Wednesday, February 23, 2011

ख़त जैसा कुछ...

किससे कहूं अपने डरों और अंधेरे कोनों की बातें.. इसलिए तुम्हारे पास वापिस आया हूँ, बहुत दिनों के बाद। डरों और अंधेरे कोनों में ‘मुझे कुछ भी नहीं आता’ जैसी बातें छिपि है... कुछ समर्पण हैं... और बहुत से confessions....। इन सारी चीज़ों की एक टीस है जो हर कुछ समय में भीतर उठती रहती है।
अपनी बहुत सी बचकानी इच्छाओं को जबसे थोड़ा गंभीरता से देखना शुरु किया है तो लगता है, ग़लती कर दी... यह वह जगह नहीं है, या यह वह समय नहीं है... यहां इन बातों की किसी को ज़रुरत नहीं है, यह एक तरह से रेगिस्तान में नांव खींचने जैसी बात है। फिर कुछ ही पलों में खुद को खपा देने का.. या... खो जाने का भय नहीं.... मन करता है। दिन में बहुत देर तक अपनी बालकनी से आकाश ताकता रहता हूँ... वहीं कहीं कुछ छुपा है यह रात में लेटे-लेटे सोचता हूँ। सपने, डर नहीं रहस्य लिए हुए आते हैं... सुबह उठकर कभी उस रहस्य में कुछ खोज लेता हूँ या कभी कुछ खो देता हूँ। सुबह चाय बनाना सपने के रहस्य का ही हिस्सा लगता है... लगभग पूरी सुबह रात का स्पर्ष लिए हुए होती है। दिन का रंगीन जाल बहुत देर बाद अपना असर दिखाना शुरु करता है। किताबें देर रात की करवटों की तरह दिन में काम करती हैं। एक किताब पर बहुत देर तक रहा नहीं जाता। फिर बहुत करवटों के बाद किस किताब के किस पन्ने पर बहुत सुंदर नींद आ जाती है पता नहीं चलता। थका हूँ.... घिसट-घिसटकर कहीं पहुंच जाऊं कि वह दिखें... और मैं अपना सारा लिखा बहा सकूं.... और मुक्त हो जाऊं.... चुप-शांति की अग्नि के बगल में स्नान कर सकूं देर तक...। सिर घुटा लूं... कि तिलांजली देकर अपने सरल-सहज पद्चिन्हों को फिर से ढूंढ़ सकूं.... उन पर चल सकूं..। अपनी बचकानी इच्छाओं को गंभीरता से ना देखूं... उनसे उन्हीं की भाषा में खेल सकूं.....।

7 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रवाह जब रुकता है, विस्तार पा जाता है।

Pratibha Katiyar said...

निशब्द!

Anonymous said...

Happened to see two of your plays at META recently...I was completely awed by the sheer honesty...that is so rare in todays times. I would not waste my words in complimenting you on how wonderful your work is, because I somehow think you donot need any...nor care for them :) There is that strange detachment with which you go about your business...that probably can come only from doing something with full emerssion...totality... like consummation...
I however cannot help but think that when your journey seems so self-contained, why is there this strong an urge to communicate / express.....? Do you really need an audience...or wish for an audience....? Then, I think that may be you are actually communicating with yourself.... this is the canvas on which you throw your thoughts like daubs of paint so that you can see them...examine them...all of us, the "audience" are probably incidental...
Anyhow...I can just say...Happy Journey!

Zorba said...

ઓરડામાં એકાદ ચિત્ર હોય પૂરતું છે,
જીવનમાં એક સરસ મિત્ર હોય પૂરતું છે;
મિલાવ હાથ ભલે સાવ મેલોઘેલો છે,
હ્રદયથી આદમી પવિત્ર હોય પૂરતું છે.

Rakesh Roshan Bhat said...

Hi Manav.. I am desperately trying to reach you to discuss about my play on Kashmir. Please let me know your coordinates.

Regards
Rakesh
9819283336

rashmi ravija said...

Firstly want to say sorry...will read ur post later...am in hurry now....
bt tell me...R u in the film ."I am "??..saw ur name in starcast...bt cudnt recognize u :(

kya role tha aapka??...willing to write abt this film on my blog...
wud hv sent u a mail..bt ur id is nt there...if u wantto reply me in mail..
here is my id

rashmeeravija26@gmail.com

rashmi ravija said...

Just remember there is a character named 'Manav'in that film..

so is that u??

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल