Saturday, February 7, 2009

बगुले...




.... सामने, कुछ ही दूरी पर चलते रहने से समुद्र आ जाएगा...। बहुत सारा पानी...। मैं पेड़ के सामने बैठा हूँ....। खुरदुरापन है मानो कोई भीतर रगड़ते हुए निकल गया है, बार-बार खांसता, ख़खारता हूँ... कि उसके छूटे हुए घावों को मैं बाहर थूक सकूँ। फिर काफी देर तक पेड़ को देखता रहता हूँ... शाम होते ही इसपर बहुत से बगुले मड़ंराने लगते है... वह इसी पर सोते हैं। देर रात, अंधेरे में लगता है कि पेड़ पर सफेद रुईया ऊग आई है। फिर कुछ देर में समुद्र के बारे में सोचना शुरु करता हूँ... सीधे चलते रहने से वह आ जाएगा.. पर मैं इस पेड़ के सामने बैठा रहता हूँ। दिन भर जितना भी सोचता, देखता, जीता हूँ, वह रात में सब बगुले बन जाते है...। काले अंधेरे में सफेद-सफेद टमटमाते रहते है। थोड़ी दूर तक चलूगाँ तो सब पानी ही पानी है पर नहीं चलता हूँ। एक शब्द दिमाग में धूमता है, पता नहीं कितने ही जिये हुए चित्र आखों के सामने धूमने लगते है। उन सारे चित्रो में यह सामने खड़ा पेड़ भी है। मुझे आश्चर्य होता है कि इसे मैं पहली बार देख रहा हूँ पर यह मेरे अतीत के चित्रों में भी कैसे मौजूद है...। एक कोरे पन्ने की इच्छा कुलबुलाने लगती है... मैं भागता हुआ घर की और चलता हूँ... जहाँ सब खाली है... सूखा.... अगर मैं सीधा आगे की तरफ चलता तो वहाँ समुद्र था, पानी ही पानी....।... घर एक मूक बूढ़े आदमी सा मेरा इंतज़ार करता है। प्रवेश करने पर वही है जो "कौन...?" कहता है... और मैं कमरे की बत्ती जला देता हूँ....।

2 comments:

प्रताप नारायण सिंह (Pratap Narayan Singh) said...

बहुत सुंदर लगा आपका काव्य गद्य...

Anonymous said...

agar hme s

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मानव

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल