थे जो हमेशा याद रहेंगे..पर उन्होने रेपर्टरी बना कर जो दुनिया भर का माल कमाया सिर्फ़ अपना और अपना मुनाफ़ा देखा इसीलिये उनका नया थियेटर दम तोड़ रहा है अफ़सोस है कि अपना कोई उत्तराधिकारी भी इतने सालों में बना नहीं पाये..सरकार से पैसे लेकर लोककला को शहर और विदेशों में रोपने की कोशिश करते रहे राडा से पढ़ाई की क्या सिर्फ़ अपने लिये मैं बेर सराय में वो कलाकरों के साथ कैसा कैसा अन्याय करते थे..जिसने उनके साथ लम्बे समय तक काम किया है वही बता पायेगा....नाटक के बाद पैसे भी मुनीम की तरह गिन गिन के देते थे....बहुतों को अगर उनकी वजह से अच्छे नाटक देखने को मिले थे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता पर उन नाटकों में काम करने वाले किसी भी कलाकार का भविष्य नहीं बना पाये.....बहुत से मामलों में हबीब जी नितांत स्वार्थी थे...उनको परम्परा के वाहक नहीं कह सकते किताब छपवाते रहे हमारी शुभकामनाएं है उनको....

मैथिली गुप्त said...

पहली बार हबीब साहब का नाटक शायद चंदा लोरिक, तीस साल पहले श्री राम सेन्टर के बेसमेन्ट में देखा था. तब से अब तक इनके अनेकों नाटक बार बार देखे. नया थियेटर के लोक कलाकार मुझे हमेशा आकर्षित करते रहे लेकिन मैं इनके कोशिश करने के बाबजूद भी नाम कभी नहीं जान पाया.
मैं हबीब साहब को बहुत पसंद करता हूं लेकिन अन्दर से जाने क्यों मुझे विमल जी से सहमति सी निकल रही है.

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल