Saturday, February 27, 2010

नक़ल नवीस...

चलते-चलते पिंड़लीयों में दर्द होने लगता है... कहीं रुक जाने पर, सो जाने पर भी जब वह दर्द नहीं गया तो मैंने पैरों को मरोड़ना-तोड़ना शुरु कर दिया...कुछ आह और कराह के बाद दर्द का मीठापन भी फीका लगने लगा..., फिर मैंने राह चलते किसी आदमी से सहायता की गुहार लगाई... ’दबा दे इस दर्द को कि खत्म हो जाए यह अभी यहीं इसी वक़्त.।’.. वह दबाता है, मैं कराहता हूँ... ’आह अच्छा लग रहा है’ जैसे वाक़्य खुद-बा-खुद मुँह से टपकने लगते हैं, वह आदमी थकता है और पैर दबाना बंद कर देता है... मुझे हल्की झपकी आ जाती है...वह चल देता है। कुछ आराम सा महसूस करने पर.. मेरे चहरे पर एक मुस्कान आती है, मेरी अचानक इच्छा होती है कि उस राहगीर को एक कप चाय पिला दी जाए... पर तब तक वह चला गया होता है। मैं उठकर चाय बनाने की कोशिश करता हूँ, कुछ कदम चलते ही एक आह के साथ मेरे पैर अपनी पुरानी स्थिति में वापिस चले आते हैं..। मुझे अचानक लगने लगता है कि दर्द असल में पैरों में नहीं है वह तो दिमाग़ में है... मैं दिमाग़ी दर्द का शिकार हूँ...। मैं यहाँ वहाँ नज़रे दौड़ाता हूँ, पर कोई राहग़ीर... मेरी राह पर चलता नहीं दिखता है। क्या फिर मुझे उसी राहग़ीर की ही प्रतिक्षा करनी पड़ेगी जो पैर दबाकर चलता बना था? क्या वह इसी राह पर वापिस लोटेगा? मैं जानता हूँ कि इस राह पर लोटना मुश्किल है। गर वह वापिस आ भी गया तो मैं क्या कहूगा उससे कि मेरे पैरों में असल में दर्द था ही नहीं... दर्द तो दि़माग़ का है उसे दबा दो। आश्चर्य नहीं कि वह भड़क जाए और मुझे मारने लगे।
कितना अजीब है कि दर्द दिमाग़ में है पर पीड़ा पिड़लियों में हो रही है। तो क्या जब पिड़लियों में दर्द होगा तो पीड़ा दिमाग़ में महसूस होगी? शरीर, आत्मा से बड़ा है... शरीर वह सब है जो मैं हूँ... या जैसा मैं सोचता हूँ कि मैं हूँ। मेरे चलने में जितने भी घुमाव हैं.. जितने भी उतार चढ़ाव हैं, मेरा पूरा का पूरा शरीर उसी का बना है। मैंने आज तक चलने के अलावा कुछ भी नहीं किया है... दृश्यों को पीछे छोड़ा है... कि कुछ नए दृश्य दिखेगें... नए दृश्य कुछ ही समय में थकान से भर देते हैं.. मैं उस थकान से बचने के लिए आगे चलने लगता हूँ। मैं कभी भागा नहीं... ना.. भागूगाँ नहीं, इसकी समझ मुझमें बहुत पहले आ गई थी। मेरा पूरा जीवन उस दृश्य की तलाश में नीहित है जिस दृश्य में पहुचते ही वह चित्र पूरा हो जाएगा, जिस चित्र को पूरा करने के लिए मैं बना हूँ। यह मैं शुरु से जानता हूँ... सो भागना मैंने बहुत पहले स्थगित कर दिया था, और यू भी मैं पर्यटकों से बहुत चिढ़ता हूँ... किसी भी किस्म के पर्यटक.. जो जल्दी जल्दी सब कुछ देख लेना चाहते है और भागकर अपने दड़बों में छिप जाते हैं। कई सालों के चलने की वजह से ही तो कहीं मेरे पैरों में दर्द शरु नहीं हो गया है? मैं अभी तक उस दृश्य पर नहीं पहुचा हूँ जिससे मेरा चित्र पूरा हो जाए... तो क्या करुँ? रुक जाऊँ? नहीं... इंतज़ार करता हूँ... या तो वह राहगीर वापिस आएगा या फिर दर्द खुद बा खुद खत्म हो जाएगा।
मेरी एक दोस्त है..सुमन...बगल के एक गांव में महिला बैंक खुला है सुमन वहीं काम करती है। बैंक की नौकरी के कारण उसे हमेशा साड़ीयाँ पहनना पड़ता है... हरी, नीली, कत्त्थाई... वह साड़ियों में बहुत सुंदर दिखती है। छुट्टी के दिन जब भी मैं उसे सूट पहने देखता हूँ तो लगता है कि उसकी छोटी बहन मुझसे मिलने आई है... मैं सिर्फ पहनावे की बात नहीं कर रहा हूँ उसके विचारों पर भी इसका असर मैंने देखा है... जैसे वह साड़ी में मुझसे हमेशा बड़ी-बड़ी बातें करती है.. देश की, समाज की, मेरे थके हुए जीवन की, क्रांति की... और सूट में वह तुरंत सब्जी-भाजी.. किराने की या ज़्यादा से ज़्यादा फिल्म देखने की बात कहती है। वह मुझसे प्रेम करती है। प्रेम को वह एक अलग व्यक्ति समझती है जो हम दोनों के साथ रहता है... मैं उससे हर बार कहता हूँ कि इस प्रेम की वजह से मैं कभी तुम्हारे साथ अकेला नहीं रह पाता हूँ। वह पहले मेरी ऎसी बातों पर हंस देती थी पर अब वह नाराज़ हो जाती है। एक दिन वह मेरे कमरे में आई और उसने आते ही कहाँ कि तुम्हारे कमरे में आक्सीजन कितनी कम है, तभी उसने कमरे के सारे खिड़की दरवाज़े खोल दिये... अचानक उसकी निगाह मेरे चहरे पर पड़ी, उसने कहा कि तुम्हारा चहरा पीला क्यों पड़ता जा रहा है। मैंने कहा शायद इसकी वजह आक्सीजन की कमी ही होगा... पर वह नहीं मानी... वह मुझे बाहर घुमाने की ज़िद्द करने लगी। मैंने मना कर दिया तो वह नाराज़ होकर चली गई। उसके जाते ही मैंने सारे खिड़की और दरवाज़े वापिस बंद कर दिये। वापिस अपने बिस्तर पर बैठकर लंबी-लंबी सांसे लेने लगा, आक्सीजन मुझे ठीक लग रही थी। चहरे के पीलेपन की वजह मेरी समझ में नहीं आई।
मेरे कमरे में तीन खिड़कियाँ है...पहली खिड़की के दो पलड़े है, एक मेरी माँ और दूसरा मेरे बाप के कमरे में खुलता है। दूसरी खिड़की मेरी बहन के कमरे में खुलती है और तीसरी खिड़की एक घने पेड़ के पत्तों के बीच खुलती है जिसे मैं कभी भी बंद नहीं करता हूँ। पहली खिड़की का एक पलड़ा जो मेरी माँ के कमरे में खुलता है उसे मैं कभी-कभी खोल देता हूँ... पर बाप वाला पलड़ा और बहन की खिड़की मैं हमेशा बंद रखता हूँ। इसके बाद एक दरवाज़ा बचता है, जिसे बंद किये बिना मेरा काम ही नहीं चलता...। उसके खुला रहने से मुझे अजीब सा नंगापन महसूस होता है जिसे मैं बहुत देर बर्दाश्त नहीं कर पाता हूँ। मैं सुबह बहुत जल्दी उठ जाता हूँ... ठीक उस वक्त जब सुर्योदय होने ही वाला होता है, यही वह वक्त होता है जब मैं अपने घर का दरवाज़ा पूरी तरह खोल देता हूँ... सुर्योदय होते ही वह बंद हो जाता है। सामाजिक खट-खट पर ही उसका खुलना मैंने तय किया हुआ है। दरसल सुर्योदय मुझे बहुत बोर करते है लेकिन सुर्योदय के ठीक पहले का समय मुझे बहुत सुंदर लगता है... रोज़ अलग.. यह किसी नाटक की शुरुआत लगती है.. fade in होता है और रोज़ एक नए तरीक़े की शुरुआत होती है... आसमान का रंग रोज़ अलग होता है, कभी धुंध होती है तो कभी सब कुछ एकदम साफ होता है। पर सुर्योदय होते ही सब कुछ वैसा का वैसा हो जाता है... रोज़ एक जैसा... सपाट।
सामाजिक खट-खट का दिन भर की खट-पट से ज़्यादा ताल्लुक नहीं है... बाहर की जितनी भी आवाज़े हैं वह मुझे भीतर की ही आवाज़े लगती हैं। उसमें माँ का चिल्लाना ’खाना तैयार है..।’ असल में भीतर मेरे साथ रह रही मेरी माँ का धीरे से मेरे से कहना है कि ’खाना तैयार है बेटा।’ बाहर केले वाले का.. आवाज़ लगाते हुए गुज़र जाना मेरे कमरे में भीतर आकर उसका सुसताना है। यहाँ इस कमरे में सब कुछ है जो भी बाहर है... ध्वनीश:। इसमें मैं जब भी घर से बाहर जाता हूँ तो भीतर के कमरे को साथ लिए जाता हूँ। यह कमरा अपनी पूरी की पूरी ध्वनीयों, सामानों... कोनों के साथ मेरे साथ रहता है। वह, मेरे बाहर जाते ही एक झोले सा हो जाता है जिसमें उसे जो दिखता है उसे अपने अंदर रख लेता है... मानों खरीदी करने निकला हो।
आजकल बाहर घूमते हुए मैं आईने तलाशता रहता हूँ....जब से सुमन ने मेरे चहरे के पीलेपन की बात कहीं है मुझे हर आईने में झाकने की आदत सी हो गई है...। कुछ आईनों में मैं साफ दिखता हूँ... परंतु कुछ में मेरा पीलापन मुझे नज़र आने लगता है। यह पीलापन माथे की तरफ कुछ ज़्यादा है, चहरे पर उतना समझ में नहीं आता है। कहीं इसका मेरे दिमाग़ के दर्द से तो कोई ताल्लुक नहीं है... या मेरी पिड़लियों की पीड़ा से?
मैं शाम के समय टहलता हुआ गोलगप्पे खाने निकल पड़ा। हफ्ते में मैं दो बार शाम को गोलगप्पे ज़रुर खाता था, यही सरोज के ठेले पर...। घंटों उससे बतियाता रहता... वह ठेला शाम पाँच बजे से लगाता था। ठेला सजा लेने के बाद वह अपनी शेर्ट उतारता, ठेले के किनारे टांग देता और बनियाईन में वह काम करना शुरु कर देता। उसकी बनियाईन जगह-जगह से फटी हुई थी। ’आज बड़े दिनों बाद दिखाई दिये?’ यह वह हमेशा कहता था, उसके लिए बड़े दिन, एक दिन भी हो सकता था और कई दिन भी।
’मेरे दिमाग़ में दर्द है लेकिन पीड़ा पिड़लियों में महसूस हो रही है।’ मैंने सरोज से यह बात कह दी...
’गोलगप्पे खा लो...’ उसने जवाब दिया।
’क्या तुम्हें मेरा चहरा पीला लगता है।’
’आज आलू नहीं है, चना चलेगा।’
’जब तुम कहते हो ’आज बड़े दिनों बाद दिखाई दिये’ तो क्या बड़े दिनों से तुम मेरा इंतज़ार कर रहे थे?’
’इमली ज़्यादा पड़ गई है आज पानी में...।’ यह कहते ही उसने मेरे हाथ में एक छोटी सी प्लेट पकड़ा दी।
गोलगप्पे खाते ही मैं घर वापिस आ गया। सरोज क्या सचमुच मेरा इंतज़ार करता होगा? अगर मैं कई दिनों तक, महीनों तक, सालों तक उसके पास नहीं जाऊ... तो क्या वह मेरे घर पर आकर पूछेगा कि ’ क्या भाई, बड़े दिनों से दिखाई नहीं दिये?’ जिस रास्ते मैं उसके पास गोलगप्पे खाने जाता हूँ वह शायद एक दो बार उस रास्ते की तरफ मुड़कर देख लेगा... शायद।
इंतज़ार। मैं पिछले दस दिनों से काम पर नहीं गया हूँ। दरवाज़े पर सामाजिक खट-खट के होते ही... दरवाज़े की तरफ मुड़ने के ठीक पहले मेरे भीतर यह इंतज़ार का भाव आता है, किसका पता नहीं... पर किसी ओर का... कोई ऎसा जिसे मैं जानता नहीं... या जिसे मैं जानना चाहता हूँ। सामाजिक खट-खट को छोड़के भी, मैं घर में बैठा हुआ प्रतिक्षा करता हूँ? सुमन आ जाती है तो मैं खुश हो जाता हूँ, पर मैं उसका इंतज़ार नहीं करता हूँ। मैंने सुमन से कभी नहीं कहाँ कि ’बड़े दिनों बाद दिखाई दीं?’ चाहे वह बड़े दिनों बाद ही क्यों ना आई हो।... यह वाक्य मैं किससे कहना चाहता हूँ? मैं जब भी दरवाज़े खिड़की बंद करके... घर में टहता फिरता हूँ तो कोई तो होता है जिसकी मैं राह देखता हूँ। कौन? मैं इंतज़ार करता हूँ किसीका... जिसके बारे में मुझे ही नहीं पता। मेरे दिमाग़ में यह बुरी तरह फस गया था। सोचा सुमन से पूछूगाँ, पर वह क्या बता पाएगी? जब मुझे ही नहीं पता कि मैं किसका इंतज़ार करता हूँ तो उसे कैसे पता होगा?
पिडंलियों में दर्द अचानक बढ़ गया। मुझे आज गोलगप्पे खाने नहीं जाना चाहिए था। मैं अपने बिस्तर पर लेट गया। कल से काम पर भी जाना है।
मैं एक नकल करने वाली दुकान में काम करता हूँ। मैं अच्छी नकल करने वाला हूँ... किताबों की, चित्रों की, पेंटिंग की, आदमीयों की। यूं ज़्यादा काम मुझे आदमीयों की शक्ल बनाने का मिलता है। मैं अच्छे पोट्रेट बना लेता हूँ। लोग अधिक्तर अपने बूढ़े माँ-बाप के पास्पोर्ट साईज़ चित्र लेकर आते है और कहते है कि इसे रंगीन बना दो... हू-ब-हू नकल के अलावा मैं black and white फोटो का रंगीन पोट्रेट बना देता हूँ। पर जब कोई कहता है कि मेरी माँ फोटो में बहुत गुस्से में है क्या आप इन्हें मुस्कुराता हुआ बना देगें तो मैं बहुत गुस्सा हो जाता हूँ... क्यों, मैं क्यों ज़बर्दस्ति किसी के चहरे पर मुस्कुराहट चिपका दूं.. नहीं मैं यह नहीं करता हूँ।
पर अभी कुछ दिन पहले एक अजीब घटना हुई जिसकी वजह से मुझे दस दिन की छुट्टी लेनी पड़ी। यह वही समय था जब मेरी पिंड़लियों में दर्द बढ़ना शुरु हुआ था। एक लड़की मेरे पास आई कि मेरे पति का पोट्रेट बना दो... मैंने पूछा कि क्या वह मर चुके हैं, तो वह गुस्सा हो गई। अधिक्तर लोग उन्हीं लोगों के पोट्रेट बनवाते है जो अब इस दुनियाँ में नहीं रहे, मैंने अपनी सफाई में कहा। अंत में उसने अपने पति की तस्वीर निकालकर दिखाई.. एक मुस्कुराता हुआ खुशमिजाज़ आदमी था। मैंने कहा कि आप अगले हफ्ते पोट्रेट ले जाईयेगा, बात 2500 रुपये में तय हुई। जब अगले हफ्ते वह आई तो पोट्रेट देखकर नाराज़ हो गई। बात मालिक तक पहुच गई, मालिक को नकल पसंद आई। फिर उस औरत ने कहा कि ’आप इनका चहरा ध्यान से देखिए आपको नहीं लगता कि इनकी मुस्कुराहट के पीछे कोई पीड़ा है, दर्द है.... इनके माथे की तरफ देखिए तो..।’ ठीक उसी वक्त मुझे बुलवाया गया और मालिक ने पूछा कि ’इस तस्वीर को देखो, इन्हें कहा दर्द है?’ और मेरे मुँह से निकला कि ’इनकी पिड़लियों में दर्द है।’ वह औरत पोट्रेट वहीं छोड़के चली गई... और मुझे कहा गया कि जब तक पिड़ियों का दर्द ठीक ना हो जाए.. छुट्टी ले लो। मुझे 1700 रुपये अपने मालिक को लोटाने हैं सो अलग।
मैं दस दिन की छुट्टी ले चुका हूँ... 900 रुपये अब तक मालिक के पास पहुचा चुका हूँ। पिड़िलियों का दर्द अभी भी जस का तस है, यह बात अलग है कि अब मुझे पता लग चुका है कि वह पिंड़ली का नहीं दिमाग़ का दर्द है।
एक कलाकार ही हैसियत से मेरे कुछ प्रश्न बनते थे, इस पोट्रेट की घटना पर... सो बीच में जब मैं मालिक को पैसे लोटाने गया तो मैंने उनसे कहा कि...
’मालिक, दर्द मेरी पिड़लियों में था ठीक है... उस आदमी की शक्ल पूरी मुस्कुराहट लिए हुए थी ठीक है... फिर भी कहीं पीड़ा है यह पता चल रहा था है ना.... तो क्या वह पोट्रेट उस तस्वीर से ज़्यादा जीवंत नहीं हुआ?’
’नहीं..’ मालिक ने सीधे जवाब दिया।
’कैसे.. तस्वीर ख़ीचने और पोट्रेट बनाने में कुछ तो अंतर होना चाहिए ना?
’नहीं.. अगर तुम अपनी व्यक्तिगत परेशानियों को काम में लाओगे तो अंतर होगा, अपनी व्यक्तिगत परेशानियों को घर रखकर आओ... अंतर नहीं होगा।’
’पर मैं तो....’
’कला और कलाकार की बात मत करो तुम्हें 1700 रुपये वापिस देने है... पहले वह लोटाओ।’
पैसे पर बात खत्म हो गई।
समुन को जब मैंने यह घटना सुनाई तो वह बिदक गई...
’तुम्हारा मालिक बेवकूफ है.. उस्से तुम्हारी कद्र नहीं है... छोड़ दो यह नौकरी.. तुम कलाकार हो.. वगैराह-वगैराह।’
मैं कुछ देर चुप रहा फिर धीरे से कहा...
’नहीं मैं ऎसा नहीं कर सकता हूँ...।’
सुमन चुप हो गई... मैं टहलने लगा।
’मैं अच्छी नकल करता हूँ और यह मेरे मालिक भी जनते हैं... इसीलिए उन्होने मुझे नौकरी से नहीं निकाला। और... और... मैं क्या करुं शुरु से मुझे नकल करना ही सिखाया गया है... इसकी नकल करो, उसकी नकल करों...अमिताभ बच्चन कैसे गुस्सा होता है दिखाओ?.. हाथी बनाओ.. शेर बनाओ.. और मैं बनाता गया.. मैं अभी भी वही करता हूँ...।’
सुमन नहीं मानी... सुमन हमेशा जो मैं हूँ उससे कुछ अलग मानती आई है। मैं कुछ ओर नहीं हूँ मैं कहता रहता हूँ पर वह नहीं सुनती...। इसका कारण भी है... एक बार मैंने अपने घर में बैठे-बैठे कुछ चित्र बनाए थे... सुमन के। मैंने सुमन को हमेशा अपने पेड़ के पास वाली खिड़की से जाते-आते देखा है... सो पत्तियों के बीच मैने कई साड़ियाँ फसा दी। दरसल मैंने बहुत सी, अलग-अलग रंग की साड़ियों के चित्र बनाए थे, पत्तियों के बीच... सुमन उन्हें देखकर बहुत खुश हुई... मैंने उससे कहा कि यह भी असल में नकल ही है, नकल उन क्षणों की जिन्हें मैंने अपनी खड़की में खड़े-खड़े जिया था, पर वह नहीं मानी। मैंने वह सारी पेंटिग्स सुमन को दे दी। तब से उसे लगता है कि मैं असल में कुछ और हूँ वह नहीं जो मैं असल में हूँ... मतलब नकल-नवीस।
एक दिन मैंने गोलगप्पे वाले से कहा था... सुनो सरोज ’मैं एकदम वही आदमी हूँ जैसा मैं दिखता हूँ।’ सरोज थोड़ी देर खामोश रहा फिर उसने कहाँ ’नया मटका लेना पड़ेगा इसमें पानी बहुत देर तक ठंड़ा नहीं रहता।’
अपने पिड़िलियों के दर्द को छुपाते हुए मैं अपनी नौकरी पर पहुचा। दस दिन की छुट्टी की वजह से काम काफी था। मैं मालिक से नज़रे चुराता हुआ सीधे गोडाउन में घुस गया। मेरे जैसे मालिक के पास काफी लोग थे पर कुछ काम थे जो सिर्फ मैं ही कर सकता था। सो मैं अपने काम में जुट गया। पिड़लियों का दर्द जिसे अब मैं दिमाग़ का दर्द समझ चुका था दिन रात बढ़ता जा रहा था। करीब हफ्ते भर में सारे पुराने काम मैंने निपटा दिये... इतवार आ चुका था। इतवार सुमन के नाम होता था। हम इतवार को किसी मंदिर में जाकर बैठते थे। मैं किसी भी भगवान में विश्वास नहीं करता था... पर मंदिरो की ठंडक मुझे बहुत अच्छी लगती थी। खासकर काले महादेव का मंदिर जो नदी किनारे था... उसके फर्श दोपहर में भी ठंडक लिए होते थे। मैं और सुमन घंटो वहा बैठे रहते थे।
यूं इतवार को सुमन हमेशा सूट पहनकर आती थी पर आज उसने साड़ी पहने हुई थी सो उसकी बातचीत में ज़्यादा गंभीरता थी। कुछ देर की चुप्पी के बाद अचानक मेरे मुँह से पिड़लियों के दर्द की बात निकल आई। मैं कहना नहीं चाहता था पर... वह अचानक उस क्षण मेरे मुँह से खुद ब खुद निकल आई। सुमन कुछ देर चुप रही फिर उसने पैर दबाने की बात कहीं... तब मैंने कहा कि ’पैर नहीं... असल में दर्द दिमाग़ में है पर पीड़ा पिड़लियों में हो रही है।’
’तुम्हें पीलिया तो नहीं हो गया।’
सुमन ने मेरे माथे पर आए हुए बालों को हटाते हुए बोला। मैंने उसे अपने नाखून दिखाए। पीलिया नहीं था।
’तुम्हारा चहरा दिन ब दिन पीला पड़ता जा रहा है।’ सुमन के वाक्य में चिंता घुली हुई थी।
मैं खुद इस की वजह अपने दिमाग़ का दर्द समझता था पर सुमन से कह नहीं पाया। कुछ देर में उसने साड़ी से एक नारीयल निकाला.. क्योंकि लड़कियों का काले महादेव के मंदिर में जाना मना था सो नारियल मुझे ही चढ़ाना पड़ा। नारियल चढ़ाकर हम काले महादेव के सात चक्कर लगाने लगे। सुमन ने घुंघट ओड़ रखा था और वह मन ही मन कुछ बुदबुदाती हुई चल रही थी। पता नहीं काले महादेव से क्या कह रही है जहाँ इसको जाने की भी इजाज़त नहीं है। फिर हम घाट का एक चक्कर लगाते हुए घर वापिस आ गए।
इतवार की रात को सोने के पहले मैं सुमन के बारे में सोचता रहा। जाने कितने रविवार हमने काले महादेव पर बिताए हैं। कभी वह साड़ी पहनकर आती तो कभी सूट। काले महादेव का पुजारी हम दोनों को पहचानने लगा था उसे लगता था कि हमारी शादी हो चुकी है। वह कभी-कभी हमें चाय दे जाता। एक दिन पुजारी सुमन के पास आया... एकदम पास और उसके सिर पर हाथ रखकर कहा कि ’बेटा चिन्ता की बात नहीं है तुम्हें बच्चा होगा... बहुत जल्द... काले बाबा सबकी सुनते है।’ मैं चुप रहा पर सुमन बाबा का हाथ पकड़कर रोने लगी, जैसे वह काले महादेव से यही मांगती आ रही थी। मैंने बहुत बार सुमन से पूछना चाहा कि ’तुम रो क्यों दी थी?’.. पर मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई। वैसे सुमन को भविष्य की बातें करना बहुत पसंद था... जब वह सूट पहने होती तो भविष्य बहुत हराभरा और बहुत सी संभावना लिए हुए होता... सूट में वह भविष्य की बातें कुछ इस तरह करती थी कि मानों वह किसी bones zone में है और उसके पास बस एक मिनिट है वह जितने चाहे उतने points बटोर सकती है। पर जब वह साड़ी में होती है तो भविष्य एक पहाड़ सा दिखता... कटीला पहाड़ जिसपर हर कदम फूंक-फूंक के रखना पड़ता है। ज़रा सी लापरवाही से मौत निश्चित है। मैं कभी भी नहीं समझ पाया मौत किसकी?... भविष्य के सपने की? .. हमारे संबंध की?... मेरी?.. उसकी? किसकी?.. पर मुझे भविष्य की बातें सुनना बहुत अच्छा लगता था।
