26th dec, 2009.
वीना पानी....-’यहाँ से बाहर जाकर नाटक करने में एक अजीब सी थकान होती है, मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता, ना ही मेरे ग्रुप को... खासकर भारत के बाहर... मेरी इच्छा है कि लोग यहाँ आकर नाटक देखें, यहाँ के नाटक, जिसकी जड़े यहीं है... बाहर जाकर नाटक करना नुमाईश करने जैसा लगता है।“
मैं उनकी बात बहुत अच्छी तरह समझ रहा था... यह एक तरह की शांति में काम करते हुए... उसे ऎसी जगह देखने का दुख है जहाँ कुछ भी शांत नहीं है। जहाँ कुछ और देखने की असहजता है... जहाँ चुप्पी भी मतलब में तबदील हो जाती है, जिसे चुप्पी संवाद सी जान पड़ती है... जो अजीब है...। तो क्या है यह???... ग्रोटोव्हस्की अपने तरीके के थियेटर को समझने में इतना भीतर घुस गया कि उसने बाद में थियेटर ही छोड़ दिया।बेकेट नाटक लिखने/करने के उस प्रयोग तक पहुच गया कि अंत में उसने सभी कुछ निकाल दिया... कहानी... नाटकीयता.. संवाद... सब कुछ.... काम करते हुए हम किन मूलभूत ज़रुरतों पर पहुच जाते है कि बाक़ी सारी चीज़े बोझ लगने लगती है... और जब हम हर चीज़ को निकालने जाते है तो खुद को शांत और अकेला पाते है....।
आज Pondicherry में एक शव यात्रा देखी... उस वृद्ध आदमी के शव को... एक बड़ी सी पालकी नुमा किसी चीज़ में लिटाया हुआ था... उस पालकी को एक ट्रेक्टर या शायद ढेले पर रख दिया गया था... पालकी फूलों से बुरी तरह लदी हुई थी.. और आसपास चलने वाले सारे लोग (शायद उसी के परिवार वाले...) उस पलकी से फूलों को नोचते हुए रास्ते पर फेंके जा रहे थे... जब पालकी मेरे बग़ल से गुज़र गई और मैं आगे बढ़ा तो फूलो की कतार करीब एक किलोमीटर तक मेरे साथ थी.... मानो मरने के बाद उसका जीवन। यह क्रिया बहुत सारी जगह बहुत अलग अलग तरीके से जुड़ी हुई लगती है... पर मुझे अचानक उसकी याद इसलिए हो आई कि... मैं वीना पानी, ग्रोटोव्हस्की और बेकेट के बारे में सोच रहा था... क्या यही उनका भी तरीका नहीं है... अंत में पालकी खाली हो जाएगी... अंत में अकेला वह रह जाएगा जलने के लिए... अतं में .. कुछ भी नहीं होगा जो जल रहा होगा...।
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