Thursday, July 10, 2008

’अबाबील...’- कहानी



'तुम अगर कहो तो मैं तुम्हें एक बार और
प्यार करने की कोशिश करुगाँ,
फिर से,शुरु से।
तुम्हें वो गाहे-बगाहे आँखों के मिलने की
टीस भी दूगां।
तुम्हारा पीछा करते हुए,
तुम्हें गली के किसी कोने में रोकूगाँ,
और कुछ कह नहीं पाऊगाँ।
रोज़ मैं तुम्हें अपना एक झूठा सपना सुनाऊगाँ,
पर इस बार
'सपना सच्चा था'- की झूठी कसम नहीं खाऊगाँ।
अग़र तुम मुझे एक मौक़ा ओर दो...
तो मैं तुमसे...
सीधे सच नहीं कहूंगा,
और थोड़ी-थोड़ी झूठ की चाशनी,
तुम्हें चटाता रहूगाँ।




'बस रोक दो मुझे ये नहीं सुनना है।'

उसने कुर्सी पर से उठते हुए कहा, वो कुछ सुनना चाहती थी ये ज़िद्द उसी की थी।मैं चुप हो गया।वो कमरे में धूमती रही,उसे अपना होना उस कमरे में बहुत ज़्यादा लग रहा था,वो किसी कोने की तलाश कर रही थी जिसमें वो समा जाए, इस घर में रखी वस्तुओं में गुम हो जाए, इस घर का एक हिस्सा बन जाए, जैसे वो कुर्सी, जिसपर से वो अभी-अभी उठ गयी थी।

'क्या हुआ?'

मैंने अपनी आवाज़ बदलते हुए कहा, उस आवाज़ में नहीं जिसमें मैं अभी-अभी अपनी कविता सुना रहा था।

'तुम्हारी कविता से मुझे आजकल बदबू आती है। किसकी?... मैं ये नहीं जानती।'

उसे शायद मेरे छोटे से कमरे में एक कोना मिल गया था, या कोई चीज़ जिसे पकड़कर वो सहज हो गई थी और उसने ये कह देया था।... पर मेरे लिए वो कुर्सी नहीं हुई थी, वो मुझे अभी भी घर में लाई गई एक नई चीज़ की तरह लगती थी।मेरे घर की हर चीज़ के साथ 'पुराना' या 'फैला हुआ' शब्द जाता है, पर वो हमेशा नई लगती है, नई...धुली हुई, साफ सी।ऎसा नहीं है कि मेरे घर में कोई नयी चीज़ नहीं है, पर वो कुछ ही समय में इस घर का हिस्सा हो जाती है। यहाँ तक की, नई लाई हुई किताब भी, पढ़ते-पढ़्ते पुरानी पढ़ी हुई किताबों में शामिल हो जाती है।पर वो पिछले एक साल से यहाँ आते रहने के बाद भी, पढ़े जाने के बाद भी, पुरानी नहीं हुई थी... , जिसे मैं भी पूरे अपने घर के साथ पुराना करने में लगा हुआ था।

'मेरे लिखे में, तुम्हारे होने की तलाश का, मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ।'

इस बात को मैं बहुत देर से अपने भीतर दौहरा रहा था, फिर एक लेखक की सी गंभीरता लिए मैंने इसे बोल दिया।
रात बहुत हो चुकी थी, उसे घर छोड़ने का आलस,उसके होने के सुख को हमेशा कम कर देता था।वो रात में,कभी भी मेरे घर में सोती नहीं थी, वो हमेशा चली जाती थी। बहुत पूछने पर उसने कहा था कि उसे सिर्फ अपने बिस्तर पर ही नींद आती है।उसने मेरी बात पर चुप्पी साध ली थी, कोने में जल रहे एक मात्र टेबिल लेंप की धीमी रोशनी में भी वो साफ नज़र आ रही थी, पूरी वो नहीं, बस उसका उजला चहरा, लम्बें सफेद हाथ। अचानक मैं अबाबील नाम की एक चिड़िया के बारे में सोचने लगा, जिसे मैंने उत्तरांचल में चौकोड़ी नाम के एक गांव में देखा था। वो उस गांव की छोटी-छोटी दुकानों में अपना घोसला बनाती थी, छोटी सी बहुत खूबसूरत। शुरु शुरु में मुझे वो उन अधेरी,ठंड़ी दुकानों के अंदर बैठी, अजीब सी लगती थी,मानो किसी बूढ़े थके, झुर्रीदार चहरे पर किसी ने रंगबिरंगी चमकदार बिंदी लगा दी हो। पर बाद बाद में मैं उन दुकानों में सिर्फ इसलिए जाता था कि उसे देख सकूं, जो उसी दुकान का एक खुबसूरत हिस्सा लगती थी।

'मुझे पता है ये केवल कल्पना मात्र है, उससे ज्यादा कुछ नहीं, पर मुझे लगता है कि तुम मुझे धोखा दे रहे हो, नहीं धोखा नहीं कुछ और। कल रात जब मैं तुम्हारे साथ सो रहे थे तो मुझे लगा कि तुम किसी और के बारे में सोच रहे हो, तुम मेरे चहरे को छू रहे थे पर वंहा किसी और को देख रहे थे।उस वक्त मुझॆ लगा, ये सब मेरी इन्सिक्योरटीज़ है और कुछ नहीं। पर अभी ये कविता सुनते हुए मुझे वो बात फिर से याद आ गई।मैं इसका कोई जवाब नहीं चाहती हूँ, मैं बस तुम्हें ये बताना चाहती हूँ।'

रात में उसके सारे शब्द अपनी गति से कुछ धीमे और भारी लग रहे थे। मुझे लगा मैं उन्हें सुन नहीं रहा हूँ, बल्कि पढ़ रहा हूँ।

'ये तुम्हारी इन्सिक्योरटीज़ नहीं हैं, अगर तुम इसे धोखा मानती हो तो मैं तुम्हें सच में धोखा दे रहा हूँ। अभी भी जब तुम उस कोने में जाकर खड़ी हो गई थी, तो मैं किसी और के बारे में सोच रहा था।'

अब मैं उसे ये नहीं कह पाया कि मैं उस वक्त, असल में अबाबील के बारे में सोच रहा था, पता नहीं क्यों, पर शायद मुझे कह देना चाहिए था।

'मैं एक बात और पूछना चाहती हूँ, कि जब तुम मेरे साथ होते हो तो कितनी देर मेरे साथ रहते हो।''
'पूरे समय।'
'झूठ।'
'सच।'
'झूठ बोल रहे हो तुम।'
'देखो असल में...'
'मुझे कुछ नहीं सुनना... मैं जा रही हूँ...।'
'मैं तुम्हें छोड़ने चलता हूँ... रुको।'
'कोई ज़रुरत नहीं है...।'

और वो चली गई, खाली कमरे में मैं अपनी आधी सुनाई हुई कविता,और अपनी आधी बात कह पाने का गुस्सा लिए बैठा रहा।सोचा कम से कम वो आधी कविता अपने घर की पुरानी, बिखरी पड़ी चीज़ो को ही सुना दूं,पर हिम्मत नहीं हुई।उसे घर, आज घर नहीं छोड़ा इसलिए शायद वो यहाँ थी का सुख अभी तक मेरे पास था। मैं क्या सच में कल रात उसके साथ सोते हुए किसी और के बारे में सोच रहा था, किसके बारे में?
हाँ याद आया, मैं जब उसके चहरे पे अपनी उंगलियां फेर रहा था... तो अचानक मुझे वो सुबह याद हो आई, जब मैं अपनी माँ को जलाने के बाद, राख से उनकी अस्थीयाँ बटोर रहा था। मैंने जब तुम्हारी नाक को छुआ तो मुझे वो, माँ की एकमात्र हड़्डी लगी जिसे उस राख में से मैंने ढूढा़ था। उसके बाद मैं काफी देर तक राख के एक कोने में यू ही हाथ घुमाता रहा,हड्डीयाँ ढूढ़ने का झूठा अभिनय करता हुआ, क्योंकि मैं माँ की और हड़्ड़ीयों को नहीं छूना चाहता था... उन्हें छूते ही मेरे मन में तुरंत ये ख्याल दोड़ने लगता कि वो उनके शरीर के किस हिससे की है... ये उनकी मौत से भी ज़्यादा भयानक था।फिर मैं तुम्हारे बारे में सोचने लगा कि जब तुम्हें जलाने के बाद मुझे अगर तुम्हारी अस्थीयों को ढूढ़ना पड़ा तो... और इस विचार से मैंने अपना हाथ तुम्हारी पीढ़ पर ले गया... लगा कि तुम जलाई जा चुकी हो,तुम्हारा ये शरीर राख है और मैं उस राख में से तुम्हारी हड़्ड़ीयाँ टटोल रहा हूँ। तुम अचानक हंसने लगी थी, पर मैं शांत था क्योंकि मैं सच में तुम्हारी हड़डीयाँ टटोल रहा था।
वो सच कहती है मैं हर वक्त लगभग उसे ही देखते हुए कुछ और देखता होता हूँ...।

मैंने सोचा टेबल लेंप बंद कर दूं, पर उसके बंद करते ही कमरे में इतना अंधेरा हो गया
कि मुझसे सहन ही नहीं हुआ... मैंने उसे तुरंत जला दिया।नींद की आदत उसके कारण
एसी पड़ गई थी कि रात के कुछ छोटे-छोटे रिचुअल्स बन गये थे, जिन्हें पूरा किए
बिना नींद ही नहीं आती थी।जैसे उसे घर छोड़ने के बाद अकेले वापिस आते वक्त,
उसके रहने के सुख का दुख ढूढ़ना।वापिस घर आते ही उसे काग़ज़ पे उतार लेना...
वैसे यह अजीब है, जब मैं अपने सबसे कठिन दौर से गुज़र रहा था तो जीवन की खूबसूरती
के बारे में लिख रहा था, और जब भी घर में सुख छलक जाता है तब मैं पीड़ा लिखने का दुख बटोर रहा होता हूँ। शायद यही कारण है कि जब वो घर में होती है तो मैं उसके बारे में लिखना या सोचना ज़्यादा पसंद करता हूँ, जो उसके बदले यहाँ हो सकती थी।कल उसे छोड़ने के बाद ही मैंने ये कविता लिखी थी जिसे वो पूरा नहीं सुन पाई।बाक़ी रिचुअल्स में वो संगीत तुरंत आकर लगा देना जिसे उसके रहते सुनने की इच्छा थी।घर में धुसते ही शरीर से कपड़े और उसके सामने एक तरह का आदमी बने रहने के सारे कवच और कुंड़ल उतार फैकना।नींद के साथ उस सीमा तक खेलना जब तक कि वो एक ही झटके में शय और मात ना दे दे, और फिर चाय पीना, ब्रश करना या कभी कभी नहा लेना.... अलग।
अब ना उसे छोड़ने गया और ना ही रात का वो पहर शुरु हुआ है जहां से मैं अपने रिचुअल्स शुरु कर सकूँ। अचानक मैं फिर से अबाबील के बारे में सोचने लगा, उसी गांव (चौकोड़ी) के एक आदमी ने मुझे बताया था कि इस चिड़िया का ज़िक्र कुरान में भी हुआ है, और ये उड़ते-उड़ते हवा में अपने मूहँ से धूल कण जमा करती है, जिसे थूक-थूक कर वो अपना घोसला बनाती है।मैंने कुछ संगीत लगाने का सोचा पर फिर तय किया कि अभी तो रात जवान है.. पहले चाय बना लेता हूँ,मैं अपने किचिन में चाय बनाने धुसा ही था कि मुझे door bell सुनाई दी, मैंने तुरंत दरवाज़ा खोल दिया। वो बाहर खड़ी थी। मैं कुछ कहता उससे पहले ही वो तेज़ कदमों से चलती हुई भीतर आ गई।

'तुम मुझे मनाने नहीं आ सकते थे, तुम्हें पता है मैं अकेली घर नहीं जा सकती हूँ, मुझे डर लगता है।'

मुझे सच में ये बात नहीं पता थी। मुझे उसका यह चले जाने वाला रुप भी नहीं पता था सो उसका वापिस आ जाना भी मेरे लिए उतना ही नया था जितना उसका चले जाना। दोनों ही परिस्थिती में कैसे व्यवहार करना चाहिए इसका मुझे कोई अंदाज़ा नहीं था। मैं कुछ देर तक चुपचाप ही बैठा रहा। फिर अपने सामान्य व्यवहार के एकदम विपरीत, मैं उसके बगल में जाकर बैठ गया।

'I am sorry... माफ कर दो मुझे..।’

इस बात में जितना सत्य था उतनी चतुरता भी थी, पर इसमें मनऊवल जैसी कोई गंध नहीं थी। पर उसने शायद इन शब्दों के बीच में कुछ सूंघ लिया और वो मान गई।वो मेरी तरफ पलटी और मुस्कुरा दी।उसने अपने हाथ मेरे बालों में फसा लिए, और उनके साथ खेलने लगी।
'मैं जब पहली बार तुमसे मिली थी, याद हैं तुम्हें....मुझे लगा था कि तुम एक हारे हुए आदमी हो जो सबसे नाराज़ रहता हैं। क्या उम्र बताई थी तुमने उस वक्त अपनी?...पेत्तालीस साल... हे ना!'
'वो सिर्फ एक साल पुरानी बात है... i was 43 last year...'
'ठीक है 44... एक साल इधर-उधर होने से क्या फ़र्क पड़ता है।'

वो हंसने लगी थी, मैं जानता था वो मुझे उकसा रही है। कोई और वक्त होता तो शायद मैं जवाब नहीं देता पर मैं जवाब देना चाहता था क्योंकि मैं वो हारे हुए आदमी वाली बात को टालना चाहता था।उसके हाथ मेरे बालों पर से हट गए थे।

'चालीस के बाद,एक साल का भी इधर-उधर होना बहुत माईने रखता है।'
मैं एक मुस्कान को दबाए बोल गया था।

'हाँ.. मुझॆ महसूस भी होता है।'

ये कहते ही उसकी हंसी का एक ठहाका पूरे कमरे में गूंजने लगा।मैं चुप रहा, मानो मुझे ये joke समझ में ही नहीं आया हो।वो थोड़ी देर में शांत हुई...उसके हाथ वापिस मेरे बालों की तलाशी लेने लगे... हाँ मुझे अब उसका बाल सहलाना, अपने बालों की तलाशी ही लग रहा था।

'मैं जब छोटी थी, उस वक्त हमारे घर में बहुत महफ़िले जमा होती थी...।’
उसने अचानक एक दुसरा सुर पकड़ लिया... मैंने इस सुर को बहुत कम ही सुना है खासकर उसके मुहँ से.... वो मेरे हाथों को भी टटोल रही थी... मानो वो सारा कुछ,जो वो बोल रही है... मेरे ही हाथों मे लिखा हो...।

’पापा बहुत शौक़ीन थे बातचीत के, बहसों के... । मैं हमेशा उस महफ़िल की लाड़ली लड़की थी, पर जब भी मुझॆ नज़र अंदाज़ किया जाता मैं अजीब सी हरकतें करने लगती, चाय के कप तोड़ देती, रोने लगती... यंहा तक कि एक बार तो मैंने अपना हाथ तक काट लिया था। बाद में मैं पछताई भी थी... पर आज तक किसी को नहीं पता कि मैंने हाथ जानबूझकर काटा था। आज भी मैं अकेले बैठकर अक़्सर ये सोचती हूँ कि मेरा accident हो गया हैं, लोग मुझॆ देखने आ रहे हैं या मैं बहुत बीमार पड़ गई हूँ। जब मेरा आशीष से संबंध टूटा था तो मैंने मरने के बारे में भी सोचा था.... और ये सोच कर काफ़ी खुश होती थी कि उसको कितना पछतावा होगा.. वो रोएगा, अपना सिर पीटॆगा पर मैं.. मर चुकी होऊगीं।... तुम मेरी बात समझ रहे हो ना...।'

'हाँ...'

मैं बस 'हुं..' ही करना चाहता था.. पर मूँह से 'हाँ..' निकला। मुझे उसकी इस तरह की बातें बहुत अच्छी लगती थी... कहानी जैसी, ऎसी कहानी जिसमें सिर्फ नायीका की भूमिका लिखी हो बस और कुछ नहीं... भूमिका खत्म... कहानी खत्म।


'तुम्हें अजीब लगेगा ये सुनकर कि अब मैं उन हर बच्चों से चिड़ती हूँ, जो अपनी तरफ ध्यान आकर्षित कराने की कोशिश कर रहे होते हैं..। यहाँ तक कि मैं अपने office में भी काफ़ी भड़क जाती हूँ...। मुझे self pity या self sympathy से बहुत चिड़ है। शायद मैं खुद को, अपने आपको ड़ाट रही होती हूँ।'
'हुं...'
'तुम क्या 'हुं' कर रहे हो... मुझे सच में ऎसा लगता है।'

मैं बातचीत में नहीं फसना चाहता था सो मैं चुप रहने का 'हुं'... या... 'हाँ' अपने मूँह से निकाल रहा था।थोड़ी चुप्पी के बाद लगभग उस का सुर पकड़ते हुए मैंने कहा-

'मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि कैसे तुम एक सच को बिल्कुल जैसा का तैसा कह देती हो, जबकि मैं उस सच को कहने में अपनी कहानीओं के, पन्ने के पन्ने भर रहा होता हूँ, तुम्हें देर तो नहीं हो रही है?'
'क्यों तुम सोना चाहते हो?'

उसने तपाक से जवाब दिया।शायद वो पूछना चाह रही थी कि क्यों तुम बोर हो गए?.. मैं बोर नहीं हुआ था मैं तो बस अभी भी उस हारे हुए आदमी के संवांद से डरा बैठा था।

'नहीं, बल्कि मैं तो पूछना चाह रहा था कि तुम कुछ लोगी? ड्रिंक?'
'wine.. चलेगी..।'
'wine हैं नहीं.. अभी।'
'तो क्यों पूछा?...।'
'अरे rum हैं, wisky हैं... और चाय भी है।'
'तो चाय ही चलेगी।'
'पक्का?..