अगले दिन मैं फिर काम पर पहुचा तो सीधा मालिक का बुलावा आ गया। कुछ देर बाद पता चला कि मेरी पूरे हफ्ते की महनत बेकार हो गई। मेरे हर चित्र में दर्द मौजूद था। मेरे सारे पोट्रेट लाकर मुझे दिखाए गए। लगभग हर पोट्रेट में दर्द माथे की तरफ कहीं था। एक और अजीब बात थी... उस हफ्ते के लगभग सारे पोट्रेट में पीला रंग हावी था और कुछ चित्रों में तो मैं सिर्फ पीला ही रंग इस्तेमाल किया था। मालिक ने इस बार कोई कारण नहीं पूछा, मुझे कलाकार, पेंटर नाम की गाली दी और मुझे चलता किया... जाते-जाते एक पर्ची मेरे हाथ में थमा दी... उसमें वह रकम लिखी हुई थी जो मुझे अब मालिक को लौटानी थी... सत्रह हज़ार रुपये। पर्ची देखते ही मेरी पिंड़लियों का दर्द अचानक बढ़ गया। मैं धीरे-धीरे रेंगता हुआ सा वहाँ से निकला पड़ा।
नकल करने के अलावा मुझे ओर कुछ भी नहीं आता है। घर पर बैठे हुए मैं ओर नकल करने वाली चीज़ों के बारे में बहुत समय तक सोचता रहा.....मैं और क्या कर सकता हूँ। बहुत कम चीज़े मेरे हाथ लगी। सत्रह हज़ार रुपये वापिस देना है यह विचार ही मुझे थका देता है। बात पिंड़लियों के दर्द से शुरु हुई थी, दिमाग़ के दर्द पर पहुच गई थी। फिर यह चहरे का पीलापन...। एक दिन मैं अकेला काले महादेव पर जाकर बैठ गया। नदी अपनी गति में वहीं थी। कालेमहादेव बहुत से नारियलों के साथ वहीं पड़े हुए थे। पुजारी जी मेरे करीब से दो तीन बार गुज़रे पर चूकि मैं अकेला था सो उन्होने मुझे पहचानने से भी इनकार कर दिया। मुझे लगा सुमन के बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है यहाँ।
काले महादेव पर बैठे हुए अचानक मेरी तीव्र इच्छा हुई नकल करने की... सबकी नकल.. काले महादेव की, अपनी खिड़की से जिये हुए अकेले क्षणों की, बंद खिड़कियों की, सुमन की, मालिक की, गोलगप्पे वाले की... और सबकी... सभी चीज़ो की। मैं बहुत सारे रंग और कैनवास खरीद कर अपने कमरे में पहुचा.... और दरवाज़ा भीतर से बंद कर दिया।
मेरा जीवन उस दृश्य की तलाश में नहीं नीहित है जिसमें पहुचकर वह चित्र पूरा हो जाएगा.... बल्कि .... असल में मेरा पूरा चलना....एक चित्र का बनना है... जिसका कोई अंत नहीं है.. जैसे इस चित्र की कोई शुरुआत नहीं थी। सो मेरा चित्र जिस दिन खत्म होगा, उसे देखने के लिए मैं वहाँ नहीं होऊगाँ।... यह मुझे बहुत बाद में पता चला।
--------------------------------------

3 comments:

Zorba said...

as usual, unusual. gripping from the word go. thanks. it's an original word portrait of a नकल-नवीस।

Unknown said...

very interesting. Reached here through a press release for the "The Park". Would love to see it in Delhi also!

Vikash said...

ye line bahut pasand aayi, "पहली खिड़की के दो पलड़े है, एक मेरी माँ और दूसरा मेरे बाप के कमरे में खुलता है"

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails

मानव

मानव

परिचय

My photo
मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल