किससे कहूं अपने डरों और अंधेरे कोनों की बातें.. इसलिए तुम्हारे पास वापिस आया हूँ, बहुत दिनों के बाद। डरों और अंधेरे कोनों में ‘मुझे कुछ भी नहीं आता’ जैसी बातें छिपि है... कुछ समर्पण हैं... और बहुत से confessions....। इन सारी चीज़ों की एक टीस है जो हर कुछ समय में भीतर उठती रहती है।
अपनी बहुत सी बचकानी इच्छाओं को जबसे थोड़ा गंभीरता से देखना शुरु किया है तो लगता है, ग़लती कर दी... यह वह जगह नहीं है, या यह वह समय नहीं है... यहां इन बातों की किसी को ज़रुरत नहीं है, यह एक तरह से रेगिस्तान में नांव खींचने जैसी बात है। फिर कुछ ही पलों में खुद को खपा देने का.. या... खो जाने का भय नहीं.... मन करता है। दिन में बहुत देर तक अपनी बालकनी से आकाश ताकता रहता हूँ... वहीं कहीं कुछ छुपा है यह रात में लेटे-लेटे सोचता हूँ। सपने, डर नहीं रहस्य लिए हुए आते हैं... सुबह उठकर कभी उस रहस्य में कुछ खोज लेता हूँ या कभी कुछ खो देता हूँ। सुबह चाय बनाना सपने के रहस्य का ही हिस्सा लगता है... लगभग पूरी सुबह रात का स्पर्ष लिए हुए होती है। दिन का रंगीन जाल बहुत देर बाद अपना असर दिखाना शुरु करता है। किताबें देर रात की करवटों की तरह दिन में काम करती हैं। एक किताब पर बहुत देर तक रहा नहीं जाता। फिर बहुत करवटों के बाद किस किताब के किस पन्ने पर बहुत सुंदर नींद आ जाती है पता नहीं चलता। थका हूँ.... घिसट-घिसटकर कहीं पहुंच जाऊं कि वह दिखें... और मैं अपना सारा लिखा बहा सकूं.... और मुक्त हो जाऊं.... चुप-शांति की अग्नि के बगल में स्नान कर सकूं देर तक...। सिर घुटा लूं... कि तिलांजली देकर अपने सरल-सहज पद्चिन्हों को फिर से ढूंढ़ सकूं.... उन पर चल सकूं..। अपनी बचकानी इच्छाओं को गंभीरता से ना देखूं... उनसे उन्हीं की भाषा में खेल सकूं.....।
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