इसे मैं करीब एक साल पहले मिला था, मेरा बिना मेरा कुछ लिखा हुआ पढ़ें, उसने मुझसे कुछ ऎसे सवाल किए कि मैं पहली ही मुलाक़ात में उससे चिढ़ने लगा। फिर कुछ दिनों में उसका फोन आया-' आरती बोल रही हूँ।' अपना नाम उसने मुझे पहली बार फोन पर ही बताया था सो मैं पहचाना नहीं.... उसने कहा मैंने 'एक कहानी लिखी है आपको सुनाना चाहती हूँ'
जब वो घर आई तब मैंने उसे पहचाना, और तुरंत मुझे पछतावा होने लगा कि मैंने इसे क्यों बुला लिया।खैर फस चुका था सो मैंने सोचा सीधे कहानी सुनुगाँ और इसे चलता करुगाँ। जब उसने कहानी सुनाना शुरु की तो मुझे हंसी आने लगी। कहानी का नाम था 'मैं..एक विचार' । दुनियाँ मुझे समझ न सकी जैसी ढरों बातों से पूरी कहानी अटी पड़ी थी।वो हिन्दी साफ बोल नहीं पाती थी पर पूरी कहानी में ऎसे-ऎसे हिन्दी के शब्दों का प्रयोग किया गया था कि मुझे अपनी हिन्दी पे शर्म आने लगी।खैर बहुत मुश्किल से पूरी कहानी खत्म हुई, कहानी खत्म होते ही वो रोने लगी। मेरी कुछ समझ में नहीं आया मैंने उसे, अपनी सीमा में रहकर,बिना उसे छुए.... चुप कराने की कोशिश करता रहा... पर वो चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी... मैं किसी ऎसी बातों का गवाह कभी भी नहीं होना चाहता हूँ, जिन बातों की बुनियाद ही बचकानी हो। इसलिए मैं उन संवादो से डरा बैठा था जिनमें इसके रोने का कारण छुपा हुआ हो.... और मुझे पता है वो ये मुझसे कहना चाहती है...।

’असल में मैंने ये कहानी इसलिए लिखी...’

और वो शुरु हो गई... मैं समझ गया ये अपने पैदा होने की तकलीफ से कहानी शुरु कर रही है... ये काफ़ी लंबी चलने वाली है.. सो मैंने बीच में ही बात काट दी

’सुनों...मैं नहीं सुनना चाहता कि तुमने ये कहानी क्यों लिखी.... मैं कहानी को या लिखे हुए को ज़्यादा महत्व देता हूँ न कि वो क्यों और किसलिए लिखा गया है।’

’नहीं पर ये कहानी मेरी है... और मैं बताना चाहती हूँ कि ये क्यों ऎसी है।’
वो जैसे अपनी बात जल्दी से कह देना चाह्ती हो.... वो तेज़-तेज़ बोलने लगी थी... पर मैंने उसे रोक दिया...।

’देखो... व्यक्तिगत रुप से एक लेखक क्या करता है... या एक कलाकार कैसे रहता है, क्या सोचता है वो कतई महत्वपूर्ण नहीं है... महत्वपूर्ण है कि वो अपनी कला में क्या क्या कहने की क्षमता रखता है...।जैसे मेरी एक दोस्त थी, उसे एक लेखक की कविताएँ बहुत पसंद थी, संजीदगी से भरी हुई, पर जब वो लेखक से मिली तो वो इतनी मायूस हो गई कि उसने उसकी रचनाएं पढ़ना ही बंद कर दी। ये ग़लत है.... वो हमेशा कोई अलग आदमी होता है.. जो कर्म करता है और वो एकदम अलग है जो जीता है।’

अब इसे मेरी चालाकी कह सकते हैं... कि मैंने कैसे इसे अपनी पहली मुलाकात का जवाब भी दे दिया... जिसमें इसने मुझसे कहा था कि ’आप कितना नकारात्मक सोचते हैं...।’ और उसकी बातें सुन्ने से कन्नी भी काट ली...।
वो चुप हो गई थी... पर फिर,मेरी कहानी नहीं सुनने की वजह का शायद नतीजा ये हुआ कि उसने मेरे यहाँ अपना आना बढ़ा दिया... और अब, जितनी उसे मेरी ज़रुरत है,उससे कहीं ज़्यादा मुझे उसके यहाँ आने की आदत पड़ चुकी है। पर मैंने उससे उसकी काहनी लिखने की वजह अभी तक नहीं सुनी... उसने बातों ही बातों में बताने की कोशिश की थी पर मैंने हर बार उसे टोक दिया... और अब मेरे अंदर एक अजीब सा डर भी बैठ गया है कि अगर उसने अपनी कहानी लिखने की वजह मुझे बता दी तो वो यहाँ आना ही बंद कर देगी...।उसके बाद उसने कभी कोई कहानी नहीं लिखी, कुछ छुट-पुट कविताएँ ज़रुर लिखी हैं... पर उसने मुझे कभी वो सुनाई नहीं, बस हमेशा मुझसे कहा एक सूचना की तरह कि ’कल, मैंने कल एक कविता लिखी....। मैंने भी उससे कभी सुनाने की ज़िद नहीं की...।

चाय बन चुकी थी... मैं चाय लेकर बाहर आया वो कुर्सी पर बैठे-बैठे ही सो चुकी थी... मैंने धीरे से चाय उसके बगल में रखी और मेरे हाथ उसके कंधे की तरफ गये.. कि उसे उठा दूँ... पर मैं रुक गया... उसकी आँखे बंद थी.. पर उसके होठों पर बहुत महीन सी मुस्कान थी... अजीब सी.. मानों वो कोई बहुत मज़ेदार किस्सा सुन रही हो...। मैं उसके बगल में बैठ गया...पता नहीं क्या हुआ कि मैं उसकी कहानी के बारे में सोचने लगा... क्यों लिखी होगी उसने वो कहानी? मुझे अचानक एक ग्लानी होने लगी, पता नहीं क्या करण होगा और मैं स्वार्थी आदमी... उसे सुनने से ही इनकार कर दिया...। मैं कितना डरता हूँ, किसी भी किस्म की ज़िम्मेदारी से... हाँ ये एक किस्म की ज़िम्मेदारी ही हो जाती है कि आपको किसी के कारणों और वजहओं की जानकारी है... जैसे आप किसी लड़की से किसी भी तरह के प्रेम में संलग्न क्यों न हो, पर जैसे ही आप उसके माँ, बाप से एक बार मिल लेते हैं, तो आपको एक तरह की ज़िम्मेदारी का एहसास होने लगता है, उसके प्रति नहीं, उसके माँ, बाप के प्रति...।
मैंने अपनी चाय उठाई और खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया...। बाहर शांति थी... हर थोड़ी देर में सड़क पर एक आध गाड़ी दिख जाती।तारे आकाश में छाए हुए थे, मंद-मंद हवा चल रही थी..। मैं वापिस मुड़कर उसको देखने लगा... वो अभी भी सो रही थी...। उसे देखते ही मुझे वापिस अबाबील का ख्याल हो आया... मुझे लगने लगा कि ये घर उस पहाड़ी गांव की एक दुकान हैं...अधेंरे से भरी हुई...बिखरी हुई... और इस दुकान जैसे घर में ये अबाबील है... ये कभी-भी इस घर का हिस्सा नहीं हो सकती... ये इस बूढ़े घर के चहरे की झुर्रीयाँ, कभी नहीं हो सकती... ये उस चहरे में हमेशा एक बिंदी की तरह ही शामिल हो सकती है...। ये मेरे घर की बिंदी हैं... और इस विचार से ही मेरे मन में उसके लिए इतना प्रेम उठने लगा कि मेरी इच्छा हुई कि उसे, अबाबील कहकर उठाऊं और उसे कहूँ कि मैं अभी इसी वक्त... तुम्हारी कहानी लिखने की वजह जानना चाहता हूँ...., या मैं उसे अपने बाहों में समेट लू, और कहूँ कि तुम बिंदी हो... मेरी बिंदी, इस घर की बिंदी...।

’क्या देख रहे हो...?’
वो अचानक बोल पड़ी, मैं चौंक गया...।

’अरे! मुझे लगा तुम सो रही हो।’

’ये मेरी बात का जवाब नहीं हुआ...?’

टेबिल लेंप की मधिंम रोशनी में उसकी आंखें मुझे नहीं दिख रही थी... मुझे लगा वो अभी-भी सो ही रही है... बोल कोई ओर ही रहा है.. वो नहीं..।

’तुम्हें ही देख रहा था... तुम बहुत सुंदर लग रही थी।’

इसमें शक़ था,डर था... वो शायद सो ही रही है, की आशा अभी तक खत्म नहीं हुई थी वर्ना ’तुम सुंदर लग रही थी’ ये वाक्य उसके जागते हुए मेरे मुहँ से निकलना नामुमकिन था।मुझे लगने लगा कि मैं एक चोरी करते पकड़ा गया हूँ, फिर मुझसे वहाँ खडे नहीं होते बना... मैं उसके पास चला गया...कुर्सी के किनारे बैठ गया और उसके बालों में जल्दी से अपनी उग्लियाँ फसा दी,और उसके बाल सहलाने लगा...आत्मविश्वास के लिए। वो मुस्कुराती दी...उसके मुस्कुराते ही लगा चोर कोई और था... वो खिड़की के पास कहीं पकड़ा गया था...मैं वो नहीं हूँ, मैं तो वो हूँ जो हमेशा से तुम्हारे बाल सहलाता है...और ऎसा कुछ सोचकर मैं भी उसके साथ मुस्कुराने लगा।

कुछ देर बाद मैं आदतन उसे घर छोड़ने गया... उसने मेरी बनाई हुई चाय पीना भूल गई थी... ये मैंने वापिस आकर देखा। आते वक्त मैं कुछ और नहीं सोच पाया.. हाँ बीच में अबाबील का ख्याल ज़रुर आया... पर वो मुझे उन पहाड़ो पे ले गया, पर मैं अभी पहाड़ो पे जाना नहीं चाह रहा था... सो वो ख्याल भी ज़्यादा देर तक नहीं चल पाया।वापिस आकर नींद से लड़ना भी नहीं पड़ा... वो बिस्तर में धुसते ही मुझे अपनी गिरफ्त में ले चुकी थी।

कुछ ही दिनों में मुझे बाहर जाना पड़ा... जब मैं करीब दो हफ्ते के बाद वापिस आया तो वो जा चुकी थी...। मैंने उसके बारे में बहुत पता भी नहीं किया, ऎसा नहीं था कि मैं उससे मिलना नहीं चाह रहा था... पर,अब इसे मैं अपना आलस कहूँ या ये कि मुझे कहीं पता था कि ये संबंध बस यहीं तक था।मेरे पास इससे ज़्यादा उसे देने के लिए नहीं था, और उसके कहानी लिखने के कारण को छोड़कर उसके पास शायद और कुछ ना बचा हो... पता नहीं। कारण बहुत हो सकते हैं... शायद अगर वो इसी शहर में होती तो हम कुछ समय ना मिलकर, अपने मिलने की बोरियत को मिटा लेते और फिर से वो ही सिलसिला शुरु हो जाता... इसके बारे में भी मैं बस अनुमान ही लगा सकता हूँ...।
इसके कई महीनों बाद मैंने एक ’अबाबील’ नाम की कविता लिखी.. जिसे मैंने उस अधूरी कविता जिसे मैं उसे सुना नहीं पाया था.. के साथ एक हिन्दी पत्रिका में छपवा दी...। मैंने शायद ये जानबूझकर किया था कि दोनों कवितओं को एक साथ छपवाया था, इसी आशा में कि शायद वो कभी कहीं इसे पढ़ेगी और शायद उसे ये पता लग जाएगा कि उस रात में उसके साथ रहते हुए किसके बारे में सोच रहा था।

1 comment:

महेन said...

चुपचाप आकर आपका ब्लोग पढ़ा है कई बार। हमेशा पहली बार से ज़्यादा बेहतर लगा। इस कहानी ने मुझे टिप्पणी करने पर भी मजबूर कर दिया; कारण कि कहानी बहुत अच्छी लगी हालांकि मुझे लगा अबाबील के प्रतीक को आपने पूरी तरह से स्पष्ट नहीं किया। संभव हो कि मैं ही नहीं समझ पाया। एक बात जो खटकी वह व्याकरण की अशुद्वियाँ। आना लगा रहेगा।
शुभम।

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मानव

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परिचय

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल