Wednesday, September 15, 2010

निर्मल और मैं....



निर्मल और मैं...
निर्मल- देखो इस बार मैं खुद ही चला आया बिना तुम्हारे बुलाए।
मैं- आपका इंतज़ार था मुझे।
निर्मल- तो इन दिनों क्या चल रहा है।
मैं- नाटकों का मौसम है.. सो नाटक कर रहा हूँ।
निर्मल- क्या पढ़ रहे हो?
मैं- बिलकुल नहीं के बराबर पढ़ाई है... अभी अगला नाटक पूरा नहीं किया है।
निर्मल- बीच में तुम कहानियों की तरफ मुड़े थे उसका क्या हुआ?
मैं- कुछ समय तक सीधे चल रहा हूँ.... जल्द फिर मुड़ जाऊंगा।
निर्मल- कहानी लिखने का अगर एक बार स्वाद चढ़ जाए तो फिर वह उतरता नहीं है। नाटकों में फिर भी बहुत से बाहरी तत्व काम करते हैं.. जो उसकी शुद्धता को दूषित करते रहते हैं... पर कहानी शुद्ध कला है... वह पतंगबाज़ी जैसी है... तुम्हारे म्मताज़भाई जैसी।
मैं- मेरे म्मताज़ भाई तो आप ही हैं..। मैं आपसे बिलकुल सहमत हूँ.. बहुत समय से इस नाटकों के वातावरण से अजीब सी दुर्गंध आने लगी है। शायद इसका कारण मैं ही हूँ... बहुत दिनों तक मैं एक जैसा जी भी नहीं सकता। मुझे लगता है कि मुझे नाटक बीच-बीच में करना चाहिए.. लगातार नहीं।
निर्मल- तुम्हारे लगने से अगर सब कुछ होता तो तुम इस वक़्त प्राग में बैठे होते।
मैं- हा....हा....हा....।
निर्मल- जो हो रहा है उसपर ध्यान दो, जो हो सकता है उसकी बात काल्पनिक दुनिया जैसी बात है, जो बहुत ही खतरनाक है। काल्पनिक दुनिया बाज़ार के लिए है उससे लोग अपना पेट.. घर.. अंह्म भरते है... उससे दूर ही रहो।
मैं- पर जो रियालिटी है वह कितनी उबाऊ है?
निर्मल- हाँ वह तो है ही.. कल्पना असल में रियालिटी का सेलिब्रेशन है... जैसे अकेलेपन का सेलिब्रेशन एक खूबसूरत आर्ट होता है।
मैं- आप चाय पीएगें?
निर्मल- बिलकुल पियूंगा।
मैं- इस बीच मेरा लिखे हुए ने मुझे बहुत ही संतुष्ट किया निर्मल जी।
निर्मल- अच्छा है।
मैं- पढ़ने को बहुत कुछ बचा है।
निर्मल- इन दो नाटकों के बाद पहाड़ चले जाना.. बहुत दिनों से तुम पहाड़ भी नहीं गए हो।
मैं- हाँ इस बार इच्छा है कि कहीं दो तीन महीने के लिए जाया जाए... किसी गांव में.. किसी छोटी सी जगह में सारा वक़्त बिता दिया जाए।
निर्मल- हाँ अच्छा है। यात्राएं बहुत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि कई बार जीवन में भूमिकाए ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है मुख्य कहानी से... उन भूमिकाओं को झाड़ते रहने के लिए... और कहानी पर बने रहने के लिए ज़रुरी है कि यात्राएं जीवन में बनी रहे।
मैं- आपको लगता है कि मेरे जीवन में भूमिकाए बढ़ती जा रही हैं?
निर्मल- उद्धाहरणार्थ है भाई यह...
मैं- नहीं पर आपने कहा भूमिका...
निर्मल- छोड़ो उसे लाओ चाय दो।
मैं- आपने अपने ख़त में वह अकेलेपन की बहुत ही सुंदर बात कही कि हम लोग अपना अकेलापन चुनते है.. और इस बात के लिए हमें कोई भी माफ नहीं करता।
निर्मल- हं.. west में अकेलापन एक स्थिती है.. हम लोगों के लिए नहीं।
मैं- मैं भी हर कुछ समय में असहज हो जाता हूँ।
निर्मल- सहजता कला है.. उसका रियाज़ ज़रुरी है... वह इतनी आसानी से नहीं आती।
मैं- बाद में मैं खुद को बहुत कोसता हूँ। पर तब तक देर हो चुकी होती है।
निर्मल- तुम्हारी नई कहानी कैसी चल रही है।
मैं- कल रात ही कुछ आगे बढ़ी है।
निर्मल- व्यक्ति जो लिखता है और जो उसे सहता है... इसमें अंतर है... और अंतर जितना बड़ा होता है.. कला उतनी ही अच्छी होती है।... किसी ने कहा है।
मैं- हाँ मैं जानता हूँ।
निर्मल- अभी जानते हो.. अब इसे समझो भी.... चलता हूँ।
मैं- जल्द मुलाकात होगी।
निर्मल- आशा करता हूँ।

5 comments:

अनिल कान्त said...

अपने से बातें बहुत अच्छी लगीं...बहुत कुछ अनकहा होते हुए भी कहा-कहा सा लगता है

Pratibha Katiyar said...

कल्पना असल में रियालिटी का सेलिब्रेशन है... जैसे अकेलेपन का सेलिब्रेशन एक खूबसूरत आर्ट होता है।

प्रवीण पाण्डेय said...

बातें मन खोलती हैं, भले ही अपने से ही क्यों न हो।

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

प्राग वाली बात पर ’हा हा हा’ को महसूस कर सकता हूँ :) ..
’निर्मल और मैं’ मेरी सबसे फ़ेवेरिट सीरीज है.. और सच में इस पंक्ति को कोट किये बिना आगे नहीं जाया जायेगा..

"कल्पना असल में रियालिटी का सेलिब्रेशन है... जैसे अकेलेपन का सेलिब्रेशन एक खूबसूरत आर्ट होता है"

सिर्फ़ वाह!

Udan Tashtari said...

बहुत सटीक!

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल