Sunday, January 9, 2011

निर्मल और मैं....


निर्मल- क्या हाल है भाई?
मैं- निर्मल जी नमस्कार है.. बड़े दिनों बाद आना हुआ?
निर्मल- तुम्हारी व्यस्तता ने तुमने मुझे याद ही नहीं किया।
मैं- मैं अभी ख़ाली हो चुका हूँ...।
निर्मल- ख़ली होना.. बड़ा काम है... अभी तुम भरे हुए हो।
मैं- हाँ मैं भरा हुआ हूँ... नहीं भरा होना भी बड़ा काम है.. मैं अभी बीच में हूँ... न खाली-न भरा हुआ।
निर्मल- कुछ विराम लो, बहुत जल्दी में हो।
मैं- विराम में दिमाग़ एक ढोल की तरह बजता रहता है... विराम में मैं बेक़ार की चीज़ों में व्यस्त हो जाता हूँ। मुझे लगता है कि मैं यात्रा पर जाता हूँ... पर यात्राओं में मैं बहुत भारीपन महसूस करता हूँ। मैं अपना सारा अतीत-वर्तमान और भविष्य साथ में ढोते-ढ़ोते थक चुका हूँ।
निर्मल- क्या पढ़ रहे हो आजकल?
मैं- पुराना पढ़ा हुआ... नया पढ़ने में अजीब सा डर लग रहा है। calvino पढ़ रहा हूँ पर बहुत ही धीरे... कहीं खत्म ना हो जाए के डर से।
निर्मल- इतना डर क्यों है?
मैं- पता नहीं... पुरानी पढ़ी हुई किताबों में अपने Mark किये हुए पन्नों को जब देखता हूँ तो अजीब लगता है। सोचता हूँ क्यों यह वाक़्य उस वक़्त अच्छा लगा था... अभी उसे पढ़ते हुए वह वाक़्य मुझे कुछ भी नहीं देता है... उन दिनों के पढ़े हुए की याद भी नहीं।
निर्मल- बहुत कुछ गुज़र चुका है.... वह एक धागे की तरह है जो तुम्हारे यहाँ तक पहुचने को एक कड़ी में बांधता है बस...। उससे ज़्यादा बीता हुआ कुछ भी नहीं है। बीता हुआ मृत है... उसकी राख़ को टटोलते रहने में एक किस्म का मज़ा भी है पर अगर तुम यह सोचते हो कि उस राख में अभी भी कुछ गरमाहट बाक़ी है तो यह तुम्हारी मूर्खता है और कुछ नहीं।
मैं- एक कहानी शुरु की है.... अजीब सी जगह पर जाकर खड़ी है वह...। मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि आपका लिखा हुआ अंत में आपको क्या देता है? मुझे तो मेरा सारा लिखा हुआ एक बोझिल खाली-पन की तरफ ले जाता है... जहाँ बार-बार मैं खुद से पूछता हूँ कि क्यों लिखा मैंने यह? क्या कोई समझ भी रहा है कि क्या लिखा है मैंने?
निर्मल- जीना और लिखना दो अलग कर्म है.. यह तो तुम्हें पता ही है... लिखने से जीने में पूर्णता मिलेगी यह बात एक छलावा है। जिए हुए का अधूरापन ही लिखने को प्रेरित करता है। पर लिखना क्या है? उस अधूरेपन में टहलना जैसा है... जहाँ बस कल्पना ही काम कर सकती है कि यहाँ यह हो सकता था। पर अगर वहाँ वह होता तो क्या तुम उसके बारे मे लिख सकते थे?
मैं- कभी भी नहीं...।
निर्मल- जीवन से अपेक्षा अगर कम होगी तो लिखने का मज़ा ले सकते हो।
मैं- आप चाय पीएगें?
निर्मल- ना... इतनी देर रात चाय?अभी चलूंगा।
मैं- नहीं ... इतनी जल्दी नहीं... अपसे बहुत बात करनी है।
निर्मल- बोलो?
मैं- क्या लिखना किसी से बदला लेना है?
निर्मल- हाँ...।
मैं- मैं किससे बदला ले रहा हूँ?
निर्मल- तुम जानते हो?
मैं- मैं बदला नहीं लेना चाहता हूँ।
निर्मल- यह तुम्हारे बस में नहीं है।
मैं- मतलब मेरा लिखना मेरे बस में नहीं है?
निर्मल- हाँ तुम यह भी कह सकते हो।
मैं- तो मैं क्या हूँ?
निर्मल- उससे फर्क़ नहीं पड़ता।
मैं- हाँ मुझे अपने से बहुत अपेक्षाएं है....।
निर्मल- शुरुआत को याद रखों... अंत स्वाभाविक है उसकी कभी चिंता मत करो।
मैं- मुझे लगता है कि देर रात मेरे पास ज़्यादा सवाल होते हैं...।
निर्मल- हाँ...।
मैं- बहुत सुंदर फिल्में देखीं हैं... आनंद आ गया।
निर्मल- जब calvino खत्म करों तो उसपर बात करेगें...।
मैं- बिल्कुल...
निर्मल- चलता हूँ... अगली मुलाकात तक...।

7 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

जीवन से अपेक्षा अगर कम होगी तो लिखने का मज़ा ले सकते हो।

बिना अस्तित्व हल्का किये लेखन कठिन हो जाता है।

Pratibha Katiyar said...

लिखने से जीने में पूर्णता मिलेगी यह बात एक छलावा है. जिए हुए का अधूरापन ही लिखने को प्रेरित करता है. पर लिखना क्या है? उस अधूरेपन में टहलना जैसा है...

सवाल भी मैं...जवाब भी मैं. निर्मल मानव या मानव निर्मल. अद्भाुत!

संजय कुमार चौरसिया said...

bahut achchhi vaarta

Nikhil Srivastava said...

बकौल निखिल...इतनी स्वच्छंद और इतनी निर्मल बातें वाकई मौन में ही हो सकती हैं. बहुत ही सच्चा और जरूरी वार्तालाप. कुछ पंक्तियों (प्रतिभा जी ने जिक्र किया है) ने झकझोर दिया.

मुकेश कुमार तिवारी said...

प्रिय मानव,

निर्मल झि के साथ संवाद लेखन के एक छिपे हुये चेहरे को उभारता है.... " जिए हुए का अधूरापन ही लिखने को प्रेरित करता है। पर लिखना क्या है? उस अधूरेपन में टहलना जैसा है... जहाँ बस कल्पना ही काम कर सकती है कि यहाँ यह हो सकता था। पर अगर वहाँ वह होता तो क्या तुम उसके बारे मे लिख सकते थे "

एक नई दिशा देता है सोच को।

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

@ngel ~ said...

nahi chahte hue bhi rukna pada... neeche se uper padhna pada... this is what I can call a true piece of art!
All the best with Writing!

Anonymous said...

tu bahut accha likhta hai.kab kis pal me ye pyari si chiz a gayi us pal ko salam. ADBHUD AANND HAI

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल